Saturday, 20 September 2025
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नगर निगम शिमला में भी हजारों अवैध निर्माण

प्रशासन की चुप्पी सवालों में

शिमला/शैल। कसौलीे कांड का कड़ा संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से शिमला, धर्मशाला, मकलोड़गंज , कुल्लु और मनाली में भी हुए अवैध निर्माणों पर सरकार से रिपोर्ट तलब की है। प्रदेश में सबसे अधिक अवैध निर्माण शिमला में हैं 2014 के बजट सत्र में विधानसभा में आये एक प्रश्न के उत्तर में नगर निगम शिमला ने 186 भवनों की सूचीे सदन में रखी थी जो पांच या इससे अधिक मंजिलों के हैं कुछ तो बारह मंजिलों तक के  हैं । जबकि भवन निर्माण नियम इसकी अनुमति नही देते हैं। लेकिन इनमें कुछ सरकारी भवन भी ऐसे  हैं जो आठ से दस मंजिल तक के हैं इसमें यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या सरकार के भवनों  से पर्यावरण और सुरक्षा को खतरा नही होता? यह खतरा सिर्फ प्राईवेट भवनों से ही है।
2014 में नगर निगम ने स्वयं इन 186 भवनों की सूचीे जारी की है जबकि अब जब एनजीटी के पास शिमला को लेकर भी एक याचिका योगेन्द्र मोहन सेन गुप्ता की ओए संख्या 121 of 2014 सुनवाई के लिये आयी थी तो उसमें आठ हज़ार से अधिक ऐसे निर्माण आये हैं जिनके कभी कोई नक्शे ही निगम के पास नही आये  हैं । बल्कि यह अवैधता तब सामने आई है जब प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेशों पर अवैध निर्माणों का बिजली, पानी काटने के आदेश हुए थे। आज यह सारे मामले एक बार फिर जन चर्चा में आकर खड़े हो गये हैं। जिने 186 भवनों  की सूची निगम ने स्वयं जारी की थी उनकी आज की स्थिति क्या है इसकी कोई जानकारी निगम के पास नही है।

कसौली गोली कांड में क्या सुरक्षा व्यवस्था समुचित थी? स्टे्टस रिपोर्ट से उठा सवाल

शिमला/शैल। कसौली में एक महिला अधिकारी शैल बाला शर्मा की एक नारायणी गैस्ट हाऊस के मालिक विजय सिंह ने उस समय गोली मारकर हत्या कर दी जब यह अधिकारी सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अनुपालना में यहां हुए अवैध निर्माण को गिरानेे जा रही थी। महिला अधिकारी ने मौके पर ही दम तोड़ दिया और हमलावर एक और आदमी को जख्मी करने के बाद मौके से भागने में कामयाब हो गया। सरकार ने इस घटना का कड़ा संज्ञान लेते हुए कसौली धर्मपुर के थानाध्यक्षों, डीएसपी परवाणु और एसपी सोलन को यहां से बदल भी दिया है। 

