Friday, 19 September 2025
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भाजपा मुख्यालय से सात सौ मीटर दूर हो रहा निर्माण सवालों में

शिमला/शैल। एन.जी.टी. के आदेश के बाद शिमला में नये निर्माणों पर रोक है। कोर ग्रीन और फॉरेस्ट एरिया में तो नये निर्माण किसी भी सूरत में नहीं हो सकते। इन क्षेत्रों में केवल पुराने निर्माणों की मुरम्मत या गिरने की सूरत में पुराने नक्शे के मुताबिक ही निर्माण की अनुमति मिल सकती है। अन्य क्षेत्रों में केवल अढ़ाई मंजिल के निर्माण की ही अनुमति मिल सकती है। इसके लिये भी दो कमेटियां गठित हैं। उनकी अनुमति के बाद ही निर्माण का नक्शा नगर निगम से पास होगा। एन.जी.टी. के इस आदेश पर जोशीमठ त्रासदी के बाद अमल कड़ाई से होने की चर्चाएं भी सामने आ रही हैं। 
लेकिन इसी दौरान शिमला में भाजपा के प्रदेश मुख्यालय दीप कमल से महज सात सौ मीटर दूर जंगल में हो रहा निर्माण चर्चा का विषय बना हुआ है। क्योंकि फॉरेस्ट एरिया में निर्माण पर पूर्ण प्रतिबन्ध है। चर्चा है कि इस निर्माण के लिये राजस्व विभाग के साथ मिलकर इस जगह की राजस्व रिकॉर्ड में किस्म बदली गयी है। यह भी चर्चा है कि निर्माण के लिये कई छोटे पेड़ों की बलि दी गयी है। रोचक यह है की निर्माण स्थल पर न तो किसी भाजपा नेता की नजर पड़ी और न ही पुलिस या अन्य किसी प्रशासन की। नगर निगम शिमला के चौकस प्रशासन की भी नजर से यह निर्माण अब तक ओझल चल रहा है। या अपरोक्ष में उसके आशीर्वाद से चल रहा है यह तो किसी जांच से ही सामने आयेगा।

सरकार फिजूलखर्ची को कैसे चिन्हित और परिभाषित करेगी गारन्टियों पर फैसलों से उठी चर्चा

  • क्या वितिय कुप्रबन्धन के लिये केवल राजनीतिक नेतृत्व ही जिम्मेदार रहे हैं?
  • क्या संबद्ध प्रशासन की इसमें कोई भूमिका नही है?
  • क्या मुख्य संसदीय सचिव प्रशासनिक अनिवार्यता है या राजनीतिक विवशता?
  • क्या कुप्रबंधन की भरपायी ब्यानों से ही हो जायेगी?
  • एक की राहत के लिये दूसरे को टैक्स करना कितना सही है?

