Thursday, 18 September 2025
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भाजपा और कांग्रेस दोनों के केंद्रीय नेतृत्व की परीक्षा होंगे यह चुनाव परिणाम

हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं इन चुनावों के परिणाम देश की राजनीति पर गंभीर प्रभाव डालेंगे यह तय है। क्योंकि जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने और केन्द्र शासित प्रदेश बनाने के लम्बे समय बाद शीर्ष अदालत के निर्देशों की अनुपालना करते हुये यह चुनाव हो रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में मुस्लिम समुदाय बहुसंख्यक है। मुस्लिम समुदाय के प्रति भाजपा का राजनीतिक दृष्टिकोण क्या और कैसा है इसका पता इसी से चल जाता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने शायद एक भी मुस्लिम को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया था और केंद्रीय मंत्री परिषद में इस समुदाय से कोई भी मंत्री नहीं है। इसी दौरान प्रस्तावित वक्फ संशोधन विधेयक के बाद पूरे देश में वक्फ संपत्तियों को लेकर जो वातावरण उभरा है उसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि में जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव परिणामों का देश की राजनीति पर एक दूरगामी प्रभाव पढ़ना निश्चित है। इसी तरह हरियाणा में तीन कृषि कानूनों का आना और किसान आन्दोलन के बाद उनका वापस लिया जाना तथा अब फिर उन कृषि कानूनों को भाजपा सांसद कंगना रनौत द्वारा लागू किये जाने की मांग के साथ ही हरियाणा का चुनावी परिदृश्य रोचक हो गया है। दोनों प्रदेशों में चुनाव प्रचार के केन्द्रीय ध्रुव प्रधानमंत्री और गृह मंत्री हैं।
भाजपा और संघ के रिश्ते न चाहते हुये भी पिछले लोकसभा चुनावों से जन चर्चा का विषय बन गये हैं। इन्हें जन चर्चा में लाने के लिये भाजपा अध्यक्ष ज.ेपी. नड्डा का वह ब्यान जिम्मेदार है जिसमें उन्होंने कहा था कि भाजपा को संघ के मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं है। तब यह उम्मीद थी की राम मंदिर की पृष्ठभूमि में भाजपा अकेले ही चुनावों में चार सौ का आंकड़ा छू लेगी। लेकिन चुनाव परिणामों ने सारा परिदृश्य ही बदल दिया। भाजपा अकेले सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं ला पायी। अब भाजपा अगला राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनने में ही उलझ गयी है। इसमें भाजपा और संघ का टकराव न चाहते हुये भी सार्वजनिक चर्चा में आ गया है। ऐसे में इन दो राज्यों में हो रहे चुनाव प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के लिये अपने को प्रमाणित करने का अवसर बन गये हैं कि उनके बिना भाजपा का भविष्य सुरक्षित नहीं है। इन दोनों राज्यों में भाजपा को केवल कांग्रेस से ही चुनौती है। इस चुनौती में कांग्रेस की राज्य सरकारों की परफॉरमैन्स को प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों ही बड़ा मुद्दा बनाकर उछाल रहे हैं।
