पिछले दिनों मोदी सरकार ने बैड बैंक (Bad Bank) की स्थापना की है और केन्द्र सरकार ने इसमें 36000 करोड़ निवेश करके इसकी शुरूआत कर दी है। भारत में यह प्रयोग पहली बार किया जा रहा है। वैसे वित मंत्री निर्मला सीतारमण इस पर 2017 से विचार कर रही थी। लेकिन अभी सितंबर माह में ही एन पी ए को लेकर जो रिपोर्ट ऐसोचेम और क्रिसील की आयी है उसके बाद यह कदम तुरंत प्रभाव से उठा लिया गया है इसके परिणाम कैसे रहते हैं यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा। वैसे यह प्रयोग पहली बार 1988 में अमेरिका के एक बैंक समूह में हुआ था। उसके बाद 2012 में स्पेन, फीनलैंड, स्वीडन, बैल्जियम और इण्डोंनेशिया में हो चुके हैं लेकिन यह प्रयोग बहुत सफल नहीं रहे हैं। बहुत संभव है कि अधिकांश पाठकों को यह जानकारी ही नहीं है कि यह बैड बैंक की अवधरणा है क्या और इसे स्थापित करने की आवश्यकता क्यों पडती है तथा इसका देश की आर्थिकी पर क्या प्रभाव पडता है। बैड बैंक का सीधा संबंध बैड लोन से हो जाता है जब बैंकों का एन पी ए एक ऐसी सीमा तक पहुंच जाता है जो उनके प्रबंधन के वश में नहीं रहता और उससे बैंको का सामान्य काम काज भी प्रभावित हो जाता है तथा उसे बट्टे खाते में डालकर भी स्थिती सुधारने की संभावना ना रहे तब बैड बैंक का प्रयोग अंतिम विकल्प रह जाता है। किसी भी बैंक या अन्य वितीय संस्थान द्वारा दिए गए कर्ज की वापसी आनी रूक जाती है और ऐसा लगातार तीन माह तक चलता रहे तथा कर्ज वापसी की सारी संभावनाएं धूमिल हो जाऐं तब ऐसे कर्ज को बैंक बैड बैंक को बेच देता है। ऐसे कर्ज को घाटे में बेचा जाता है। इससे कर्ज देने वाले बैंक के रिकार्ड से एन पी ए का दाग हट जाता है और उसकी वर्किंग सामान्य हो जाती है।
दूसरी ओर अब इस कर्ज को वसूलने की सारी जिम्मेवारी बैड बैंक की हो जाती है। बैड बैंक कर्जदार की समंपत्तियां बेचे या गांरटी देने वालां से वसूली करे यह सब बैड बैंक की अपनी कार्यशैली पर निर्भर करता है। यह सब करने के बावजूद भी यदि कुछ कर्ज की वसूली न हो पाये तो इसकी भरपाई करने की गांरटी सरकार की होती है। इस तरह बैड बैंक बैड लोन की वसूली करने का एक और मंच बन जाता है। ऐसे में जो सवाल खडें होते हैं कि जब किसी सरकार को बैड बैंक बनाने की स्थिति खडी हो जाती है तो उसका अर्थ होता है कि अधिकांश बैंक फेल होने के कगार पर पहुंच गये हैं। यह बैंक अपना काम जारी रख पाने की स्थिती में नहीं रह गये हैं। इन्हें लोगों के जमा पर ब्याज घटाने और कर्ज देने की ब्याज दर बढ़ाने की अनिवार्यता हो जाती है। बल्कि नये कारोबार के लिए यह ऋण देने की स्थिती में नहीं रह गए होते हैं। ऐसी स्थिती में ही मंहगाई और बेरोजगारी लगातार बढ़ती चली जाती है। इस समय देश ऐसी ही स्थिती से गुजर रहा है। यह मंहगाई और बेरोजगारी सरकार के नियंत्रण से पूरी तरह बाहर हो जायेगी। इस स्थिति पर कैसे नियंत्रण पाया जाए इस पर विचार करने से पहले कर्ज और एन पी ए के आंकडो पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है।
