वक्फ धार्मिक उद्देश्यों के लिये अपनी संपत्ति दान देने की अवधारणा है जो 1923 से ब्रिटिश शासन काल से चली आ रही है। 1954 में पहली बार संसद में इस संबंध में कानून बनाकर ऐसी संपत्तियों के प्रबंधन संचालन के लिये वक्फ बोर्ड के गठन का प्रावधान किया। 1995 में इसमें संशोधन करके इसे और शक्तियां दी। लेकिन यह शक्तियां देने के बाद इसमें अतिक्रमण अवैध पट्टे देने और अवैध बिक्री की शिकायतें बढ़ी। 2013 में इसमें और संशोधन करके वक्फ संपत्तियों की बिक्री को अवैध करार दे दिया। वक्फ में उपजे किसी भी विवाद के निपटारे के लिये एक ट्रिब्यूनल गठित है और इसके फैसलों को उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। यह सब नए वक्फ अधिनियम पर संसद में चली बहस के दौरान सामने आ चुका है। नये संशोधन में गैर मुस्लिमों को भी वक्फ का सदस्य बनाने का प्रावधान किया गया। नये कानून में संपत्तियों पर उठे किसी भी विवाद के निपटारे के लिये डीएम को अधिकृत किया गया है। डीएम का फैसला अन्तिम होगा और उसे कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकेगी। भारत बहुभाषी और बहुधर्मी देश है। इसलिये संविधान के अनुच्छेद 26 में धार्मिक स्वतन्त्रता का प्रावधान किया गया है। धार्मिक या परोपकारी उद्देश्यों के लिये संस्थाएं स्थापित करना उनका संचालन और धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने के लिये हर धर्म का आदमी स्वतंत्र है। संविधान के इसी अनुच्छेद के आधार पर नये वक्फ विधेयक को असंवैधानिक मानकर इसे सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है। अब यह मामला देश की सुप्रीम अदालत के सामने हैं। आशा की जानी चाहिये की अदालत बहुत जल्द इस संबंध में आयी याचिकाओं का निपटारा करके इसकी वैधता पर अपना फैसला देगी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इन्तजार किया जाना चाहिए। लेकिन इस विवाद से ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो गया है कि देश की दूसरी बड़ी धार्मिक आबादी को सरकार पर अविश्वास क्यों पैदा हो गया है। आखिर इस अविश्वास का आधार और कारण क्या है। इसकी पड़ताल करने के लिये 2014 में आये राजनीतिक सत्ता के बदलाव के बाद उपजी व्यवहारिक स्थितियों पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। भाजपा संघ परिवार की राजनीतिक इकाई है। इसलिये भाजपा के संगठन सचिव का दायित्व हर स्तर पर संघ के ही प्रतिनिधि के पास रहता है। भाजपा का वैचारिक स्रोत संघ है। संघ भारत को शुद्ध हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है। संघ की सारी अनुसांगिक इकाईयां इसी के लिये प्रयासरत है। इस प्रयास में भाजपा की भूमिका और जिम्मेदारी सबसे अहम है। क्योंकि राजनीतिक सत्ता भाजपा के हिस्से में है। हिन्दू राष्ट्र बनाने का रास्ता राजनीतिक सत्ता से होकर गुजरेगा। इस समय भारत में दूसरी बड़ी धार्मिक आबादी मुस्लिमों की है और वह हर राज्य में हैं। मुस्लिमों के बाद सिक्ख आते हैं। और वह संयोगवश एक ही राज्य तक है। इसी हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना में मुस्लिम बाधक हो जाते हैं। फिर देश का बंटवारा भी धार्मिक आधार पर हुआ था और पाकिस्तान मुस्लिम देश बन गया। पाकिस्तान भारत की तरह धर्मनिरपेक्ष चरित्र का नहीं है। जबकि भारत का मूल धर्मनिरपेक्षता है। यदि भारत भी एक ही धर्म को राजनीतिक धर्म बना ले तो इतने बड़े देश में एकता बनाये रखना बड़ा प्रश्न हो जायेगा । इस परिपेक्ष में यदि 2014 के सत्ता परिवर्तन के बाद जिस तरह का व्यवहार मुस्लिम समुदाय के प्रति रहा है उससे स्पष्ट हो जाता है कि एक निश्चित योजना के तहत हिन्दू राष्ट्र की दिशा में प्रयास चल रहे हैं। यह सामने आ चुका है मुस्लिम