Friday, 19 December 2025
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क्या भाजपा के आरोप पत्र पर जांच हो पायेगी विजिलैन्स की कार्यप्रणाली से उठा सवाल

शिमला/शैल। भाजपा के आरोप पत्र पर विभिन्न विभागों ने उनसे जुड़े आरोप पत्रों पर अपनी टिप्पणीयां विजिलैन्स को भेज दी हैं। विजिलैन्स इन टिप्पणीयों की समीक्षा करके जिने मामलों को जांच के योग्य पायेगा उनपर प्रारम्भिक जांच करके सरकार को अगली कारवाई की अनुमति के लिये भेजेगा। उसके बाद सरकार तय करेगी की किन आरोपों पर एफआरआई दर्ज करने की अनुमति देनी है या नही देनी है। आज तक विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस या भाजपा ने जितनी बार भी आरोप पत्र सौंपे हैं उन पर सत्ता में आने के बाद जांच को लेकर इसी तरह का चलन रहा है। इस चलन के कारण ही आज तक भाजपा या कांग्रेस ने सत्ता में आने के बाद किसी भी आरोप को अन्तिम अंजाम तक नही पहुंचाया है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि सत्ता में आने के बाद आरोप पत्र तैयार करने वाली कमेटीयों को भी याद नही रहता कि उन्होने कौन से आरोप लगाये थे और उनमें से कितने सही पाये गये हैं या कितने गलत साबित हुए हैं। आरोप पत्र तैयार करने वाली कमेटीयां अपने आरोपों की सत्यता प्रमाणिक के प्रति कितना सजग होती है इसका आकलन भाजपा के ही आरोप पत्र से लगाया जा सकता है
इस आरोप पत्र में पशुपालन विभाग में दवा खरीद को लेकर आरोप लगाये गये हैं। उस समय पशुपालन विभाग अनिल शर्मा के पास था और आज अनिल जयराम सरकार मे भी मंत्री हैं इसलिये यह आरोप अलग से चर्चा का विषय बन गये हैं। लेकिन इन आरोपों की व्यवहारिक सच्चाई यह है कि जिन चौदह कंपनीयों के खिलाफ आरोप लगे थे उनकी जांच कांग्रेस सरकार के दौरान ही हो गयी थी और जो भी कारवाई कानून के अनुसार बनती थी उसको अंजाम दे दिया गया था। इस कारवाई का अनुमोदन उस समय मुख्यन्त्री ने भी किया हुआ है। बल्कि अब जयराम सरकार के समय में भी यह कारवाई की रिपोर्ट वर्तमान पशुपालन मन्त्री के पास भी गयी है और उन्होनें भी इसे स्वीकार कर लिया है। विजिलैन्स को भी यह रिपोर्ट जा चुकी है। इसी तरह परिवहन निगम में बस खरीद को लेकर आरोप लगाया गया है। लेकिन यह मामला एक बार उच्च न्यायालय तक जा चुका है। उच्च न्यायालय ने इस खरीद को लेकर अपनाई गयी प्रक्रिया को एक सही पारदर्शी ठहराया है। इस नाते परिवहन निगम और पशुपालन विभाग को लेकर लगाये यह आरोप कहीं नही टिक पायेंगे। लेकिन इन आरोपों को लेकर अब विजिलैन्स ने सरकार को इस वस्तुस्थिति की सूचना नही दी है इससे विजिलैन्स की कार्यशैली पर पहले ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
इससे भी हटकर एक बड़ा सवाल तो यह है कि भाजपा के आरोप पत्र को लेकर जांच की कोई समय सीमा तय नही की गयी है जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामलें में 2008 में जांच को लेकर स्पष्ट जांच निर्देश जारी किये हुए हैं। यह निर्देश सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने जारी किये हैं। जो अपने में अब कानून बन चुके हैं। इन निर्देशों के मुताबिक जिस भी शिकायत से संज्ञेय अपराध का बोध होता हो उसमें तुरन्त प्रभाव से एफआरआई दर्ज किया जाना अनिवार्य है। यदि किसी कारण से जाचंकर्ता अधिकारी आयी हुई शिकायत पर प्रारम्भिक जांच करना भी चाहे तो उसे यह जांच सात दिन के भीतर पूरी करनी होगी। प्रारम्भिक जांच भी शिकायत के गुण-दोषों की जांच नही होगी केवल यह देखा जायेगा कि इसमें संज्ञेय अपराध का बोध होता है या नहीं। यदि जांचकर्ता की नज़र संज्ञेय अपराध का बोध नही होता है तो जांच अधिकारी को इसके कारण लिखित में रिकार्ड करते हुए शिकायतकर्ता को इसकी सूचना देनी होगी और यह सब कारवाई सात दिन के भीतर पूरी हो जानी चाहिये। ऐसा न करने वाले अधिकारी के खिलाफ भी कारवाई किये जाने के निर्देश किये गये हैं। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि

Conclusion/Directions:

111) In view of the aforesaid discussion, we hold:
i) Registration of FIR is mandatory under Section 154 of the Code, if the information discloses commission of a cognizable offence and no preliminary inquiry is permissible in such a situation.
ii) If the information received does not disclose a cognizable offence but indicates the necessity for an inquiry, a preliminary inquiry may be conducted only to ascertain whether cognizable offence is disclosed or not.
iii) If the inquiry discloses the commission of a cognizable offence, the FIR must be registered. In cases where preliminary inquiry ends in closing the complaint, a copy of the entry of such closure must be supplied to the first informant forthwith and not later than one week. It must disclose reasons in brief for closing the complaint and not proceeding further.
iv) The police officer cannot avoid his duty of registering offence if cognizable offence is disclosed. Action must be taken against erring officers who do not register the FIR if information received by him discloses a cognizable offence.
v) The scope of preliminary inquiry is not to verify the veracity or otherwise of the information received but only to ascertain whether the information reveals any cognizable offence.
vi) As to what type and in which cases preliminary inquiry is to be conducted will depend on the facts and circumstances of each case.
The category of cases in which preliminary inquiry may be made are as under:
a) Matrimonial disputes/ family disputes
b) Commercial offences
c) Medical negligence cases
d) Corruption cases
e) Cases where there is abnormal delay/laches in initiating criminal prosecution, for example, over 3 months delay in reporting the matter without satisfactorily explaining the reasons for delay.
The aforesaid are only illustrations and not exhaustive of all conditions which may warrant preliminary inquiry.
vii) While ensuring and protecting the rights of the accused and the complainant, a preliminary inquiry should be made time bound and in any case it should not exceed 7 days. The fact of such delay and the causes of it must be reflected in the General Diary entry.
viii) Since the General Diary/Station Diary/Daily Diary is the record of all information received in a police station, we direct that all information relating to cognizable offences, whether resulting in registration of FIR or leading to an inquiry, must be mandatorily and meticulously reflected in the said Diary and the decision to conduct a preliminary inquiry must also be reflected, as mentioned above.