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने अपनी सरकार की पहली ही मन्त्रीमण्डल बैठक में प्रदेश के कर्मचारियों के लिये पुरानी पैन्शन योजना बहाल कर दी है। इससे राज्य को 1.36 लाख कर्मचारी लाभान्वित होंगे और सरकार पर इसी वर्ष इसके लिये करीब 900 करोड़ का बोझ पड़ेगा। मुख्यमन्त्री ने पत्रकार वार्ता में दावा किया है कि इसके लिये धन का प्रबन्ध सरकार की फिजूलखर्चों पर लगाम लगाकर किया जायेगा। मन्त्रीमण्डल की इसी बैठक में महिलाओं को पन्द्रह सौ रुपए प्रतिमाह देने और युवाओं को एक लाख रोजगार उपलब्ध करवाने के फैसलों पर भी मोहर लगा दी गयी है। इन फैसलों के लिए विस्तृत योजनाएं बनाने को लेकर दो मन्त्री स्तरीय कमेटियों का भी गठन कर दिया गया है और यह कमेटीयां एक माह के भीतर सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। कांग्रेस ने अपने चुनाव प्रचार में जनता को दस गारंटियां दी थी और यह वायदा किया था कि उक्त तीनों फैसलों को मन्त्रीमण्डल की पहली ही बैठक में लागू कर दिया जायेगा। सुक्खू सरकार ने यह फैसले लेकर पार्टी के वायदों पर अमल किया है और यह पार्टी की विश्वसनीयता बढ़ाने में लाभप्रद होगा ऐसा माना जा रहा है।
अभी सरकार को सत्ता संभाले एक माह का समय हुआ है और सरकार को पूरे पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करना है। इसलिये सरकार के हर फैसले और हर वक्तव्य पर पहले दिन से नजर बनाये रखना आवश्यक होगा। क्योंकि इसका प्रभाव कार्यकाल के अन्त तक बराबर बना रहेगा। यहां यह भी उल्लेखनीय रहेगा कि उसका भाजपा जैसे विपक्ष से आमना-सामना रहेगा। मुख्यमन्त्री और उप मुख्यमन्त्री की शपथ के बाद दूसरे ही दिन सरकार ने पूर्व भाजपा सरकार के पिछले छः माह में लिये गये फैसलों पर रोक का आदेश जारी कर दिया। भाजपा इस पहले ही फैसले के खिलाफ सड़कों पर आ गयी और इसे चुनौती देते हुये प्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका तक दायर हो गयी है। इसके बाद पहले ही मन्त्रीमण्डल विस्तार में छः मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां करके एक और वैधानिक मुद्दा सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया है। कानून की जानकारी रखने वालों के मुताबिक इन नियुक्तियों की आवश्यकता नहीं थी। इन फैसलों का प्रभाव 2024 के लोकसभा चुनावों में देखने को मिलेगा।
नयी विधानसभा का पहला सत्र धर्मशाला में विधायकों के शपथ ग्रहण समारोह से शुरू हुआ है। इस सत्र में नेता प्रतिपक्ष पूर्व मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर सदन की शपथ से पहले ही नेता प्रतिपक्ष चुने जा चुके थे और मान्यता पा चुके थे। ऐसा पहली बार हुआ है। इसी सत्र में पिछली सरकार से विरासत में करीब 75000 करोड़ का ऋण मिलने और 600 करोड़ का धन बिना अनुमतियों और प्रावधानों के खर्च किये जाने का खुलासा भी सामने आया है। पिछली सरकार पर घोर वित्तीय कुप्रबन्धन का आरोप भी लगा है। इसी सबके साथ डीजल पर तीन रूपये प्रति लीटर वैट बढ़ाये जाने का फैसला भी जनता के सामने आया और तर्क यह दिया गया कि पिछली सरकार ने विधानसभा चुनावों के मद्देनजर यह वैट घटाया था। इसलिये पिछली सरकार के छः माह के फैसलों के दायरे में आने के कारण इसे भी पलट दिया गया। इसमें सरकार यह भूल गयी कि इससे आम आदमी को राहत मिली थी। अब यह तर्क दिया गया है कि इस वैट से होने वाली आय से 1.36 लाख कर्मचारियों को ओ.पी.एस. देने का प्रयोग किया जायेगा। इससे यह भी संकेत उभरता है कि हर राहत की भरपायी जनता से परोक्ष/अपरोक्ष में की जायेगी।
उद्योग मन्त्री हर्षवर्धन चौहान के ब्यान के मुताबिक सरकार की वित्तीय स्थिति बहुत नाजुक है। दैनिक खर्चे चलाने के लिये भी पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं है। विधानसभा सत्र में भी पिछली सरकार पर भारी वितिय कुप्रबंधन का आरोप लगा है। कुप्रबन्धन के बहुत सारे खुलासे कैग रिपोर्टों में दर्ज हैं। कांग्रेस अपना आरोप ‘‘लूट की छूट’’ के नाम से चुनाव प्रचार के दौरान जारी कर चुकी है। लेकिन अभी इस लूट की ओर कोई कारवाई किये जाने का संकेत तक सामने नही आया है। ऐसे में यह सवाल उभरने स्वभाविक है कि सरकार फिजूल खर्चो को चिन्हित कैसे करेगी? गारन्टियां पूरी करने के लिये किस वर्ग को कितना टैक्स करेगी? यदि पिछली सरकार के समय में भारी वित्तीय कुप्रबन्धन हुआ है तो क्या इसके लिये अकेले राजनीतिक नेतृत्व को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? क्या इसमें संबद्ध अफसरशाही की कोई जिम्मेदारी नही है? क्या इस कुप्रबन्धन की भरपाई केवल ब्यान देने मात्र से ही हो जायेगी? यदि कैग रिपोर्ट के आधार पर स्व.बी.एस.थिंड के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज हो सकता है तो उसी तर्ज पर और रिपोर्टों के आधार पर औरों के खिलाफ क्यों नही? सरकार फिजूल खर्ची रोकने की बात कर रही है। क्या मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां प्रशासनिक बाध्यता है और इस बाध्यता को पूर्व सरकार ने पूरा न करके कोई वैधानिक अपराध किया था या यह नियुक्तियां एक राजनीतिक विवशता बन गयी है? जनता में यह चर्चा का विषय बनता जा रहा है और इसके सामने फिजूलखर्ची चिन्हित और परिभाषित करना आसान नही होगा। क्योंकि जनता ने महंगाई और बेरोजगारी से पीड़ित होकर कांग्रेस को एक विकल्प के रूप में चुना है। यदि यह विकल्प भी व्यवस्था परिवर्तन के दावों के बीच पुरानी ही लकीरों को लम्बा करता रहा हम तो जनता के लिए घातक होगा और इसके परिणाम भी घातक हो होंगे?

