कारों- बाईकों पर ढ़ोया गया डेढ़ लाख का सामान
शिमला/शैल। गुजरात के बाद हिमाचल में कागजों में करोड़ों का जीएसटी घोटाला कर 15 करोड़ रुपए का जीएसटी हड़पने वाले सिरमौर के दो उद्योगपतियों को पांच दिन के रिमांड पर भेजा गया है। गुजरात के बाद हिमाचल में सामने आया यह घोटाला देश में दूसरा जीएसटी घोटाला है।
कालाअंब से गिरफ्तार किए गए दोनों उद्योगपतियों को आबकारी व कराधान विभाग के अधिकारियों ने इन दोंनों कारोबारियों को कसौली में अतिरक्त मुख्य दंडाधिकारी की अदालत में पेश किया। एसीजेएम की अदालत ने इन दोनों को पांच दिन के रिमांड पर भेज दिया। चूंकि आबकारी व कराधान विभाग की अपनी कोई हिरासत नहीं है ऐसे में इन्हें पुलिस लॉकअप में रखा गया है व आगामी पांच दिनों तक आबकारी विभाग के अधिकारी इन दोनों से पूछताछ करेंगे।
विभाग के अधिकारियों के मुताबिक इन दोनों उद्योगपतियों ने बैटरी स्क्रैप को लीड इनगोटस में बदला व प्रदेश के कई डीलरों को बेच दिया। यह सब कुछ कागजों पर किया। इन्होंने कच्चे माल पर 18 फीसद जीएसटी अदा करने का दावा कर यह 18 फीसद जीएसटी सरकार से रिफंड ले लिया। इसके अलावा जिनको लीड इनगोटस बेचे उनसे 9 फीसद जीएसटी वसूलने का दावा किया। लीड इनगोटस पर 27 फीसद जीएसटी है। इनमें से 18 फीसद जीएसटी जिसे ये बेचे गए उसे अदा करना है व बाकी 9 फीसद बेचने वाले को अदा करना है। बेचने वाले का यह नौ फीसद रिफंड होना है। इन दोनों उद्योगपतियों ने यह नौ फीसद जीएसटी भी हड़प लिया।
मामले में पैरवी कर रहे वरिष्ठ वकील अंकुश दास सूद ने कहा कि इस तरह इन दोनों ने सारा कारोबार कागजों में दिखा कर 15 से 18 करोड़ रुपए जेब में डाल लिए। इन दोनों ने जाली बिल तैयार कर यह करनामा किया।
विभाग के अधिकारियों का कहना है कि इन कारोबारियों का गेम प्लान यह था कि अगर कर विभाग इन पर जुर्माना लगाता हैं तो उसके खिलाफ बड़ा वकील कर मामले को अदालतों में उलझा दो व सुप्रीम कोर्ट तक मामले को 30-40 सालों तक लटका दो। तब तक मामला रफा दफा हो जाएगा। लेकिन ये कारोबारी ये भूल गए कि अगर धोखाधड़ी सामने आ जाती है तो जीएसटी अधिनियम के तहत जेल की सजा का प्रावधान है। अगर धोखाधड़ी पांच करोड़ से ज्यादा है तो अधिनियम में पांच साल से ज्यादा की सजा का प्रावधान है। ये कारोबारी इसी प्रावधान के तहत दबोचे जा सके हैं।
दिलचस्प यह है कि यह सामान दिल्ली से कालाअंब तक कारों व बाइको में लाया गया बताया गया है। इससे पहले पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के सेब स्कूटरों व कारों में ढोए गए थे।
विभाग के अधिकारियों के मुताबिक इन उद्योगपतियों ने करोड़ों रुपयों के कच्चे माल की खरीद दिल्ली के कारोबारियों से दिखाई। विभाग ने दिल्ली के इन कारोबारियों को चिटिठयां भेज कर सम्मन किया लेकिन चिटिठयां वापस आ गई । अधिकारियों ने तीन कारोबारियों का मौके पर जाकर पता लगाया लेकिन जहां के पते दिए गए गए थे वहां कोई नहीं था। बताए गए पते पर दो स्थानों पर किन्हीं और कारोबारियों की दुकानें पाई गई।
जबकि तीसरी जगह फर्मासियूटिकल कंपनी का कार्यालय था। इन उद्योगपतियों की ओर से जिन तीन कारोबारियों से ये खरीद दर्शाई गई थी उन्हें पैन कार्ड में दिए गए पते से ट्रैक किया गया।
इनमें से एक टैक्सी ड्राइवर पाया गया। यह तेरह हजार की मासिक वेतन पर काम कर रहा था। इन उद्योगपतियों ने जिस दूसरी फर्म का नाम बताया था,वह दूध की डेयरी में चार हजार वेतन लेने वाले कामगार पाया गया।
जबकि तीसरी फर्म का मालिक एक फैक्टरी में मजदूर पाया गया। कागजों में इन तीन लोगों से दो महीनों में साठ करोड़ रुपए की बिक्री दर्शाई गई थी।
