Friday, 19 September 2025
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सच से क्यों भाग रही है मोदी सरकार

जब सरकार ही सच का सामना करने का साहस न कर पाये जो सामने दिवार पर साफ-साफ लिखा है उस पर आंखे बन्द कर ले और यह सब लोकतान्त्रिक सरकार में हो जाये तो क्या लोकतन्त्र को बचाया रखा जा सकेगा? आज यह सवाल हर संवेदलशील बुद्धिजीवी के लिये एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है क्योंकि आज सरकार यह कह रही है कि इस कोरोना में आक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई है। किसी भी राज्य सरकार या केन्द्रशासित प्रदेश से ऐसी कोई जानकारी कोई आंकड़ा उसके पास आया ही नहीं है। आक्सीजन के लिये किस तरह का हाहाकार पूरे देश में मचा हुआ था यह पूरा देश जानता है। दिल्ली की केजरीवाल सरकार और केन्द्र की मोदी सरकार किस तरह आक्सीजन के मसले पर सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गये थे यह पूरा देश जानता है बल्कि देश के लगभग सभी उच्च न्यायालयों ने इस संकट का संज्ञान लेकर सरकारों से सवाल पूछे हैं और समय- समय पर रिपोर्टें तलब की हैं यह सब रिकार्ड उपलब्ध है। जब राज्य सरकारें इस संकट से जूझ रही थी और आक्सीजन की सप्लाई केन्द्र से हो रही थी क्या तब केन्द्र सरकार का राज्यों से यह जानना फर्ज नहीं था कि कहीं आक्सीजन की कमी से कोई मौतें तो नहीं हो रही है। आज जब केन्द्र सरकार यह कह रही है कि राज्यों ने ऐसी कोई रिपोर्ट ही नहीं भेजी है तब क्या केन्द्र को राज्यों से यह पूछना-जानना नहीं चाहिये था। क्या आज राज्यों पर जिम्मेदारी डालकर उनको लोगों का दर्द कम किया जा सकता है जिन्होंने आक्सीजन के कारण अपनों को खोया हैं क्या केन्द्र सरकार का यह इन्कार उन लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कना नहीं हो जायेगा? इस समय मौत के आंकड़ो को लेकर केन्द्र और अन्य ऐजेन्सीयों के आंकड़ों में जो अन्तर सामने आ रहा है उससे सरकार की विश्वसनीयता पर और गंभीर प्रश्नचिन्ह लगते जा रहे हैं। क्योंकि सरकार का आंकड़ा अभी चार लाख बीस हजार तक ही पहुंचा है जबकि अन्यों के मुताबिक यह आंकड़ा चालीस लाख से अधिक है। इन अन्यों में एक अध्ययन करने वाले इसी सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार रहे हैं। कोरोना के प्रबन्धन में सरकारों की असफलता झेल रहे आम आदमी के सामने जब मौतों पर भी सरकार का इन्कार सामने आया है तब उसकी हालात क्या हो रही होगी इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। क्योंकि जब मौतों को भी सरकार राजनीति का विषय बना दे तो ऐसी सरकार का केवल मतदान के दिन ही सच से सामना करवाया जा सकता है।
इसी तरह जासूसी प्रकरण में भी सरकार अपनी भूमिका से इन्कार कर रही है। सरकार और भाजपा का हर नेता केन्द्र से लेकर राज्यों तक सरकार का पक्ष रखते हुए इस प्रकरण को बाहरी ताकतों की साजिश करार दे रहा है। इस प्रकरण मे जो अब तक खुलासे सामने आये हैं उनके मुताबिक इसमें पत्रकारों, राजनेताओं, सरकारी अधिकारियो,ं उद्योगपतियां और न्यायपालिका तक के फोनटैप हुए हैं। इन लोगों की जासूसी की गयी है। इस जासूसी के लिये इजरायल की