Friday, 19 September 2025
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पर्यटकों को क्लीन चिट और शादी समारोहों को दोष

कोरोना के बढ़ते मामलों का संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय से लेकर कई प्रदेशों के उच्च न्यायालयों ने इस पर चिन्ता जताई है। सभी ने इस पर सरकारों से इस संद्धर्भ में उनकी तैयारी को लेकर रिपोर्ट तलब की है। सरकार की तैयारीयों पर सवाल भी उठाये हैं और निर्देश भी दिये हैं। इन निर्देशों में मास्क पहनने और सोशल डिस्टैन्सिंग की अनुपालना करने पर सभी ने एक बराबर जोर दिया है। इनकी अनुपालना न होने पर जुर्माना लगाने के आदेश भी दिये गये हैं। लेकिन यह सवाल कहीं नहीं उठाया गया है कि जब 24 मार्च को पूरे देश में बिना किसी पूर्व सूचना के लाकडाऊन कर दिया गया था तब उसके परिणामस्वरूप सारे अस्पतालों में तुरन्त प्रभाव से व्यवहारिक रूप से सारा ईलाज बन्द हो गया था। उस समय अस्पतालों में जो मरीज दाखिल थे उन्हें घर भेज दिया गया था। ओपीडी बन्द कर दी गयी थी। इसके कारण वह मरीज बिना ईलाज के हो गये थे। बल्कि यह कहना ज्यादा सही और व्यवहारिक होगा कि आज भी कोरोना के अतिरिक्त अन्य बिमारियों का ईलाज पूरी तरह बहाल नहीं हो पाया है। लोग अभी भी अस्पतालों में ईलाज के लिये जाने से डर रहे हैं। लोगों में यह डर कितना और किस कदर घर कर गया है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस कोरोना काल में शिमला के एक शमशान घाट में कोरोना मृतकों के हुए अन्तिम संस्कारों में से पांच दर्जन से अधिक मृतकों की अस्थियां लेने कोई परिजन वहां नहीं आया है। प्रबन्धकों के सामने यह एक समस्या खड़ी हो गयी है कि वह इन अस्थियों का विसर्जन कहां और कैसे करें।
हिन्दु संस्कारों में अस्थि विसर्जन की अपनी एक प्रक्रिया और महता है। लेकिन इससे इन संस्कारों की प्रसांगिकता पर सवाल खड़ा हो जाता है। क्योंकि कोरोना से जिन लोगों की शिमला में मृत्यु हो गयी थी, उनका अन्तिम संस्कार शिमला में ही करने के आदेश थे। ऐसे शवों को उनके पैतृक स्थानों पर नहीं ले जाया गया। इनका अन्तिम संस्कार भी प्रशासन की नामजद टीम ने किया। आधी रात को भी संस्कार कर दिये जाने की घटना यहीं पर हुई थी। इस पर जांच तक बैठी थी। यह सब इसलिये हुआ क्योंकि आम आदमी को सरकार की व्यवस्था ने इतना डरा दिया कि वह अपनों के संस्कार में शामिल होने से भी डरा और आज उनकी अस्थियां लेने का भी साहस नहीं कर पा रहा है। ऐसे में क्या यह सवाल उठना स्वभाविक नहीं है कि इस डर से आम आदमी को बाहर कौन निकालेगा और कैसे निकालेगा। जिन मरीजों का ईलाज लाकडाऊन के कारण एक दम बन्द हो गया था यदि उनमें से 25% भी गंभीर रहे हों और उनमें से किसी को भी कोरोना का संक्रमण हो गया हो तो उसकी हालत क्या हुई होगी, क्या वह जिन्दा रह पाया होगा? क्या इसके लिये किसी की जिम्मेदारी नहीं बनती है?