वर्तमान सरकार ने 2014 में सत्ता संभाली थी। उस समय केंद्र सरकार का कर्ज 53.11 लाख करोड़ था जो आज बढ़कर 150 लाख करोड़ से उपर हो गया है। उस समय बैंकों का कुल एन पी ए 2,24,542 करोड़ था जो आज बढ़कर दस खरब करोड़ हो गया है। दिसम्बर 2017 में यह एन पी ए 7,23,513 करोड़ था। यह आंकडे आर टी आई में सामने आये है। 2018 में सरकार ने एक योजना शु़रू की थी प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना। इसमें 59 मिनट में एक करोड़ का कर्ज देने की घोषणा की गयी थी। इस योजना के तहत 2019 के मध्य तक खुले मन से बैंको ने एम एस एम ई के लिये कर्ज बांटे हैं। 2019 में ही लोकसभा के लिये चुनाव हुए जिनमें भारी बहुमत से भाजपा फिर सता में आ गयी। अब जो आर टी आई में एन पी ए की सूचना आयी है उसके मुताबिक एम एस एम ई के लिए प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में जो कर्ज दिया गया है उसी के कारण दिसम्बर 2017 का सात लाख करोड़ का एन पी ए सितंबर 2021 में ऐसोचेम की रिपोर्ट के मुताबिक दस खरब को पहुंच गया है। प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में बांटे गए ऋण के अधिकांश लाभार्थियों की तो पूरी जानकारी भी बैंकों के पास नहीं है। हर प्रदेश में ऐसे ऋण दिये गये हैं इनकी वसूली लगभग अंसभव हो गयी है। इसी वसूली के लिये बैड बैंक बनाना पडा है। इसके माध्यम से भी यह वसूली हो पायेगी यह असंभव है। यह भी तय है कि जब बैंक इस हालत तक पहुंच गये हैं तो इसका असर मंहगाई और बेरोजगारी पर पडेगा। अभी आम आदमी को यह जानकारी नहीं है कि सता में बने रहने के लिये ही प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना शुरू की गयी थी जो 2019 में ही बंद कर दी गयी अब इस एन पी ए से उभरने के लिए ही कर्ज को बेचने की योजना बैड बैंक के माध्यम से लायी गयी है। आर्थिकी की समझ रखने वालों की नजर में बैड बैंक की नौबत आना एक बडे़ खतरे का संकेत है और इसके प्रभावों से बाहर आ पाना आसान नही होगा।
लेकिन इसी सबमें यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है कि सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस उस समय अपने मुख्यमन्त्री बदलने की रणनीति पर क्यों आ गये हैं। इस बदलाव का इनके संगठनो और जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा। इसके लिये सत्ता पक्ष से इसका आकलन शुरू करना ज्यादा प्रसांगिक होगा। क्योंक कि इस समय भाजपा इतने बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज है जहां पर उसे कोई भी विधेयक पास करवाने मे किसी भी दूसरे दल के सहयोग की आवश्यकता ही नही हैं इसीलिये बिना किसी बहस के कानून बनते जा रहे हैं और सर्वोच्च न्यायालय तक इस पर चिन्ता जता चुके हैं। 2014 से भाजपा की जीत की जो लहर चल रही थी उसे 2021 में आकर बंगाल में ब्रेक लगी है। बंगाल के चुनावों में प्रधान मन्त्री नेरन्द्र मोदी, गृह मन्त्री अमित शाह अैर राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की सक्रियता जितनी बड़ी हो गयी थी उसके परिदृश्य में इसके परिणामों की भी सीधी जिम्मेदारी इन्ही पर आ जाती हैं भले ही इस बारे योगी आदित्यनाथ के अतिरिक्त किसी ने भी परोक्ष/ अपरोक्ष में सवाल उठाने का सहास न किया हो। बंगाल का हार में पार्टी के मनोबल और मोदी पर अति आस्था दोनों को गहरा धक्का पहुचाया है यह एक स्थापित सच है। यह सर्वेक्षेणों ने ही सामने ला दिया है। कि मोदी की लोकप्रियता 66%से घटकर 24% तक आ पहुंची है। इस घटती लोकप्रियता का असर आने वाले चुनावों पर न पडे यह सबसे बड़ी चिन्ता बन चुकी है। इस घटाव का कारण अब तक लिये आर्थिक फैसले हैं। इन फैसलों पर उपजी लोकप्रियता को हिन्दु मुस्लिम के गुणा-भाग में दबा दिया जा रहा था। लेकिन किसान