सर्वोच्च न्यायालय के इन निर्देशों की यदि ईमानदारी से अनुपालना की जाये तो सही मायने में भ्रष्टाचार पर लगाम भी लगायी जा सकती है और फर्जी शिकायतों को भी रोका जा सकता है लेकिन विजिलैन्स इन निर्देशों के अनुसार कारवाईे ही नही कर रही है। जयराम सरकार ने धर्मशाला में मन्त्रीमण्डल की पहली ही बैठक में बीवरेज कारपोरेशन में हुए घपले की जांच करवाये जाने का फैसला लिया था। इसमें सीधे-सीधे संज्ञेय अपराध का बोध होता है लेकिन इस मामले में अभी तक कोई एफआरआई दर्ज नही हो पायी है। इस तरह अब तीन सहकारी बैंको को लेकर मामला विजिलैन्स में गया है। इसमें भी जो आरोप हैं उनसे सीधे संज्ञेय अपराध का बोध बनता है। यह मुख्य सचिव और मुख्यमन्त्री की अनुशंसा से गृह विभाग से होकर विजिलैन्स को गया है। इसमें सारे दस्तावेजी सक्ष्य विजिलैन्स को भेजी रिपोर्ट के साथ संलग्न है। प्रारम्भिक जांच में भी दस्तावेज ही जुटाये जाते हैं। जो इस रिपोर्ट के साथ पहले से ही मौजूद हैं लेकिन इस मामले में भी विजिलैन्स ने अब तक एफआईआर दर्ज नही की है क्योंकि गृह विभाग ने अपनी ओर से एफआईआर दर्ज करने के निर्देश जारी नही किये हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या गृह विभाग और विजिलैन्स को सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा जारी किये गये निर्देशों की जानकारी ही नही है या फिर विजिलैन्स किसी तरह से इन मामलों को टालना चाहता है। सूत्रों के मुताबिक विजिलैन्स के पास ऐसी कई शिकायतें वर्षों से लंबित हैं। जिन पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार मामले दर्ज होकर अब तक अन्तिम फैसले भी आ जाने चाहिये थे लेकिन ऐसा नही हुआ है।इससे विजिलैन्स की नीयत और नीति दोनां पर गंभीर सवाल खड़े हो जाते हैं। इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या भाजपा के इस बहुचर्चित आरोप पत्र पर सही में कोई जांच हो पायेगी या यह एक जुमला बनकर ही रह जायेगा।

क्या अवैध निर्माणों पर शिमला में भी कसौली ही दोहराया जायेगा

शिमला/शैल। एनजीटी ने 16 नवम्बर 2017 को योगेन्द्र मोहन सेन गुप्ता और शिला मलहोत्रा मामलों में दिये फैसलों में स्पष्ट निर्देश दिये हैं कि We hereby prohibit new construction of any kind, i.e. residential, institutional and commercial to be permitted henceforth in any part of the Core and Green/Forest area as defined under the various Notifications issued under the Interim Development Plan as well, by the State Government. इसी फैसले में यह भी कहा है किWherever unauthorised structures, for which no plans were submitted for approval or NOC for development