Friday, 19 December 2025
Blue Red Green

ShareThis for Joomla!

मण्डी से कांग्रेस के संभावित उम्मीदवार को मकरझण्डू कहकर वीरभद्र ने की भाजपा की राह आसान

शिमला/शैल। पूर्व मुख्यमन्त्री और प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता वीरभद्र सिंह ने कांग्रेस के राज्य अध्यक्ष सुक्खु को पद से हटाने के लिये विधानसभा चुनावों से बहुत पहले से अभियान छेड़ रखा है। इसी अभियान के कारण विधानसभा चुनावों के लिये वीरभद्र सिंह को नेता घोषित किया गया था लेकिन फिर भी कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी जबकि पचपन टिकट वीरभद्र की सिफारिश पर दिये गये थे। विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को अधिकारिक तौर पर विपक्ष का दर्जा हासिल करने लायक भी बहुमत नहीं मिल पाया है। शायद इसीलिये कांग्रेस विधायक दल का नेता वीरभद्र की बजाये मुकेश अग्निहोत्री को बनाया गया है। इन विधानसभा चुनावों में वीरभद्र की व्यक्तिगत बडी उपलब्धि यही रही है कि वह अपनी पुरानी सीट शिमला ग्रामीण से अपने बेटे विक्रमादित्य को विधायक बनवा पाये हैं। स्वयं भी नये क्षेत्रा अर्की से जीत हासिल कर पाये हैं। वैसे इस जीत को लेकर यह भी चर्चा रही है कि यहां पर भाजपा ने अपने दो बार लगातार जीत हासिल करने वाले विधायक गोविन्द शर्मा का टिकट काटकर वीरभद्र की जीत की राह आसान कर दी थी। इन चुनावों जहां कांग्रेस के अन्दर वीरभद्र के विरोधी हारे हैं वहीं पर कुछ उनके निकटस्थ भी हार गये हैं। विधानसभा चुनाव परिणामों के इस गणित से यह स्पष्ट संकेत उभरता है कि जिस ऐज और स्टेज पर वीरभद्र पहुंच चुके हैं वहां से जनता पर उनकी पकड़ अब पहले जैसी नहीं रह गयी है। यह सही है कि वह छः बार प्रदेश के मुख्यमन्त्री रह चुके हैं और इस नाते प्रदेश के हर विधानसभा क्षेत्र में कुछ न कुछ लोग उनको व्यक्तिगत तौर पर जानने वाले आज भी हैं। लेकिन प्रदेश की जो समस्याएं आज है जिसका सबसे बड़ा कारण कर्ज का चक्रव्यूह है। यही नहीं आज स्कूलों में चौदह हज़ार से ज्यादा शिक्षकों के पद खाली हैं, सैंकड़ों स्कूलों को बन्द करना पड़ रहा है। यह सब कुछ बहुत हद तक उन्हीं के शासन काल की योजनाओं का परिणाम है। इस सब को लेकर अधिकांश जनता का आकलन क्या है शायद इसकी जानकारी वीरभद्र और कांग्रेस को व्यवहारिक तौर पर नहीं है।
आज कांग्रेस के अन्दर अगले नेता को लेकर एक बड़ा शून्य चल रहा है क्योंकि वीरभद्र ने अभी तक किसी एक का नाम अधिकारिक तौर पर घोषित नहीं किया है। क्योंकि जब उन्होंने यहां तक कह दिया है कि वह कांग्रेस के अन्दर भाजपा के आडवाणी और जोशी जैसे मार्गदर्शक नहीं बनना चाहते। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह अभी भी अपने को सत्ता के हकदारों में पहले स्थान पर मानकर चल रहे हैं लेकिन अपने इस मन्तव्य को वह सीधा घोषित नहीं कर रहे हैं परन्तु जिस तर्ज पर उन्होंने सुक्खु को हटवाने का अभियान छेड़ रखा है उससे तो पहला अर्थ यही निकलता है। अन्यथा वह पार्टी हित में वरिष्ठतम नेता होने के नाते कांग्रेस में सरकार और संगठन के नेतृत्व के लिये किसी को तो नामजद करते। लेकिन जब वह ऐसा नहीं कर रहें है और साथ ही यह भी कह चुके हैं कि न तो वह स्वयं और न ही उनके परिवार से कोई दूसरा लोकसभा चुनाव लड़ेगा तब इस सब के राजनीतिक मायने बदल जाते हैं। वीरभद्र और उनकी पत्नी प्रतिभा मण्डी लोकसभा क्षेत्र का कई बार