एक कम्पनी एनओएस का पैगासस स्वाईवेय इस्तेमाल हुआ है। मोदी सरकार के दो मन्त्रीयों की भी जासूसी हुई है। सरकार यह जासूसी होने से इन्कार नहीं कर रही है केवल यह कह रही है कि इसमें उसका हाथ नहीं है। भाजपा नेता पूर्व मन्त्री डा़ स्वामी ने यह कहा है कि जासूसी करने वाली कंपनी एनओएस पैसे लेकर जासूसी करती है। इजरायल का कहना है कि यह स्पाईवेयर केवल सरकारों को ही बेचा जाता है। भारत सरकार इसे देश के खिलाफ विदेशी ताकतों की साजिश करार दे रही है। ऐसे में क्या यह सवाल उठना स्वभाविक नहीं हो जाता कि जब कोई बाहरी ताकत देश के खिलाफ ऐसा षडयन्त्र कर रही है तो भारत सरकार को तुरन्त प्रभाव से इसकी जांच करनी चाहिये। लेकिन मोदी सरकार यह जांच नहीं करवाना चाहती। जब सरकार ने यह जासूसी नहीं करवाई है तो वह जांच करवाने से क्यों भाग रही है। जासूसी हुई है इससे सरकार इन्कार नहीं कर रही है। सरकार ने की नहीं है। तब क्या यह सरकार की जिम्मेदारी नहीं बन जाती है कि इस प्रकरण की जांच करे। सरकार का जांच से भागना देश और सरकार दोनों के ही हित में नहीं होगा।
आक्सीजन की कमी से हुई मौतों से इन्कार करना और इतने बड़े जासूसी प्रकरण के घट जाने पर जांच से भागना ऐसे मुद्दे आज देश के सामने आ खड़े हुए हैं जिन पर हर आदमी को अपने और अपने बच्चों के भविष्य को सामने रख कर विचार करना होगा और अपने बच्चों के भविष्य को सामने रखकर विचार करना होगा। क्योंकि ऐसे ही इन्कारों का परिणाम है मंहगाई और बेरोज़गारी।

क्या अपराधियों और करोड़पतियों के हाथों जनहित सुरक्षित रह सकते हैं

केन्द्र में जब से मोदी सरकार ने सत्ता संभाली है तब से लेकर अब तक करीब तीन सौ मामले देशद्रोह के दायर हुए हैं। इन मामलों में करीब पांच सौ लोगों की गिरफ्तारी हुई है। परन्तु अदालत में केवल नौ लोगों को ही दोषी करार दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने आज आजा़दी के बाद भी देशद्रोह के कानून को चलाये रखने पर हैरानी व्यक्त की है। केन्द्र सरकार से इस पर जवाब मांगा है। जब यह मामला अदालत में पहली बार सुनवायी के लिये आया तब अटार्नी जनरल ने यह कहा है कि अभी इस प्रावधान को खत्म नहीं किया जाना चाहिये। सरकार इस पर क्या जवाब देती है और अदालत का इस पर क्या फैसला आता है यह तो आने वाले दिनों में ही पता चलेगा। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान से इस पर एक बड़ी बहस की शुरूआत अवश्य हुई है। जिन लोगों के खिलाफ देशद्रोह के मामले बनाये गये हैं उनमें अधिकांश में बुद्धिजीवि और पत्रकार रहे हैं। इन लोगों के खिलाफ यह मामले बनाये जाने का आधार प्रायः किसी भी विषय पर सरकार से भिन्न राय रखना या सरकार से तीखे सवाल पूछना रहा है। इससे यही स्पष्ट होता है कि इस सरकार में शायद वैचारिक मत भिन्नता के लिये कोई स्थान नही है। जब कोई सरकार यह मान लेती है कि जनहित को लेकर उससे बेहत्तर सोचने वाला और कोई हो ही नहीं सकता है तब जब भी मत भिन्नता का कोई सवाल सामने आ जाता है तब वह अस्वीकार्य ही नहीं बल्कि देशद्रोह करार दे दिया जाता है। सरकार से भिन्न राय रखना आज देशद्रोह बनता जा रहा है। अभी जिस तरह से ईज़रायल की ऐजैन्सी के माध्यम से पत्रकारों, जजों और विपक्ष के नेताओं की जासूसी करवाने का प्रकरण सामने आया है। उससे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि सवाल पूछने का साहस रखने वालों से सरकार किस कदर परेशान है। अभी संसद का सत्र चल रहा है और पहले ही दिन यह जासूसी प्रकरण सामने आ गया है। संसद में इस पर किस तरह के सवाल उठते हैं और सरकार का जवाब क्या रहता है यह देखना दिलचस्प होगा।