क्या भाजपा की हार के लिए नड्डा और अनुराग ज्यादा जिम्मेदार है जयराम के नेता प्रतिपक्ष बनने से उभरी चर्चा

राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद प्रदेश भाजपा में बड़े बदलाव के संकेत
नड्डा और अनुराग दोनों के प्रभावित होने की संभावना
पार्टी की हार से जयराम के सारे प्रतिद्वन्दी हुए प्रभावहीन

शिमला/शैल। हिमाचल में भाजपा और जयराम सरकार के हार के कारणों पर अभी तक पार्टी की ओर से कोई आधिकारिक विश्लेषण सामने नही आया है। पार्टी के वरिष्ठ नेता पूर्व मुख्यमंत्री शान्ता कुमार जो अब मार्गदर्शक मण्डल के सदस्य हैं उन्होंने एक ब्यान में अवश्य कहा है कि भाजपा को भाजपा ने ही हराया है। पूर्व मुख्यमन्त्री और नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर भी भीतरघात की बात कर चुके हैं। पूर्व मन्त्री और पूर्व अध्यक्ष रहे चुके सुरेश भारद्वाज भी पार्टी के चुनाव प्रबन्धन तथा अन्तिम क्षणों में चुनाव क्षेत्रों को बदलने जैसे फैसलों पर सवाल उठा चुके हैं। पार्टी की परिवारवाद की अवधारणा पर भी सवाल उठाते हुये हार के कारणों के विश्लेषण की आवश्यकता पर जोर दे चुके हैं। लेकिन इस सबके बावजूद अभी तक औपचारिक रूप से कुछ भी सामने नहीं आ रहा है। इस समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा हिमाचल के बिलासपुर से ताल्लुक रखते हैं। इसी हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मन्त्री अनुराग ठाकुर ताल्लुक रखते हैं। इस संसदीय क्षेत्र में ही सत्रह में से केवल पांच पर भाजपा को जीत हासिल हुयी है। मण्डी संसदीय क्षेत्र को छोड़कर शेष पूरे प्रदेश में भाजपा का प्रदर्शन शर्मनाक रहा है। अब नड्डा का राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यकाल पूरा होने से पहले पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक होने जा रही है। माना जा रहा है कि इस बैठक के बाद प्रदेश संगठन में भारी बदलाव देखने को मिलेगा बल्कि नड्डा और अनुराग ठाकुर पर भी इसका असर पड़ने की संभावना है। हिमाचल की हार के कारण नड्डा को अभी दूसरा कार्यकाल मिलना कठिन माना जा रहा है।