आज प्रदेश में कोरोना के बढ़ते मामलों पर चिन्ता व्यक्त करते हुए प्रदेश उच्च न्यायालय ने सरकार को यह निर्देश दिया था कि प्रदेश में आने वाले हर व्यक्ति का कोरोना टैस्ट करवाया जाये। ताकि इसके फैलाव को रोका जा सके। उच्च न्यायालय के इन निर्देशों पर होटल व्यवसायियों ने आपत्ति जताई और मुख्यमन्त्री ने इस चिन्ता को अधिमान देते हुए यह टैस्ट करवाने से छूट दे दी है। मुख्यमन्त्री ने कोरोना के बढ़ते फैलाव के लिये शादी आदि समारोहों के आयेाजनों को जिम्मेदार ठहराया है। क्योंकि उच्च न्यायालय ने भी आम आदमी द्वारा लापरवाही बरतने को जिम्मेदार माना है। इस तरह आम आदमी का व्यवहार मुख्यमन्त्री और उच्च न्यायालय दोनों की नज़र में दोषी है। सरकार के निर्देशों के बाद शादी आदि समारोहों का निरीक्षण करना भी प्रशासन ने शुरू कर दिया है। कुल्लु, मनाली मेें तो एक ऐसे आयोजक की गिरफ्तारी भी की गयी है। प्रशासन के इस कदम से आम आदमी में डर और कितना बढ़ेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। लेकिन यहां पर यह सवाल उठना भी स्वभाविक है कि सरकार ने यह कैसे मान लिया कि प्रदेश मेे आने वाले पर्यटक कोरोना के वाहक नही हो सकते। एक पर्यटक का ठहराव प्रदेश में होता ही कितना हैं शायद एक सप्ताह से ज्यादा नहीं। फिर उसके कारण किसी को संक्रमण हुआ है या वह स्वयं संक्रमित हुआ है इसकी जानकारी तो शायद एक सप्ताह के भीतर नहीं आ पाती है। यहां पर कोरोना के मामले तब बढ़ने शुरू हुए थे जब प्रदेश में बाहर से आने वालों को अनुमति दी गयी थी। तब तो शादी समारोह भी शुरू नहीं हुए थे। फिर मुख्यमन्त्री सहित आधे से ज्यादा मन्त्री संक्रमित हो चुके हैं। एक दर्जन से ज्यादा विधायक और इतने ही अधिकारी संक्रमित हो चुके हैं। पुलिस के साथ पर्यटकों की बदतमीज़ी के कई मामले मास्क आदि न पहनने को लेकर शिमला में ही घट चुके हैं। ऐसे में होटल मालिकों के दबाव में पर्यटकों को क्लीन चिट देना व्यवहारिक नहीं होगा।

एक राष्ट्र-एक चुनाव के मायने

पीठासीन अधिकारियों के 80वें सम्मेलन को संबोधित करते हुए महामहिम राष्ट्रपति ने यह चिन्ता व्यक्त की है कि संसद से लेकर राज्यों तक की विधानसभाओं में सार्थक और रचनात्मक संवाद नही हो रहा है जबकि यह विचार विमर्श ही है जो विवाद पैदा नही होने देता है। इसी अवसर पर उपराष्ट्रपति ने तो यहां तक कह दिया कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका सभी अपने अधिकारों का अतिक्रमण कर रहे हैं। इसी सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमन्त्री ने फिर एक राष्ट्र-एक चुनाव की आवश्यकता पर बल देते हुए तर्क दिया है कि ज्यादा चुनाव विकास में बाधा पहुंचाते हैं। देश के तीन शीर्षस्थ व्यक्तियों ने जो चिन्ताएं व्यक्त की हैं उन्हे नकारा नही जा सकता है। यह इस समय के कड़वे सच हैं। लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी खड़ा होता है कि क्या इन सवालों के हल की प्रक्रिया भी इन्ही तीनों के स्तर पर ही शुरू नही होनी चाहिये? यदि आज संसद से लेकर विधानसभाओं तक में सार्थक और रचनात्मक संवाद नही हो रहा है तो इसके लिये जिम्मेदार कौन है? क्या इसका दोष देश की जनता को दिया जाना चाहिये जो अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजती है? या उस व्यवस्था को दोष दिया जाना चाहिये जिसके तहत ऐसे आपराधिक छवि के माननीयों की संख्या बहुत ज्यादा