प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। इस बार भी यदि यह लोग चुनाव लड़े तो स्वभाविक रूप से मण्डी से ही लड़ना होगा। लेकिन उन्होंने न केवल स्वयं लड़ने से मना किया है बल्कि कांग्र्रेस से जो भी लड़ेगा उसे अभी से ही मकर झण्डू कहकर उसकी हार की बुनियाद रख दी है। कांग्रेस हाईकमान उनके इस कथन को कैसे लेता है यह तो आगे पता चलेगा लेकिन निश्चित तौर पर मण्डी से होने वाले उम्मीदवार को मकरझण्डू कहकर भाजपा का रास्ता बहुत आसान कर दिया है। वीरभद्र जहां सुक्खु को हटाने की मांग कर रहे हैं वहीं पर उनके समर्थकों ने लोकसभा चुनाव वीरभद्र के नेतृत्व में लड़ने की मांग कर दी है। बल्कि शिमला से तो उनके समर्थकों ने सुरेन्द्र गर्ग को टिकट देने की मांग कर दी है। अभी ठियोग और सोलन की बैठकों में भाग लेने से पहले वीरभद्र ने हमीरपूर और कांगडा लोकसभा क्षेत्रों का व्यापक दौरा किया है। कांगड़ा में सुधीर शर्मा और जी एस बाली उम्मीदवार के तौर पर सामने आये हैं लेकिन यहां वीरभद्र ने किसी एक का भी नाम सीधे नहीं लिया है। क्योंकि शायद बाली का सीधा विरोध करने से वह बच रहे हैं। लेकिन हमीरपुर में वह राजेन्द्र राणा के साथ खुलकर खड़े हैं और राणा स्वयं की जगह अपने बेटे को आगे बढ़ा रहे हैं। वीरभद्र इस पर खामोश हैं। कांग्रेस के अन्दर वीरभद्र बनाम सुक्खु विवाद पर तो अब भाजपा ने चुटकीयां लेना शुरू कर दिया है क्योंकि इस विवाद से जहां कांग्र्रेस पक्ष जनता में कमजोर होता जा रहा है वहीं पर इससे भाजपा को अनचाहे ही लाभ मिल रहा है। क्योंकि इस समय मण्डी लोकसभा सीट मुख्यमन्त्री जयराम के लिये प्रतिष्ठा का मामला होगा। विधानसभा चुनावों में मण्डी से कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पायी है। क्योंकि चुनाव के दौरान ही अमित शाह ने यह घोषणा कर दी थी कि जयराम को कोई बड़ी जिम्मेदारी दी जायेगी। परन्तु अब सरकार बनने के बाद जयराम को सबसे पहली समस्या अपने ही चुनाव क्षेत्र से सामने आयी जब एस डी एम कार्यालय को लेकर जंजैहली में लोग आन्दोलन पर उतर आये। आज ही मण्डी की स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि यदि फिर से चुनाव हो जायें तो यह भाजपा पर भारी पडेंगे। यदि मण्डी से वीरभद्र या उनकी पत्नी में से कोई चुनाव लड़ता है तो भाजपा के लिये सीट जीतना कठिन हो जायेगा। ऐसे में वीरभद्र का मण्डी से चुनाव लड़ने से इन्कार करना और होने वाले उम्मीदवार को मकरझण्डू करार देना निश्चित रूप से जयराम और भाजपा की मदद करना बन जाता है।
इस वस्तुस्थिति को सामने रखते हुए यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि वीरभद्र ऐसा कर क्यों रहे हैं। क्योंकि कांग्रेस के अन्दर संगठन के चुनाव क्यों रूके थे यह सब जानते हैं। अगले चुनाव कब करवाये जायेंगे यह हाईकमान के आदेशों से तय होगा। तो क्या वीरभद्र का सुक्खु पर हमला बोलना हाईकमान पर ही हमला नहीं बन जाता है। वीरभद्र एक लम्बे समय से आयकर और सी बी आई तथा ई डी के मामले झेल रहे हैं, यह मामले अभी तक खत्म नहीं हुए हैं। ऐसे में कुछ क्षेत्रों में वीरभद्र की सारी कारगुज़ारी को इन मामलों के साथ जोड़कर भी देखा जा रहा है। क्योंकि ई डी के अटेचमैन्ट आदेश में जिस तरह के दस्तावेज सामने आ चुके हैं उनसे मामलों की गंभीरता का स्वतः ही अनुमान लग जाता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने लगाया एक लाख का जुर्माना