लेकिन दूसरी और प्रदेश में हार के बाद नेता प्रतिपक्ष के लिये जयराम ठाकुर की जगह सतपाल सत्ती और विपिन परमार के नाम चर्चा में आ गये थे। परन्तु जयराम ठाकुर ने विधायकों की शपथ से पहले ही अपने को नेता प्रतिपक्ष चुने जाने की सफल व्यूह रचना कर डाली। बल्कि नेता प्रतिपक्ष की मान्यता तक हासिल कर ली। यही नहीं अपने विश्वस्त रहे अधिकारियों की ताजपोशी भी कांग्रेस सरकार में करवा ली। मन्त्रीमण्डल बनने से पहले ही सरकार के फैसलों पर प्रदेश भर में धरने प्रदर्शनों का विषय बना दिया। मामले को उच्च न्यायालय तक पहुंचा दिया। इस समय विपक्ष सरकार पर लगातार प्रभावी भूमिका में चल रहा है। मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्ति को भी उच्च न्यायालय में ले जाने की तैयारी हो रही है। कांग्रेस को बतौर विपक्ष जयराम की सरकार पर प्रभावी होने के लिए लम्बा समय लगा था। लेकिन जयराम को पहले ही दिन मुद्दे मिल गये हैं। अब इन मुद्दों को लगातार जिन्दा रखना कठिन नहीं होगा।
दूसरी और पार्टी की हार के लिये जयराम से ज्यादा जगत प्रकाश नड्डा और अनुराग पर आरोप लगने लग गये हैं। क्योंकि हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में सबसे ज्यादा हार मिली है। नादौन में अमित शाह की चुनावी जनसभा के बावजूद हार के लिये मण्डल इकाई ने एक पत्र लिखकर सारी जिम्मेदारी यहां से ताल्लुक रखने वाले राज्यसभा सांसद हमीरपुर के नाम लगा दी है और सिकन्दर को अनुराग का करीबी करार दे दिया है।
सुरेश भारद्वाज जैसे नेताओं के अन्तिम क्षणों में चुनाव क्षेत्र बदलने के फैसले राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा के नाम लगा दिये गये हैं। जब सरकार में नेतृत्व परिवर्तन या मन्त्रीयों की छंटनी करने और उनके विभाग बदलने की चर्चाएं उठती थी तो उन्हें नड्डा के नाम पर शान्त करवा दिया जाता था। अन्त में चुनाव क्षेत्र बदलने के शिकार हुये नड्डा के करीबी राकेश पठानिया। स्वयं को मुख्यमंत्री पद का प्रबल दावेदार मानने वाले सुरेश भारद्वाज। पूरे कार्यकाल में हर मुद्दे पर जयराम को गुमराह करने का आरोप झेलते रहे सबसे ताकतवर नेता महेन्द्र सिंह का टिकट काटकर उन्ही के बेटे को टिकट देकर वहां का राजनीतिक गणित बदल गया। क्योंकि शुरू में ही भाई-बहन का राजनीतिक टकराव शान्त करने में ही महेन्द्र सिंह की सारी ताकत लग गयी। इस तरह अनायास ही पार्टी के भीतर बैठे जयराम के सारे प्रतिद्वन्दी अपने-अपने चक्रव्यूह में ही उलझ कर रह गये। जयराम इस शतरंज में कैसे नेता प्रतिपक्ष का पद झटक गये इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं गया और बतौर नेता प्रतिपक्ष वह सरकार को कैसे घेरते हैं और लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन कैसा रहता है यह देखना दिलचस्प होगा।

सुक्खू सरकार में शामिल हुये सात मन्त्री

पहले ही विस्तार में गड़बड़ाया क्षेत्रीय और जातीय सन्तुलन
तीन पद रखे गये खाली
मन्त्रीमण्डल विस्तार के साथ ही डीजल के दाम बढ़ाना महंगा पड़ सकता है