हैं। इनके मामलों को प्राथमिकता के आधार पर निपटने की कई व्यवस्थाएं शीर्ष अदालत दे चुकी है। लेकिन परिणाम क्या रहा है शायद कुछ भी नही। इस बार जब आपराधिक छवि के लोगोें पर चुनाव लड़ने से प्रतिबन्ध लगाने की एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में आयी तो उस पर कोई भी व्यवस्था देने से शीर्ष अदालत ने यह कह कर इन्कार कर दिया कि यह अधिकार केवल संसद के पास है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में ही देश से वायदा किया था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करायेंगे। लेकिन इस दिशा में कोई सार्थक कदम उठाने की बजाये अपनी पार्टी में ही यह नही कर पाये हैं कि भाजपा ही किसी अपराधी को संसद या विधानसभाओं में अपना उम्मीदवार न बनाती। लेकिन ऐसा किया नही गया है।
इस परिप्रेक्षय में यदि इन चिन्ताओं का आकलन किया जाये तो जो अहम सवाल उभरकर सामने आते हैं कि जब इस शीर्ष पर बैठे हुए व्यक्ति ऐसा मान रहे है लेकिन इसे बदलने के लिये कुछ कर नही पा रहे हैं तो फिर इनके बाद ऐसा कौन है जिसके कुछ करने से यह स्थितियां बदलेंगी? अपराधियों को माननीय बनने से रोकने में शीर्ष अदालत ने दखल देने से इन्कार कर दिया है। प्रधानमन्त्री वायदा करके कोई कदम उठा नही पाये हैं। तो क्या यह मान लिया जाये कि सही में अराजकता की स्थिति बन गयी है या फिर शीर्ष पर बैठे यह लोग जानबूझ कर इसे बदलने का प्रयास नही कर रहे हैं यह दोनों ही स्थितियां घातक होंगी। क्योंकि इस सबका असर आम आदमी पर पड़ रहा है उसका विश्वास सारे स्थापित संस्थानों पर से उठता जा रहा है। चुनाव आयोग की विश्वसनीयता लगातार सन्देह के दायरे में चल रही है और अब इसी कड़ी में उच्च न्यायापालिका भी आ खड़ी हुई है।
ऐसे में जब प्रधानमन्त्री फिर एक राष्ट्र-एक चुनाव की बात करते हैं तो फिर यह सवाल खड़ा होता है कि यदि सही में प्रधानमन्त्री ऐसा मानते हैं तो उन्हे ऐसा करने से रोक कौन रहा है। इस समय जो कानून लागू हंै उसके अनुसार सारी विधानसभाओं और लोक सभा के चुनाव एक साथ नही करवाये जा सकते। क्योंकि वर्तमान नियमों के तहत किसी भी विधानसभा या केन्द्र में लोकसभा का कार्यकाल पांच वर्ष से आगे नही बढ़ाया जा सकता है। इस कार्यकाल को कम करके चुनाव तय समय से पहले करवाने की सिफारिश तो की जा सकती है कार्यकाल बढ़ाने की नही। इसके लिये अलग से संसद में एक नया अधिनियम लाना होगा। लेकिन यदि सही में यह मंशा हो कि स्थिति में सुधार लाना है तो उसके लिये सर्वोच्च न्यायालय में इस समय दो याचिकाएं लंबित हैं। इनमें एक याचिका में यह आग्रह किया गया है कि आगे आने वाले सभी चुनाव ईवीएम की बजाये बैलेट पेपर से करवाये जायें। सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में जब ईवीएम के साथ वीवीपैट जोड़ने का आदेश किया था तभी यह मान लिया था कि ईवीएम के परिणाम पूरी तरह विश्वसनीय नही है। इसलिये आज बैलेट पेपर से चुनाव करवाने की मांग को मान लिय जाना चाहिये। इसी के साथ आपराधियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने को शीर्ष अदालत संसद का अधिकार क्षेत्र करार दे चुकी है। प्रधानमन्त्री ने भी संसद को अपराधियों से मुक्त करवाने का वायदा देश से कर रखा है। अब इस वायदे को पूरा करने का समय आ गया है। अब जब प्रधानमन्त्री ने एक राष्ट्र एक चुनाव की बात फिर से दोहरायी है तब इसे अमली जामा पहनाने से पहले इन दो लंबित आग्रहों को कानूनों की शक्ल दे दी जानी चाहिये। यदि ऐसा हो जाता है तो इसी से बहुत सारी समस्याओं का समाधान हो जाता है। अन्यथा ऐसे सारे ब्यान चाहे वह किसी भी स्तर से आये हो केवल जनता का ध्यान भटकाने के प्रयास ही माने जायेंगे।