शिमला/शैल। देश में बढ़ती गारवेज समस्या का सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ा संज्ञान लेते हुए 28 मार्च को सभी राज्यों के तीन माह के भीतर इस संद्धर्भ में बनाई गयी योजना से शीर्ष अदालत को अवगत करवाने के निर्देश दिये थे। इन निर्देशों के बाद 12 जुलाई को यह मामला जस्टिस मदन वी लोकूर और जस्टिस दीपक गुप्ता की खण्डपीठ में लगा था। लेकिन इस अवसर पर राज्य सरकार की ओर से गारवेज प्रबन्धन को लेकर न तो कोई योजना अदालत के समक्ष रखी गयी और न ही सरकार की ओर से अदालत में कोई पेश हुआ। अदालत ने इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए टिप्पणी की यह अजीब स्थिति है जहां न तो राज्य सरकारें अदालत के निर्देशों की अनुपालना कर रही है और न ही भारत सरकार के वन एवम् पर्यावरण विभाग द्वारा जारी निर्देशों को मान रही हैं। इस टिप्पणी के साथ ही राज्य सरकार पर एक लाख का जुर्माना लगाया गया है। हिमाचल सहित दस राज्यों पर भी यह जुर्माना लगा है। इस तरह का जुर्माना लगाना सीधे प्रशासन की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करता है क्योंकि 28 मार्च को अदालत ने योजना बनाकर उसे पेश करने के आदेश दिये थे।
प्रदेश उच्च न्यायालय में भी इस दौरान जितने गंभीर मामले आये हैं अदालत ने उन पर सरकार से जवाब तलब किया है उन अधिकांश मामलों में उच्च न्यायालय ने सरकार के शपथ पत्रों पर अप्रसन्नता ही व्यक्त की है। इनमें महत्वपूर्ण मामले वनभूमि अतिक्रमण, अवैध निर्माण, शिमला के सफाई कर्मचारियों की समस्या, शिमला की पेयजल संकट, स्नोडन की पार्किंग समस्या, कसौली में अदालत के आदेशों की अनुपालना और अब शिक्षण संस्थानों में अध्यापकों की कमी का मामला रहे हैं। यह सारे मामले में अदालत में पहुंचे हैं और लगभग सभी मामलों में सरकार पर तथ्यों को छुपाने के आरोप लगे हैं। बहुत सारे मामलों में शैल यह शपथ पत्र जनता के सामने रख भी चुका है। लेकिन अब जब सर्वोच्च न्यायालय सरकार के आचरण का कड़ा संज्ञान लेते हुए जुर्माना लगाने पर विवश हो जाये तो निश्चित रूप से प्रशासन की नीयत और नीति पर सवाल उठेंगे ही।
अभी सरकार को सत्ता में आये केवल छः माह का ही समय हुआ है। इस अवधि में सरकार पर किसी भी तरह के भ्रष्टाचार का आरोप नही लग पाया है। मंत्री और मुख्यमन्त्री बराबर जनता से संपर्क में जुटे हुए है। लेकिन इस सबके बावजूद सरकार होने का कोई पुख्ता संदेश जनता में नही जा पाया है क्योंकि इस दौरान जो भी बड़े फैंसले सरकार ने लिये हैं उनमें कहीं न कहीं ऐसा कुछ घट गया है जिससे सरकार की छवि पर नकारात्मक प्रभाव ही पड़ा है। विकास के नाम पर सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि एशिया विकास बैंक से 4378 करोड़ के ऋण का वायदा लेना ही रहा है जबकि इस वायदे को पूरा होने के लिये एक लम्बा सफर तय करना है और दूसरी ओर पिछले कुछ दिनों में बहुत सारी अन्तर्राष्ट्रीय वित्तिय संस्थाओं ने विकासशील देशों को ऋण के रूप में भी वित्तिय सहायता देने से हाथ पीछे खींच लिये हैं। जब से डॉलर के मुकाबले में रूपये की कीमत मे कमी बढ़ी है उसी के साथ यह हुआ है इसका प्रभाव देश के हर राज्य पर पडे़गा यह तय है। इसलिये कर्ज को उपलब्धि बनाकर प्रचारित करना कोई बहुत समझदारी नही है क्योंकि कल को यदि यह पूरे ऋण नही मिल पाते हैं तब इसका कोई भी जवाब जनता को स्वीकार्य नही हो पायेगा। फिर जनता के सामने यह भी नही रखा गया है कि पर्यटन और बागवानी जिन दो क्षेत्रों में इस ऋण से निवेश किया जाना है उन क्षेत्रों में ऋण पर ही आधारित पहले से ही कितनी योजनाएं चल रही हैं और इससे प्रदेश के राजस्व में कितनी बढ़ौत्तरी हुई है और आगे कितने समय में कितनी हो पायेगी तथा पिछले ऋण की इससे आये राजस्व से कितनी भरपायी हो पायी है।