इस घटना के बाद यह सवाल उठे हैं कि क्या महिला अधिकारीे को बचाया नही जा सकता था? क्या पुलिस और प्रशासन ने अदालत के फैसले पर अमल सुनिश्चित करने गयी टीम को उचित सुरक्षा व्यवस्था उपलब्ध करवाई थी? यह सवाल इसलिये उठे हैं क्योंकि जब इस घटना के बाद एफआईआर दर्ज की गयी और एक स्टे्टस रिपोर्ट सरकार को सौंपी गयी है उसमें यह कहा गया है कि यह महिला अधिकारी टीम लीडर को सूचित किये बिना ही दो अन्य लोगों के साथ गैस्ट हाऊस के अन्दर चली गयी थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है वह टीम न. एक की सहायक समन्वयक थी। ऐसे में क्या उसे किसी से अनुमति लेने की आवश्यकता थी? रिपोर्ट से यह झलकता है कि इसमें पुलिस की ओर से चूक नही हुई है।
सर्वोच्च न्यायालय का आदेश 17.4.18 को आ गया था और 28.4.2018 को ही जिलाधीश सोलन के पत्र के अनुसार इस संद्धर्भ में चार टीमें गठित कर दी गयी थी। इसके मुताबिक चार अलग स्थानों के लिये पुलिस और होम गार्डस के कुल 37 लोग तैनात किये गये थे। यह मामला एनजीटी के फैसले की अपील में सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा था। करीब एक दशक तक यह मामला अदालतों में रहा है और बेहद संवदेनशील बन चुका था क्योंकि इन अवैध निर्माणों के मालिकों का इसमें करोड़ो रूपया निवेशित था। इस परिदृश्य में ही सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से उत्पन्न स्थिति का आकलन किया जाना चाहिये था और उसके अनुसार ही सुरक्षा उपलब्ध करवायी जानी चाहिये थी जो नही हो पायी।





















 

 