आन्दोलन ने इस गुणा-भाग पर जिस तरह पर्दा खींचा है उससे भीतर का नंगा सच एकदम बाहर आ गया है । किसान आन्दोलन में सारे प्रयासों के बावजूद भी हिन्दू- मुस्लिम न खड़ा हो पाना एक ऐसा सच बन गया है जिसने सारे किले को ध्वस्त करके रख दिया है। इस गिरते प्रभाव से बचने के लिये अभी से राज्यों में मुख्यमन्त्री बदलने की रणनीति पर चलने की लाईन ली गयी है। इससे 2024 तक आते-आते इस अलोकप्रियता को कितना रोका जा सकेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।
इस समय किसान आन्दोलन हर राजनीतिक दल के लिये केन्द्रिय बिन्दु बन चुका है। सत्ता पक्ष और उससे परोक्ष- अपरोक्ष में सहानुभूति रखने वालों के लिये इस आन्दोलन को असफल करना पहला काम हैं सारे विपक्ष के लिये किसान आन्दोलन को सफल बनाना पहली प्राथमिकता है। इस आन्दोलन ने देश की 80ः जनता को आन्दोलन के मुद्दों पर सक्रिय सोच में लाकर खडा कर दिया है। क्योंकि भण्डारण और कीमतों पर से नियन्त्रण हटाना सबको समझ आता जा रहा है। किसान आन्दोलन की सबसे बड़ी जमीन पंजाव है क्योंकि यह किसान और किसानी का केन्द्र हैं । ऐसे में जब पंजाब में कांग्रेस की सरकार होते हुए वहां का मुख्यमन्त्री पंजाब के किसानों को वहां से धरने प्रदर्शन बन्द करने और अंबानी-अदाणी को सुरक्षा देने की बात करे तो क्या यह कदम एक तरह से पूरी पार्टी के खिलाफ राष्ट्रीय षडयन्त्र नही बन जाता है। कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के किसान आन्दोलन के विरोध मे आये ब्यान सभी के संज्ञान में हैं। बल्कि यह माना जा रहा है कि कांग्रेस हाई कमान को यह कदम बहुत पहले उठा लेना चाहिये था। 2014 से लेकर आज 2012 तक यदि भाजपा शासन में कोई सबसे ज्यादा प्रताडित रहा है तो उसमें सबसे पहले नाम दलित ओर मुस्लिम समूदाय के ही रहे हें। आज कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमन्त्री बनाकर न केवल भूल सुधार की है बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर एक सकारात्मक सन्देश भी दिया है। इस सन्देश का लाभ न केवल कांग्रेस बल्कि पूरे देश को होगा।
इस तरह जो विरोध उस समय शुरू हुआ था वह आज तक किसी न किसी शक्ल में चलता आ रहा है। आरक्षण विरोधीयों में यह धारणा बन चुकी है कि भाजपा की सरकार ही इसे समाप्त करेगी। इसी धारणा के परिणामस्वरूप 2014 में जब से केन्द्र में भाजपा की सरकार आयी है तब से कई राज्यों में आरक्षण को लेकर आन्दोलन हो चुके हैं और यह मांग रही है कि या तो हमे भी आरक्षण दो या सबका बन्द करो। इसीके परिणामस्वरूप आज स्वर्ण आयोग गठित करने की मांग उठनी शुरू हो गयी है। जब कि भाजपा के इसी शासन में सर्वोच्च न्यायालय ने जब प्रोमोशन में आरक्षण पर रोक लगायी तब संसद में इस फैसले को पलट दिया। अब जब महाराष्ट्र सरकार के फैसले को शीर्ष अदालत ने संविधान के खिलाफ करार दिया तो इसे भी संसद में पलट कर राज्यों को अधिकार दे दिया कि वह ओबीसी की सूची अपने अनुसार तैयार कर सकते हैं। स्वभाविक है कि जब इस सूची में नये लोग जुड़ेंगे तब यह अपने लिये और आरक्षण की मांग करेंगे। तब तक रोहिणी आयोग की रिपोर्ट भी आ जायेगी और एक नया विवाद खड़ा हो जायेगा। आरक्षण जारी रहेगा और इसे कोई खत्म नही कर सकता। भाजपा ऐसा नहीं होने देगी इसकी स्पष्ट घोषणा गृहमन्त्री अमितशाह कर चुके हैं। 2014 से 2021 तक सरकार के आचरण पर यदि नजर डाली जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा का हर कदम आरक्षण को संरक्षण देने का ही रहा है। इस परिदृश्य मे यह नहीं लगता कि भाजपा की मोदी सरकार स्वर्ण आयोग का गठन करके स्वर्णों के लिये अलग से आरक्षण की कोई व्यवस्था कर पायेगी। पिछले लेख में भी मैंने यह आशंका व्यक्त की थी। उस पर कई पाठकों ने इस समस्या का समाधान सुझाने का आग्रह किया है। इस पर कुछ कहने का प्रयास करूंगा।
