Thursday, 18 September 2025
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मुस्लिम समाज सरकार पर विश्वास क्यों नहीं कर पा रहा है

वक्फ धार्मिक उद्देश्यों के लिये अपनी संपत्ति दान देने की अवधारणा है जो 1923 से ब्रिटिश शासन काल से चली आ रही है। 1954 में पहली बार संसद में इस संबंध में कानून बनाकर ऐसी संपत्तियों के प्रबंधन संचालन के लिये वक्फ बोर्ड के गठन का प्रावधान किया। 1995 में इसमें संशोधन करके इसे और शक्तियां दी। लेकिन यह शक्तियां देने के बाद इसमें अतिक्रमण अवैध पट्टे देने और अवैध बिक्री की शिकायतें बढ़ी। 2013 में इसमें और संशोधन करके वक्फ संपत्तियों की बिक्री को अवैध करार दे दिया। वक्फ में उपजे किसी भी विवाद के निपटारे के लिये एक ट्रिब्यूनल गठित है और इसके फैसलों को उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। यह सब नए वक्फ अधिनियम पर संसद में चली बहस के दौरान सामने आ चुका है। नये संशोधन में गैर मुस्लिमों को भी वक्फ का सदस्य बनाने का प्रावधान किया गया। नये कानून में संपत्तियों पर उठे किसी भी विवाद के निपटारे के लिये डीएम को अधिकृत किया गया है। डीएम का फैसला अन्तिम होगा और उसे कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकेगी। भारत बहुभाषी और बहुधर्मी देश है। इसलिये संविधान के अनुच्छेद 26 में धार्मिक स्वतन्त्रता का प्रावधान किया गया है। धार्मिक या परोपकारी उद्देश्यों के लिये संस्थाएं स्थापित करना उनका संचालन और धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने के लिये हर धर्म का आदमी स्वतंत्र है। संविधान के इसी अनुच्छेद के आधार पर नये वक्फ विधेयक को असंवैधानिक मानकर इसे सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है। अब यह मामला देश की सुप्रीम अदालत के सामने हैं। आशा की जानी चाहिये की अदालत बहुत जल्द इस संबंध में आयी याचिकाओं का निपटारा करके इसकी वैधता पर अपना फैसला देगी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इन्तजार किया जाना चाहिए। लेकिन इस विवाद से ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो गया है कि देश की दूसरी बड़ी धार्मिक आबादी को सरकार पर अविश्वास क्यों पैदा हो गया है। आखिर इस अविश्वास का आधार और कारण क्या है। इसकी पड़ताल करने के लिये 2014 में आये राजनीतिक सत्ता के बदलाव के बाद उपजी व्यवहारिक स्थितियों पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। भाजपा संघ परिवार की राजनीतिक इकाई है। इसलिये भाजपा के संगठन सचिव का दायित्व हर स्तर पर संघ के ही प्रतिनिधि के पास रहता है। भाजपा का वैचारिक स्रोत संघ है। संघ भारत को शुद्ध हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है। संघ की सारी अनुसांगिक इकाईयां इसी के लिये प्रयासरत है। इस प्रयास में भाजपा की भूमिका और जिम्मेदारी सबसे अहम है। क्योंकि राजनीतिक सत्ता भाजपा के हिस्से में है। हिन्दू राष्ट्र बनाने का रास्ता राजनीतिक सत्ता से होकर गुजरेगा। इस समय भारत में दूसरी बड़ी धार्मिक आबादी मुस्लिमों की है और वह हर राज्य में हैं। मुस्लिमों के बाद सिक्ख आते हैं। और वह संयोगवश एक ही राज्य तक है। इसी हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना में मुस्लिम