इस समय देश में महंगाई और बेरोज़गारी दोनां अपने चरम पर रहे हैं। यह सब सरकार की नीतियों का परिणाम है। यदि सरकार की नीतियों पर सवाल न भी उठाया जाये तो क्या यह मंहगाई और बेरोज़बारी समाप्त हो जायेगी? क्या इससे सिर्फ सरकार से मत भिन्नता रखने वाले ही प्रभावित हैं और दूसरे नहीं? हर आदमी इससे प्रभावित है लेकिन सरकार से सहमति रखने वालों की प्राथमिकता हिन्दुत्व है। हिन्दुत्व के इस प्रभाव के कारण यह लोग यह नही देख पा रहे हैं कि इन नीतियों का परिणाम भविष्य में क्या होगा? मंहगाई और बेरोज़गारी का एक मात्र कारण बढ़ता निजिकरण है? 1990 के दशक में निजिक्षेत्र की वकालत में सरकारी कर्मचारी पर यह आरोप लगाया गया था कि वह भ्रष्ट और कामचोर है। तब कर्मचारी और दूसरे लोग इसे समझ नही पाये थे। इसी निजीकरण का परिणाम है कि एक-एक करके लाभ कमाने वाले सरकारी अदारों को बड़े उद्योगपतियों को कोड़ियो के भाव में बेचा जा रहा है। यही नहीं इन उद्योगपतियों को लाखों करोड़ का कर्ज देकर उन्हें दिवालिया घोषित होने का प्रावधान कर दिया गया है। इस दिवालिया और एनपीए के कारण लाखों करोड़ बैकों का पैसा डूब गया है बैंकों ने इसकी भरपायी करने के लिये आम आदमी के जमा पर ब्याज घटा दिया है। सरकार अपना काम चलाने के लिये मंहगाई बढा़ रही है क्योंकि उससे टैक्स मिल रहा है। इसी के लिये तो मंहगाई और जमाखोरी पर नियन्त्रण करने के कानून को ही खत्म कर दिया गया है।
आज जिस तरह के संकट से देश गुजर रहा है उस पर संसद में कितनी चिन्ता और चर्चा हो सकेगी इसको लेकर निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि आज की संसद तो अपराधियों और करोड़पतियों से भरी हुई है। इस समय लोकसभा में ही 83% सांसद करोड़पति है। 539 में से 430 करोड़पति है। इन्हीं 539 सांसदों में 233 के खिलाफ आपराधिक मामले हैं। इनमें 159 के खिलाफ तो गंभीर अपराधों के मामले दर्ज हैं। 2014 में 542 में से 185 के खिलाफ मामले थे और 2009 में केवल 162 के खिलाफ मामले थे। जिस संसद में करोड़पतियों और अपराधियों का इतना बड़ा आंकड़ा हो वहां पर आम गरीब आदमी के हित में कैसे नीतियां बन पायेंगी यह अन्दाजा लगाया जा सकता है। मोदी ने कहा था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करवायेंगे। परन्तु यह आंकड़े गवाह है कि उनके नेतृत्व में 2009 से 2014 में और फिर 2019 में यह आंकड़ा लगातार बढ़ता गया है। आज तो मन्त्रीमण्डल में गृह राज्य मन्त्री ग्यारह आपराधिक मामले झेलने वाला व्यक्ति बन गया है। इस परिदृश्य में अब यह आम आदमी पर निर्भर करता है कि वह इस पर क्या सोचता और करता है क्योंकि उसी के वोट से यह लोग यहां पहुंचे हैं।

जब आपराधिक मामला झेल रहा व्यक्ति गृह राज्य मन्त्री बन जाये तो...