न्यू-शिमला प्रकरण का अन्त भी कसौली जैसा होने की संभावना बढ़ी

शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश सरकार ने 1986 में शिमला के उपनगर न्यू शिमला में एक पूरी तरह स्व वित्त पोषित हाऊसिंग कालोनी बनाने बसाने की योजना बनायी थी। इस योजना को अमली जामा पहनाने के लिये साडा का गठन किया। साडा के माध्यम से इस कालोनी के लिये भूमि का अधिग्रहण किया गया और 83.84 लाख में जमीन खरीदी गयी जिसमें से 50315 वर्ग मीटर भूमि प्लाटों के लिये चिन्हित की गयी और शेष भूमि अन्य आधारभूत सुविधाओं के निर्माण के लिये रखी गयी। इन अन्य आधारभूत सुविधाओं में सड़कें, पार्क, ग्रीन एरिया तथा पेयजल और सीवरेज आदि लाईनों का प्रावधान आदि शामिल था। इन्हीं सारी सुविधाओं के प्रावधानों के साथ इस योजना को विज्ञापित किया था और ईच्छुक लोगों से आवेदन आमंत्रित किये थे। इस आवासीय कालोनी के निर्माण के लिये एक विस्तृत सैक्टरवाईज विकास योजना का प्रारूप विज्ञापित किया गया था।
सरकार/साडा द्वारा विज्ञापित इन सारी सुविधाओं के लिये किये गये अलग- अलग प्रावधानों से प्रभावित होकर ही लोगों ने यहां प्लाट/फ्लैट आदि खरीदने के लिये आवदेन किये। साडा ने जब प्लॉट एरिया की प्रतिवर्ग मीटर कीमत तय की तब उसमें पूरी जमीन की कीमत के साथ इन आधारभूत सुविधाओं सड़क, पार्क, ग्रीन एरिया और अन्य सार्वजनिक सुविधाओं पर होने वाले खर्च को भी जमीन की कुल कीमत में जोड़ा। इस तरह जो जमीन मूलतः 83.84 लाख में खरीदी गयी थी उसमें 234.03 लाख आधारभूत सरंचनाओं के लिये 60 लाख सार्वजनिक बिजली लाईटों के लिये तथा 75.35 लाख इसकी निगरानी और लाभ आदि के चार्ज कर 83.84 लाख की जमीन की कीमत 457.22 लाख तक पंहुचा दी। फिर इसे जब 50315 वर्ग मीटर के प्लॉट एरिया पर विभाजित किया गया तो 457.22 लाख बढ़कर 910 लाख बन गया। इस तरह प्लॉट एरिया की कीमत 910 रूपये प्रति वर्ग मीटर की दर पर खरीददारों से वसूली गयी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस कालोनी की एक-एक इंर्च जमीन की सारी कीमत सारे खर्चों और लाभ सहित यहां के प्लॉट मालिकों से वसूली गयी है। इस नाते यहां की सड़के, पार्क, ग्रीन एरिया और अन्य सार्वजनिक सुविधाओं के मालिक यहां के निवासी है न की सरकार या उसके संबधित विभाग। इनकी भूमिका कानून के मुताबिक एक ट्रस्टी संचालक की ही रह जाती है बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि सरकारी तन्त्र ने जब 83.84 लाख खर्च करके 9 करोड़ 10 लाख वसूले हैं तो वह तो प्राईवेट बिल्डर से भी कई गुणा ज्यादा शोषक जैसा हो जाता है। कीमत वूसली की यह सारी जानकरी स्वयं हिमुडा ने उच्च न्यायालय में रखी है।
इस कालोनी का निर्माण विज्ञापित विकास प्रारूप के अनुसार होना चाहिये था। क्योंकि कालोनी को शुद्ध रूप से आवासीय कालोनी के नाम पर विज्ञापित और प्रचारित किया गया था इसके प्रारूप में व्यवसायिक गतिविधियों के लिये कोई स्थान चिन्हित नही किये गये थे। शुद्ध आवासीय चरित्रा रखने के लिये ही यहां पर मूलतः अढ़ाई मंजिल के निर्माण की ही सीमा तय की गयी थी। लेकिन जब इसका वास्तविक निर्माण शुरू हुआ और लोगों को प्लाटों का आवंटन किया गया तब पूर्व विज्ञापित प्रचारित वकास प्रारूप को पूरी तरह नज़रअन्दाज कर दिया गया। विकास प्रारूप में जो स्थल पार्क, ग्रीन एरिया आदि के लिये मूलतः चिन्हित और निर्धारित थे वह इस समय व्यवहार में वैसे नहीं रह गये हैं। आवासीय कालोनी व्यवसायिक कालोनी की शक्ल ले चुकी है। लैण्डयूज़ पूरी तरह से बदल गया हैं बिना अनुमतियों के बदले गये लैण्डयूज़ का जब उच्च न्यायालय ने संज्ञान लिया तब संवद्ध प्रशासन ने जांच शुरू की और ऐसे सैंड़कों लोगो को उनके बिजली, पानी कनैक्शन काटने की नौबत आयी।