विभाग के अधिकारियों ने कहा कि इन लोगों ने शपथ पत्र देकर कहा है कि वह इन फर्मों के बारे में कुछ नहीं जानते हैं और उन्होंने किसी को कुछ नहीं बेचा। कागजों में दिल्ली से कालाअंब के लिए ढुलाई को लेकर कई गाड़ियों की आवाजाही दर्शाई गई हैं। पड़ताल के बाद ये कारें व बाइक पाई गई। इनकी ओर से ट्रांसपोर्टरों की ओर से दी गई रसीदें भी जाली पाई गई।
इन उद्योगपतियों को गिरफ्तार करने वाले आबकारी व कराधान विभाग के दक्षिणी प्रवर्तन जोन के संयुक्त आयुक्त सुनील कुमार ने कहा कि इस मामले की जांच में रूपिंदर सिंह इंस्पेक्टर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं।
शिमला/शैल। प्रदेश के प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में करीब एक वर्ष से सदस्यों के दो पद खाली चले आ रहे हैं। इन पदों को भरने के लिये तीन बार आवेदन भी आमन्त्रित किये गये। इस पर कई लोग अपने आवेदन भेज भी चुके हैं लेकिन किसी -न-किसी कारण से इसके लिये चयन नहीं हो पाया। यह चयन तीन सदस्यों की एक कमेटी ने करना था और यह तीन सदस्य होतें है प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश, ट्रिब्यूनल के चेयरमैन और मुख्य सचिव। इस कमेटी के सामने सारे आवेदनों को रखना और कमेटी की बैठक आयोजित करवाना यह जिम्मेदारी मुख्यसचिव की रहती है। सरकार भी मुख्यसचिव के माध्यम से ही अपने पसन्द के आदमी की सिफारिश कमेटी में करवाती है। ऐसे में मुख्य सचिव की भूमिका अन्य दो सदस्यों से थोडी अलग हो जाती है क्योेंकि जिन लोगों ने इसके लिये आवेदन कर रखे हैं उनका पिछला सर्विस रिकाॅर्ड कैसा रहा है, किसी के खिलाफ कभी कोई मामला तो खड़ा नहीं हुआ। यह सब जानकारी मुख्यसचिव के माध्यम से ही कमेटी के सामने आयेगी। इसमें यह मुख्य सचिव के अधिकार में रहता है कि वह पूरी जानकारी कमेटी के सामने रखें या ना रखें।
इन पदों के लिये वरिष्ठ नौकरशाह ही अधिकांश में आवेदन करते हैं। सूत्रों के मुताबिक इस बार इन पदों के लिये आवेदन करने वालों में कई अतिरिक्त मुख्यसचिव तथा कुछ मुख्यसचिव स्तर के लोग आवेदकों में शामिल हैं। वहां यह भी गौरतलब है कि कांग्रेस शासन के दौरान कई अधिकारियों के नाम एचपीसीए के खिलाफ बनाये गये मामलों में शामिल रहे हैं। एच पी सी ए के खिलाफ दर्ज एफआईआर और उसके आधार पर दायर हुये चालान को सर्वोच्च न्यायालय रद्द कर चुका है। लेकिन धर्मशाला काॅलेज के आवासीय परिसर को गिराये जाने को लेकर दर्ज हुई एफआईआर को सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द नही किया है। इस प्रकरण में भी कुछ वरिष्ठ अधिकारियों के नाम शामिल रहे हैं। इनमें से भी कुछ शायद इन पदों के आवेदकों में शामिल हैं।
इसी के साथ जब प्रदेश में कुछ वरिष्ठ अधिकारियों की वरीयता को नज़रअन्दाज करके उनसे कनिष्ठ को मुख्यसचिव बना दिया था तब नज़रअन्दाज हुए अधिकारियों ने कैट में इस नियुक्ति को चुनौती दे दी थी। इस चुनौती देने के बाद कैट ने यह निर्देश दिये थे कि वरिष्ठ अधिकारियों को भी कनिष्ठ के बराबर ही वेतन भत्ते और सुविधायें दी जायें। लेकिन कैट ने इस नियुक्ति को रद्द नही किया था। कैट में चुनौती देने वालों को यह कहा था कि वरीयता के संद्धर्भ में वह अपना प्रतिवेदन भारत सरकार को करें। कैट ने यह आदेश 13-10-2017 को किया था और इसकी अनुपालना में विनित चौधरी ने अपना प्रतिवेदन भारत सरकार को भेज दिया था। इस पर भारत सरकार ने 22-12-2017 को जो आदेश पारित किया है उसमें भारत सरकार ने चौधरी को केन्द्र में सचिव या उसके समकक्ष नियुक्ति के लिये उपयुक्त नही पाया है। भारत सरकार में इन पदों के लिये अधिकारियों की पात्रता