हिमाचल के वित्तीय संकट के परिदृश्य में कांग्रेस द्वारा चुनावों में दी गयी गारंटीयां और प्रदेश सरकार द्वारा लिये जा रहे फैसले स्वतः ही व्यवहारिक अविश्वसनीयता का शिकार होते जा रहे हैं। कर्नाटक में मुख्यमंत्री के अपने खिलाफ जांच के आदेश हो चुके हैं। मामला गंभीर है। लेकिन इसी बीच कर्नाटक की ही एक अदालत चुनावी बाण्डज़ प्रकरण में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, कर्नाटक भाजपा के नेता और ई डी अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने से जो स्थिति निर्मित हुई है उसका वांच्छित राजनीतिक लाभ मिल पाना इतना आसान नहीं होगा। भले ही यह एफ आई आर पूरी कानूनी प्रक्रिया से गुजर कर हुई है और यह राष्ट्रीय स्तर पर एक समय इसके मायने बहुत गंभीर हो जायेंगे यह भी तय है। लेकिन यह एफ आई आर मुख्यमंत्री के अपने खिलाफ आये जांच आदेशों के बाद हुई है। इसलिये तात्कालिक रूप से इसका चुनावी परिदृश्य पर कोई बड़ा असर पढ़ने की संभावनाएं बहुत कम हैं। इस परिदृश्य में इन दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम कांग्रेस से ज्यादा भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व पर ज्यादा प्रभाव डालेंगे। कांग्रेस शासित राज्य सरकारों की परफॉरमैन्स का यदि केंद्रीय नेतृत्व कड़ा संज्ञान लेकर कोई कारवाई नहीं करता है तो उसका असर इसके बाद आने वाले राज्यों के चुनावों पर पड़ेगा।

राहुल गांधी की अमेरिका यात्रा पर क्यों उठी यह प्रतीक्रियाएं

संसद में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की अमेरिका यात्रा को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सत्तारूढ़ भाजपा के नेताओं की सामने आयी हैं उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा नेतृत्व गांधी को अपने लिये चुनौती मान रहा है। क्योंकि यह प्रतिक्रियाएं भाजपा के केंद्रीय मंत्री सांसद और विधायक स्तर के लोगों से आयी हैं। इन हिंसात्मक प्रतिक्रियाओं का कड़ा संज्ञान लेने के लिये जब कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष खड़गे ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपनी चिन्ता जताई तो उसके जवाब में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने खड़गे को एक तीन पृष्ठों का पत्र भेज दिया। नड्डा ने अपने पत्र में कांग्रेस को उन सारे ब्यानों और प्रतिक्रियाओं का स्मरण करवा दिया जो अब तक कांग्रेस के शीर्ष नेता से लेकर कार्यकर्ताओं तक के ब्यान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर रहे हैं। नड्डा ने अपने तीन पृष्ठों के जवाब में जो भी रिकॉर्ड पर सामने रखा है उसमें ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है जो सीधे हिंसा को आमंत्रित करता हो। बल्कि नड्डा के इस जवाब के बाद भाजपा के लोगों ने छत्तीसगढ़ में राहुल के खिलाफ मामला दर्ज करने की तीन शिकायतें भेजी है। शिमला में भी इस आश्य की एक शिकायत आयी है। कांग्रेस शासित राज्य कर्नाटक में भाजपा के केंद्रीय मंत्री के खिलाफ एक मामला दर्ज हुआ है। शिमला में मुख्यमंत्री ने इस प्रकरण पर एक सामान्य प्रतिक्रिया जारी की है। शिमला से ही विधायक और कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता कुलदीप राठौर ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए गांधी परिवार के लिये एस.पी.जी. सुरक्षा उपलब्ध करवाने की मांग की है।