शिमला/शैल। सुक्खू मन्त्रीमण्डल का पहला विस्तार हो गया है। इस विस्तार में सात विधायकों को मन्त्री बनाया गया है। जिनमें कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से चौधरी प्रो.चन्द्र कुमार मण्डी संसदीय क्षेत्र से जगत सिंह नेगी और शिमला संसदीय क्षेत्र से पांच सर्व श्री धनीराम शांडिल, हर्षवर्धन चौहान, रोहित ठाकुर, अनिरुद्ध सिंह और विक्रमादित्य सिंह मंत्री बने हैं। अभी मन्त्री परिषद में तीन स्थान खाली रखे गये हैं। मन्त्रीमण्डल के इस गठन में क्षेत्रीय और जातीय दोनों संतुलित संतुलन यहीं गड़बड़ा गये हैं क्योंकि पन्द्रह विधायकों वाले प्रदेश के सबसे बड़े जिले से केवल एक ही मन्त्री लिया गया है। जबकि शिमला संसदीय क्षेत्र से पांच और आठ विधायकों वाले शिमला जिला से तीन मन्त्री लिये गये हैं। अभी बिलासपुर जिला को प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है और मण्डी भी खाली रह गया है। यह स्थिति जनता और विधायकों में रोष पैदा करेगी यह स्वभाविक है। इसका असर निश्चित तौर पर अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा यह भी तय है। ऐसे में विश्लेषकों के सामने यह बड़ा सवाल खड़ा हो गया है कि एक माह के भीतर ही सुक्खू सरकार के लिये इस तरह के हालात क्यों बनने लगे हैं। इस स्थिति को समझने के लिये चुनाव से पूर्व की स्थितियों पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। यह एक कड़वा सच है कि स्व. वीरभद्र सिंह अपने अन्तिम सांस तक प्रदेश कांग्रेस के एक छत्र नेता थे और उस वटवृक्ष के तले उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई भी नेता पनप नहीं पाया है। स्व. पंडित सुखराम ने उनसे टकराने का प्रयास किया और कांग्रेस से बाहर तक होना पड़ा। पंडित सुखराम ने अपने समय में कुछ युवा चेहरों को उभारने का प्रयास किया था। सुखविंदर सिंह सुक्खू भी उनमें से एक रहे हैं और यही एक होना स्व. वीरभद्र सिंह को यदा-कदा खटखटा रहा। इसी मानसिकता में सुक्खू को प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटाने के लिये वह आनन्द शर्मा के प्रस्ताव पर सहमत हुये और कुलदीप राठौर पार्टी के अध्यक्ष बनाये गये। सुक्खू का वीरभद्र सिंह के साथ टकराव ही सुक्खू की ताकत बन गया। वीरभद्र सिंह की मृत्यु के बाद हाईकमान की नजरों में सुक्खू एक बड़ा नाम बन गये। क्योंकि आनन्द शर्मा और कौल सिंह जी-23 का हिस्सा बन गये। उधर वीरभद्र सिंह की मृत्यु के बाद उनके राजनीतिक वारिसों में किसी एक नाम पर सहमति हो नहीं पायी। बल्कि वीरभद्र सिंह की मृत्यु के बाद कांग्रेस से भाजपा में जाने वाले संभावितों की संख्या में वीरभद्र समर्थकों के ज्यादा नाम चर्चित होते रहे हैं। बल्कि चुनाव परिणामों के बाद भी जिस तरह की जितनी खबरें प्रतिभा सिंह को लेकर छपी है वह सब भी इसी आयने से देखी गयी है। इस परिदृश्य में चुनाव परिणामों के बाद सुखविंदर सिंह सुक्खू, प्रतिभा सिंह और मुकेश अग्निहोत्री मुख्यमंत्री के प्रबल दावेदारों में एक बराबर बने रहे हैं। शायद सुक्खू अपने में बहुत ज्यादा आश्वस्त नहीं थे इसलिए वह प्रशासनिक अधिकारियों में से अपनी टीम का पहले चयन नहीं कर पाये और उन्हें पिछली सरकार के विश्वस्तों पर ही निर्भर करना पड़ा। इस निर्भरता में यह तक आकलन नहीं हो पाया कि जो फैसले लिये जा रहे हैं उनका कानूनी आधार कितना पुख्ता है। प्रशासनिक फैसले के साथ ही जब डीजल के दाम वैट के माध्यम से बढ़ा दिये गये तो यह धारणा और भी पुख्ता हो जाती है कि प्रशासन की निष्ठा स्पष्ट नहीं है। क्योंकि जनता महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त थी इसलिये उसने कांग्रेस को चुना। लेकिन वैट के माध्यम से डीजल के रेट बढा़ने और नये मन्त्रीयों तथा मुख्य संसदीय सचिवों के लिये महंगी गाड़ियां खरीदने की खबरें एक साथ हो तो उसका आम आदमी पर क्या असर पड़ेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। क्योंकि जब प्रशासन ने ओ.पी.एस. के लिये एन.पी.एस. में दिये गये आठ हजार करोड़ केन्द्र से वापस मांगे तब उसे पता था कि इस एक्ट में पैसे वापस दिये जाने का प्रावधान नहीं है। इसलिये कर्ज लेने के प्लान बी पर सरकार को चला दिया जिसके परिणाम दूरगामी होंगे।
जब सरकार वित्तीय संकट से जूझ रही हो तो उसी समय यदि उसके राजनीतिक समीकरण भी गड़बड़ाने लग जायें तो ऐसी स्थिति से बाहर निकलना आसान नहीं होगा।

 

क्या भाजपा की याचिका प्रशासन के षड्यन्त्र का परिणाम है याचिका में आये मुद्दों से उठी चर्चा