की स्वीकृति एसीसी देती है। एसीसी से पहले केन्द्र के विशेष सचिवों की कमेटी अधिकारी का आकलन करती है। चौधरी का मामला इस सचिव कमेटी के सामने जून 2015 फिर नवम्बर 2015 को आया था और इन्हे इसका पात्र नही माना था। इसके बाद मार्च 2016 और जुलाई 2016 में फिर यह मामला कमेटी के सामने आया लेकिन इस बार कमेटी की राय में कोई बदलाव नही आया। फिर जब कैट के आदेश पर चौधरी ने अपना प्रतिवेदन केन्द्र को भेजा तब फिर 8-11-2017 को सचिव कमेटी ने इस पर पुनः विचार किया लेकिन कमेटी की राय में कोई बदलाव नही आया। पांच बार चौधरी का मामला कमेटी के सामने आ चुका है और हर बार कमेटी ने इसका अनुमोदन नही किया है।
सूत्रों के मुताबिक चौधरी भी प्रदेश के प्रशासनिक ट्रिब्यूूनल के आवेदकों में शामिल हैं। प्रदेश के मुख्य सचिव भी भी रह चुके हैं और मुख्यमन्त्री जयराम के विश्वास पात्रों में भी गिने जाते हैं। बतौर पूर्व मुख्य सचिव वह ट्रिब्यूनल के पद के लिये पात्रता में पहले स्थान पर माने जा रहे हैं। लेकिन भारत सरकार से जो आदेश प्रदेश के मुख्य सचिव को 22-12-2017 को प्राप्त हो चुका है उसके परिदृश्य में क्या कमेटी ट्रिब्यूनल के लिये उनका चयन कर पायेगी इस पर पूरे कर्मचारी वर्ग की निगाहें लगी हुई हैं।

शिमला/शैल। राजस्व एवम् भूसुधार अधिनियम की धारा 118 में 1988 में संशोधन करके उपधारा 3 जोड़ी गयी थी। इस संशोधन के मुताबिक जो भी जमीन धारा 118 के तहत अनुमति लिये बिना खरीद ली जाती है वह ऐसा सामने आने पर सरकार में विहित हो जायेगी। यह संशोधन 14-4-1988 से लागू हो गया था। इस संशोधन में ही यह प्रावधान कर दिया गया था कि कोई भी रजिस्ट्रार या उप रजिस्ट्रार ऐसा पंजीकरण नही करेगा जिसमें इसी अधिनियम की उपधारा एक की उल्लघंना की गयी हो। इस संशोधन में यह स्पष्ट कर दिया गया कि धारा 118 के तहत वांच्छित औपचारिकताओं की अनुपालना की सुनिश्चितता यह संबंधित राजस्व अधिकारी करेंगे। यह मूल अधिनियम 1972 से लागू है और इसमें यह प्रावधान किया गया कि कोई भी गैर कृषक प्रदेश में सरकार की अनुमति के बिना जमीन नही खरीद सकता। यह इस अधिनियम की धारा 118 में दर्ज है लेकिन इसमें राजस्व अधिकारियों की सीधी जिम्मेदारी नही लगायी गयी थी क्योंकि इसमें उपधारा तीन उस समय थी ही नही। लेकिन राजस्व अधिकारी राजस्व नियमों की अनुपालना सुनिश्चित करेंगे इसके लिये समय समय पर स्टैण्डिंग आर्डर जारी होते रहे हैं। इसका उद्देश्य यह रहा था कि यदि किसी खरीददार को धारा 118 के तहत अनुमति लेने की अनिवार्यता का पता नहीं है तो यह अधिकारी उसे इसकी जानकारी देंगे। लेकिन 14-4-1988 से पहले यह स्पष्ट प्रावधान नही था कि यदि 118 की अनुमति नही है तो ऐसी जमीन सरकार में विहित हो जायेगी।
एक व्यक्ति बलदेव किरण भल्ला ने 1984 में मकान के लिये जमीन खरीदी और उस पर मकान बना लिया उसने 118 में तहत खरीद की अनुमति नही ली थी और रजिस्ट्रार ने उसके बिना ही पंजीकरण कर दिया। रजिस्ट्रार ने 118 के बारे में कोई जिक्र ही नही किया। अब तीस वर्ष बाद इस आदमी की शिकायत हो गयी कि उसने बिना अनुमति के यह जमीन खरीदी है। अब यह आदमी राजस्व अदालतों के चक्कर काट रहा है। इसमें यह दिलचस्प हो गया है कि 118 की अनुमति के बिना रजिस्ट्रार ने जब पंजीकरण कर लिया जब इस व्यक्ति की गलती क्या है। फिर सरकार ने 2002 और 2003 में कुछ लोेगों को जमीन खरीद के बहुत बाद 118 की अनुमतियां दी हैं। ऐसे में यह सवाल खड़ा हो जाता है कि जब कुछ लोगों को ऐसी अनुमति दी जा सकती है तो फिर भल्ला को यह अनुमति क्यों नहीं मिल सकती।



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