कांग्रेस में उठते सवालों का औचित्य

बिहार विधानसभा और उसी के साथ हुए अन्य राज्यों के उपचुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा नही रहा है। इन परिणामों के बाद कांग्रेस में फिर एक विवाद खड़ा हो गया है। पूर्व मन्त्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने आरोप लगाया है कि इन चुनावों को गंभीरता से नही लिया गया। कपिल सिब्बल के आरोप का जबाव तो लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन और राजस्थान के मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने दिया है। कपिल सिब्बल के बाद राज्यसभा में दल के नेता गुलाम नवी आज़ाद ने भी कहा है कि कांग्रेस का संपर्क आम आदमी से टूट गया है। कांग्रेस के अन्दर जो यह स्वर उठने लगे हैं उससे आम आदमी का ध्यान भी इस ओर आकर्षित हुआ है क्योंकि बिहार विधानसभा चुनावों से पहले भी कांग्रेस के करीब दो दर्जन नेताओं ने सोनिया गांधी को एक पत्र लिखकर कुछ सवाल खड़े किये थे। लेकिन जैसे ही यह पत्र वायरल हुआ था तब कई नेताओं का इस पर स्पष्टीकरण भी आ गया था। बिहार विधानसभा या अन्य राज्यों में हुए उपचुनावों की कोई अधिकारिक समीक्षा पार्टी की ओर से अभी तक सामने नही आई है। बिहार में पार्टी का गठबन्धन आर जे डी और अन्य दलों के साथ था। महागठबन्धन बनाकर तेजस्वी यादव के नेतृत्व में यह चुनाव लड़ा गया था। महागठबन्धन के चुनाव हारने को चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली को दोषी ठहराया गया है। जिस तरह के साक्ष्य इस संद्धर्भ में सामने आये हैं उनसे चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठते हैं।
ईवीएम की विश्वसनीयता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने अक्तूबर 2013 को भाजपा नेता डा. स्वामी की याचिका पर दिये फैसले में ईवीएम के साथ वी वी पैट लगाये जाने का फैसला विश्वसनीयता के सन्देहों को दूर करने के लिये ही दिया था। यह सुनिश्चित किया था कि चुनाव परिणाम पर सवाल उठने के बाद वी वी पैट की पर्चीयांें की गिनती सुनिश्चित की जायेगी। बिहार चुनाव में यह आरोप लगा है कि कुछ मतगणना केन्द्रों में वी वी पैट की पर्चीयां ही गायब मिली हैं। इसका नुकसान आर जे डी और कांग्रेस दोनों के उम्मीदवारों को हुआ है। इसको लेकर आर जे डी अदालत में जाने का रास्ता देख रही है। आपराधिक छवि के लोगों को उम्मीदवार बनाने और उनके अपराधों की सूची को समुचित रूप से प्रचारित न करने तथा ऐसे लोगों को पार्टी का उम्मीदवार बनाने के कारणों को सार्वजनिक करने के लिये मुख्य चुनाव आयुक्त और बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी के खिलाफ आयी अदालत की अवमानना की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने नोटिस जारी कर दिया है क्योंकि शीर्ष अदालत ने इस आशय के आदेश इसी वर्ष दे रखे हैं। इन आदेशों की अनुपालना न किया जाना भी चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाता है।
चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर 2014 में हुए लोकसभा चुनावों से लेकर आज बिहार विधानसभा तक हुए हर चुनाव पर सवाल उठे हैं। ईवीएम को लेकर आधा दर्जन से अधिक याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय मेें लंबित है। ईवीएम पर उठे सवालों से हर चुनाव परिणाम का आकलन किसी भी राजनीतिक दल की लोकप्रियता के रूप मेें किया जाना एकदम आप्रसांगिक हो गया है। फिर कांग्रेस के लिये तो उसके अपने ही नेताओं के ब्यानों ने हर चुनाव में कठिनाईयां पैदा की हैं। कभी शशी थरूर तो कभी सैम पित्रोदा जैसे नेताओं के ब्यानों पर कांग्रेस के विरोधीयों ने बवाल खडे किये हैं। अभी इन्ही चुनावों में कमलनाथ के ब्यान से पार्टी के लिये परेशानी खड़ी हुई है। इसलिये आज बिहार की हार के बाद यह कहना कि इन चुनावों को गंभीरता से नही लिया गया या पार्टी आम आदमी से कट गयी है यह सही आकलन नही होगा। क्योंकि इन चुनावों से ठीक पहले सामने आये पार्टी के वरिष्ठ तेईस नेताओं के पत्र से ही इस हार की पटकथा लिख दी गयी थी यह कहना ज्यादा संगत होगा।
आज जब तक ईवीएम की विश्वनीयता पर उठते सवालों का अन्तिम जबाव नही आ जाता है तब तक चुनाव परिणाम इसी तरह के रहेंगे यह स्पष्ट है। इसलिये आज पहली आवश्यकता ई वी एम के प्रयोग पर फैसला लेने की है। क्योंकि कोरोना काल में लाॅकडाऊन के कारण परेशानीयां झेल चुके मतदाता से यह उम्मीद करना कि उसने फिर उसी व्यवस्था को समर्थन दिया होगा यह उस प्रवासी मजदूर के साथ ज्यादती होगी। बिहार विधानसभा के चुनाव परिणामों में हार जीत का जो अन्तराल सामने आया है और उस पर जिस तरह के सवाल उठे हैं उससे चुनाव आयोग पर उठते सन्देहों को और बल मिलता है। इस परिदृश्य में आज कांग्रेस नेताओं को नेतृत्व पर परोक्ष/अपरोक्ष में सवाल उठाने से पहले इन बड़े सवालों पर विचार करना होगा। 2014 के चुनावों से पहले अन्ना आन्दोलन के माध्यम से भ्रष्टाचार के जो आरोप लगाये गये थे क्या उनमें से कोई भी छः वर्षों में प्रमाणित हो पाया है। क्या आम आदमी को सरकार के इस चरित्र के प्रति जागरूक करना आवश्यक नही है? आज राहुल गांधी के अतिरिक्त कांग्रेस के और कितने नेता हैं जो सरकार से सवाल पूछने का साहस दिखा रहे हैं। राहुल गांधी की छवि बिगाड़ने के लिये मीडिया में किस तरह से कितना निवेश किया गया है यह कोबरा पोस्ट के स्टिंग आप्रेशन से सामने आ चुका है लेकिन कांग्रेस के कितने नेताओं ने इसे मुद्दा बनाया है इस समय भाजपा जिस तरह के वैचारिक धरातल पर काम कर रही है उसका जबाव उसे उसी वैचारिकता की तर्ज पर देना होगा। इसलिये आज जिस तरह के सवाल कांग्रेस का एक वर्ग उठा रहा है उससे न तो संगठन का और न ही समाज का भला होगा।

क्या फिर जेपी आन्दोलन जैसे हालात बन रह हैं

बिहार के चुनाव परिणाम एनडीए के पक्ष में गये हैं। लेकिन चुनाव परिणामों की निष्पक्षता पर बहुत से गंभीर सवाल भी उठ गये हैं। परिणाम अधिसूचित हो चुके हैं। इसलिये इन सवालों का जबाव केवल चुनाव याचिकाएं ही रह जाता है। लेकिन जिस तरह से साक्ष्य आरोपों में सामने आ रहे हैं उससे चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर जो सवाल उठ रहे हैं उससे आम आदमी की सब्र का बांध कब टूट जाये यह कहना कठिन है। क्योंकि 2014 से लेकर अब तक हुए हर चुनाव पर सवाल उठते आ रहे हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों में जितने भारी बहुमत से एनडीए उम्मीदवार चुनाव जीते हैं उसके मुकाबले में यह जीत एक तरह से तो हार ही है। 