बाधक हो जाते हैं। फिर देश का बंटवारा भी धार्मिक आधार पर हुआ था और पाकिस्तान मुस्लिम देश बन गया। पाकिस्तान भारत की तरह धर्मनिरपेक्ष चरित्र का नहीं है। जबकि भारत का मूल धर्मनिरपेक्षता है। यदि भारत भी एक ही धर्म को राजनीतिक धर्म बना ले तो इतने बड़े देश में एकता बनाये रखना बड़ा प्रश्न हो जायेगा । इस परिपेक्ष में यदि 2014 के सत्ता परिवर्तन के बाद जिस तरह का व्यवहार मुस्लिम समुदाय के प्रति रहा है उससे स्पष्ट हो जाता है कि एक निश्चित योजना के तहत हिन्दू राष्ट्र की दिशा में प्रयास चल रहे हैं। यह सामने आ चुका है मुस्लिम समाज के प्रति सहानुभूति रखने वाले पाकिस्तान चले जाने की राय मंत्री स्तर के लोगों से आ चुकी है। मेघालय हाईकोर्ट में जब जस्टिस एस आर सेन ने 2018 में भारत को हिन्दू राष्ट्र हो जाने का फैसला दिया था तब वह इस दिशा का एक बड़ा संकेत था। इस फैसले पर आपत्तियां आयी और यह रद्द हुआ। लेकिन फैसला तो आया। फिर संघ प्रमुख डॉ. भागवत के नाम से भारत का संविधान वायरल हुआ। इसमें महिलाओं के अधिकारों पर अंकुश की बात कही गई थी लेकिन यह संविधान कैसे वायरल हुआ इसकी कोई जांच सामने नहीं आयी न ही इसका कोई खण्डन सामने आया। फिर स्कूलों में मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाने का सुझाव आया। गौ रक्षा के नाम पर एक समुदाय के खिलाफ भीड़ हिस्सा का तांडव इस देश ने देखा। नये संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर सांसदों को दी गयी संविधान की प्रति से धर्मनिरपेक्षता शब्द का गायब होना। सम्मान नागरिक संहिता पर उभरा आन्दोलन देश ने देखा है। आज भाजपा सबसे बड़ा राजनीतिक दल है लेकिन इस बड़े दल में एक भी मुस्लिम न विधायक है और न ही सांसद है। केन्द्रीय मंत्री परिषद में एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है। क्या इस तरह की व्यवहारिकता से मुस्लिम समाज सरकार पर विश्वास कर पायेगा। देश के लिये यह बहुत ही कठिन समय है। सरकार को व्यवहारिक स्तर पर कुछ ठोस कदम उठाने होंगे जिससे विश्वास बहाल हो सके।

2795 करोड़ के निवेश का हिसाब क्या है?

मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू केन्द्रीय वित्त मंत्री, गृह मंत्री और प्रधानमंत्री से मिलकर प्रदेश को विशेष वित्तीय सहायता देने तथा कर्ज लेने पर लगी बंदीशे हटाने की गुहार लगा चुके हैं। इस समय प्रदेश का कर्जभार एक लाख करोड़ से अधिक हो चुका है। इसी सरकार के कार्यकाल में यह कर्ज भार बढ़कर डेढ़ लाख करोड़ तक पहुंच जाने की संभावना है। प्रदेश की वित्तीय स्थिति कब से बिगड़नी शुरू हुई है इसका इतिहास कोई बहुत लंबा नहीं है। स्व.रामलाल ठाकुर के कार्यकाल में प्रदेश 80 करोड़ के सरप्लस में था। यह तथ्य प्रो. धूमल के पहले कार्यकाल में लाये गए श्वेत पत्र में दर्ज हैं। स्व.ठाकुर रामलाल के बाद 1977 में शान्ता कुमार के कार्यकाल में आये नीतिगत बदलाव में प्राइवेट सैक्टर को प्रदेश के विकास में भागीदार बनने के प्रयास हुये। इन प्रयासों में औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना हुई। उद्योगों को आमंत्रित करने के लिये उन्हें हर तरह की सब्सिडी दी गयी। शान्ता काल में उद्योगों पर जो निर्भरता दिखाई गई वह आज दिन तक हर