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने अपने मन्त्रीमण्डल में उस समय फेरबदल और विस्तार किया है जब देश मंहगाई, बेरोज़गारी और महामारी से जूझ रहा है। अब मन्त्रीमण्डल की कुल संख्या 77 हो गयी है। इतने बड़े मन्त्रीमण्डल से यह सामने आ गया है कि एक समय जो यह कहा गया था कि सरकार ‘‘मिनीमम गवर्नमैन्ट और मैक्सिमम गवर्नैन्स’’ के सिन्द्धात पर चलेगी उससे प्रधानमन्त्री को समझौता करना पड़ गया है। क्योंकि पहले उससे लगभग आधे मन्त्री थे। यही नहीं प्रधानमन्त्री ने देश की जनता से वायदा किया था कि वह संसद को अपराधीयों से मुक्त करवा देंगे। अब इस वायदे से भी पीछे हटना पड़ा है और ऐसे व्यक्ति को गृह राज्य मन्त्री बनाना पड़ा जिसके अपने ही शपथ पत्र के मुताबिक उसके खिलाफ ग्याहर आपराधिक मामले अब तक लंबित हैं। बंगाल से राज्यमन्त्री बनाये गये निशीथ प्रमाणिक के खिलाफ ग्याहर आपराधिक मामले दर्ज हैं जिनमें हत्या तक का भी आरोप है। प्रमाणिक ने यह जानकारी स्वयं चुनाव आयोग को सौंपे शपथ पत्र में दी है और यह मामले अभी तक लंबित है एक न्यूज साईट ने यह खुलासा किया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ किये गये दावों और वायदों का सच भी इसी तरह का है क्योंकि जिस नारायण राणे के खिलाफ कभी स्वयं आरोप लगाये थे वह अब कैबिनेट मन्त्री है। इसलिये यह कहना कि जिन मन्त्रीयों को हटाया गया है वह नान परफारमिंग थे और जिनको लाया गया है वह जनता को मंहगाई और बेरोज़गारी से निजात दिला देंगे ऐसा मानना एकदम गलत होगा। यह सारा फेरबदल और विस्तार केवल रातनीतिक बाध्यताओं का परिणाम है। क्योंकि इसमें ए डी आर रिपोर्ट के अनुसार 42% मन्त्री ऐसे हैं जिनके खिलाफ मामले हैं। इससे यही संदेश गया है कि प्रधानमन्त्री और भाजपा सत्ता के लिये किसी भी हद तक समझौते कर सकते हैं।
सत्ता के पहले कार्यकाल में भी प्रधानमन्त्री ने अपनी मन्त्री परिषद में तीन बार विस्तार किया था और हर बार यह फेरबदल कुछ राज्यो में चुनावों को ध्यान में रख कर किया गया था। लेकिन तब इतना बड़ा आकार नहीं हुआ था। तब भी कई मन्त्रीयों की छुट्टी करके उनके स्थान पर नये लोगों को लाया गया था। लेकिन तब यह चर्चाएं नहीं उठी थी कि अमुक मन्त्री के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। इसलिये यह समझना आवश्यक हो जाता है कि इस बार प्रधानमन्त्री को अपराध और भ्रष्टाचार के खिलाफ समझौते करने की आवश्यकता क्यों आ खड़ी हुई। यह सही है कि अगले वर्ष कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और चुनावों के परिदृश्य में राजनीतिक ताजपोशीयां होना कोई नयी बात भी नहीं है। लेकिन बंगाल के परिणामों ने जिस तरह से देश की राजनीति को प्रभावित किया है उसके बाद सारे राजनीतिक फैसलों को उसी आईने से देखना आवश्यक हो जाता है। आज बंगाल और केन्द्र हर रोज़ किसी न किसी मुद्दे पर टकराव में आ रहे हैं। लेकिन बंगाल की जिस हिंसा को आधार बनाकर वहां सरकार गिराने का वातावरण तैयार किया जा रहा है क्या वही हिंसा यू पी में आकर वैध हो जाती है? क्या यू पी की हिसां पर भी बंगाल जैसी ही चिन्ता नहीं की जानी चाहिये? भले ही सरकार के मानदण्ड दोनों जगह अलग अलग हैं लेकिन मंहगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त आम आदमी अब राजनीति के इस खेल को समझने लग पड़ा है।