and such areas falls beyond   the Core and Green/Forest area the same shall not be regularised or compounded. However, where plans have been submitted and the construction work with deviation has been completed prior to this judgement and the authorities consider it appropriate to regularise such structure beyond the sanctioned plan, in that event the same shall         not be compounded or regularised without payment of environmental compensation at  the rate of Rs. 5,000/- per sq. ft. in case of exclusive              self occupied residential construction and Rs. 10,000/- per sq. ft. in commercial or residential-cum-commercial buildings. The amount so received should be utilised for sustainable development and for providing of facilities in the city of Shimla, as directed under this judgement. नजीटी ने ऐसे 29 निर्देश जारी किये हैं। भविष्य के लिये इस संद्धर्भ में दो कमेटीयां गठित करने के भी निर्देश जारी किये है।
एनजीटी का यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय के 12 दिसम्बर 1996़ के फैसले और संविधान की धारा 48A और 51A (G) की पृष्ठिभूमि में आया जहां पर्यावरण की सुरक्षा के लिये सरकार और आम नागरिक दोनों के ही कुछ कर्तव्य हैं जिन्हे निभाने के लिये सभी बुरी तरह असफल रहे हैं क्योंकि यह कर्तव्य संविधान की धारा 19(एफ) को हटाकर 44वें संविधान संशोधन के बाद जोड़ी गयी धारा 300 ए के परिदृश्य में और भी गंभीर हो जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के दिसम्बर 1996 के फैसले के बाद सरकार ने वर्ष 2000 में अगस्त और दिसम्बर मे दो अधिसूचनाएं जारी की थी। इनमें नये निर्माणां पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। इनमें स्पष्ट कहा गया था कि  All  Private  as      well as Government constructions are totally banned within the core area of Shimla Planning Area. Only reconstruction on old lines shall be permitted in this area with the prior approval of the State Government. इसमें कोर एरिया को परिभाषित किया गया था। सरकार की अधिसूचनाओं पर सर्वोच्च न्यायालय के 1996 के फैसले की पृष्ठिभूमि में एनजीटी ने भी मई 2014 में अपनी मुहर लगाते हुए कहा कि In the meanwhile, we restrain all the Respondents and particularly the Municipal Corporation of Shimla and the Government State of Himachal Pradesh from raising or permitting any construction in the areas covered under the Notification dated 07th December, 2000.