ग्यारह दिसम्बर को शपथ लेने के बाद 12 दिसम्बर को ही फैसला क्यों
मन्त्रीमण्डल के फैसलों की समीक्षा विधायकों की कमेटी में कैसे संभव है
नागरिक उपमण्डल कार्यालय खोलने के लिये जब उच्च न्यायालय की अनुमति चाहिये तो बन्द करने के लिए भी क्यों नहीं चाहिये
बिजली बोर्ड का कोई भी कार्यालय सर्विस कमेटी की अनुमति के बिना नहीं खुल सकता
इस सर्विस कमेटी का मुखिया प्रदेश का मुख्य सचिव या अतिरिक्त मुख्य सचिव वित्त होता है
क्या डिनोटिफिकेशन के फैसले याचिका के आर्ड में शीर्ष प्रशासन पर सवाल नहीं उठते?

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने पिछली जयराम सरकार द्वारा 1 अप्रैल 2022 से 13-10-2022 तक खोले गये सारे संस्थानों को 12-12-2022 को एक फैसला लेकर बन्द करने के आदेश जारी किये हैं। अब इन आदेशों को भाजपा ने अपने प्रदेश अध्यक्ष एवं सांसद सुरेश कश्यप के माध्यम से उच्च न्यायालय में एक याचिका डालकर चुनौती दे दी है। सरकार पर आरोप लगाया गया है कि उसने बिना किसी समुचित विचार विमर्श के केवल राजनीतिक द्वेष से ग्रसित होकर यह आदेश जारी किये हैं। इस पर सरकार के महाधिवक्ता ने उच्च न्यायालय में यह दलील रखी है कि भाजपा अध्यक्ष को यह याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है। इस परिपेक्ष में उच्च न्यायालय का क्या मत रहता है यह देखना आवश्यक हो जाता है और तब तक इस पर कोई राय रखना संगत नहीं होगा।
लेकिन सरकार के इस फैसले से प्रदेश की राजनीति में एक उबाल आ गया है। प्रदेश के हर भाग में भाजपा इस फैसले के खिलाफ धरने प्रदर्शनों पर आ गयी है। नेता प्रतिपक्ष पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने पहले दिन ही अपनी प्रतिक्रिया में स्पष्ट कर दिया था कि इन फैसलों को अदालत में चुनौती दी जायेगी और अब इस आश्य की याचिका भी दायर हो गयी है। यह विषय गंभीर है इसलिये इसके गुण दोषो पर टिप्पणी किये बिना याचिका में रखे गये तथ्यों को ही कुछ प्रश्नों के साथ जनता के सामने रखना होगा। क्योंकि यह याचिका प्रदेश के शासन और प्रशासन पर कई गंभीर सवाल खड़े करता है। जिनके परिणाम शायद इस सरकार के पूरे कार्यकाल में प्रसांगिक रहेंगे।
विधानसभा के चुनाव परिणाम 8 दिसंबर को आये कांग्रेस को बहुमत मिला और उसकी सरकार बनाने की कवायद शुरू हो गई। परिणामतः सुखविंदर सिंह सुक्खू कांग्रेस विधायक दल के नेता चुन लिये गये और 11 दिसंबर को उन्हें मुख्यमंत्री और मुकेश अग्निहोत्री को उप मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई गयी। इस दो सदस्यों की सरकार ने 12 दिसंबर को ही पिछली सरकार के फैसलों पर यह फैसला ले लिया जिसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है। अप्रैल 22 अक्तूबर 2022 तक जयराम सरकार ने सैकड़ों संस्थान खोले थे जो इस फैसले से बन्द कर दिये गये हैं। क्या इतना बड़ा फैसला लेने के लिये एक दिन का ही समय लेना समुचित विचार विमर्श के लिये पर्याप्त समय हो सकता है यह सवाल उठाया गया है। इसी के साथ यह भी आरोप है कि पिछली सरकार के पूरे मन्त्रीमण्डल द्वारा लिये गये फैसलों की समीक्षा विधायकों की एक कमेटी ने की है। संबद्ध विधायकों ने एक पत्रकार वार्ता में यह स्वयं स्वीकारा भी हैं। विधायकों ने यह सब शपथ लेने से और कमेटी के औपचारिक गठन के बिना ही ऐसा किया है। क्या विधायक मन्त्रीमण्डल के फैसलों पर सदन के बाहर कोई अधिकारिक चर्चा कर सकते हैं यह सवाल भी उठाया गया है।
