Friday, 19 September 2025
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क्या यह कानूनों का काला पक्ष नहीं है

किसान आन्दोलन को दबाने कुचलने और असफल बनाने के लिये सरकार किस हद तक जा सकती है यह देश के सामने आ चुका है। 26 जनवरी से लेकर 6 फरवरी तक जो कुछ घटा है उसको लेकर विदेशों तक मे प्रतिक्रियाएं हुई हैं। विदेशी प्रतिक्रियाओं को कुछ लोगों ने देश के आन्तरिक मामलों में दखल करार दिया है। लेकिन यह लोग उस समय खामोश रहे थे जब हमारे प्रधानमन्त्री अमेरिका में जाकर ‘‘अब की बार ट्रंप सरकार’’ कर रहे थे। किसान आन्दोलन को यदि सर्वोच्च न्यायालय ने शांतिप्रिय और किसानों का अधिकार न कहा होता तो शायद इसका अंजाम भी नागरिकता आन्दोलन जैसा हो चुका होता। किसान गांधी जी के अहिंसा के मार्ग पर चल रहा है। यह चक्का जाम कार्यक्रम में सामने आ चुका है। चक्का जाम में कोई दीपक सिद्धु नहीं घुस पाया इसलिये कोई अप्रिय घटना नहीं घट पायी। यह अहिंसा ही आन्दोलन की सबसे बड़ी ताकत है।
लेकिन अब तक जो कुछ घट चूका है उससे किसान और सरकार पहुंचे कहां है यह समझना महत्वपूर्ण है। किसानों के साथ कई दौर की वार्ताएं करने के बाद भी कृषि मन्त्री नरेन्द्र सिंह तोमर को यह पता नहीं चल पाया है कि इन कानूनों में काला क्या है। कृषि मन्त्री के मुताबिक उन्हें किसान यह बता ही नहीं पाये हैं कि कानूनों में खराबी क्या है जिसे दूर किया जा सके। इतनी वार्ताओं के बाद भी जब सरकार को कालापन समझ नहीं आ पाया है तब किसानों को दो टूक कह दिया है कि वह अपनी मांगे पूरी हुए बिना घर वापिस नही जायें कानूनों की वापसी के लिये सरकार को दो अक्तूबर तक समय दिया गया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह आन्दोलन लम्बे समय तक चलेगा और यदि दो अक्तूबर तक कानूनों की वापसी न हुई तो आन्दोलन की रूपरेखा में क्या अन्तर आयेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन यह तय है कि इस आन्दोलन से समाज के हर वर्ग के हर घर तक एक बहस सोशल मीडिया के मंचो पर इसके पक्ष और विपक्ष में छिड़ चुकी है। यहां तक कि स्वयं किसानों में भी पक्ष-विपक्ष खड़ा हो गया है। पत्रकार, न्यूज चैनल, सिनेमा और क्रिकेट तक सभी जगह पक्ष -विपक्ष बन चुका है। इस पक्ष-विपक्ष बनने को यदि एक तरह के गृह युद्ध की संज्ञा दे दी जाये तो यह कोई अतिशयोक्ति नही। होगी यह स्थिति सरकार के हर आर्थिक फैसले के बाद खड़ी हुई है। नोटबंदी से लेकर इन कृषि कानूनों तक ने समाज को प़क्ष-विपक्ष में बांटने में एक बड़ी भूमिका अदा की है। बल्कि यह लगता है कि सरकार ने एक बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से समाज को यहां तक पहुंचाया है। हर नये फैसले से पूराने सवाल पिछे जाते गये और नये सवाल खड़े होते गये। नोटबंटी से उद्योग प्रभावित हुए यह विशेष पैकेज दिये जाने के बाद भी आज तक पुरानी स्थिति में नहीं आ पाये हैं। इनमें आटोमोबाईल और रियल एस्टेट प्रमुख हैं। नोटबंदी से कितना काला धन बाहर आया या खत्म हुआ इसका कोई आंकड़ा आज तक सामने नहीं है। जो लोग बैंको का लाखों करोड़ डकार कर विदेश भाग गये वह आज तक वापिस नहीं आये। एनपीए बढ़ने का असर आम आदमी पर हुआ उसके सभी तरह के जमा पर ब्याज दरें कम हो गयीं। लेकिन एक भी दिन किसी ने भी इस पर सवाल खड़ा नहीं किया। क्योंकि इसी दौरान लव जिहाद और गौर रक्षा बड़े सवाल बन गये।