मन्त्री परिषद का यह विस्तार उस समय आया है जब संयुक्त राष्ट्र संघ जैसा मंच भी स्टेन स्वामी की जेल में हुई मौत पर नाराज़गी व्यक्त कर रहा था और फ्रांस में राफेल सौदे की जांच शुरू हो गयी है। इन दोनो मुद्दों पर अन्तर्राष्ट्रीय जगत में देश की प्रतिष्ठा पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं और भारत सरकार इनमें कुछ भी गलत न होने की बातें कर रही हैं। यह मुद्दे अब देश के अन्दर भी चर्चा का विषय बनते जा रहे हैं। इनका प्रभाव आने वाले दिनों में सरकार पर पड़ना तय है और उस समय एनडी के शेष बचे सहयोगी भी शिवसेना तथा अकालीदल के रास्ते न अपना लें इसलिये इस विस्तार में सहयोगी दलों को स्थान दिया गया है। सत्ता की सुरक्षा के लिये किये गये इन समझौतों ने भाजपा तथा मोदी को अन्य दलों की बराबरी में लाकर खड़ा कर दिया है और यही इसके लिये आगे घातक सिद्ध होगा।

क्या चुनाव जीतने के लिये कुछ भी करना सही है

पांच राज्यों में चुनावों चल रहे हैं असम और बंगाल में दो चरणों का मतदान हो चुका है। इस मतदान के बाद केवल भाजपा ने यह दावा किया है कि वह दोनों राज्यों में सरकार बनाने जा रही है। बंगाल में पहले चरण के मतदान के बाद गृह मन्त्री अमितशाह ने यह दावा किया है कि भाजपा इसमें 30 में से 26 सीटें जीत रही है। दूसरे चरण के बाद भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय ने दावा किया है कि भाजपा 30 में से 30 सीटें जीत रही है। दूसरे चरण के मतदान में यह भी देखने को मिला है कि मुख्यमन्त्री ममता को एक पोलिंग बूथ पर जा कर बैठना पड़ा क्योंकि वहां लोगों को वोट देने से रोके जाने की खबरें आ रही थी। ममता ने पोलिंग बूथ से प्रदेश के राज्यपाल से इसकी शिकायत की। चुनाव आयोग से भी इसकी शिकायत की गयी। बंगाल में एक भाजपा नेता का आडियो वायरल हुआ है जिसमें वह चुनाव आयोग को प्रभावित करने की बात कर रहे हैं। जब यह दूसरे चरण का मतदान हो रहा था तब प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी एक चुनावी रैली में ब्यान दे रहे थे कि ममता नन्दीग्राम से चुनाव हार गयी हैं उन्होंने अपनी हार स्वीकार कर ली और वह अब किसी दूसरे क्षेत्र से भी चुनाव लड़ने की सोच रही हैं। प्रधानमन्त्री यह ब्यान उस समय दे रहे थे जब नन्दीग्राम में मतदान चल रहा था। क्या एक प्रधानमन्त्री को इस तरह का ब्यान देना चाहिये? यह इस चुनाव के बाद सार्वजनिक बहस के लिये एक बड़ा सवाल बनना चाहिये।