सरकार के लिये मूल सूत्र बन गया। राजनेताओं के साथ ही प्रदेश की शीर्ष नौकरशाही ने भी स्वर मिला दिया है। किसी ने भी इमानदारी से यह नहीं सोचा कि उद्योगों के लिये प्रदेश में न तो कच्चा माल है और न ही पर्याप्त उपभोक्ता हैं। केवल सरकारी सहायता के सहारे ही प्रदेश में उद्योग आये। जैसे-जैसे सरकारी सहायता में कमी आयी तो उद्योगों का प्रवाह भी कम हो गया। इन्हीं उद्योगों की सहायता में प्रदेश का वित्त निगम और खादी बोर्ड जैसे कई अदारे खत्म हो गये। उद्योग विभाग के एक अध्ययन के मुताबिक प्रदेश में स्थापित हुये उद्योगों को कितनी सब्सिडी राज्य और केंद्र सरकार दे चुकी है उतना उद्योगों का अपना निवेश नहीं है। रोजगार के क्षेत्र में आज भी यह उद्योग सरकार के बराबर रोजगार नहीं दे पाये हैं। जबकि हर सरकार अपने-अपने कार्यकाल में नई-नई उद्योग नीतियां लेकर आयी है।
हिमाचल में गैर कृषकों को सरकार की अनुमति के बिना जमीन खरीदने पर प्रतिबन्ध है। जहां-जहां उद्योग क्षेत्र स्थापित हुये थे वहां श्रमिकों और उद्योग मालिकों को आवास उपलब्ध करवाने के लिये भवन निर्माणों की नीति कब बिल्डरों तक पहुंच गयी किसी को पता भी नहीं चला। जबकि धारा 118 की उल्लंघना पर चार आयोग जांच कर चुके हैं और एक रिपोर्ट पर भी अमल नहीं हुआ है। 1977 के दौर में जो उद्योग आये थे उनमें से शायद एक प्रतिशत भी आज उपलब्ध नहीं हैं। पूरा होटल सरकारी जमीन पर बन जाने के बाद जब चर्चा उठी तो सरकारी जमीन का प्राइवेट जमीन के साथ तबादला कर दिया गया। लेकिन ऐसी सुविधा कितनों को मिली यह चर्चा उठाने का मेरा उद्देश्य केवल इतना है कि आज ईमानदारी से सारी नीतियों पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है। पिछली सरकार के दौरान एक हजार करोड़ निवेश ऐसे भवनों पर कर दिये जाने का आरोप है जो आज बेकार पड़े हैं यह आरोप लगा है। लेकिन इसी के साथ आज जो निवेश एशियन विकास बैंक के कर्ज के साथ किया जा रहा है क्या वह कभी लाभदायक सिद्ध हो पायेगा शायद नहीं। इसलिये आज हर सरकार को यह सोचना पड़ेगा कि यह बढ़ता कर्जभार पूरे भविष्य को गिरवी रखने का कारण बन जायेगा।
आज जो कैग रिपोर्ट वर्ष 2023-24 की आयी है उसमें यह कहा गया है कि इस सरकार ने 2795 करोड़ रूपये कहां खर्च कर दिये हैं इसका कोई जवाब नहीं दिया जा सकेगा। कैग में पहली बार ऐसी टिप्पणी आयी है कि शायद यह निवेश उन उद्देश्यों के लिये खर्च नहीं किया गया है जिनके लिये यह तय था। कैग में यह टिप्पणी भी की गयी है कि 2023 में आयी आपदा के लिये सरकार ने 1209.18 करोड़ खर्च किया है जिसमें से केन्द्र सरकार ने 1190.35 करोड़ दिया है। आपदा राहत के इन आंकड़ों से सरकार के दावों और आरोपों पर जो गंभीर प्रश्न चिन्ह लग जाता है उसके परिदृश्य में राज्य सरकार केन्द्र सरकार से कैसे सहायता की उम्मीद कर सकती है। 2795 करोड़ का कोई हिसाब न मिलना अपने में प्रशासन पर एक गंभीर आरोप हो जाता है। एग्रो पैकेजिंग कॉरपोरेशन का एक समय विशेष ऑडिट करवाया गया था उस ऑडिट रिपोर्ट पर प्रबंधन के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया गया था। क्या आज भी सरकार ऐसा करने का साहस करेगी? जब तक सरकार का वित्तीय प्रबंधन प्रश्नित रहेगा तब तक कोई सहायता मिल पाना कैसे संभव होगा।

शिक्षा में प्राईवेट सैक्टर का दखल क्यों?