2019 के लोकसभा चुनावों के लिये जब एग्जिट पोल के अनुमान सामने आये थे तब उस अनुमानों पर नतीजो ने मोहर लगा दी थी। लेकिन इस बार नतीजों ने एग्जिट पोल के अनुमानों को भले ही गलत साबित कर दिया हो परन्तु इससे महागठबन्धन के नेताओं की चुनावी सभाओं में उमड़ी भीड़ के बदलाव में सकंल्प पर भी मोहर लगा दी है। क्योंकि यह चुनाव कोरोना के परिदृश्य में हुए हैं। इस कारण लगे लाॅकडाऊन में किस तरह की पीड़ा आम आदमी ने भोगी है और इस कारण जो जख्म उसे मिले हैं वह अभी भरे नही  हैं। ऐसे में भले ही आम आदमी के रोष को चुनावी प्रबन्धन के सहारे बदल दिया गया है लेकिन इससे उसकी पीड़ा और मुखर हो जायेगी इस संभावना से इन्कार नही किया जा सकता। तेजस्वी यादव ने जिस तरह से नयी बनने वाली सरकार को जनवरी तक का समय दिया है उससे यह स्पष्ट संकेत उभर रहे हैं कि अब एक नये जेपी आन्दोलन के लिये ज़मीन तैयार हो गयी है।
जब संवैधानिक संस्थाओं पर से विश्वास उठने लग जाता है तब आम के पास सत्ता की निरंकुशता को रोकने के लिये आन्दोलन के अतिरिक्त कोई विकल्प नही रह जाता है। चुनाव आयोग पर हर बार गंभीर सवाल उठ रहे हैं लेकिन कोई जवाब नही आया है। इन सवालों को सर्वोच्च न्यायालय की चैखट पर ला दिया गया लेकिन वहां भी कोई जवाब नही मिल रहा है। इस समय उच्च न्यायालयों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक करीब एक दर्जन याचिकाएं ईवीएम को लेकर लंबित  हैं । ईवीएम पर से आम आदमी का विश्वास पूरी तरह से उठ चुका है क्योंकि सत्ता पक्ष से जुडे़ ही कई नेता और कार्यकर्ता यह कह चुके हैं कि ईवीएम का साथ तो उन्हें ही हासिल है। हरियाणा विधानसभा चुनावों के दौरान एक जिम्मेदार नेता का ऐसा ब्यान बहुत चर्चा में रहा है जिसका कोई खण्डन नही आया है। जनता और सारा विपक्ष ईवीएम की जगह वैलेट पेपर की पुरानी व्यवस्था की मांग कर रहा है। अधिकांश देश ईवीएम का त्याग कर चुके हैं लेकिन हमारे यहां चुनाव आयोग, सरकार और सर्वोच्च न्यायालय तक इसे सुनने को तैयार नही है। लेकिन अब बिहार चुनाव ने संभवतः इसके लिये ज़मीन तैयार कर दी है।
इस ज़मीन को सर्वोच्च न्यायालय के अनर्ब गोस्वामी को राहत दिये जाने को लेकर आये फैसले से और हवा मिल जाती है। गोस्वामी को अन्तरिम जमानत देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिये अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है वह अतिप्रशंसनीय है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस संद्धर्भ में उच्च न्यायालयों की भूमिका पर भी सवाल उठाये हैं। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से यह बहस भी छिड़ गयी है कि क्या इस तरह की त्वरित राहत केवल प्रभावशाली व्यक्तियों को ही मिलेगी औरों को नही। गोस्वामी के पक्ष में सारी भाजपा और केन्द्र से लेकर राज्यों तक की सरकारों के मन्त्री सामने आ गये थे। लेकिन भाजपा की सरकारों में ही जो पत्रकारों के खिलाफ मामले बनाये जा रहे हंै उन पर भाजपा की चुप्पी एक अलग ही तस्वीर पैदा करती है। हिमाचल में ही उन्नीस पत्रकारों के खिलाफ मामले बना दिये गये हैं। उत्तर प्रदेश में पत्रकारों के खिलाफ दर्जनों मामले दर्ज हैं। हाथरस जाते हुए केरल के पत्रकार कटपन्न के खिलाफ बनाये गये मामले को तो वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल सर्वोच्च न्यायालय ले गये थे लेकिन उसे राहत देने की बजाये निचली अदालत में भेज दिया