असम के पहले चरण के मतदान के बाद भी ऐसे ही दावे किये गये हैं। वहां के सारे छोटे बड़े समाचार पत्रों ने पहले पन्ने पर भाजपा के दावों के आंकड़े ऐसे छापे हैं जैसे की वह उनकी खबर हो। लेकिन वास्तव में यह खबर के रूप में भाजपा का विज्ञापन था। कांग्रेस ने चुनाव आयोग से इसकी शिकायत करते हुए असम के मुख्यमन्त्री, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किये जाने की मांग की है। चुनाव आयोग ने वहां के समाचार पत्रों को इस संबंध में पत्र भी भेजा है। यहां पर दूसरे चरण के बाद ईवीएम मशीन भाजपा उम्मीदवार की पत्नी की गाड़ी में पकड़ी गयी है। इसके लिये संबंधित चुनाव अधिकारियों को निलंबित कर दिया गया है। एक अन्य स्थान पर ईवीएम मशीने एक ट्रक में मिलने की बात भी सामने आयी है। प्रधानमन्त्री जब इन्हीं चुनावों के दौरान जब बंग्लादेश गये थे तब वहां ब्यान दिया कि बंग्लादेश की आजा़दी में उनका भी योगदान रहा है। वह भी इसके लिये जेल गये थे। इस जेल जाने पर आप सांसद संजय सिंह ने प्रधानमन्त्री से सवाल पूछा है कि भारत तो बांग्लादेश के साथ था और युद्ध पाकिस्तान के साथ हो रहा था तो आपको किसने जेल भेजा था भारत ने या पाकिस्तान ने। स्वभाविक है कि प्रधानमन्त्री ने यह ब्यान भी इन चुनावों को सामने रख कर ही दिया है। अन्यथा शायद वह ऐसा कुछ न कहते।
इन चुनावों के लिये भाजपा का सीएए पर स्टैण्ड हर राज्य में अलग अलग हो गया है। बंगाल में मन्त्रीमण्डल की पहली बैठक में इसे लागू करने की बात करते हैं तो असम में इस पर पुनर्विचार करने की। तमिलनाडु में इसका कोई जिक्र नहीं है। भाजपा ने जब बंगाल में दो सौ सीटें जीतकर सरकार बनाने का दावा किया था तब चुनाव रणनीतिकार प्रशान्त किशोर ने कहा था कि भाजपा सौ के आंकड़े से पीछे रहेगी। इस पर इण्डिया टूडे के राहुल कंवर ने किशोर से पूछा था कि भाजपा सौ से पार कैसे जा पायेगी। तब किशोर ने कहा था कि यदि केन्द्रिय बलों पर कहीं कोई हमला हो जाता है तो भाजपा सौ से पार जा सकती है। इण्डिया टूडे में किशोर का यह इन्टरव्यू करीब एक माह पहले का है। अब छत्तीसगढ़ में नक्सलीयों का केन्द्रिय बलों पर हमला हो गया है। इस हमले को प्रशांत किशोर के वक्तव्य के आईने में देखते हुए बंगाल चुनावों से जोड़ कर देखा जा रहा है। क्योंकि इन्ही चुनावों में गृह मन्त्री अमितशाह ने यह कहा है कि बंगाल में भाजपा की हार राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये एक बड़ा खतरा होगी।
इस तरह इन चुनावों में अब तक जो कुछ घट चुका है उसको सामने रखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि आने वाला समय देश के लिये बहुत कठिन होने वाला है। अभी छोटी बचतो पर ब्याज दरें कम करने का फैसला यह कहकर वापिस लिया गया कि गलती से ऐसा जारी हो गया। स्वभाविक है कि जब बड़े उद्योग घरानों को दिया हुआ कर्ज वापिस नहीं आया है तो बैंकों के पास निश्चित रूप से पैसे की कमी है। ऐसे में नया कर्ज देने के लिये यह ब्याज दरें ही कम की जायेंगी। हो सकता है कि पैन्शन में भी कटौती करने की हालत आ जाये। इस तरह इन चुनावों के साथ भविष्य के लिये जो संकेत ईवीएम से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा और छोटी बचतों पर ब्याज दरों को कम करने तक के सामने आये हैं उन्हें गंभीरता से लेना होगा। इसके प्राथमिकता के आधार पर इन मुद्दों पर एक-एक करके राष्ट्रीय बहस उठानी होगी।