इसी दौरान विभिन्न सरकारी विभागों और कुछ प्राईवेट लोगों ने इन अधिसूचनाओं में कुछ ढील देने का आग्रह करते हुए नये निर्माणों की अनुमतियां मांगी। लेकिन नगर निगम ने यह अनुमतियां इन विभागों को नही दी। कुछ प्राईवेट लोगों ने तो उच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया। लेकिन उच्च न्यायालय ने यह मामले एनजीटी को सौंप दिये। एनजीटी ने अपने इसी फैसले में इन आवेदनो/याचिकाओं का भी निपटारा किया है। एनजीटी ने किसी को भी अनुमति नही दी है। इन लोगों को अपने मामले इस फैसले में दिये गये निर्देशों की अनुपालना में बनाई जाने वाली निगरानी कमेटी के समक्ष रखने को कहा है। निगरानी कमेटी इन पर इस फैसले में दिये गये निर्देशों के अनुसार विचार करके अपनी सिफारिश करेंगी और फिर एनजीटी इन पर फैसला लेगा। लेकिन जहां नगर निगम के विभिन्न सरकारी विभागां को अनुमति नही दी बल्कि एक आवेदन तो जस्टिस आरएफ नरीमन का आया है और उन्हे भी अनुमति नही मिली है। वहीं पर इसी दौरान 5143 मामले अवैध निर्माणों के घट गये जिनमें से 180 मामले तो ऐसे हैं जिन्होने कभी अनुमति मांगी ही नही। यह आंकड़ा एनजीटी के फैसले में दर्ज है। ऐसे में सवाल उठता है कि इतनी बड़ी मात्रा में इतना अवैध निर्माण या उसकी जानकारी के बिना ही इसे अंजाम दिया गया है। वस्तुस्थिति जो भी रही हो यह अपने में ही एक बड़ा कांड हो जाता है। एनजीटी के फैसले के अनुसार यह 1801 अवैध निर्माण देर सवेर तोडे़ ही जाने है। बल्कि इन्ही कारणों से एनजीटी के फैसले को पहले ट्रिब्यूनल में ही रिव्यू डालकर चुनौती दी गयी। लेकिन एनजीटी ने इस रिव्यू को अस्वीकार कर दिया है। इस अस्वीकार के बाद अब सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करने की बात की जा रही है। यदि एनजीटी के 165 पन्नों के फैसलें को ध्यान से देखा जाये तो यह सारा मामला ही सर्वोच्च न्यायालय के दिसम्बर 1996 के फैसले का ही विस्तारित रूप है। क्योंकि 1996 के फैसले के बाद ही 2000 में सरकार ने स्वयं अधिसूचनाएं जारी करके निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगाया और स्वयं ही अवैधताओं पर आंखे बन्द कर ली। एनजीटी में जब यह मामला आया तब फिर अदालत ने इस पर अधिकारियों की एक कमेटी गठित करे रिपोर्ट तलब की। इस कमेटी के पहले अध्यक्ष प्रधान सचिव आरडी धीमान थे जिन्हें कमेटी के सदस्यों के साथ ही मतभेद हो जाने के कारण हटा दिया गया था। फिर इसके अध्यक्ष अतिरिक्त मुख्य सचिव तरूण कपूर बनाये गये थे। इस कमेटी ने 24 मई 2017 को 20 पन्नो की रिपोर्ट सौपी है। यह रिपोर्ट भी बहुत सारे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अध्ययनों पर आधारित है।
इस सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि एनजीटी का फैसला सर्वोच्च न्यायालय सरकार की अपनी अधिसूचनाओं और फिरअधिकारियों की विस्तृत रिपोर्ट पर ही आधारित है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि एनजीटी ने तो सरकार को ही स्मरण कराया है कि शिमला को बचाये रखने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले और अपनी ही अधिसूचनाओं पर अमल करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नही बचा है। अवैधताओं पर आंखे मूंदने की दोषी कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही सरकारें एक बराबर रही है। 5103 अवैध निर्माणों का जो आंकड़ा एनजीटी के सामने आया है उसमें यह भी साफ कहा गया है कि यह आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा हो सकता है एनजीटी ने टूटीकण्डी, संजौली, न्यू शिमला, जाखू, रिज, लक्कड़ बाजार और राम नगर आदि कई क्षेत्रों का तो विशेष रूप से उल्लेख किया है। लेकिन इन क्षेत्रों में आज भी ऐसे निर्माण जारी हैं जो फैसले के मानकों पर सही नही उतरते हैं। मालरोड़ और गंज क्षेत्र में भी ऐसे निर्माण सामने चल रहे हैं। जिन्हें फैसले के परिदृश्य में कतई अनुमति नही दी जा सकती। ऐसे निर्माणों को बीच में ही रोक देने के लिये फैसले के अनुरूप प्रशासन अधिकृत है भले ही उनके प्लान को अनुमति प्राप्त रही हो। प्रशासन फैसले पर अमल करने की बजाये राजनीतिक दबाव में अपील में जाने की नीति पर चल रहा है। इससे कुछ दिनां का समय तो अवश्य मिल सकता है लेकिन यह तय है कि सर्वोच्च न्यायालय इन अवैधताओं को अनुमति नही देगा। यह अवैध निर्माण अन्ततः गिराने ही पडेंगे।