राहुल गांधी के अमेरिका में जिस वक्तव्य पर भाजपा में इतनी तीव्र प्रतिक्रियाएं उभरी है उस ब्यान को और स्पष्ट करते हुये राहुल ने हर व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता की बात की है। हर व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता हासिल होनी चाहिये चाहे वह कोई भी हो। सिद्धांत रूप से इस पर कोई दो राय नहीं हो सकती। धार्मिक स्वतंत्रता की वकालत करना कोई अपराध नहीं है। इन प्रतिक्रियाओं का प्रतिफल क्या होगा? यह प्रतिक्रियाएं इस भाषा में क्यों आयी हैं? केवल राजनीतिक लोगों ने ही ऐसी प्रतिक्रियाएं क्यों दी हैं यह समझना आवश्यक है। ऐसी प्रतिक्रियाएं राजनीतिक वातावरण का ही प्रतिफल होती हैं यह एक स्थापित सच है। इस समय केंद्र में मोदी की सरकार उसके सहयोगियों पर ही निर्भर है। मोदी इस निर्भरता से बाहर निकलना चाहते हैं। इसके लिये अपने दम अकेले भाजपा का बहुमत बनाने के लिये या दूसरे दलों को तोड़कर उनका विलय अपने में किया जाये या फिर किसी कारण से देश में नये चुनावों की परिस्थितियों पैदा की जायें। इस समय राष्ट्रीय दलों के नाम पर कांग्रेस-भाजपा के अतिरिक्त कोई तीसरा नहीं है। शायद लोकसभा चुनावों में यह उम्मीद ही नहीं थी कि कांग्रेस अपने दम पर नेता प्रतिपक्ष तक पहुंच जाएगी।
मोदी सरकार के पिछले दोनों कार्यकालों में चिन्तन और चिन्ता का सबसे बड़ा मुद्दा सरकारी उपक्रमों को योजनाबद्ध तरीके से निजी क्षेत्र के हवाले करने का रहा है। राहुल गांधी और पूरा विपक्ष इस मुद्दे पर मुखर था। रुपया डॉलर के मुकाबले लगातार कम होता गया है। आज विदेशी कर्ज 205 लाख करोड़ हो गया है। आईएमएफ ने स्पष्ट कहा है कि यदि इसी रफ्तार से विदेशी कर्ज बढ़ता रहा तो यह शीघ्र ही जी.डी.पी. का सौ प्रतिशत हो जायेगा और यह कर्ज चुका पाना कठिन हो जायेगा। इस मुद्दे पर उठे सवालों का ही परिणाम है कि केंद्र में भाजपा को अपने दम पर बहुमत नहीं मिल पाया। आज भी स्थितियां सुधरी नहीं है। इन स्थितियों पर कोई बड़ा सार्वजनिक संवाद न खड़ा हो जाये और भाजपा को अपने दम पर बहुमत भी हासिल हो जाये यह इस समय की आवश्यकता है। यह संवाद छेड़ने की क्षमता इस समय राहुल गांधी के अतिरिक्त किसी दूसरे नेता में शायद नहीं है। नरेंद्र मोदी ने भी कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक वातावरण तैयार करने के लिए विदेश यात्राओं का ही सहारा लिया था और आज राहुल भी इस लाइन पर चल रहे हैं। इसलिये राहुल गांधी को विवादित बनाना मोदी सरकार की शायद आवश्यकता है। इसी के साथ हिन्दू कार्ड को उभारने के लिये वक्फ संशोधन विधेयक के नाम पर एक मुद्दा खड़ा कर दिया गया जो पूरे देश में फैलता जा रहा है। हिमाचल जैसे राज्य में भी सरकार के कमजोर आकलन के कारण पूरे प्रदेश में यह मुद्दा खड़ा हो गया है। सरकार के मंत्री न चाहते हुये भी इसमें पार्टी बन गये हैं।
