संसद में संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर चर्चा चल रही है। संविधान की इस चर्चा में हमारे माननीय सांसद भाग ले रहे हैं। लेकिन जिस तरह की चर्चा सामने आ रही है उससे यही निकल कर सामने आ रहा है कि शायद यह चर्चा पक्ष और विपक्ष में एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रतियोगिता मात्र है। जबकि संसद के मंच का उपयोग ऐसे गंभीर मुद्दों की चर्चा का केन्द्र होना चाहिए था जो वर्तमान की आशंकाओं पर माननीय का ध्यान केंद्रित करता। पिछले लोकसभा चुनाव में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी हर छोटी बड़ी जनसभा में संविधान की प्रति साथ लेकर जाते थे और जनता को यह समझाने का प्रयास करते रहे हैं कि संविधान को बदला जा रहा है। राहुल गांधी की इस आशंका का यह प्रभाव पड़ा की जनता ने भाजपा को अपने अकेले के दम पर ही सरकार बनाने का बहुमत नहीं दिया। ऐसे में यह सवाल उभरना स्वभाविक है कि राहुल गांधी की इस आशंका का आधार क्या था। संविधान को लागू हुए 75 वर्ष हो गये हैं। 2024 तक संविधान में एक सौ छः संशोधन हो चुके हैं। यह संशोधन इस बात का प्रमाण है कि हमारा संविधान सामायिक सवालों के प्रति कितना गंभीर हैं। इसी के साथ हमारे संविधान की यह भी विशेषता है कि इसके मूल स्वरूप में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता।
भारत एक बहुधर्मी, बहुभाषी और बहुजातिय देश है। इसके इसी चरित्र को सामने रखकर संविधान निर्माताओं ने देश के हर नागरिक को धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक बराबरी का दर्जा दिया है। सरकार का चरित्र धर्मनिरपेक्ष रखा। सरकार का व्यवहार सभी धर्मों के प्रति एक सम्मान रहेगा। किसी के साथ भी जाति और लिंग के आधार पर गैर बराबरी का व्यवहार नहीं किया जा सकता। लेकिन पिछले कुछ अरसे से संविधान के इस स्वरूप के साथ व्यवहारिक रूप से हटकर आचरण देखा गया। गौ रक्षा और लव जिहाद के नाम पर भीड़ हिंसा हुई और इस हिंसा पर प्रशासन लगभग तटस्थ रहा। आर्थिक मुहाने पर संसाधनों को प्राईवेट हाथों में सौंपा गया। देश की अधिकांश आबादी को सरकारी राशन पर आश्रित होना पड़ा। कोविड काल में आये लॉकडाउन में आपातकाल से भी ज्यादा कठिन हो गया जीवन यापन। यह शायद पहली बार देखने को मिला की महामारी को भगाने के लिये ताली, थाली बजायी गयी और दीपक जलाये गये।
कोविड के इसी काल में संघ प्रमुख मोहन भागवत के नाम से भारत के संविधान का एक बारह पृष्ठों का एक बुकलेट वायरल हुआ जिसमें महिलाओं को कोई अधिकार नहीं दिया गया। पूरे समाज पर ब्राह्मण समाज का वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास था। इस पर संघ कार्यालय नागपुर और पीएमओ के नाम पर सुझाव आमन्त्रित किये गये थे। लेकिन इस वायरल हुये प्रलेख पर न तो संघ कार्यालय और न ही पीएमओ से कोई खण्डन जारी हुआ। उत्तर प्रदेश में दो जगह अज्ञात लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज तो हुए लेकिन उन पर हुई कारवाई आज तक सामने नहीं आयी। इसी बीच मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस सेन का फैसला आ गया जिसमें उन्होंने देश को धर्मनिरपेक्ष के स्थान पर पड़ोसी देशों की तर्ज पर धार्मिक देश बना दिये जाने का फैसला दिया। इस फैसले की प्रतियां प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और राष्ट्रपति तक को प्रेषित हुई। कुछ लोग इस फैसले के खिलाफ सर्वाेच्च न्यायालय भी पहुंचे। इसी परिदृश्य में केन्द्र में सतारूढ़ दल से मुस्लिम समाज के लोग संसद और सरकार से बाहर हो गये। क्या यह सारी स्थितियां संविधान को बदले जाने की आशंकाओं की ओर इंगित नहीं करते?