क्या अगले मुख्य सचिव के लिये वरियता को अधिमान दिया जायेगा

 चौधरी के ट्रिब्यूनल में आवदेन से शुरू हुई चर्चा

शिमला/शैल। प्रदेश के मुख्य सचिव विनित चौधरी ने भी प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के प्रशासनिक सदस्य के पद के लिये आवदेन कर दिया है। उनका आवेदन अन्तिम तिथि को आया है। इस समय ट्रिब्यूनल में प्रशासनिक सदस्य के दो पद खाली चल रहे हैं जिनके लिये आवेदन मांगे गये थे। इसके लिये पूर्व मुख्य सचिव वीसी फारखा ने पहले ही आवदेन कर रखा है और अब चौधरी का भी आवदेन आने से दोनों ही मुख्य सचिव रहे इन दोनों ही पदों के लिये प्राथी हो जाते हैं। इन्ही के साथ ही जुलाई 2016 में सेवानिवृत हुए अतिरिक्त मुख्य सविच पी.सी. धीमान भी आवेदक हैं। चौधरी कीे सेवानिवृति इसी वर्ष सितम्बर में है और फारखा की दिसम्बर 2019 में है। सदस्य पद के लिये तीन सदस्यों का चयन मण्डल है जिसमें प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के चेयरमैन और प्रदेश के मुख्य सचिव। अब क्योंकि मुख्य सविच स्वयं ही एक आवेदक हैं इस नाते वह इस चयन मण्डल में नही रहेंगे केवल मुख्य न्यायाधीश और ट्रिब्यूनल के चेयरमैन ही यह चयन करेंगे। माना जा रहा है कि इन  दोनों  पदो के लिये दोनो मुख्य सचिवों, चौधरी और फारखा का चयन तय है क्योंकि प्रशासनिक सदस्य के लिये इनसे अधिक अनुभव और किसी का नही होगा। क्योंकि चौधरी को लेकर संजीव चतुर्वेदी और प्रशांत भूषण ने जो याचिका दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर कर रखी है उसका अभी इस चयन पर प्रत्यक्षतः कोई प्रभाव नही होगा।
विनित चौधरी के प्रशासनिक ट्रिब्यूनल मेें जाने के साथ ही प्रदेश में अगला मुख्य सचिव आयेगा। यह अगला मुख्य सचिव कौन होगा इसको लेकर प्रदेश के प्रशासनिक हल्कों में अभी से हलचल शुरू हो गयी है। चौधरी 1982 बैच के अधिकारी हैं और उनके बाद 1983 बैच की वरिष्ठता में बारी आती है। प्रदेश में 1983 बैच में श्रीमति उपमा चौधरी सबसेे वरिष्ठ हैं। उनके बाद डा. सिहाग आते हैं। उपमा और सिहाग दोनों की सेवानिवृति दिसम्बर 2019 में है और दोनों इस समय केन्द्र में हैं । 1984 बैच के तरूण श्रीधर, अजय त्यागी और अरविन्द मैहता तीनों ही केन्द्र में है त्यागी तो सैवी के चेयरमैन है। इनके बाद त्यागी 1985 बैच के वी.के.अग्रवाल और संजीव गुप्ता केन्द्र में हैं जबकि श्रीकांत बाल्दी और मनीषा नन्दा प्रदेश में ही हैं। बाल्दी प्रदेश के अतिरिक्त मुख्य सचिव वित्त हैं तो मनीषा नन्दा अतिरिक्त मुख्य सचिव मुख्यमन्त्री हैं। दोनों ही मुख्यमन्त्री के बराबर के विश्वस्त माने जाते हैं।
इस परिदृश्य में प्रदेश के अगले मुख्य सचिव का चयन बहुत रोचक होगा। यदि वरिष्ठता को ही अधिमान देते हुए यह चयन किया जाता है तो उपमा चौधरीे ही मुख्य सचिव होगी। यदि किसी भी कारण से वरियता को अधिमान नहीं मिल पाता है जैसा कि फारखा को मुख्य सचिव बनाते समय था तो फिर यह चयन मुख्यमन्त्री के निकटस्थों में से ही किसी एक पर आकर टिकेगा। प्रदेश का अगला चुनाव 2022 में होगा। इस समय 1983, 1984 और 1985 बैच के अधिकारियों में से सात अधिकारियों की सेवानिवृति 2019 दिसम्बर तक हो जायेगी। केवल तीन अधिकारियों की सेवानिवृति 2020 और 2021 में होगी। इस समय प्रदेश की वित्तिय स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है इस कठिन वित्तिय स्थिति में मुख्यमन्त्री को प्रदेश के अगले प्रशासनिक मुखिया का चयन करते हुए इस वस्तुस्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक होगा। क्योंकि प्रदेश के मुख्य सचिव, वित्त सचिव और मुख्यमन्त्री के प्रधान सचिव में सही तालमेल होना आवश्यक है। इससे पूर्व जब मुख्य सचिव के चयन में वीरभद्र के शासनकाल में वरियता को नज़रअन्दाज किया गया था तब इस नज़रअन्दाजी को चौधरी ने ही कैट मे चुनौती दी थी। लेकिन इस याचिका पर अब तक कोई फैसला नही आया है। इस याचिका में नज़रअन्दाजगी के साथ यह भी शिकायत थी कि सरकार ने उन्हें एक तरह से बिना काम के बिठा रखा है। इस पर जब कैट ने उन्हें फारखा के समकक्ष सुविधायें देने का आदेश दिया था तब चौधरी ने अपनी याचिका वापिस ले ली थी। यदि सरकार न बदलती तो शायद चौधरी का मुख्य सचिव बनना फिर संदिग्ध ही रह जाता। क्योंकि मुख्य सचिव मुख्यमन्त्री के विश्वास का ही व्यक्ति होगा यह सर्वोच्च न्यायालय ने भी कह रखा है।
इस परिदृश्य में मुख्यमन्त्री के लिये अगले सचिव का चयन करना बहुत आसान नही होगा। क्योंकि अभी ही सचिवालय के गलियारों से सड़क तक यह चर्चा शुरू हो चुकी है कि शीर्ष प्रशासन पर मुख्यमन्त्री की पकड़ पूरी नही बन पायी है। अभी जिस तरह से प्रदेश अध्यक्ष के गृह जिला ऊना और पूर्व मुख्यमन्त्री के गृह जिला हमीरपुर से जिलाधीशों को बदला गया है उससे इसी पकड़ का सन्देश बाहर आया है। क्योंकि चार माह के अन्दर ही इन दो जिलों के डी.सी. बदलना प्रशासन के लिये तो एक बड़ा संकेत हो ही जाता है क्योंकि यह भी चर्चा चल पड़ी है कि मुख्यमन्त्री के यहां से फाईलों का निपटारा होने में लम्बा वक्त लग रहा है। अभी चार माह की सरकार को लेकर ऐसी धारणाओं का पनपना कोई अच्छा संकेत नही है।