क्या आज लोकतन्त्र और प्रहरी दोनों के अर्थ बदल गये हैं

सरकार ने पिछले दिनों लोकतन्त्र के प्रहरीयों को सम्मानित किया है। लोकतन्त्र के यह वह प्रहरी हैं जिन्होंने पैंतालीस वर्ष पहले 26 जून 1975 को लगे आपातकाल का विरोध किया था। इस विरोध के लिये इन्हें जेलों मे डाल दिया गया था। इन पैंतालीस वर्षों में केन्द्र से लेकर राज्यों तक में कई बार गैर कांग्रेसी सरकारें सत्ता में आ चुकी हैं लेकिन इस सम्मान का विचार पहली बार आया है। इस नाते इसकी सराहना की जानी चाहिये क्योंकि असहमति को भी लोकतन्त्र में बराबर का स्थान हासिल है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि अहसमति स्वस्थ्य लोकतन्त्र का एक अति आवश्यक अंग है। लेकिन क्या आज जिन शासकों ने लोकतन्त्र के इन प्रहरीयों को चिन्हित और सम्मानित किया है वह असहमति को सम्मान दे रहे हैं? क्या आज असहमति के स्वरों को दबाकर उनके खिलाफ देशद्रोह के आपराधिक मामले बनाकर उनको जेलों में नहीं डाला जा रहा है। क्या आज मज़दूर से हड़ताल का अधिकार नहीं छीन लिया गया है। क्या आज पुलिस को यह अधिकार नहीं दे दिया गया है कि वह किसी को भी बिना कारण बताये गिरफ्तार कर सकती है। असहमति के स्वरों को मुखर करने के लिये कितने चिन्तक आज जेलों में है। दर्जनों पत्रकारों के खिलाफ देशद्रोह के मामले बना दिये गये हैं। क्या ऐसे मामलों को असहमति का भी आदर करना माना जा सकता है शायद नहीं। लेकिन आज की सत्ता में यह सबकुछ हो रहा है। उसे लगता है कि केवल उसी की सोच सही है। ऐसे में जब सरकार आपातकाल में जेल गये लोगों को लोकतन्त्र का प्रहरी करार देकर सम्मानित कर रही है तब यह सवाल पूछा जाना आवश्यक हो जाता है कि क्या आज लोकतन्त्र की परिभाषा बदल गयी है। यदि परिभाषा नहीं बदली है तो फिर आज असहमति को बराबर का स्थान क्यों नहीं दिया जा रहा है।
26 जून 1975 को आपातकाल लगा था क्योंकि तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. श्रीमति गांधी ने 12 जून को ईलाहबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के फैसले के बाद अपने पद से त्यागपत्र नहीं दिया था। उस समय स्व. जय प्रकाश के नेतृत्व में चल रहे ‘‘समग्र क्रान्ति’’ आन्दोलन ने देश के नागरिकों से सरकार के आदेशों को न मानने के लिये सविनय अवज्ञा का आह्वान कर दिया था। इस स्थिति को टालने के लिये आपातकाल लागू करने का फैसला लिया गया। आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। नागरिक अधिकारों पर एक तरह का प्रतिबन्ध लग गया। पूरे देश में गिरफ्तारियों का दौर चला। लेकिन आपातकाल में ऐसा कोई भी फैसला नहीं आया जिससे देश की आर्थिक स्थिति