पिछले कुछ अरसे से शैक्षणिक संस्थानों में आत्महत्याएं बढ़ती जा रही हैं। सर्वाेच्च न्यायालय ने भी इस पर चिन्ता जताते हुये इन्हें रोकने के लिये टास्क फोर्स गठित करने को कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि इसके लिये बढ़ती प्रतिस्पर्धा और सीटों का सीमित होना एक बड़ा कारण है। सर्वाेच्च न्यायालय की इस चिन्ता पर एक व्यापक सार्वजनिक बहस होनी चाहिये। क्योंकि शिक्षा आज की मौलिक आवश्यकता और अधिकार बन चुकी है। इसी कारण से केन्द्र सरकार ने राइट टू एजुकेशन का विधेयक पारित किया हुआ है। यह विधेयक स्व. डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में पारित हो गया था। लेकिन इस विधेयक के पारित होने के बाद शैक्षणिक संस्थानों में आत्महत्या बढ़ी है। निजी शिक्षण संस्थानों पर यह आरोप बढ़ता जा रहा है कि इन संस्थाओं ने शिक्षा को एक व्यापारिक वस्तु बनाकर रख दिया है। प्राईवेट शिक्षण संस्थान इतने महंगे हो गये हैं कि आम आदमी वहां अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सकता। महंगे शिक्षण संस्थानों में बच्चों को पढ़ना एक स्टेटस सिम्बल बनता जा रहा है। इसी के साथ सरकारी स्कूल के बच्चे और प्राईवेट स्कूल के बच्चों में एक ऐसी कुंठा भी बनती जा रही है जिसके परिणाम कालान्तर में समाज के लिये लाभदायक नहीं होंगे।
जब से सारी व्यवसायिक शिक्षा के लिये प्लस टू की पात्रता बना दी गयी है तब से एक नयी प्रतिस्पर्धा पैदा हो गयी है। इस प्रतिस्पर्धा को प्राईवेट कोचिंग सैन्टरों ने और बढ़ा दिया है। इन्हीं कोचिंग सैन्टरों में आत्महत्याएं बढ़ती जा रही है। यह कोचिंग इतने महंगे हो गये हैं कि आम आदमी इन सैन्टरों में बच्चों को कोचिंग दिलाने की सोच भी नहीं सकता। फिर नीट की प्रतियोगी परीक्षा में जिस तरह से पेपर लीक का प्रकरण घटा है और उसमें इन प्राईवेट संस्थानों की भूमिका सामने आयी है वह अपने में ही एक गंभीर संकट का संकेत है। इसलिये इस समस्या पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि एक भीख मांगने वाला भी चाहता है कि उसके बच्चे को भी अच्छी शिक्षा मिले और वह कुछ बने।
शिक्षा केन्द्र और राज्य सरकारों दोनों की सांझी सूची का विषय है। दोनों इस पर कानून बना सकते हैं। यदि केन्द्र और राज्य के कानून में कोई टकराव आये तब राज्य के कानून पर केन्द्र का कानून हावी होता है। हर राज्य सरकार ने अपने-अपने शिक्षा बोर्ड बना रखे हैं। जो पाठयक्रम और परीक्षा का आयोजन करते हैं। तकनीकी शिक्षा बोर्ड और विश्वविद्यालय भी गठित है। केन्द्र सरकार ने भी शिक्षा बोर्ड और विश्वविद्यालय गठित कर रखे हैं। पाठय पुस्तकों के लिये एन.सी.ई.आर.टी. गठित है। लेकिन यह सब होते हुये भी शिक्षा केन्द्र और राज्य दोनों का विषय बनी हुई है। इसी के कारण व्यवसायिक शिक्षा के लिये जे.ई.ई. और नीट की प्रतियोगिता परीक्षाएं आयोजित की जा रही है। इसलिये यह विचारणीय हो जाता है कि जब इन प्रतियोगी परीक्षाओं की मूल शैक्षणिक योग्यता प्लस टू है तब यदि पूरे देश में प्लस टू का पाठयक्रम ही एक जैसा कर दिया जाये और परीक्षा का प्रश्न पत्र भी एक ही हो तब इन प्रतियोगी परीक्षाओं की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। जब प्रतियोगी परीक्षा के लिये एक ही प्रश्न पत्र होता है तब उसी गणित से प्लस टू के लिये भी एक ही प्रश्न पत्र की व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती।