इसी समय एक देश एक चुनाव को लेकर गठित कमेटी की रिपोर्ट जारी कर दी गयी है। इस रिपोर्ट की चर्चाओं में यह उभारने का प्रयास किया जा रहा है कि यह तुरन्त प्रभाव से लागू कर दिया जाना चाहिये। केंद्रीय मंत्रिमण्डल ने इस रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया है। इसके लिये जो आवश्यक संविधान संशोधन चाहिये वह संसद के अगले सत्र में किये जा सकते हैं। इस तरह प्रस्तावित वक्फ संशोधन विधेयक और एक देश एक चुनाव ऐसे मुद्दे हैं जिन पर आम राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं उनकी परफॉरमैन्स से आम आदमी खुश नहीं है। ऐसे राजनीतिक वातावरण में यदि मोदी भाजपा चुनावों का फैसला ले लेते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा। बल्कि कांग्रेस की राज्य सरकारों की परफॉरमैन्स से इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस में बड़े स्तर पर तोड़फोड़ के हालात बन जायें। इस परिदृश्य में यह लगता है कि राहुल की अमेरिका यात्रा पर उठी प्रतिक्रियाओं का एक बड़ा राजनीतिक मकसद है।

यदि सरकार अपनी जमीनों को लूट से बचा ले तो कर्ज की जरूरत नहीं पड़ेगी

हिमाचल सरकार अपने कर्मचारियों और पैन्शनरों को तय समय पर वेतन तथा पैन्शन का भुगतान नहीं कर पायी है। विधानसभा चुनावों के दौरान 18 से 60 वर्ष की आयु वर्ग की हर महिला को प्रतिमाह पन्द्रह सौ रूपये देने की भी गारंटी दी गई थी। इसे अब हर महिला की जगह परिवार की एक महिला कर दिया गया है और उसमें भी पात्रता के लियं कई शर्तें लगा दी गयी। चुनावों के दौरान दी गई गारंटीयों पर अमल कर पाने के बजाये जो सुविधा पहले से मिल रही थी उनमें भी किसी न किसी तर्क से कटौती की जा रही है। यही नहीं सरकार हर माह एक हजार करोड़ से अधिक का कर्ज ले रही है। यह सरकार दिसंबर 2022 में सत्ता में आयी थी सत्ता में आने आते ही प्रदेश के हालात कभी भी श्रीलंका जैसे हो जाने की चेतावनी दी थी। जिसका अर्थ है कि सरकार को वित्तीय स्थिति की जानकारी उस समय हो गई थी। सरकार वित्तीय कुप्रबंधन की जिम्मेदारी पूर्व सरकार पर डाल रही है। केन्द्र द्वारा प्रदेश सरकार के कर्ज लेने की सीमा में भी कटौती कर देने का आरोप लगाया जा रहा है। लेकिन यह नहीं कहा जा रहा है कि इसमें प्रदेश के साथ ज्यादती कहां हुई है।
इस समय स्थिति यहां पहुंच गयी है की कर्ज लेकर कब तक गुजारा किया जा सकता है। जब कर्ज लेने की सीमा पूरी हो जायेगी तब क्या किया जायेगा? जो कर्ज अब तक लिया गया है उसका निवेश कहां हुआ है? जब विधानसभा में पारित बजट के अनुसार वर्ष 10783.87 करोड़ के घाटे से बन्द हो रहा था तो फिर इससे अधिक कर्ज लेने की आवश्यकता क्यों पड़ गयी? क्या बजट आकलनों में कोई गड़बड़ हो गयी है? क्योंकि आम जनता की जेब पर भार डालकर ज्यादा समय तक चला नहीं जा सकता। आज आम आदमी इस बात पर नजर जमाये हुये हैं कि सरकार अपने खर्चों में कब और क्या कटौती करती है। यदि सरकार के अपने खर्चों में कोई कटौती न हुई तो इससे सरकार की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लग जाएगा।