सीसीटीवी कैमरों और क्रेन प्रकरण से पुलिस की कार्यप्रणाली सवालों में

शिमला/शैल। प्रदेश में बढ़ते अपराध और असामाजिक गतिविधियों पर अपनी नज़र जमाये रखने के लिये 242 संवेदनशील स्थलों पर सीसीटीवी कैमरें और तीन स्पीड कैमरे स्थाापित करने के लिये मई 2013 में डीजीपी कार्यालय में एक योजना तैयार की गयी। इस योजना को सरकार की स्वीकृति के लिये के भेजा गया और अगस्त में ही यह स्वीकृति मिल गयी तथा साथ एक करोड़ के धन का प्रावधान भी कर दिया गया। लेकिन यह खर्च करने से पूर्वे इस संद्धर्भ में आईटी विभाग से पूर्व अनुमति लेने की शर्त साथ लगा दी। इस पर डीजीपी कार्यालय ने आईटी को अपना प्रस्ताव भेज दिया। आईटी ने भी इस पर अपनी स्वीकृति प्रदान करते हुए यह शर्त लगा दी कि यह खरीद इलैक्ट्रानिक्स विकास निगम से ओपन टैण्डर के माध्यम से की जाये। इसके बाद यह प्रस्ताव इलैक्ट्राॅनिक्स विकास निगम को चला गया। 