तहसील देहरा के रक्कड़ और कोटाला बेहड़ में दो एसडीएम कार्यालय खोले गये थे यह कार्यालय खोलने की प्रक्रिया में प्रदेश उच्च न्यायालय से भी अनुमति लिया जाना अनिवार्य होता है। याचिका में कहा गया है कि यह वंच्छित अनंुमतियां लेकर ही यह उपमण्डल नागरिक के कार्यालय खोले गये थे। स्वभाविक है कि इन्हें बन्द करने के लिए भी उच्च न्यायालय की अनुमति वांछित होगी। सरकार के इस फैसले पर उच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया क्या रहेगी यह आने वाले दिनों में पता चलेगा। इसी तरह राज्य बिजली बोर्ड के कार्यालय खोलने के लिये भी विभिन्न स्तरों की लंबी प्रक्रिया रहती है। अंत में इस आशय के सारे प्रस्ताव विद्युत बोर्ड की सर्विस कमेटी के पास जाते हैं। बिजली बोर्ड की सर्वाेपरि कमेटी है इसकी अनुमति के बिना बोर्ड में कुछ नहीं घट सकता। स्वभाविक है कि बोर्ड के कार्यालय बन्द करने के लिये भी यही प्रक्रिया रहेगी। इस सर्विस कमेटी का मुखिया सरकार का मुख्य सचिव या अतिरिक्त मुख्य सचिव रहता है। याचिका में यह तथ्य दर्ज है इसका अर्थ है कि सुक्खू सरकार के मुख्य सचिव और मुख्य सूचना आयुक्त इस प्रक्रिया के अंग रहे हैं। इनकी सहमति के बिना विद्युत बोर्ड में न कोई कार्यालय खुल सकता है और न ही बन्द हो सकता है।
इस याचिका से यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्व सरकार के इन संद्धर्भित फैसलों में प्रदेश के मुख्य सचिव और वित्त सचिव की भूमिका प्रमुख रही है और आज भी है। ग्यारह दिसम्बर को शपथ लेने के बाद बारह दिसम्बर को ही सरकार ने यह फैसला ले लिया। यह फैसला लेने के लिये विधायकों की जिस कमेटी की सिफारिशों को आधार बनाया गया उसकी शायद बैठक ही इस फैसले के बाद हुई है। कांग्रेस ने चुनावों में ही स्पष्ट कर दिया था कि वह जयराम सरकार के फैसलों की समीक्षा करेगी। शीर्ष प्रशासन को इसकी जानकारी थी। प्रशासन को यह भी पता था कि जिस तरह से फैसला लेने के लिये एक तय प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है उसी तरह फैसला पलटने के लिए भी प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। याचिका में आरोप लगाया गया है कि संस्थान बन्द करने का फैसला लेने के बाद प्रशासनिक विभागों से इस आशय के प्रस्ताव लिये जा रहे हैं। ऐसे में यह स्वभाविक सवाल उठ रहा है कि यदि संस्थानों को बन्द करने का फैसला लेने से पहले इनकी उपोदयता और प्रसंगिता को लेकर एक विधिवत व्यवहारिक रिपोर्ट ले ली जाती तो न ही भाजपा को पहले ही दिन सड़कों पर उतरने का मौका मिलता और न ही इस तरह की कोई याचिका उच्च न्यायालय में आने की नौबत आती। यह एक तकनीकी और वैधानिक मुद्दा था और इस पर शीर्ष प्रशासन को राजनीतिक नेतृत्व के सामने सारी स्थिति विस्तार से रखनी चाहिये थी। लेकिन शायद ऐसा हो नहीं पाया। बल्कि संयोग ऐसा घटा कि जब प्रशासन के शीर्ष पर 31 दिसम्बर रात को मुख्य सचिव और मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्तियों के फैसलों पर पहली जनवरी को अनुपालना सुनिश्चित होने के बाद दो जनवरी को भाजपा की है याचिका उच्च न्यायालय में दायर हो जाती है। इस याचिका में जिस तरह से कुछ तकनीकी पक्षों को उभारा गया है उससे यह गंघ आती है कि प्रशासन ने जानबूझकर सरकार को उलझाने का प्रयास किया है।

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