यदि यह मान लिया जाये कि पूर्ववर्ती सरकारों ने जो योजनाएं बनायी है और कर्ज लिया जिसके चलते आज स्थिति यहां तक पहुंच गयी है तो उस पर भी एक खुली बहस होनी चाहिए। यदि पूर्व का प्रबंधन वर्तमान स्थितियों के लिए जिम्मेदार है तो आज का प्रबंधन तो कहीं चर्चा में ठहरता ही नहीं है। क्योंकि मित्रों की सरकार का तमगा इसी सरकार के नाम लगा है। मित्रों को जितने कैबिनेट रैंक इस सरकार ने बांटे हैं इतने पहले नहीं बंटे हैं। बल्कि सरकार के खर्चों से यह लगता ही नहीं की प्रदेश में कोई वित्तीय संकट है। यह तो मुख्यमंत्री द्वारा सदन में यह जानकारी रखने से की दो माह के लिए मंत्रियों के वेतन भत्ते विलंबित किए जा रहे हैं वितीय संकट रिकॉर्ड पर आया है। वैसे तो यह जानकारी सदन में रखने के बाद मुख्यमंत्री ने यह भी कहा है कि कोई संकट नहीं है यह फैसला व्यवस्था सुधारने के लिये लिया गया है। इस परिदृश्य में यह सवाल और रोचक हो जाता है कि क्या ऐसे फैसलों से सही में व्यवस्था सुधर जायेगी? जब कोई वित्तीय प्रबंधन किन्ही कारणों से बिगड़ जाता है तो हर आदमी ऐसी स्थिति का आकलन अपनी अपनी समझ के अनुसार करने लग जाता है। सरकार के फैसलों की तात्कालिक व्यवहारिकता चिंतन का विषय बन जाती है।
इस सरकार ने युवाओं को सौर ऊर्जा ईकाईयां स्थापित करने के लिए बड़ी योजना घोषित की थी जिसके कोई परिणाम अब तक सामने नहीं आये हैं। नए उद्योग आने की जगह पुराने पलायन करने पर आ गये हैं। जिस तरह से दो व्यावसायिक परिसर ग्यारह-ग्यारह मंजिल के शिमला में स्थापित किये जाने का फैसला लिया गया है उससे कितनी राजस्व आय होगी इसका कोई आकलन सामने नहीं आया है। उल्टे पर्यावरण को लेकर सवाल खड़े होने लग गये हैं। सरकार की ऐसी योजना सामने नहीं आयी है जिससे इसी कार्यकाल में राजस्व में बढ़ौतरी देखने को मिल जायेगी। लेकिन सारी योजनाओं पर अपने हिस्से के निवेश के लिये कर्ज जरूर खड़ा हो जायेगा। भविष्य के लिए वर्तमान को किस हद तक गिरवी रखा जाना चाहिए यह सवाल सार्वजनिक बहस की मांग करता है। इस समय वित्तीय संकट से निपटने के लिये सबसे सरल रास्ता है कि सरकार अपनी लाखों कनाल उस जमीन को लूट से बचाये जो उस सीलिंग एक्ट के तहत मिली है। अकेले नादौन में ही एक लाख कनाल से अधिक की सरकारी जमीन लूट का शिकार बनी हुई है। सर्वाेच्च न्यायालय में स्व. इन्द्र सिंह ठाकुर द्वारा दायर एक मामले में एक समय प्रदेश सरकार ने स्वीकारा है कि उसके पास तीन लाख बीघे जमीन लैण्ड सीलिंग एक्ट में आयी है। लेकिन यह जमीन कहां है और इसका क्या उपयोग हो रहा है इसकी कोई जानकारी सरकार के पास नहीं है। यदि सरकार अपनी इन जमीनों को ही लूट से बचा ले तो शायद वह एक मुश्त कर्ज से छूट जाये। सरकारी जमीनों को यदि लूट से बचा लिया जाये तो प्रदेश का भविष्य सुरक्षित हो सकता है।

क्या प्रदेश वित्तीय आपात की ओर बढ़ रहा है?