इलैक्ट्राॅनिक्स विकास निगम ने इस तरह कीे कोई खरीद जून 2013 में कर रखी थी। उस समय जो रेट आये थे और कैमरों की जो तकनीकी गुणवत्ता आयी थी उसी के आधार पर पुलिस की खरीद के लिये संभावित अुनमति प्रारूप तैयार कर दिया और पुलिस विभाग को भेज दिया। पुलिस ने भी उसी के आधार पर 27 कैमरों की खरीद का आर्डर इलैक्ट्राॅनिक्स विकास निगम को जुलाई 2014 में दे दिया। यह कैमर 62.74 लाख के आये और जिस फर्म ने यह सप्लाई दी थी उसी कोे इन्हें लगाने का काम भी दे दिया तथा फर्म ने मार्च 2015 से 2017 अप्रैल के बीच यह कैमरे स्थापित भी कर दिये। लेकिन इन कैमरों की माॅनिटरिंग लोकल इन्स्टाॅलेशन स्थलों पर ही रखी गयी जबकि इन्हे ब्राडबैंड के साथ जोड़ते हुए यह किसी केन्द्रिय स्थान पर होनी चाहिये थी। इसके कारण यह कैमरे वांच्छित परिणाम नही दे पाये हैं और पूरी तरह असफल रहे हैं और इस असफलतता का कारण रहा कि पुलिस मुख्यालय जिसको यह सीसीटीवी कैमरे चाहिये थे उसने इस बारे में यह विचार ही नही किया कि उसे किस गुणवत्ता के चाहिये।
आईटी विभाग ने अपनी अनुमति में कहा था कि इलैक्ट्राॅनिक्स विकास निगम से ओपन टैण्डर के माध्यम सेे यह खरीद की जाये। लेकिन निगम ने नये टैण्डर मंगवाने कीे बजाये फर्म को आर्डर दे दिया। निगम ने भी पुलिस विभाग से यह नही पूछा कि उसे कैस कैमरेे चाहिये और न ही पुलिस ने इस पर कोई ध्यान दिया। फर्म ने कैमरे सप्लाई करके इन्स्टाल भी कर दिये और निगम ने 27 कैमरों का 62.74 लाख का बिल भी पुलिस को थमा दिया और 55.09 लाख का भुगतान भी कर दिया। लेकिन यह सब कुछ हो जाने पर भी इस पर ध्यान नही दिया गया कि जब 62.74 लाख में केवल 27 ही कैमरेे आये हैं तो 242 एक करोड़ में कैसे आ जायेंगे। फिर 62.74 लाख में खरीदे गये 27 कैमरे ऐसे क्या हैं और यदि 27 कैमरों की 62.74 लाख कीमत सही है तो फिर 242 कैमरे एक करोड़ पांच लाख में आ जायेंगे यह अनुमान किसनेे कैसे लगा लिया। इस प्रकरण से यही प्रमाणित होता है कि पुलिस में भी अंधेेर नगरी चैपट राजा का ही आलम चल रहा है।
इसी तरह का कारनामा पुलिस में हैवी क्रेन की खरीद इसमें भारत सरकार से रोड़ ट्रांसपोर्ट विभाग ने राष्ट्रीय उच्च मार्ग दुर्घटना सेवा योजना के तहत प्रदेश सरकार को दस क्रेने उपलब्ध कराई थी। जिससे कि दुर्घटना में क्षतिग्रसत हुए वाहनों को उठाने में सहायता मिले। इनको चलाने व रख-रखाव की जिम्मेदारी राज्य सरकार की थी। इसमें पांच वर्षो तक इन क्रेनो से किये गये कार्यों की रिपोर्ट भारत सरकार को देनी थी। इन क्रेनो की खरीद के लिये जो टैण्डर आमन्त्रित किये गये थे उनमें सप्लायर पर यह शर्त लगाई गयी थी कि वह विभाग के कम से कम पांच लोगों को इन्हे चलाने की ट्रैनिंग देगा और यह ट्रैनिंग निःशुल्क होगी।
इस योजना के तहत डीजीपी ने सितम्बर 2009 में दस हैवी क्रेनों की मांग भारत सरकार को भेजी। जिस पर भारत सरकार ने 91.14 लाख मूल्य की चार हैवी क्रेने प्रदेश को दे दी। प्रदेश में मई से अगस्त 2010 के बीच यह क्रेने पहुंची और विभाग ने इनका कांगडा, मण्डी, शिमला और सोलन चार जिलों को आवंटन कर दिया। मण्डी में इसका कुछ आंशिक उपयोग किया गया लेकन बाकी जिलों में इनका कोई उपयोग नही हो पाया क्योंकि इनको चलाने वाला कोई ट्रेण्ड कर्मचारी ही विभाग के पास नही था और विभाग ने इनके स्पलायर से किसी को ट्रेनिंग दिलाने का प्रयास ही नही किया था। इसके अतिरिक्त यह हैवी क्रेने प्रदेश की तंग और छोटी सड़कों के लिये उपयोगी हो ही नही सकती थी। भारत सरकार ने हैवी क्रेनों के साथ ही छोटी और मध्यस्तर की क्रेन लेने का विकल्प भी प्रदेश को दे रखा था। लेकिन विभाग में इस व्यवहारिकता की ओर किसी ने भी ध्यान देने का प्रयास ही नही किया। इस तरह विभाग की कार्य कुशलता के कारण सरकार के 91.14 लाख का यह निवेश भी अन्ततः शून्य होकर रह गया।
इस तरह सीसीटीवी कैमरों और क्रेन प्रकरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुलिस विभाग पब्लिक निवेश के प्रति कितना संवदेनशील रहा है।