इस समय पूरे देश में एक ही पाठयक्रम एक ही प्रश्न पत्र की व्यवस्था जब तक नहीं की जाती है तब तक इस प्रणाली में सुधार नहीं किया जा सकता। इस शिक्षा को व्यापार बनाये जाने से रोकने की आवश्यकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य हर आदमी की बुनियादी जरूरत है। इसमें जब तक प्राईवेट सैक्टर का दखल रहेगा तब तक शैक्षणिक संस्थानों में आत्महत्याएं और नकली दवायें तथा अस्पतालों में मरीजों का शोषण नहीं रोका जा सकता। इन क्षेत्रों में प्राईवेट सैक्टर का बढ़ता दखल एक दिन पूरी व्यवस्था को नष्ट कर देगा। समय रहते इस पर एक सार्वजनिक बहस आयोजित की जानी आवश्यक है।

क्या शिक्षा और स्वास्थ्य में प्राईवेट सैक्टर का दखल होना चाहिये

क्या शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में निजी क्षेत्र का दखल होना चाहिये? यह सवाल इसलिये प्रसांगिक है क्योंकि शिक्षा और स्वास्थ्य रोटी, कपड़ा और मकान के बाद महत्वपूर्ण बुनियादी आवश्यकता बन जाती है। कल्याणकारी राज्य व्यवस्था में हर नागरिक के लिये इन मूल आवश्यकताओं को उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी हो जाती है। इन्हें पूरा करने के लिये केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक ने कई योजनाएं शुरू कर रखी हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में केंद्र सरकार ने आयुषमान भारत योजना में 70 वर्ष से अधिक की आयु वाले बुजुर्गों को पांच लाख तक के मुफ्त इलाज की सुविधा प्रदान कर रखी है। राज्य सरकार ने भी कैंसर के रोगियों के लिये मुफ्त इलाज की घोषणा कर रखी है। अस्पताल में इन योजनाओं का लाभ लेने के लिये इतनी औपचारिकताएं लगा दी गयी हैं कि जब तक मरीज के साथ दो तामीरदार न हों तब तक इन योजनाओं का लाभ रोगी को नहीं मिल सकता। इसलिये इन औपचारिकताओं को जब तक हटाया या सरल नहीं किया जाता है तब तक इनका व्यवहारिक लाभ मिलना कठिन है। इसी के साथ इसका दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है कि अस्पताल में रोगी को मुफ्त में दी जा रही इन दवाईयों और अन्य उपकरणों को सरकार प्राइवेट सैक्टर से खरीद रही है। यह खरीद ही अपने में एक बड़ा घपला बनती जा रही है। क्योंकि प्राईवेट सप्लायर अस्पतालों को यह दवाईयां उस समय अंकित मूल्य के आधार पर दे रहा है। पिछले दिनों कैंसर रोगी को लिखी गयी एक दवाई कि उस पर्ची पर अंकित कीमत 2163 थी। अस्पताल को वह 2163 रूपये में स्पलाई हुई है लेकिन जब उसी दवाई को प्राईवेट मार्किट में कैमिस्ट से खरीदा गया तो उसने 2163 रूपये की दवाई 400 रूपये में दी। अस्पताल से ही दी गयी एक अन्य दवाई को जब बाजार में कैमिस्ट को दिखाया गया तो उसने उस दवाई को नकली करार दे दिया। जब यह सब सरकारी अस्पताल के डॉक्टर को बताया गया तो उसने स्वीकार किया कि यह सब हो रहा है। और इसे कई बार सरकार के संज्ञान में भी लाया जा चुका है। लेकिन इसमें कोई सुधार नहीं हो रहा है। सप्लायर और कीमतों का फैसला प्रशासनिक स्तर पर होता है डॉक्टर के स्तर पर नहीं। पिछले दिनों प्रदेश के प्राईवेट अस्पतालों पर सीबीआई