मुख्यमंत्री सुक्खविन्दर सिंह सुक्खू ने प्रदेश विधानसभा में राज्य की कठिन वित्तीय स्थिति पर एक लिखित वक्तव्य रखकर यह कहा है कि वह स्वयं और उसके सहयोगी मंत्री तथा मुख्य संसदीय सचिव अपने दो माह के वेतन भत्ते निलंबित कर रहे हैं। जब प्रदेश की वित्तीय स्थिति सुधरेगी तब है यह वेतन भत्ते ले लेंगे। उन्होंने विधायकों से भी ऐसा करने का आग्रह किया है। मुख्यमंत्री ने आंकड़े रखते हुये यह कहा है कि केन्द्र सरकार राजस्व अनुदान घाटे की भरपाई में लगातार कमी कर रही है और उसके कारण यह स्थिति पैदा हुई है। सुक्खू सरकार ने दिसम्बर 2022 से प्रदेश की सत्ता संभाली थी तब से लेकर 31 जुलाई 2024 तक यह सरकार 21366 करोड़ का कर्ज ले चुकी है यह जानकारी सदन में रखी गई है। सरकार प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र भी सदन में रख चुकी है। इसके मुताबिक एक वित्तीय वर्ष में हिमाचल सरकार 6800 करोड रुपए का कर्ज ले सकती है। लेकिन राज्य सरकार अपने प्रबंधन के कौशल के सहारे इस सीमा से अधिक कर्ज ले चुकी है। कैग के मुताबिक प्रदेश का कर्ज जीडीपी का करीब 45% है जबकि यह अनुपात 3.5% से नहीं बढ़ना चाहिये। करोना काल में लगे लॉकडाउन में जब सारी गतिविधियां बन्द हो गई थी तब यह सीमा 3.5% से बढ़कर 6.5% कर दी गई थी जो अब पुरानी सीमा तक ला दी गयी है। प्रदेश के वित्तीय प्रबंधन से जुड़े तंत्र को इन तथ्यों की जानकारी है। यहां यह भी उलेखनीय है कि राज्य सरकारों को अपना राजस्व खर्च अपने ही संसाधनों से पूरा करना होता है। राजस्व घाटा अनुदान सभी राज्यों को एक नियम के तहत ही मिलता है। पिछले दिनों जब नीति आयोग प्रदेश में आया था तब भी यह प्रश्न इस आयोग के सामने रखा गया था और यह जवाब मिला था कि सभी राज्यों को एक सम्मान नीति के तहत आबंटन होगा।
अब जब वेतन भत्ते निलंबित करने की जानकारी अधिकारिक तौर पर सदन के पटल पर जा पहुंची है और नेता प्रतिपक्ष ने इसमें यह जोड़ दिया है कि कर्मचारियों को वेतन का भुगतान 5 तारीख को तथा पैन्शनरों को पैन्शन का भुगतान 10 तारीख को होने की जानकारी है तो उससे स्थिति और गंभीर हो गयी है। क्योंकि यह भी जानकारी आ गयी है कि कर्मचारियों के जीपीएफ पर भी सरकार कर्ज ले चुकी है। वैसे तो सरकार की बजट में दिखाई गई पूंजीगत प्राप्तियां जीपीएफ और लघु बचत आदि के माध्यम से जुटाया गया कर्ज ही होता है। लेकिन यह कर्ज कभी इस तरह से चर्चित नहीं होता था। वेतन भत्ते निलंबित करने का फैसला संबंधित लोगों का अपना फैसला है। इस पर सदन में कोई नीतिगत फैसला नहीं लिया जा सकता। शायद ऐसा फैसला सदन के पटल पर रखने की आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि दो माह बाद यह वेतन भत्ते एक साथ ले लिये जायेंगे। वेतन भत्तों के निलंबन से कोई स्थाई तौर पर राजस्व नहीं बढ़ेगा बल्कि यह जानकारी अधिकारिक तौर पर केन्द्र सरकार तक पहुंच जायेगी कि राज्य सरकार समय पर वेतन भत्तों का भुगतान करने की स्थिति में नहीं रह गयी है। केन्द्र इस स्थिति का अपने तौर पर आकलन करके संविधान की धारा 360 के तहत कारवाई करने तक की सोच सकता है।