सरकार अपने ही संगठन द्वारा लगाये आरोपों की प्रमाणिकता पर शंकित क्यों

शिमला/शैल। भाजपा ने इस बार के विधानसभा चुनावों के दौरान तब सत्तारूढ़ वीरभद्र सरकार के खिलाफ ‘‘हिसाब मांगे हिमाचल’’ अभियान छेड़कर न केवल सरकार में फैलेे भ्रष्टाचार को ही केन्द्रिय बहस में लाकर खड़ा कर दिया था बल्कि सरकार को भ्रष्टाचार का पर्याय चित्रित कर दिया था। क्योंकि इस हिसाब मांगने के अभियान से पहले भी भाजपा सरकार के खिलाफ आरोप पत्र जारी करती रही है। एक आरोप पत्र तो वाकायदा महामहिम राष्ट्रपति को सौंपा गया था और इसकी जांच सीबीआई द्वारा करवाने की मांग की गयी थी। प्रदेश विधानसभा के सत्र में भी यह मांग दोहरायी गयी थी। इससे जहां उस समय भाजपा भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने में सफल रही वहीं पर आम आदमी का विश्वास जीतने में भी कामयाब रही। इसी प्रदर्शन और विश्वास की सीढ़ी पर चढ़कर सत्ता के सिंहासन  तक पहुंचने में सफल भी रही।
लेकिन अब जब भाजपा की दो तिहाई बहुमत के साथ सरकार बन गयी है। तब भ्रष्टचार के मुद्दे पर कथनी और करनी में अन्तर दिखने लगा है क्योंकि सरकार ने अपने ही संगठन द्वारा सौंपे आरोप पत्र पर संवद्ध विभागों से उनकी राय मांगी है। स्वभाविक है कि कोई भी स्वयं क्यों स्वीकार करेगा कि उसके यहां भ्रष्टाचार हुआ है। भ्रष्टाचार के आरोपों पर तो विजिलैन्स भी गुप्त तरीके से प्रारम्भिक जांच करके आरोप से जुड़े कुछ साक्ष्य जुुटाकर फिर मामले में आगे बढ़ते हुए एफआईआर दर्ज की जाती है। यदि आरोप के साथ उससे जुड़े दस्तावेजी प्रमाण साथ सलंग्न हो तो सीधे एफआईआर दर्ज हो जाती है। अब जब सरकार ने इन आरोपों पर संबंधित विभागों से रिपोर्ट लेने के बाद इन पर अगली कारवाई तय करने का फैसला लिया है तो इससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि सरकार को अपने ही संगठन द्वारा लगाये गये आरोपों की प्रमाणिकता पर भरोसा नही है। इससे यह भी सामने आता है कि राजनीतिक दल केवल जनता का ध्यान भटकाने के लिये ही एक दूसरे पर आरोप लगाते हैं इन पर ईमानदारी से कारवाई करने की इनकी कोई मंशा नहीं होती है। 2007 से 2012 के शासनकाल में भी जब भाजपा सत्ता पर काविज थी तब भी भाजपा सरकार ने अपने ही आरोप पत्रों पर कोई कारवाई नहीं की थी।
इस बार अभी सरकार को सत्ता में आये केवल तीन माह का ही समय हुआ है इस नाते यह कहा जा सकता है कि इतनी जल्दी नतीजे पर नही पहुंचा जा सकता। लेकिन इसी तीन माह के समय में सरकार ने जो कुछ बडे़ फैसले लिये है। उनसे अल्प समय का तर्क स्वयं ही हल्का पड़ जाता है। सरकार ने कुछ अधिकारियों के खिलाफ मुकद्दमा चलाने की पहल दी गयी अनुमति को वापिस लेने का फैसला लिया है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने नन्दन पासवान बनाम स्टेट आॅफ बिहार में 20 दिसम्बर 1986 और बैराम मुरलीधर बनाम स्टेट आॅफ आंध्र प्रदेश में 31 जुलाई 2014 तथा एम सीमोनज़ बनाम स्टेट आॅफ आंध्र में 5 फरवरी 2015 को स्पष्ट कहा है कि एक बार दी गयी अनुमति पर न तो पुनः विचार किया जा सकता हैं और न ही उसे वापिस लिया जा सकता है। उच्चस्थ सुत्रों के मुताबिक प्रदेश के विधि विभाग ने भी इस संबध में सरकार को यही राय दी थी। लेकिन सरकार ने राय पसन्द न आने के बाद शायद सचिव विधि को ही बदल दिया। यही नहीं अब जब सरकार सचेतको को मन्त्री का दर्जा देने का विधेयक लेकर आयी तब भी इस पर विधि विभाग की राय नकारात्मक रही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जब सरकार विधि विभाग की राय को भी अनदेखा करके फैसले ले रही है तो सीधा है कि एक ऐजैण्डे के तहत सरकार में सबकुछ हो रहा है। इन मामलों पर अदालत क्या रूख लेगी और सरकारी वकील अदालत में क्या प्रार्थना रखते हैं यह तो आने वाले समय में ही खुलासा हो पायेगा। लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी खड़ा होगा कि यदि सरकार सही में इन मामलों को राजनीतिक द्वेष से बनाये गये मामले मानती है तो ऐसे मामले बनाने वालों के खिलाफ सरकार को कारवाई भी सुनिश्चित करनी पड़ेगी। क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट कहा है कि यदि सरकार का अदालत में कोई मामला फेल होता है तो उसके लिये किसी की जिम्मेदारी तय करके उसके खिलाफ कारवाई की जानी चाहिये। क्योंकि जो मामले वापिस लिये जाने के प्रयास से किये जा रहे हैं उनके चालानों में इतने गंभीर आरोप हैं कि इसमें या तो आरोपीयों या फिर मामलें बनाने वालों के खिलाफ कारवाई होना तय है। इन मामलों का हल्के से लेना सरकार के लिये आसान नही होगा।
इसी परिदृश्य में जिस बीवरेज कारपोरेशन मामले पर कारवाई का फैसला मन्त्रीमण्डल की पहली ही बैठक में लिया गया था वह अब तक विजिलैन्स में नही पहुंचा है जबकि इस मामले में भाजपा करोड़ों के घोटाले का आरोप लगा चुकी है। इस आरोप पर तब तक जांच संभव नहीं है जब तक कि इस पर विजिलैंस में विधिवत रूप से मामला दर्ज नही हो जाता है। लेकिन चर्चा है कि अधिकारी इसमें विजिलैंस में जाने से पहले प्रशासनिक स्तर पर जांच करने का मन बनाये हुए है।