न्यू शिमला में विज्ञापित विकास प्रारूप को नज़रअन्दाज किये जाने की जानकारी जब बाहर आयी तब प्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका CWP No. 10772 of 20122 दायर हुई थी। इस याचिका की सुनवायी के दौरान यह मूल प्रश्न उठा है कि मूल रूप से विज्ञापित विकास प्रारूप की अवहेलना कहां -2 और कैसी हुई है इसके लिये संवद्ध विभागों से उच्च न्यायालय ने विकास प्रारूप तलब किया था लेकिन यह प्रारूप अभी तक अदालत के सामने नही रखा जा सका है। न्यू शिमला के निवासियों की एक कल्याण सोसायटी भी बनी हुई है। पिछले दिनों उच्च न्यायालय ने सरकार के महाधिवक्ता के माध्यम से संवद्ध विभागों को निर्देश दिया था कि वह इन निवासियों की कल्याण सोसायटी के साथ बैठक करके इसके सारे पक्षों पर विस्तार से चर्चा करें। उच्च न्यायालय के निर्देशां पर हुई इस बैठक के बाद निवासियों की इस सोसायटी की शीर्ष कार्यकारणी ने 26.6.2018 को बैठक करके एक प्रस्ताव पारित करके महाधिवक्ता को देकर उनसे यह अनुरोध किया कि प्रस्ताव में चिन्हित किये गये बिन्दुओं को अदालत के माध्यम से हल करवाने का प्रयास करे। इस प्रस्ताव में प्रारूप के विरूद्ध हुई गतविधियों की एक विस्तृत सूची दी गयी है और मांग की गयी है कि प्रशासन के जिन लोगों के सामने यह अवहेलनाएं हुई हैं उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करके कारवाई की जाये। सोसायटी ने एक पत्रकार वार्ता में इस प्रस्ताव को रखते हुए अवहेलनाओं के सनसनीखेज़ खुलासे किये है। आवासीय कालोनी में व्यवसायिक गतिविधियों की सीमा कहां तक जा पंहुची है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक रसूखदार पूर्वे नौकरशाह भवन मालिक को बिजली के एक ही भवन में सोलह कनैक्शन दिये गये हैं। उच्च न्यायालय ने यहां निर्माणों पर रोक लगा रखी है और इस रोक के बाद भी हिमुण्डा द्वारा सैक्टर चार के ग्रीन एरिया ब्लॉक 50 और 50 ए का निर्माण और बिक्री की गयी है। यही नही डीएवी स्कूल सैक्टर चार में भारी भरकम प्लाट दिया गया है जिसमें उनसे करीब 13 करोड़ रूपये प्लाट विकास के नही लिये गये हैं। जबकि बाकी सभी से यह चार्जिज लिये गये हैं। इसमें भारी घपला किये जाने की आशंका व्यक्त की गयी है। इसी तरह की स्थिति लॉईनज़ क्लब की भी कही जा रही है। सांसद निधि, विधायक निधि और अमृत योजना के नाम पर किये जा रहे खर्चो की वास्तविकता पर भी गंभीर प्रश्न लग रहे हैं। कुल मिलाकर न्यू शिमला में जिस तरह से विज्ञापित विकास प्रारूप को नज़रअन्दाज करके आवंटन और निर्माण हुए हैं उससे उच्च न्यायालय के सामने कई गंभीर कानूनी सवाल खड़े हो गये हैं। माना जा रहा कि कानून का शासन व्यवहारिक रूप से स्थापित करने के लिये उच्च न्यायालय कोई बड़ा आदेश पारित कर सकता है जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने कसौली प्रकरण में किया है। क्योंकि सरकार के संज्ञान में यह सबकुछ लम्बे अरसे से चल रहा है लेकिन कोई कारवाई नही की गयी है।


