स्मरणीय है कि जब इस संद्धर्भ में काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहला आयोग 1953 में गठित हुआ था उसने 1955 में अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए यह आग्रह किया था कि इस रिपोर्ट पर अमल न किया जाये। काका कालेलकर ने भी अपने पत्र में यह सुझाव दिया था कि इन जातियों/वर्गों को मुख्य धारा में लाने के लिये आरक्षण का नहीं वरन आर्थिक प्रोत्साहन देने का प्रयास किया जाये इसके कुछ सुझाव भी दिये थे। इसके बाद जब दूसरे आयोग की सिफारिशों को 1990 में लागू किया गया और उसका जमकर विरोध हुआ तब आरक्षण का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया। इन्दिरा साहनी मामले में इसका फैसला आया। सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण का आधार आर्थिक संपन्नता करने को कहा। इसके लिये क्रीमी लेयर तैयार करने की बात की और उस समय उसकी सीमा एक लाख रूपये रखी गयी। लेकिन आज मोदी सरकार के आने के बाद इस क्रीमी लेयर की सीमा 2015 में आठ लाख कर दी गयी है। इस पर आज तक चार बार इस सीमा में संशोधन किया गया है। इस पर अगर गंभीरता से विचार करे तो इसका अर्थ यह निकलता है कि हर वह आदमी जिसकी आय आठ लाख नहीं है वह आरक्षण का हकदार है। आज शायद प्राईवेट सैक्टर में काम/ नौकरी करने वाले 90% लोग ऐसे नहीं मिलेंगे जो एक साल में आठ लाख कमा पाते हो या पगार लेते हों। बल्कि सरकारी क्षेत्र में नौकरी करने वालो में भी शायद 80% ऐसे कर्मचारी होंगे जो 8 लाख की बचत नहीं कर पाते हैं। तब प्रति व्यक्ति आय ही अभी तक दो लाख नही हो पायी है तो आठ लाख होने मे तो और कई दशक निकल जायेंगे। जब क्रीमी लेयर की सीमा आठ लाख कर दी गयी है तब आरक्षण का प्रतिशत भी उसी अनुपात में होना चाहिये। जब क्रीमी लेयर की यह सीमा इसी सरकार ने 2015 में की है तब उस पर अमल करने में सरकार को परेशानी क्यों होनी चाहिये। क्या क्रीमी लेयर की इस सीमा का किसी ने विरोध किया है? क्या इसी में सारी जातियां अपने आप ही शामिल नहीं हो जाती। क्रीमी लेयर के मानक पर अमल करने से किसी भी जाति के लिये अलग से कोई व्यवस्था करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है क्योंकि यह व्यवस्था तो सुप्रीम कोर्ट ने सुझायी है। आज तो स्वर्ण आयोग की मांग करने की बजाये क्रीमी लेयर पर अमल करवाने के लिये सारी जातियों को एक मंच पर आकर इसकी मांग करनी चाहिये। जब सरकार अपनी ही व्यवस्था पर अमल करने को तैयार न हो तो उससे समझ जाना खहिये की सरकार की नीयत क्या है। इस समय जब सब कुछ आऊट सोर्स किया जा रहा है तब सरकार के पास नौकरी देने के लिये बचेगा ही क्या।