समाज के प्रति सहानुभूति रखने वाले पाकिस्तान चले जाने की राय मंत्री स्तर के लोगों से आ चुकी है। मेघालय हाईकोर्ट में जब जस्टिस एस आर सेन ने 2018 में भारत को हिन्दू राष्ट्र हो जाने का फैसला दिया था तब वह इस दिशा का एक बड़ा संकेत था। इस फैसले पर आपत्तियां आयी और यह रद्द हुआ। लेकिन फैसला तो आया। फिर संघ प्रमुख डॉ. भागवत के नाम से भारत का संविधान वायरल हुआ। इसमें महिलाओं के अधिकारों पर अंकुश की बात कही गई थी लेकिन यह संविधान कैसे वायरल हुआ इसकी कोई जांच सामने नहीं आयी न ही इसका कोई खण्डन सामने आया। फिर स्कूलों में मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाने का सुझाव आया। गौ रक्षा के नाम पर एक समुदाय के खिलाफ भीड़ हिस्सा का तांडव इस देश ने देखा। नये संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर सांसदों को दी गयी संविधान की प्रति से धर्मनिरपेक्षता शब्द का गायब होना। सम्मान नागरिक संहिता पर उभरा आन्दोलन देश ने देखा है। आज भाजपा सबसे बड़ा राजनीतिक दल है लेकिन इस बड़े दल में एक भी मुस्लिम न विधायक है और न ही सांसद है। केन्द्रीय मंत्री परिषद में एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है। क्या इस तरह की व्यवहारिकता से मुस्लिम समाज सरकार पर विश्वास कर पायेगा। देश के लिये यह बहुत ही कठिन समय है। सरकार को व्यवहारिक स्तर पर कुछ ठोस कदम उठाने होंगे जिससे विश्वास बहाल हो सके।
सरकार के लिये मूल सूत्र बन गया। राजनेताओं के साथ ही प्रदेश की शीर्ष नौकरशाही ने भी स्वर मिला दिया है। किसी ने भी इमानदारी से यह नहीं सोचा कि उद्योगों के लिये प्रदेश में न तो कच्चा माल है और न ही पर्याप्त उपभोक्ता हैं। केवल सरकारी सहायता के सहारे ही प्रदेश में उद्योग आये। जैसे-जैसे सरकारी सहायता में कमी आयी तो उद्योगों का प्रवाह भी कम हो गया। इन्हीं उद्योगों की सहायता में प्रदेश का वित्त निगम और खादी बोर्ड जैसे कई अदारे खत्म हो गये। उद्योग विभाग के एक अध्ययन के मुताबिक प्रदेश में स्थापित हुये उद्योगों को कितनी सब्सिडी राज्य और केंद्र सरकार दे चुकी है उतना उद्योगों का अपना निवेश नहीं है। रोजगार के क्षेत्र में आज भी यह उद्योग सरकार के बराबर रोजगार नहीं दे पाये हैं। जबकि हर सरकार अपने-अपने कार्यकाल में नई-नई उद्योग नीतियां लेकर आयी है।
हिमाचल में गैर कृषकों को सरकार की अनुमति के बिना जमीन खरीदने पर प्रतिबन्ध है। जहां-जहां उद्योग क्षेत्र स्थापित हुये थे वहां श्रमिकों और उद्योग मालिकों को आवास उपलब्ध करवाने के लिये भवन निर्माणों की नीति कब बिल्डरों तक पहुंच गयी किसी को पता भी नहीं चला। जबकि धारा 118 की उल्लंघना पर चार आयोग जांच कर चुके हैं और एक रिपोर्ट पर भी अमल नहीं हुआ है। 1977 के दौर में जो उद्योग आये थे उनमें से शायद एक प्रतिशत भी आज उपलब्ध नहीं हैं। पूरा होटल सरकारी जमीन पर बन जाने के बाद जब चर्चा उठी तो सरकारी जमीन का प्राइवेट जमीन के साथ तबादला कर दिया गया। लेकिन ऐसी सुविधा कितनों को मिली यह चर्चा उठाने का मेरा उद्देश्य केवल इतना है कि आज ईमानदारी से सारी नीतियों पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है। पिछली सरकार के दौरान एक हजार करोड़ निवेश ऐसे भवनों पर कर दिये जाने का आरोप है जो आज बेकार पड़े हैं यह आरोप लगा है। लेकिन इसी के साथ आज जो निवेश एशियन विकास बैंक के कर्ज के साथ किया जा रहा है क्या वह कभी लाभदायक सिद्ध हो पायेगा शायद नहीं। इसलिये आज हर सरकार को यह सोचना पड़ेगा कि यह बढ़ता कर्जभार पूरे भविष्य को गिरवी रखने का कारण बन जायेगा।