की छापेमारी हो चुकी है। आरोप सरकारी योजनाओं की आपूर्ति में हो रही है घपलेबाजी का ही था। हिमाचल का बद्दी सबसे बड़ा दवा निर्माण का केंद्र है। यहां बन रही कई दवाइयां के सैंपल कई बार फेल हो चुके हैं। सरकार हर बार संबंधित कंपनी को नोटिस थमाने की कारवाई से आगे नहीं बढ़ी है। दवाई का सैंपल फेल होने पर कितनी निर्माता कंपनियों पर आपराधिक कारवाई के तहत सजा हुई है इसका कोई आंकड़ा आज तक सामने नहीं आया है। जब दवाई का सैंपल फेल होने की रिपोर्ट सामने आ जाती है परंतु उस पर हुई कारवाई की रिपोर्ट सामने नहीं आती है। स्वभाविक है कि इन नकली दवाईयां की सप्लाई सरकार से लेकर प्राइवेट अस्पतालों तक में हो रही है। अस्पतालों में डॉक्टर इलाज के नाम पर मरीजों से कैसे व्यवहार कर रहे हैं यह राज्यसभा में अहमदाबाद के म्युनिसिपल अस्पताल के डॉक्टर के किस्से की चर्चा में सामने आ चुका है। डॉक्टर मरीज को आयुषमान कार्ड का लाभ तक देने को तैयार नहीं था। जब तक कि वह अपना पैर नहीं कटवा लेता। पैर न कटवाने पर डॉक्टर ने मरीज से 35000 रुपए नगद जमा करवाने को कहा। उसे आयुषमान कार्ड का लाभ नहीं दिया। प्राईवेट अस्पतालों के इस तरह के कई मामले आये दिन चर्चा में आते रहते हैं। अहमदाबाद का यह मामला राज्यसभा तक पहुंच जाने पर यह सवाल उठता है कि आखिर इसका हल क्या है। कोविड काल में हुये टीकाकरण पर अब जो रिपोर्ट सामने आयी है उसके मुताबिक हर तीसरा आदमी इससे प्रभावित हुआ है। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक 45% सर्जरी अवांछित हो रही है। यह सब इसलिये हो रहा है कि स्वास्थ्य क्षेत्र के दरवाजे प्राईवेट सैक्टर के लिये खोल दिये गये हैं। वहां पर इलाज के नाम पर मरीज को लूटने का काम हो रहा है क्योंकि स्वास्थ्य के प्रति हर व्यक्ति चिन्तित रहता है। प्राईवेट सैक्टर के लिये यह बहुत बड़ा व्यापार बन गया है। इसके परिणाम कालान्तर में बहुत भयानक होंगे। इसलिए स्वास्थ्य में प्राईवेट सैक्टर के दखल पर गंभीरता से एक सार्वजनिक बहस होनी चाहिये। शिक्षा पर अगले अंक में चर्चा होगी।

कांग्रेस में सर्जरी क्यों आवश्यक है

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक ब्यान में कहा है कि पार्टी के भीतर भाजपा के एजैन्ट मौजूद हैं और उन्हें बाहर का रास्ता दिखाना पड़ेगा। राहुल कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और वर्तमान में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं। इसलिये उनके ब्यान को गंभीरता से लिया जा रहा है। क्योंकि वर्तमान में राहुल ही एकमात्र ऐसे नेता हैं जिन्होंने हजारों किलोमीटर की पद यात्राएं करके देश की परिस्थिति को निकट से देखने और समझने का प्रयास किया है। राहुल की पदयात्राओं के प्रभाव के कारण ही इस लोकसभा चुनावों में भाजपा 240 के आंकड़े पर आकर रुक गयी। ऐसे में कांग्रेस के भीतर भाजपा के एजैन्ट होने के आरोप का विश्लेषण किया जाना आवश्यक हो जाता है। देश में पहला आम चुनाव 1952 में हुआ और 1977 तक सत्ता कांग्रेस के पास ही रही। जब देश आजाद हुआ था तब देश में कितने राजे रजवाड़े थे जो अपने में स्वतंत्र रियासतें थी उन राजाओं को केन्द्रीय सत्ता में लाना एक बहुत बड़ा काम था। जो 1948 में सरदार पटेल के प्रयासों से संपन्न हुआ। रियासतों के विलय के बाद देश में भूमि सुधारो का काम हुआ। उस समय बैंक भी प्राइवेट सैक्टर में थे उनका राष्ट्रीयकरण किया गया। लेकिन उस समय कुछ लोगों ने भू सुधारों का विरोध किया। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के खिलाफ तो सुप्रीम कोर्ट तक मामला गया और संसद में संविधान संशोधन लाकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण पूरा किया गया। उस समय कुछ ताकतें ऐसी थी जो इन सुधारों के पक्ष में नहीं थी। इसी परिदृश्य में देश के कुछ राज्यों में 1967 में ‘संविद सरकार’ का गठन हुआ। पंजाब में जनसंघ और अकाली दल की सरकार बनी। फिर कुछ परिस्थितियां ऐसी घटी के 1975 में देश को आपातकाल देखना पड़ा। 1977 में जब आपातकाल घटा तब वाम दलों को छोडकर शेष विपक्ष में अपने-अपने दलों का विलय करके जनता पार्टी का गठन किया और 1977 के चुनावों में सत्ता जनता पार्टी के पास आ गयी। 1977 में बनी जनता पार्टी 1980 में जनसंघ घटक की आर.एस.एस. के साथ निष्ठाओं के कारण दोहरी सदस्यता के आरोप में टूट गयी। जनता पार्टी के विघटन के बाद जनसंघ घटक ने अपना नाम भारतीय जनता पार्टी रख लिया। 1980 में बनी भाजपा को केन्द्रीय सत्ता पर काबिज होने के लिये अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन से सत्ता प्राप्त हुयी। इस दौरान राम जन्मभूमि, बाबरी विध्वंस, आरक्षण विरोध आदि कई आन्दोलनों का भाजपा को सहारा लेना पड़ा। इस सबके परिणाम स्वरुप 2014 में सत्ता प्राप्त हुई। 2014 के आंकड़े में 2019 में बढ़ौतरी हुई परन्तु यह बढ़ौतरी 2024 में रुक गयी। इस दौरान भाजपा ने अपने सहयोगी दलों में तोड़फोड़ करवाकर उनको अपने में शामिल करवा लिया। कांग्रेस का भी एक बड़ा वर्ग भाजपा में जा मिला है। लेकिन अब डॉनाल्ड ट्रंप के खुलासों ने जिस तरह से मोदी की छवि में छेद किया है उससे राजनीतिक परिस्थितियां एकदम बदल गयी हैं। आने वाले समय में भाजपा मोदी को कई सवालों का जवाब देना पड़ेगा। इन बदली हुई परिस्थितियों ने कांग्रेस की भूमिका को बहुत अहम बना दिया है। क्योंकि इस समय कांग्रेस ही एकमात्र विकल्प है भाजपा का। राहुल गांधी को पप्पू प्रचारित करने के लिये किस तरह का अभियान चलाया गया था वह कोबरा पोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन से स्पष्ट हो चुका है। राहुल गांधी की पदयात्रा ने राहुल को स्थापित कर दिया है। आज राहुल से ही मोदी और भाजपा को डर है। ऐसे में मोदी भाजपा हर संभव तरीके से कांग्रेस में अन्दर बाहर से सेंधमारी का प्रयास करेंगी। इसलिये आज कांग्रेस नेतृत्व को पार्टी भीतर बैठे एजैन्टांे के चिन्हित करके बाहर करना आवश्यक हो जाता है। इस सर्जरी में कांग्रेस को अपनी राज्य सरकारों पर विशेष नजर रखने की आवश्यकता है। क्योंकि इन राज्य सरकारों के माध्यम से ही यह संदेश जायेगा कि कांग्रेस को अपने विजिन के प्रति पूरी तरह स्पष्ट और ईमानदार है। आज कांग्रेस को अपनी राज्य सरकारों से ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचने का डर है क्योंकि एक राज्य सरकार का आचरण पूरे देश में प्रचारित हो जाता है जैसे हरियाणा और महाराष्ट्र में हिमाचल को प्रचारित किया गया है।

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