रोटी, कपड़ा और मकान हर व्यक्ति की मूल आवश्यकताएं होती हैं। अब इन में शिक्षा और स्वास्थ्य भी जरूरी आवश्यकताओं में जुड़ गयी हैं। सभी नागरिकों को यह सुविधायें आसानी से और एक जैसी गुणवता की उपलब्ध हो रही हैं तथा इनको हासिल करने की क्रय शक्ति सभी की एक समान बढ़ी है यह सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व तथा विकास का लक्ष्य होता है। यदि इन मानको पर कोई शासन व्यवस्था पूरी नही उतरती है तब उसकी नीतियों को लेकर सवाल उठने शुरू हो जाते हैं और ऐसे विकास को एक पक्षीय माना जाता है। इस सबकी परख संकट के समय में होती है। आज महामारी के संकट ने इस आकलन की ऐसी आवश्यकता और परिस्थिति लाकर खड़ी कर दी है जिसे कोई चाह कर भी नजर अन्दाज नही कर सकता है। महामारी के इस संकट काल में करोड़ो लोग ऐसे सामने आये हैं जिन्हें इन सुविधाओं की कमी आयी और न्यायपालिका को इसमें दखल देना पड़ा। कोई भी राज्य सरकार इससे अछूती नही रही है। ऐसे में जब इस तरह के समारोहों के अवसर आते हैं तब सभी संबद्ध पक्षों को जिसमें आम नागरिक से लेकर व्यवस्था के लिये उत्तरदायी चेहरों को एक सार्वजनिक संवाद स्थापित करके खुले मन से बिना किसी पूर्वाग्रह के एक चर्चा करनी चहिये थी जो हो नही सकी है।
आज प्रदेश के संद्धर्भ में इस चर्चा को लेकर कुछ सवाल उठने आवश्यक हो जाते हैं। 1948 से लेकर आज 2021 तक के सफर पर जब नजर जाती है तब पगडण्डीयों से शुरू हुई यह यात्रा जब महामार्गां तक पहुंच जाती है तो विकास का एक अहसास स्वतः ही हो जाता है। जब जिले में ही एक स्कूल होता था और आज हर पंचायत में ही दो-दो तीन-तीन विद्यालय हो गये हैं। हर पंचायत में कोई न कोई स्वास्थ्य संस्थान उपलब्ध है। हर घर में बिजली का बल्ब जलता है और हर गांव सड़क से जुड़ चुका है। विश्वविद्यालय और मैडिकल कालेज तक प्रदेश में उपलब्ध हैं। बड़ी बड़ी जल विद्युत परियोजनायें और बडे़ बड़े सीमेंट उद्योग सब कुछ प्रदेश में उपलब्ध हैं। लेकिन क्या ये सारी उपलब्धताएं उपलब्ध होने के बावजूद प्रदेश के आम नागरिक का जीवन आसान हो पाया है? क्या यह सारी उपलब्धताएं हासिल करने की समर्थता उसमें आ पायी है? बड़े उद्योग और उसमें बड़ा निवेश आने से राज्य के जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा तो बढ़ गया है पर इससे गरीबी की रेखा से भी नीचे रहने वालों का आंकड़ा समाप्त हो पाया है? क्या इससे सारे शिक्षण संस्थानों में सभी विषयों के अध्यापक उपलब्ध हो पायें हैं? क्या सारे स्वास्थ्य संस्थानों में पूरे डाक्टर और दूसरा स्टाफ उपलब्ध हो पाया है? क्या प्रदेश में ही पैदा होने वाला सीमेंट यहीं पर सबसे महंगा नही मिल रहा है? प्रदेश को बिजली राज्य का दर्जा हासिल होने के बावजूद बेरोजगारों का आंकड़ा क्यों बढ़ रहा है? ऐसे दर्जनों सवाल है जिन पर स्वर्ण जयन्ती पर चर्चा होनी चाहिये थी।
प्रदेश के इस विकास से जो कर्जभार बढ़ा है क्या उससे प्रदेश कभी बाहर आ पायेगा? प्रदेश में सारा सार्वजनिक क्षेत्र 1974 और उसक बाद स्थापित हुआ था। इसमें वित निगम जैसा संस्थान ही बन्द हो गया है। जिस सरकार का वित निगम ही बन्द हो जाये वहां के औद्योगिक विकास को कैसे आंका जाये ? प्रदेश पर 1980 तक शायद कोई कर्ज नही था ऐसा 1998 में आये श्वेत पत्र में दर्ज है। फिर चालीस वर्षों में ही यह कर्ज 70 हजार करोड़ पहुंच जाये तो क्या प्रदेश के कर्णधारों से यह सवाल नही पूछा जाना चाहिये की यह निवेश कहां हुआ है? क्योंकि यदि इसी गति से यह कर्ज बढ़ता रहा तो तो एक दिन सचिवालय का खर्च उठाना भी संभव नही रह जायेगा। इसका जबाव दूसरों के आंकड़ों की तुलना से नही वरन् अपनी क्षमता के ईमानदार आकलन से देना होगा।