जब जिले की प्रति व्यक्ति आय 4 लाख तो 25000 परिवार बीपीएल में क्यों

शिमला/शैल। प्रदेश के अर्थ एवम् सांख्यिकी विभाग ने पहली बार जिला स्तर के आर्थिक आंकड़े जारी किये हैं। इन आंकड़ो के मुताबिक प्रति व्यक्ति आय के मानक पर सोलन पहले स्थान पर आता है। यहां प्रतिव्यक्ति आय 3,94,102 रूपये आयी है। प्रदेश का सबसे बड़ा जिला प्रतिव्यक्ति आय मे सबसे अन्तिम स्थान पर आता है। यहां प्रतिव्यक्ति आय 86637 रूपये है। प्रतिव्यक्ति आय में बिलासपुर- 1,25,958, चम्बा, 98006, हमीरपुर 102,217, कांगड़ा-86637, किन्नौर 2,17,993, कुल्लू 1,19,231, लाहौल स्पिति 1,92,292, मण्डी 96052, शिमला 1,52,230, सिरमौर 145597, सोलन, 3,94102 और ऊना की प्रतिव्यक्ति आय 1,00295 रूपये हैं। प्रदेश स्तर पर प्रतिव्यक्ति आय का आंकड़ा 1,35,621 रूपये है। इसी क्रम में प्रदेश के चार जिलों सोलन, कांगड़ा, शिमला और मण्डी का प्रदेश के कुल जीडीपी में 62% योगदान रहा है।
इस आर्थिक आकलन का आधार वर्ष 2011-12 रहा है। 2011 के जनसंख्या सर्वेक्षण के मुताबिक प्रदेश की कुल जनसंख्या 68.65 लाख रही है। प्रदेश में जनगणना के अनुसार 20690 गांव है जिनमें से 17,882 गांव ही आबाद हैं। इन गांवो में करीब 14 लाख परिवार हैं। आर्थिक आंकलन के इन आंकड़ो के अनुसार तो प्रदेशभर में कोई भी गरीब नही होना चाहिये क्यांकि हमारी प्रति व्यक्ति आय 1,35,621 रूपये है। लेकिन प्रदेश के ग्रामीण विकास एवम् पंचायत राज विभाग ने वर्ष 2011-12 में ही बीपीएल परिवारों को लेकर एक सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण के मुताबिक प्रदेश में बीपीएल परिवारों की संख्या सामान्य वर्ग से 2,82,370 और अनुसूचित जाति वर्ग से 95772 परिवार बीपीएल में शामिल हैं। सोलन जहां प्रतिव्यक्ति आय 3,94,102 रूपये हैं वहां पर सामान्य वर्ग से बीपीएल में 17478 और अनुसूचित जाति वर्ग से 83280 परिवार बीपीएल में हैं जबकि सोलन की जनसंख्या 5,80320 है। यह कुल 2,5,858 परिवार बनते है। यदि एक परिवार में औसत पांच व्यक्ति भी हों तो संख्या 1,25,290 हो जाती है जिसका मतलब है कि करीब हर पांचवां व्यक्ति सोलन में गरीब है। इसी तरह इन आंकड़ो के अनुसार प्रदेश की 23% जनसंख्या आज भी बीपीएल में आती है।
इसी के साथ यदि यह भी सामने रखा जाये कि इस विकास के लिये प्रदेश पर कर्ज का कितना बोझ पड़ा है। 2011-12 में प्रदेश का कर्जभार 26494.07 करोड़ था जो कि 31 मार्च 2017 को 46500 करोड़ हो गया है। बीपीएल के आंकड़े पंचायती राज विभाग के 2011- 12 के हैं। सांख्यिकी विभाग ने 2003 के आंकड़ों को ही गणना में लिया है। विकास के आंकड़ो से यह सवाल उठता है कि यदि सही में प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय 1,35000 से ऊपर हो चुकी है तो फिर बीपीएल का आंकड़ा अब तक समाप्त क्यों नही हो पाया है? प्रदेश में अनुसूचित जाति वर्ग के भी करीब एक लाख परिवार बीपीएल में खड़े हैं जबकि इनके लिये अलग से कई विशेष योजनाएं लागू हैं। कई योजनाएं गरीबों के लिये अलग से चिन्हित हैं। यदि यह सारी योजनाएं ईमानदारी से लागू हो रही हैं तो फिर गरीबी की रेखा से नीचे का यह आंकड़ा कम क्यों नही हो रहा है।
प्रदेश का कर्जभार 2011- 12 से आज करीब दो गुणा बढ़ गया है। प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ रही है और जीडीपी भी बढ़ रहा है लेकिन इसके बावजूद न तो कर्ज कम हो रहा है और न ही बीपीएल का आंकड़ा। इससे यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या हमारा सारा योजना प्रबन्धन ही दोषपूर्ण है। क्या हमारी भविष्य का आकलन करने की क्षमता समाप्त हो गयी है या जानबूझ कर इस ओर से ऑंखे बन्द कर ली गयी है। यदि समय रहते इस दिशा में चिन्ता और चिन्तन न किया गया तो स्थिति भयानक हो जायेगी।