गया था। कई वांमपंथी, बुद्धिजीवी जेलों में बन्द हैं लेकिन उनके मामलों में सुनवाई नही हो रही है। अभी कुणाल कामरा के खिलाफ बनाया गया अदालत की अवमानना का मामला इसका ताजा उदाहरण है। इस समय सरकार की नीतियों पर सवाल उठाना अपराध बन गया है। न्यायपालिका में भी जब केवल सत्ता के पक्षधर लोगों को ही त्वरित मिल पायेगा और आम आदमी को नही तब कानून की नजर में सबके बराबर होने की बात केवल कागज़ी होकर ही रह जाती है। सर्वोच्च न्यायालय के अर्नब गोस्वामी पर आये फैसले के बाद बार एसोसियेशन के प्रधान दुशयन्त दबे ने जो पत्र सर्वोच्च न्यायालय को इस संद्धर्भ में लिखा है उस पर शीर्ष अदालत की चुप्पी आम आदमी के विश्वास को जो ठेस पहुंचायेगी उसका अंदाजा लगाना कठिन है। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि आज आम आदमी का विश्वास व्यवस्था पर से पूरी तरह उठ चुका है और विश्वास का यह उठना ही आन्दोलन की ईवारत लिखेगा।

क्या बिहार भाजपा के हाथ से निकल रहा है

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने जब देश को संबोधित किया था तब लोगों को उम्मीद थी कि वह आम आदमी को पेश आ रही आर्थिक कठिनाईयों पर कुछ कहेंगे और कोई राहत की घोषणा करेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बल्कि यह कहकर कि लाकडाऊन खत्म हुआ है वायरस नहीं और जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं। इससे आम आदमी को अपरोक्ष में और डरा दिया। प्रधानमन्त्री के इस संबोधन के बाद ही मध्यप्रदेश में उच्च न्यायालय ने पूर्व मुख्यमन्त्री कमलनाथ और वर्तमान केन्द्रीय मन्त्री तोमर के खिलाफ कोरोना निर्देशों की अनुपालना न करने के लिये एफआईआर दर्ज करने के निर्देश दे दिये। उच्च न्यायालय की इस सख्ती के बाद मुख्यमन्त्री शिव राज सिंह चौहान को दो चुनावी सभाएं रद्द करनी पड़ी और उन्होंने उच्च न्यायालय की अपील सर्वोच्च न्यायालय में करने का ऐलान भी किया। बिहार की चुनाव सभाओं में भी कोरोना निर्देशों की अनुपालना नहीं हो रही है यह पूरी तरह सामने आ चुका है। बिहार में भाजपा नेता सुशील मोदी, शाह नवाज हुसैन और राजीव प्रताप रूढी कोरोना संक्रमित पाये जाने के बाद उपचार में चले गये हैं। इस तरह प्रधानमन्त्री के संबोधन से लेकर बिहार के नेताओं के कोरोना पाजिटीव पाये जाने से इस महामारी की गंभीरता और सामने आ जाती है। इस समय पूरा देश इस महामारी से जूझ रहा है और इसके कारण पूरे देश की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो चुकी है। करोड़ों लोगों का रोज़गार छिन गया है। हर प्रदेश में ऐसे लोग लाखों में हैं। मोटे तौर पर हर प्रवासी मज़दूर का रोज़गार छिना है।
प्रधानमन्त्री ने अपने संबोधन में उम्मीद जताई है कि अगले वर्ष फरवरी तक इसकी वैक्सीन आ जायेगी। लेकिन यह संभावना है पक्का नहीं। कोरोना काल में पहली बार कोई विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। फिर बिहार में प्रवासी मज़दूर सबसे ज्यादा हैं। यह प्रवासी मज़दूर वह वर्ग है जिसने कोरोना-लाकडाऊन की भयानकता को स्वयं भोगा है। लाकडाऊन में यही प्रवासी मज़दूर सैंकड़ों मील पैदल चल कर घर पहुंचा है। सरकारी व्यवस्थाएं कितनी कारगर और कितनी लचर रही है इसका अनुभव इस मज़दूर से ज्यादा किसी को नहीं है। इस कोरोना और लाकडाऊन में आपसी रिश्ते सोशल डिस्टैसिन्ग के नाम पर कैसे व्यवहारिक दूरीयों में बदल गये