इस परिदृश्य में 2014 से लेकर आज 2021 तक मोदी सरकार द्वारा लिये कुछ अहम फैसलों पर नजर दौडा़ना आवश्यक हो जाता है। सामाजिक और राजनीतिक संद्धर्भ में मुस्लिम समुदाय के माथे से तीन तलाक का कलंक मिटाना एक बड़ा फैसला रहा है और इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिये। राजनीतिक परिप्रेक्ष में जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाना जहां आवश्यक फैसला था वहीं पर इस प्रदेश से पूर्ण राज्य का दर्जा छीन इसे केन्द्र शासित राज्यों में बांटने से अच्छे फैसले पर स्वयं ही प्रश्नचिन्ह आमन्त्रित करना हो गया है। आयोध्या विवाद पर आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर इसी अदालत के कुछ पूर्व जजों की आई प्रतिक्रियाओं ने ही इसे प्रश्नित कर दिया है। दूसरी ओर इसी दौरान जो आर्थिक फैसले लिये गये हैं उनमें सबसे पहले नोटबन्दी का फैसला आता है। इस फैसले से कितना कालाधन बाहर आया और आतंकवाद कितना रूका इसके कोई आंकडे आज तक सामने नहीं आये हैं। यही सामने आया है कि 99.6% पुराने नोट नये नोटों से बदले गये हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नोटबन्दी के लिये कालेधन और आंतकवाद के तर्क आधारहीन थे। नोटबन्दी से जो कारोबार प्रभावित हुआ है वह आर्थिक पैकेज मिलने के बाद भी पूरी तरह से खड़ा नहीं हो पाया है। जीरो बैलेन्स के नाम पर जनधन में खोले गये बैंक खातों पर जब न्यनूतम बैलेन्स रखने की शर्त लगा दी गयी तब यह खाते खोलने का घोषित लाभ भी शून्य हो गया है।
इसके बाद जब कोरोना के कारण पूरे देश में लॉकडाऊन लगाया गया तब इसी काल में श्रम कानूनों में संशोधन करके श्रमिकों से हड़ताल का अधिकार छीन लिया गया। श्रम कानूनों में संशोधन के बाद इसी काल में विवादित कृषि कानून लाकर जमा खोरी और कीमतों पर नियन्त्रण हटाकर सबकुछ खुले बाजार के हवाले कर दिया गया है। इसी का परिणाम है कि डीजल-पैट्रोल से लेकर खाद्यानों तक की कीमतें बढ़ गयी हैं। इन कानूनों से कृषिक्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होगा। इसी चिन्ता को लेकर देश का किसान आन्दोलन पर है और इन कानूनों को वापिस लेने की मांग कर रहा है। कोरोना के कारण लगाये गये लॉडाऊान से बीस करोड़ से अधिक श्रमिकों का रोज़गार खत्म हो गया है। जीडीपी शून्य से भी बहुत नीचे चला गया है। इस कोरोना काल में प्रभावित लोगों को मुफ्रत राशन देकर जिन्दा रहने का सहारा देना पड़ा है। एक ओर करोड़ों लोगों का रोज़गार छिन गया और सारे महत्वपूर्ण संसाधनों को मुद्रीकरण के नाम पर प्राईवेट सैक्टर के हवाले किया जा रहा है। राज्यों को भी मुद्रीकरण के निर्देश जारी कर दिये गये हैं जब यह सारे संसाधन पूरी तरह प्राईवेट सैक्टर के हवाले हो जायेंगे तब रोज़गार और मंहगाई की हालत क्या होगी इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है।
जहां सर्वोच्च न्यायालय भीख मांगने को भी जायज़ ठहराने को बाध्य हो जाये वहीं पर सैन्ट्रल बिस्टा और बुलेट ट्रेन जैसी योजनाएं कितने लोगों की आवश्यकताएं हो सकती है यह हर व्यक्ति को अपने विवेक से सोचना होगा। सरकार के इन आर्थिक फैसलों का देश के भविष्य पर कितना और कैसा असर होगा यह भी हरेक को अपने विवेक से सोचना होगा। क्या इन आर्थिक फैसलों को तीन तलाक, राम मन्दिर और धारा 370 हटाने के नाम पर नज़रअन्दाज किया जा सकता है? यह चुनाव इन्ही सवालों का फैसला करेंगे यह तय है।