 

RURAL-URBAN POPULATION - 2011 CENSUS

District                Total

BIlaspur            381956
Chamba            519080
Hamirpur          454768
Kangra             1510075
Kinnaur             84121
Kullu                437903
L-Spiti              31564
Mandi              999777
Shimla             814010
Sirmour           529855
Solan              580320
Una                521173
H.P                6864602

नगर निगम शिमला में चल रहा विवाद नेताओं के आपसी हितों के टकराव या किसी बड़े विस्फोट का संकेत

शिमला/शैल। नगर निगम शिमला में भाजपा पहली बार सत्ता में आयी है और उसके लिये भी निर्दलीय को उपमहापौर का पद देना पड़ा है। लेकिन शायद भाजपा को निगम की सत्ता रास नहीं आ रही है। क्योंकि भाजपा के अपने ही पार्षदों ने अपने ही महापौर और उपमहापौर के खिलाफ इस कदर मोर्चा खोल रखा है कि दोनों को ही पदों से हटाने की मांग की जाने लगी है। इस संबंध में स्थानीय विधायक और शिक्षामन्त्री सुरेश भारद्वाज और पार्टी अध्यक्ष सतपाल सत्ती के प्रयास भी इस विवाद को सुलझाने में सफल नही हो पाये हैं। निगम की बैठक से पिछली रात दोनों नेताओं ने विवाद को सुलझाने में जितने प्रयास किये उनके परिणामस्वरूप पार्षद बैठक में तो आ गये लेकिन जब कांग्रेस के पार्षदों ने सदन से वाकआऊट किया तो उसके बाद भाजपा के अपने पार्षदों का भी एक बड़ा वर्ग बैठक से बाहर आ गया। यह वर्ग यदि बैठक से बाहर न आता तो सदन की कार्यवाही चल सकती थी लेकिन ऐसा नही हुआ और सदन को स्थगित करना पड़ा। भाजपा के बारह आये पार्षद नाराज धड़े के माने जाते हैं यदि यह वर्ग इसी तरह नाराज चलता रहा तो निगम की सत्ता भाजपा से छिन भी सकती है।
पार्षदों की नाराज़गी का कारण पिछले दिनो शिमला में आया जल संकट तत्कालीन मुद्दा रहा है। जल संकट से पूर्व शहर ने लम्बे समय तक सफाई का संकट भी झेला जब निगम के सफाई कर्मी हड़ताल पर चले गये थे। पेयजल और सफाई के ही दो बड़े मुद्दे थे जिनकी सुचारू व्यवस्था सुनिश्चित करने के निगम चुनावों में वायदे और दावे किये गये थे। लेकिन इन सारे दावों वायदों पर निगम सफल नही रही है और इसी कारण से विकास को लेकर किये गये दावों वायदों तक तो निगम प्रशासन कोई कदम नही उठा ही नही पाया है। उपर से यह हो गया कि पेयजल संकट चल रहा था उस समय निगम की महापौर संयोगवश चीन की यात्रा पर चली गयी थी। पेयजल संकट को लेकर हर वार्ड मे परेशानी रही है लोग पूरे आक्रोश मे रहे हैं। कई जगह तो सड़कों पर निकलने को विवश हुए हैं। मुख्यमन्त्री और मुख्य सचिव को सारा संचालन अपने हाथ में लेना पड़ा। उच्च न्यायालय भी पन्द्रह दिन लगातार स्थिति का संज्ञान लेता रहा है। आयुक्त को लगभग हर दिन अदालत में पेश होना पडा है। उच्च न्यायालय की प्रताडना तक झेलनी पडी है। एक एसडीओ को निलंबित तक किया गया है। इस वस्तुस्थिति में उभरे जनाक्रोश का सीधा समाना हर पार्षद और उसी के साथ स्थानीय विधायक को भी झेलना पड़ा है। जबकि पार्षदों और विधायक को इसमें कोई सीधा दोष नही था। क्योंकि मूलतः यह निगम प्रशासन की जिम्मेदारी थी। लेकिन जब स्त्रोतों में ही पानी की कमी हो गयी थी तो प्रशासन भी काफी हद तक विवश हो गया था। निगम प्रशासन की इस स्थिति को समझते हुए ही प्रशासन में किसी पर तबादले आदि की गाज नही गिरी।