हैं। कैसे लोग एक दूसरे की खुशी और गमी में शरीक नही हो पाये हैं यह हर आदमी ने स्वयं अनुभव किया है। कैसे अस्पतालों में हर बिमारी का ईलाज बन्द कर दिया गया और कोरोना मरीजों के ईलाज के भी कितने पुख्ता प्रबन्ध थे तथा यह ईलाज कितना मंहगा था यह सब आम आदमी ने देखा और भोगा है। गोदी मीडिया ने किस तरह से महामारी में तब्लिगी समाज़ के नाम पर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ एकतरफा अभियान चला रखा था। यह सब आम आदमी ने देखा और भोगा है। गोदी मीडिया के प्रचार पर सरकार एक दम खामोश रहकर उसका समर्थन कर रही थी और अदालतों ने भी इस पर प्रतिबन्ध लगाने से मना कर दिया था यह सब इसी कोरोना काल में घटा है। शीर्ष अदालत ने कितने अरसे बाद प्रवासी मज़दूरों के हालात पर विचार करना शुरू किया था। यह सब आम आदमी के जहन में है। सरकार के सारे दावे और वायदे कितने खोखले साबित हुए हैं यह खुलकर सामने आ चुका है। शायद आज़ादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि महामारी और आर्थिक मार दोनों को एक साथ झेलना पड़ा है।
ऐसे संकट के काल में भी जब सरकार कानून बनाकर मज़दूर से उसका हड़ताल का हक छीन ले और किसी ने कारपोरेट घरानों का गुलाम बनाने का खेल रच दे तो उससे सरकार की नीयत और नीति दोनों एकदम समझ आ जाती है। जब आम आदमी रोज़ी रोटी के संकट से जूझ रहा हो तब चुनाव आयोग चुनावी खर्च में दस प्रतिशत की बढ़ौत्तरी कर दे तो यह समझ आ जाता है कि इस संकट में भी नेता नाम का एक वर्ग है जिसे लाभ हुआ है। ऐसे परिदृश्य में जब किसी प्रदेश की विधानसभा का चुनाव हो रहा हो तो यह कैसे माना जा सकता है कि इसी व्यवस्था के हाथों पीड़ित और प्रताड़ित बेरोज़गार होकर बैठा प्रवासी मज़दूर उसी व्यवस्था को अपना समर्थन देकर फिर से सत्ता सौंप देगा। आज बिहार के चुनाव में जो हर रोज़ तपस्वी यादव और राहुल की सभाओं में भीड़ बढ़ रही है वह आदमी की पीड़ा का प्रमाण है शायद सत्तापक्ष को भी पटना से लेकर दिल्ली तक यह बात समझ आ गयी है कि आम आदमी अब उससे दूर हो चुका है। इसलिये पहले पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने नागरिकता अधिनियम को लागू करने की बात की। शायद यह उम्मीद थी कि नागरिकता पर उभरा आन्दोलन जो लाकडाऊन की आड़ में बन्द करवाया गया था फिर से उभर जायेगा और उससे नये सिरे से धु्रवीकरण की राह आसान हो जायेगी। लेकिन ऐसा नही हो पाया। इसीलिये अब वित्तमन्त्री सीता रमण को यह ऐलान करना पड़ा कि बिहार में कोरोना वायरस का वैक्सीन मुफ्त में जनता को उपलब्ध करवाया जायेगा। वित्तमन्त्री की इस घोषणा का अर्थ है कि आप बिमार आदमी को यह कह रहे हैं कि पहले तुम मेरा वोट देकर समर्थन करो और मैं तुम्हारा मुफ्त में ईलाज करूंगा। महामारी से तो पूरा देश पीड़ित है हरेक की वित्तिय स्थिति प्रभावित हुई है। ऐसे में क्या हर आदमी को वैक्सीन की उपलब्धता बिहार की तर्ज पर मुफ्त में नहीं की जानी चाहिये। यदि इस समय भाजपा विपक्ष मे होती तो ऐसे ब्यान पर सरकार संकट में आ जाती। चुनाव आयोग से लेकर शीर्ष अदालत तक सब पर इसका संज्ञान लेने का दवाब बना दिया जाता। वित्तमन्त्री का यह ऐलान राजनीतिक शुचिता के सारे मानदण्डों के खिलाफ है और इसे हताशा का ही परिणाम माना जा रहा है। इससे चुनाव आयोग की निष्पक्षता भी सवालों के घेरे में आ खड़ी होती है।

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