दूसरी ओर प्रदेश के अन्दर राज्य सरकार के अपने खर्चों पर चर्चाएं चल पड़ेंगी। अभी यह सवाल उठने लग पड़ा है कि सरकार ने जो राजनीतिक नियुक्तियां कैबिनेट रैंक में कर रखी है उनका क्या औचित्य है। मुख्य संसदीय सचिवों के औचित्य पर सवाल खड़े होने लग पड़े हैं। अभी कामगार बोर्ड के अध्यक्ष का मानदेय 30 जुलाई को 30,000 से बढ़कर 1,30,000 कर दिया गया जबकि एक माह के भीतर ही निलंबन तक की स्थिति पहुंच गयी। इसी के साथ बड़ा सवाल तो यह खड़ा हो रहा है कि संसाधन बढ़ाने के नाम पर आम आदमी की सुविधाओं पर तो कैंची चला दी गयी परन्तु राजनेताओं की ओर तो आंख तक नहीं उठायी गयी। अभी प्रदेश सचिवालय के कर्मचारी आन्दोलन की राह पर है। सरकार की फिजूल खर्ची पहले ही उनके निशाने पर रह चुकी है। आगे यह आन्दोलन क्या आकार लेता है यह विधानसभा सत्र के बाद पता चलेगा। वेतन भत्तों के निलंबन से दो करोड़ की राहत मिलने का दावा किया गया है। यदि इस समय राजनीतिक नियुक्तियां पाये लोग स्वेच्छा से अपने पद त्याग दें तो प्रतिमाह इतनी बचत हो सकती है। क्योंकि आने वाले समय में कर्ज के निवेश को लेकर सवाल उठेंगे और तब यह कहना आसान नहीं होगा की कर्ज से कर्मचारियों के वेतन का भुगतान किया गया है। वेतन भत्तों के निलंबन की जानकारी सदन के पटल पर आना कहीं वितीय आपात का न्योता न बन जाये इसकी आशंका बढ़ती नजर आ रही है।

सरकार के आर्थिक उपायों पर उठते सवाल

सुक्खू सरकार ने दिसम्बर 2022 में प्रदेश की सत्ता संभाली थी। सत्ता संभालते ही प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर जनता को चेतावनी दी थी की हालत कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। इस चेतावनी के बाद पहले कदम के रूप में पिछली सरकार द्वारा अंतिम छः माह में लिये गये फैसले पलट दिये थे। पेट्रोल-डीजल पर वैट बढ़ाया। नगर निगम क्षेत्र में पानी गारबेज के रेट बढ़ाये। सरकार और मुख्यमंत्री को राय देने के लिए मुख्य संसदीय सचिवों, सलाहकारों और विशेष कार्याधिकारियों की टीम खड़ी की। सेवानिवृत नौकरशाहों की सेवाएं ली। सरकार पर उठते सवालों को व्यवस्था परिवर्तन के सूत्र से शान्त करवा दिया। कर्ज लेने के जुगाड़ लगाये और हर माह करीब हजार करोड़ का कर्ज लेने की व्यवस्था कर ली। यह सब कर लेने के बाद अब पन्द्रह अगस्त को साधन संपन्न लोगों से प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाने के लिये हर तरह की सब्सिडी त्यागने का आग्रह किया है। सरकार के घोषित/अघोषित सलाहकारों ने जन सुविधाओं पर अब तक चलाई गई कैंची को सधे हुए कदम करार देकर इसकी सराहना की है। कांग्रेस के अन्दर जो स्वर कल तक कार्यकर्ताओं की अनदेखी पर मुखर होते थे अब इस संद्धर्भ में एकदम चुप हैं। साधन संपन्नता की परिभाषा पचास हजार वार्षिक आय कर दी है। आज गांव में मनरेगा के तहत मजदूरी करने वाला भी इस आय वर्ग में आ जाता है। जिस सरकार को राजस्व बढ़ाने के लिये इस तरह के फैसले लेने पड़ जायें और उपाय सुझाने के लिए एक मंत्री स्तरीय कमेटी गठित हो उसके चिन्तन और चिन्ता का अंदाजा लगाया जा सकता है। सरकार सत्ता में है और उसे कार्यकाल तक सहना ही पड़ेगा।