क्योंकि इस प्रकरण की जांच बीवरेज कारपोरेशन के एम. डी. और चैयरमैन से ही शुरू होगी और यह दोनो ही पद सरकार के अधिकारियों के पास ही थे। आज यह अधिकारी जयराम सरकार में महत्वपूर्ण भूमिकाओं में बैठे हुए हैं इसलिये यह आशंका उभर रही है कि इन अधिकारियों को बचाने के लिये ही प्रशासनिक जांच प्रस्तावित की जा रही है। यही स्थिति धर्मशाला के भूमिगत कूड़ादानों की जांच के संद्धर्भ में भी हो रही है। यही नहीं कसौली के होटलों में हुये अवैध निर्माणों के लिये एनजीटी ने टीसीपी और प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के जिन अधिकारियों/कर्मचारियों को व्यक्तिगत रूप से चिन्हित करते हुए उनके खिलाफ कारवाई की जाने की अनुशंसा की थी उस पर भी आज तक मुख्यसचिव कोई कारवाई नहीं कर पाये हैं।
यह सारे मामले कभी -न-कभी भाजपा के आरोप पत्रों के मुद्दे रह चुके हैं। भ्रष्टाचार के यह मामले प्रदेश के आम आदमी की जानकारी में हैं इसीलिये आम आदमी को भाजपा की इस नई सरकार से यह उम्मीद थी कि शायद वह किसी भी तरह के राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ग्रसित नहीं है और इन मामलों में गंभीरता से कारवाई अमल में ला पायेगी लेकिन अब जब अपने ही आरोप पत्र पर सम्बधित विभागों से राय लेने की बात की जा रही है तब आम आदमी का सरकार पर से विश्वास उठना स्वभाविक है। माना जा रहा है कि कालान्तर में सरकार को इसकी भारी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ेगी।

 

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