खराब हुई हो। मंहगाई और जमाखोरी के खिलाफ कड़े कदम उठाये गये थे। केवल नसबन्दी का ही एक मात्र ऐसा फैसला था। जिसमें कई लोगों के साथ ज्यादतीयां हुई। बल्कि कई लोगों का मानना रहा है कि यदि नसबन्दी की ज्यादतीयां न होती तो शायद 1977 के चुनावों में भी कांग्रेस न हारती। आपातकाल में विरोध और असहमति को जिस तरह दबाया गया उसका परिणाम हुआ कि 1977 के चुनावों में कांग्रेस को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। इन चुनावों के बाद स्व. मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। इस सरकार ने आपातकाल के दौरान हुए भ्रष्टाचार और ज्यादतीयों की जांच करवाने का फैसला लिया। इसके लिये केन्द्र में शाह कमीशन का गठन किया गया और इसी तर्ज पर राज्यों ने अपने अपने कमीशन गठित किये।। हिमाचल में जिन्द्रालाल कमीशन गठित हुआ। लेकिन केन्द्र से लेकर राज्यों तक किसी भी कमीशन कोई जांच रिपोर्ट सामने नहीं आयी है। 1980 में जनता पार्टी की सरकार टूट गयी क्योंकि शिमला के रिज पर शान्ता कुमार की पुलिस ने केन्द्र के स्वास्थ्य मन्त्री राजनारायण को गिरफ्तार कर लिया। कांग्रेस फिर सत्ता में आ गयी। क्योंकि उसके पास 1953 में बढ़ी जिमीदारी प्रथा खत्म करने और फिर राजाओं के प्रीविपर्स बन्द करने और बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने जैसे फैसलों की विरासत थी। जबकि इन फैसलों का विरोध राजगोपालाचार्य चौधरी चरण सिंह, जनसंघ के अध्यक्ष बलराज मधोक, मीनू मसानी और रूस्तमजी कावसजी कपूर जैसे नेता कर चुके थे। बैंक राष्ट्रीयकरण पर तो सर्वोच्च न्यायालय ने खिलाफ फैसला दे दिया था। जिसे श्रीमति गांधी ने 25वां संविधान संशोधन लाकर बदला था। इस तरह कांग्रेस के शासनकाल में डा. मनमोहन सिंह तक ऐसा कोई आर्थिक फैसला नहीं आया है जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर कुप्रभाव पड़ा हो या गरीब आदमी के हित में न रहा हो।
इसके विपरीत आज मोदी शासन में नोटबन्दी से लेकर कृषि कानूनों तक हर फैसले का अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। मंहगाई और बेरोज़गारी लगातार बढ़ती जा रही है। हर ओर से यह आरोप लग रहा है कि सरकार केवल कुछ पूंजीपतियों की ही हित पोषक होकर रह गयी है। संवैधानिक संस्थानों को योजनाबद्ध तरीके से कमजोर किया जा रहा है। सरकार के फैसलों पर सवाल उठाने और पूछने वाली हर आवाज़ को देशद्रोह करार दिया जा रहा है। सीएए और एनआरसी पर केन्द्र सरकार का बंगाल और असम में अलग-अलग स्टैण्ड सामने आ चुका है लेकिन आन्दोलनों को कैसे दबाया गया यह भी किसी से छिपा नहीं है। किसान आन्दोलन भी उसी दौर से गुजर रहा है। आज के हालात को आम आदमी आपातकाल से तुलना करके देखने लग पड़ा है। यह सवाल उठने लग पड़ा है कि आपातकाल में लोकतन्त्र के प्रहरी का धर्म निभाने वालों के लिये क्या आज लोकतन्त्र और धर्म दोनों के अर्थ बदल गये हैं।

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