सरकार के इन उपायों पर सवाल उठाने का कोई लाभ नहीं है। क्योंकि ऐसे फैसले राजनीतिक समझदारी से ज्यादा प्रशासनिक तंत्र की प्रभावी भूमिका की झलक प्रदान करते हैं। इन फैसलों की कीमत आने वाले वक्त में जनता और सत्ताधारी दल को उठानी पड़ेगी प्रशासनिक तंत्र को नहीं। यह फैसले उस समय स्वतः ही बौने हो जाते हैं जब सरकार पर उठने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों का आकार इनसे कहीं बड़ा हो जाता है। नादौन में ई-बस स्टैंड के लिये 6,82,04 520/- रुपए में खरीदी गयी जमीन के दस्तावेज इसका बहुत बड़ा प्रमाण है। भ्रष्टाचार के इस मामले पर प्रशासनिक तंत्र राजनीतिक नेतृत्व और विपक्ष सब एक बराबर जिम्मेदार हैं। ऐसे में राजस्व आय बढ़ाने के लिये जनता की सुविधाओं पर कैंची चलाकर किये गये उपायों की विश्वसनीयता क्या और कितनी होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। प्रदेश को बिजली राज्य बनाने की योजनाओं का आज कितना लाभ मिल रहा है? यही सवाल पर्यटन राज्य बनाने की योजनाओं पर है? पूरी उद्योग नीति पर उस समय स्वतः ही सवाल उठ जाते हैं जब यह सामने आता है कि उद्योगों की भेंट प्रदेश की वित्त निगम, खादी बोर्ड, एक्सपोर्ट निगम और एग्रो पैकेजिंग आदि कई निगमें भेंट चढ़ चुकी है और कई कगार पर खड़ी हैं।
हिमाचल को आत्मनिर्भर बनाने के लिये यहां की कृषि और बागवानी तथा वन संपदा को बढ़ाने की आवश्यकता है। लेकिन इस और ध्यान दिया ही नहीं गया। स्व. डॉ. परमार की त्रीमुखी वन खेती की अवधारणा शायद आज के राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र के लिए एक पहेली होगी। इसी अवधारणा को मजबूत आधार प्रदान करने कृषि और बागवानी विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई थी। इन विश्वविद्यालयों के अनुसंधान को खेत तक ले जाने का प्रयास सरकारों ने नहीं किया क्योंकि प्रशासन को मेहनत करनी पढ़नी थी। बागवानी विश्वविद्यालय ने एक अनुसंधान में यह दावा किया था कि इससे प्रदेश की आर्थिकी में पांच हजार करोड़ का बढ़ावा होगा। जिस पर कोई कदम नहीं उठाये गये। ऐसे ही कई अनुसंधान कृषि विश्वविद्यालय के रहे हैं। प्रदेश में जियोट्राफा के उत्पादन से डीजल तैयार करने की तीस करोड़ की योजना केंद्र से मिली थी। ऊना, हमीरपुर, बिलासपुर, सोलन और सिरमौर के निचले क्षेत्र शामिल किये गये थे। ऊना में कुछ लोगों की निजी भूमि पर भी जियोट्रोफा की खेती कर दी गयी। यदि उस योजना पर ईमानदारी से अमल किया जाता तो उसी से प्रदेश का नक्शा बदल जाता। लेकिन इसमें ठेकेदारी और कमीशन की कोई गुंजाइश नहीं थी। इसलिये शुरू होते ही इसका गला घोंट दिया गया। विधानसभा में इस पर आये सवालों पर चुप्पी साध ली गयी। इस योजना का जिक्र इसलिये कर रहा हूं ताकि आज नेतृत्व भविष्य के नाम पर वर्तमान को गिरवी रखने की मानसिकता से बाहर निकल कर ईमानदारी से प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कृषि और बागवानी विश्वविद्यालयों में अनुसंधान को बढ़ावा देकर उसे खेत तक ले जाने का ईमानदारी से प्रयास करे। यदि कृषि विश्वविद्यालय की जमीन पर टूरिज्म विलेज बसाने का प्रयास किया जायेगा तो उसके परिणाम कर्ज के चक्रव्यूहं को और मजबूत करना होगा।

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