आज जो कैग रिपोर्ट वर्ष 2023-24 की आयी है उसमें यह कहा गया है कि इस सरकार ने 2795 करोड़ रूपये कहां खर्च कर दिये हैं इसका कोई जवाब नहीं दिया जा सकेगा। कैग में पहली बार ऐसी टिप्पणी आयी है कि शायद यह निवेश उन उद्देश्यों के लिये खर्च नहीं किया गया है जिनके लिये यह तय था। कैग में यह टिप्पणी भी की गयी है कि 2023 में आयी आपदा के लिये सरकार ने 1209.18 करोड़ खर्च किया है जिसमें से केन्द्र सरकार ने 1190.35 करोड़ दिया है। आपदा राहत के इन आंकड़ों से सरकार के दावों और आरोपों पर जो गंभीर प्रश्न चिन्ह लग जाता है उसके परिदृश्य में राज्य सरकार केन्द्र सरकार से कैसे सहायता की उम्मीद कर सकती है। 2795 करोड़ का कोई हिसाब न मिलना अपने में प्रशासन पर एक गंभीर आरोप हो जाता है। एग्रो पैकेजिंग कॉरपोरेशन का एक समय विशेष ऑडिट करवाया गया था उस ऑडिट रिपोर्ट पर प्रबंधन के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया गया था। क्या आज भी सरकार ऐसा करने का साहस करेगी? जब तक सरकार का वित्तीय प्रबंधन प्रश्नित रहेगा तब तक कोई सहायता मिल पाना कैसे संभव होगा।
जब से सारी व्यवसायिक शिक्षा के लिये प्लस टू की पात्रता बना दी गयी है तब से एक नयी प्रतिस्पर्धा पैदा हो गयी है। इस प्रतिस्पर्धा को प्राईवेट कोचिंग सैन्टरों ने और बढ़ा दिया है। इन्हीं कोचिंग सैन्टरों में आत्महत्याएं बढ़ती जा रही है। यह कोचिंग इतने महंगे हो गये हैं कि आम आदमी इन सैन्टरों में बच्चों को कोचिंग दिलाने की सोच भी नहीं सकता। फिर नीट की प्रतियोगी परीक्षा में जिस तरह से पेपर लीक का प्रकरण घटा है और उसमें इन प्राईवेट संस्थानों की भूमिका सामने आयी है वह अपने में ही एक गंभीर संकट का संकेत है। इसलिये इस समस्या पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि एक भीख मांगने वाला भी चाहता है कि उसके बच्चे को भी अच्छी शिक्षा मिले और वह कुछ बने।
शिक्षा केन्द्र और राज्य सरकारों दोनों की सांझी सूची का विषय है। दोनों इस पर कानून बना सकते हैं। यदि केन्द्र और राज्य के कानून में कोई टकराव आये तब राज्य के कानून पर केन्द्र का कानून हावी होता है। हर राज्य सरकार ने अपने-अपने शिक्षा बोर्ड बना रखे हैं। जो पाठयक्रम और परीक्षा का आयोजन करते हैं। तकनीकी शिक्षा बोर्ड और विश्वविद्यालय भी गठित है। केन्द्र सरकार ने भी शिक्षा बोर्ड और विश्वविद्यालय गठित कर रखे हैं। पाठय पुस्तकों के लिये एन.सी.ई.आर.टी. गठित है। लेकिन यह सब होते हुये भी शिक्षा केन्द्र और राज्य दोनों का विषय बनी हुई है। इसी के कारण व्यवसायिक शिक्षा के लिये जे.ई.ई. और नीट की प्रतियोगिता परीक्षाएं आयोजित की जा रही है। इसलिये यह विचारणीय हो जाता है कि जब इन प्रतियोगी परीक्षाओं की मूल शैक्षणिक योग्यता प्लस टू है तब यदि पूरे देश में प्लस टू का पाठयक्रम ही एक जैसा कर दिया जाये और परीक्षा का प्रश्न पत्र भी एक ही हो तब इन प्रतियोगी परीक्षाओं की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। जब प्रतियोगी परीक्षा के लिये एक ही प्रश्न पत्र होता है तब उसी गणित से प्लस टू के लिये भी एक ही प्रश्न पत्र की व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती।
इस समय पूरे देश में एक ही पाठयक्रम एक ही प्रश्न पत्र की व्यवस्था जब तक नहीं की जाती है तब तक इस प्रणाली में सुधार नहीं किया जा सकता। इस शिक्षा को व्यापार बनाये जाने से रोकने की आवश्यकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य हर आदमी की बुनियादी जरूरत है। इसमें जब तक प्राईवेट सैक्टर का दखल रहेगा तब तक शैक्षणिक संस्थानों में आत्महत्याएं और नकली दवायें तथा अस्पतालों में मरीजों का शोषण नहीं रोका जा सकता। इन क्षेत्रों में प्राईवेट सैक्टर का बढ़ता दखल एक दिन पूरी व्यवस्था को नष्ट कर देगा। समय रहते इस पर एक सार्वजनिक बहस आयोजित की जानी आवश्यक है।