आज देश में क्या धर्म के नाम पर एक और विभाजन का जोखिम उठाया जा सकता है शायद नहीं? क्या आर्थिक संसाधनों की मलकियत किसी एक आदमी के हाथ में सौंपी जा सकती है। जिस देश में आज भी 80 करोड़ लोग सरकार के राशन पर आश्रित रहने को मजबूर हों उसके विकास के दावों को किस तराजू में तोला जा सकता है। इस समय संसद में इन आशंकाओं पर एक विस्तृत चर्चा की आवश्यकता है।
देश में उन्नीस लाख ईवीएम मशीने गायब होने की जानकारी एक आरटीआई के माध्यम से सामने आयी थी। मामला पुलिस और अदालत तक भी पहुंचा। लेकिन संसद में कभी इस पर प्रश्न नहीं आये और न ही यह किसी नियोजित सार्वजनिक बहस का मुद्दा बना। चुनाव परिणामों पर सवाल उठ रहे हैं। मतदान खत्म होते ही जो आंकड़े जारी किये जाते हैं वही आंकड़े मतगणना के समय बदल जाते हैं यह तथ्य भी जनता के सामने आ चुके हैं। बाहर हर देश मत पत्र से चुनाव करवाने लग गया है। हमारे यहां भी पूरी चुनावी प्रक्रिया में लम्बा समय लगता आ रहा है। मत पत्र से चुनाव न करवाने का तर्क दिया जाता है कि परिणाम घोषित करने में चार-पांच दिन की देरी हो जायेगी। जब पूरी प्रक्रिया में लम्बा समय लगाया जा रहा है। कई-कई चरणों में चुनाव करवाये जा रहे हैं तब यदि परिणाम घोषित करने में एक सप्ताह का समय और लग जाता है तो उससे किसी का भी नुकसान होने वाला नहीं है। फिर जब मशीन के साथ वी वी पैट लगा हुआ है और उस पर बाकायदा पर्ची सामने आ जाती है तो उसे गिनने में कितना समय और लग जायेगा। इस समय जिस तरह का विश्वास पूरी चुनाव प्रक्रिया पर उभर रहा है। वह कालान्तर में पूरी व्यवस्था के लिए घातक होगा। ऐसे में राजनेताओं को ईवीएम को संसद से लेकर सड़क तक मुद्दा बनाकर जनता के बीच आना होगा। चुनावों के बहिष्कार करने तक आना होगा। जब इस तरह की स्थिति पूरे देश में एक साथ बनेगी तभी मशीन की जगह मत पत्रों पर बात आयेगी। यदि राजनेता और राजनीतिक दल ऐसा करने के लिये तैयार न हों तो उन्हें हर हार के बाद ईवीएम पर दोष डालने का कोई अधिकार नहीं रह जाता है।
इसी के साथ राजनीतिक दलों को अपनी विश्वसनीयता बनाये रखने के लिये अपनी राज्य सरकारों की परफॉरमैन्स पर भी ध्यान देना होगा। अभी हरियाणा के चुनावों में प्रधानमंत्री ने हिमाचल सरकार की परफॉरमैन्स को मुद्दा बनाया। कांग्रेस जवाब नहीं दे पायी क्योंकि तथ्यों पर आधारित था सब कुछ। अब महाराष्ट्र में भी हिमाचल को प्रधानमंत्री ने मुद्दा बनाया। इसका जवाब देने मुख्यमंत्री महाराष्ट्र गये। फिर मुख्यमंत्री का जवाब देने प्रदेश भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री नेता प्रतिपक्ष और दूसरे नेता महाराष्ट्र जा पहुंचे। इस तरह मुख्यमंत्री के दावों पर विश्वास नहीं बन पाया और परिणाम सामने है। हिमाचल आज पूरे देश में चर्चा का विषय बनता जा रहा है। यदि कांग्रेस ने समय रहते स्थितियों में सुधार नहीं किया तो फिर कुछ भी हाथ नहीं आयेगा।