हर क्षेत्र में कीमतें बढ़ गयीं। पैट्रोल पर तो भाजपा सांसद डा. स्वामी की टिप्पणी कि ‘‘राम के भारत में पैट्रोल 93रू. सीता के नेपाल में 53रू और रावण की लंका में 51रू’’ सरकार की नीयत और नीति पर सबसे बड़ा सवाल खड़ा करते हैं। अभी बजट के साथ ही खाद्य पदार्थो की कीमतें बढ़ गयी हैं और इन विवादित कानूनों में आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन का प्रभाव कीमतें बढ़ने पर पड़ेगा यह पहले दिन से कहा जा रहा है। क्योंकि इस अधिनियम से ही कीमतों और जमा खोरी पर नियन्त्रण रखा जाता था जो अब समाप्त कर दिया गया है अब यह नियन्त्रण युद्ध और अकाल की स्थिति में ही किया जा सकेगा। क्या इस मंहगाई का असर हर आदमी पर नहीं पड़ेगा? क्या कानून बनाकर मंहगाई लाने का यह प्रयास इसका काला पक्ष नहीं है? आज कृषि उपज बेचने के लिये एपीएमसी अधिनियम के माध्यम से हर प्रदेश सरकार ने कुछ मण्डीयां बनाने की व्यवस्था की हुई है। इन मण्डीयों पर सरकार के कानून का नियन्त्रण है। यह मण्डीयां किसान से धोखाधड़ी नहीं कर सकती है। लेकिन नये कानून ‘‘किसान उपज व्यापार एवम् वाणिज्य संवर्धन के तहत इन मण्डीयों के बाहर भी कृषि उपज बेचने का प्रावधान दिया गया है। ऐसे खरीदार का किसी नियम-कानून के तहत पंजीकृत होना आवश्यक ही है। ऐसी खरीद करने वाला किसी भी कानून के दायरे में नहीं आयेगा। यदि इसमें किसान के साथ कोई धोखा हो जता है तो उसकी जिम्मेदारी किसान की ही होगी। क्या किसान को संरक्षण देना कहा जा सकता है शायद नहीं। क्या इसे कानून का काला पक्ष नहीं माना जाना चाहिये? तीसरा कानून किसान (सशक्तिकरण एवम् संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबन्ध एवम् कृषि सेवाएं विधेयक है इसके तहत कोई भी व्यक्ति किसी की भी ज़मीन किराये पर लेकर उस पर अपनी ईच्छानुसार उत्पादन कर सकेगा। इसके लिये दोनों पक्षों के बीच अनुबन्ध होगा। इस अनुबन्ध के आधार पर किराये पर लेने वाला व्यक्ति बैंक से ऋण आदि ले सकेगा। यदि किसी कारण से वह ऋण अदा नहीं कर पाता है तो उस स्थिति में किसान की अनुबंधित ज़मीन का क्या होगा इसको लेकर अधिनियम में कुछ नहीं कहा गया है। वैसे भी अनुबन्ध पर कोई भी विवाद होने की स्थिति में इसकी शिकायत एसडीएम के पास जायेगी दूसरी अदालत में नहीं। फिर इसमें उस एसडीएम का अधिकार क्षेत्र रहेगा जहां से किराये पर लेने वाला होगा। जहां पर ज़मीन स्थित है उस एसडीएम का नहीं। क्या यह व्यवस्था किसान के हित मेें दी जा सकती है? क्या यह भी कानून का काला पक्ष नहीं है?
इन कानूनों को यदि सरकार और राजनीतिक दलों के आईने से बाहर निकलकर देखने का प्रयास किया जायेगा तो मुझे पूरा विश्वास है कि कोई भी इसका समर्थन नहीं कर पायेगा। लेकिन जब कृषि मन्त्री की नजर में इनमें खराब ही कुछ नहीं है तो सरकार उन्हें वापिस क्यों लेगी। नये बजट के साथ ही दालों की कीमतो में बढ़ौत्तरी होने को यदि इन कानूनों के आईने से देखने/बढ़ने का प्रयास दलगत प्रतिबद्धता से उपर उठकर किया जायेगा तो आसानी से इनका काला पक्ष समझ आ जायेगा। अन्यथा यह सच स्वयं भोगने के बाद समझ आयेगा और तब तक काफी देर हो चुकी होगी। शायद सरकार भी यही चाहती है क्योंकि सच तो सच ही रहेगा और एक दिन सामने आयेगा ही।

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