परन्तु अब जब स्थिति सामान्य हो गयी थी तब पार्षदों का महापौर और उपमहापौर के खिलाफ मोर्चा खोलना और उसकी गाज आयुक्त पर तबादले के रूप में गिराया जाना बहुत कुछ अन्यथा सोचने पर विवश करता है। यदि आयुक्त को पेयजल संकट के परिदृश्य में ही बदल दिया जाता तो उसे सरकार का सामान्य और प्रभावी कदम माना जाता। लेकिन आज इस कदम का पूरा अर्थ ही बदल जाता है क्योंकि इस स्थिति को सुलझाने के सुरेश भारद्वाज और सत्ती के सारे प्रयासों के बावजूद भाजपा पार्षदों ने निगम की बैठक से वाकआऊट किया है। शिमला जहां प्रदेश की राजधानी है वहीं पर जिले का मुख्यालय भी है। शिमला नगर निगम पर सबसे अधिक प्रभाव जिला शिमला का माना जाता है। इस नाते निगम के सारे घटनाक्रम को जिले की राजनीति से भी जोड़कर देखा जा रहा है। जिले को इस बार मन्त्रीण्डल में एक ही स्थान मिल पाया है जबकि आठ विधानसभा सीटों के साथ यह प्रदेश का तीसरा बड़ा जिला है। मन्त्रीमण्डल में सीट पाने के लिये भारद्वाज और बरागटा बराबर के दावेदार थे लेकिन जब यह प्रतिनिधित्व भारद्वाज को मिल गया तब बरागटा और उनके समर्थको में निराशा होना स्वभाविक थी और यह हुई भी और सामने भी आयी। इस निराशा का समाधान निकालने के लिये ही सचेतकों को मन्त्रा का दर्जा दिये जाने का विधेयक पारित करवाया गया था। चर्चा उठी थी कि सचेतकों के पदों पर बरागटा और रमेश धवाला की ताजपोशी होगी। लेकिन राज्यपाल की विधेयक पर स्वीकृति मिल जाने के बाद भी यह ताजपोशीयां हो नही पायी है। चर्चाओं के मुताबिक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने इस तरह की व्यवस्थाओ का कड़ा विरोध किया है। सरकार पर विद्यार्थी परिष्द का प्रभाव और दबाव कितना है इसका आभास योग दिवस के दिन हो चुका है। जब एक मन्त्री विद्यार्थी परिष्द के नेता के साथ बैठक तय होने के कारण मुख्यमन्त्रा के चाय आमन्त्रण को स्वीकार नही कर पाये।
इसके बाद जब मुख्यमन्त्री ऊपरी शिमला के दौरे पर गये तब जिले के मन्त्री ही उसमें शामिल नही रहे। मुख्यमन्त्री के इस दौरे के आयोजक नरेन्द्र बरागटा रहें है। इस दौरे में एक जगह पुनः से नीवपत्थर रखने का आयेजन हो जाने को लेकर भी चर्चा उठी जिस पर सफाई देने की नौबत आयी। मुख्यमन्त्री का यह दौरा कार्यर्ताओं में अलग तरह की चर्चा का विषय बन गया है। बरागटा और भारद्वाज के संबधों को लेकर चर्चाएं उठने लगी हैं। इन चर्चाओं का आधार नगर निगम का घटनाक्रम माना जा रहा है। क्योंकि नाराज निगम पार्षदों में शैलेन्द्र चौहान की भूमिका सबसे सक्रिय मानी जा रही है। शैलेन्द्र चौहान को बरागटा का नज़दीकी माना जाता है। इस चर्चा को इससे भी बल मिलता है कि नाराज पार्षदों ने मन्त्री और प्रदेश अध्यक्ष के प्रयासों के बावजूद अपनी नाराजगी को वाकआऊट करके सार्वजनिक कर दिया। नाराज पार्षदों ने पहली बार निगम आयुक्त पर फाईलें लटकाने का आरोप लगाया और सरकार ने तुरन्त प्रभाव से आयुक्त को बदल दिया। निगम में पार्षद बनाम महापौर उपमहापौर विवाद में मुख्यमन्त्री अभी तक तटस्थता की भूमिका में ही चल रहे हैं जबकि इस विवाद का असर अप्रत्यक्षतः सरकार और संगठन पर पड़ता साफ दिख रहा है। क्योंकि मुख्यमन्त्री अभी तक कार्यकर्ताओं को निगमो/बार्डों में ताजपोशीयां देने का फैसला नही ले पा रहे हैं क्योंकि सहमतियां नही बन रही है। जबकि अकेले एपीएमसी कमेटीयों में ही डेढ सौ से अधिक कार्यकर्ताओं को समायोजित किया जा सकता है। जबकि लोकसभा चुनावों के परिदृश्य में यह फैसले तुरन्त प्रभाव से ले लिये जाने चाहिये थे।

Facebook



  Search