राजीव बिन्दल को विजिलैन्स का झटका

शिमला/शैल। पिछले कुछ अरसे से प्रदेश मन्त्रीमण्डल में फेरबदल किये जाने की अटकलों का दौर चल रहा है। इसमें यह भी चर्चा चल रही थी कि राजीव बिन्दल को मन्त्री बनाया जा सकता है। लेकिन बिन्दल के खिलाफ लम्बे अरसे से विजिलैन्स में आपराधिक मामला चल रहा है। अब इस मामले को वापिस लेने के लिये सीआरपीसी की धारा 321 के तहत अदालत मे आवेदन करना पड़ता है और यह आवेदन केवल मामले से जुड़ा सरकारी वकील ही कर सकता है। इसके लिये मामले से जुड़े सरकारी वकील को सरकार की ओर से निर्देश गये थे कि वह यह आवेदन अदालत में करे। उच्चस्थ सूत्रों के मुताबिक सरकारी वकील ने यह आवेदन करने से इन्कार कर दिया है क्योंकि मामला निर्णायक मोड़ तक पंहुच चुका है। सीआरपीसी की धारा 321 के तहत सरकारी वकील को मामला वापिस लेने के लिये यह कहना पड़ता है कि उसकी राय में यह मामला सफल नही हो सकता। लेकिन इसमें जब मामला अन्तिम चरण में पंहुच चुका है और आज से पहले कभी सरकारी वकील की ओर से यह इंगित ही नही हुआ है तो अब इस स्टेज पर ऐसे आग्रह से उसी की फजीहत होती।
स्मरणीय है कि धूमल शासन के दौरान भी इस मामले को खत्म करने के प्रयास किये गये थे। उन प्रयासों के तहत विधानसभा अध्यक्ष ने इसमें मुकद्दमा चलाने की अनुमति नही दी थी। लेकिन अदालत ने यह अनुममित न दिये जाने को यह कह कर नकार दिया था कि विधानसभा अध्यक्ष इसके लिये सक्षम अधिकारी नही हैं। अब जब सरकारी वकील ने सीआरपीसी की धारा 321 के तहत आवेदन करने में असमर्थता जता दी है तो यह स्पष्ट हो गया कि यह मामला अदालत में चलेगा ही। मामले की जानकारी रखने वालों के मुताबिक इसमें परिणाम कुछ भी आ सकते हैं।
इस परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दा यह खड़ा हो गया है कि मंत्री बनने के लिये तो तब तक वंदिश नही हैं जब तक किसी मामले में दो वर्ष से अधिक की सजा़ न हो जाए। क्योंकि दो वर्ष की सज़ा पर तत्काल गिरफ्तारी के बाद ही अपील और जमानत की स्थिति आती है। बिन्दल के मामले तो यह सब कुछ अभी अनिश्चितता में चल रहा है। उन्हें मामले के चलते हुए जब विधानसभा अध्यक्ष बनाया जा सकता है तो उसी तर्क पर उन्हें मन्त्री बनाने में भी कोई दिक्कत नही हो सकती थी। फिर सूत्रों का यह भी दावा है कि सरकारी वकील ने दो माह पहले ही लिख दिया था कि मामला वापिस ले लिया जाये। उसके बाद सरकार ने उस वकील को ही बदल दिया। अब इस केस में जो नया सरकारी वकील लगाया गया है उसने नये सिरे से अपनी राय देते हुए यह लिख दिया है कि मामला वापिस नही लिया जा सकता। इन तथ्यों को सामने रखते हुये तो एकदम सारा परिदृश्य ही बदल जाता है और यह संदेश जाता है कि सरकार मामला वापिस ही नही लेना चाहती है। इससे यह भी संकेत उभरता है कि जब बिन्दल का ही मामला सरकार वापिस नही लेना चाहती है तो अन्य नेताआें के मामलों में भी ऐसी ही रणनीति अपनाई जायेगी। माना जा रहा है कि जयराम सरकार की इस रणनीति के दूरगामी राजनीतिक परिणाम होंगे।

क्या न्यू शिमला में भू उपयोग बदला जा सकता है उच्च न्यायालय के सामने उठा सवाल

शिमला/शैल। न्यू शिमला आवासीय हाऊसिंग कॉलोनी का प्रारूप जब सार्वजनिक प्रचारित एवम् प्रसारित किया था तब यहां पर ग्रीन एरिया, पार्क और अन्य सार्वजनिक सुविधाओं के लिये अलग से विशेष भूस्थल चिन्हित किये गये थे। क्योंकि यह कालोनी विशुद्ध रूप से आवासीय कालोनी घोषित की गयी थी। यह प्रदेश की दूसरी आवासीय कालोनी थी जो पूरी तरह सैल्फ फाईनसिंग से वित्त पोषित थी। इसी आधार और आशय से इसका विकास प्रारूप तैयार किया था। इसी कारण से इस कॉलोनी के लिये अधिगृहित भूमि के एक-एक ईंच हिस्से की कीमत इसके आबंटितों से ली गयी है जिसमें सड़क, सीवरेज, पेयजल, ग्रीन एरिया, पार्क तथा अन्य सार्वजनिक सुविधाएं शामिल हैं। इन सारी सुविधाओं की कीमत वसूलने के कारण ही 83.84 लाख में खरीदी गयी ज़मीन आबंटितों को 9.10 करोड़ में दी गयी है। कॉलोनी में पूरी सैल्फ फाईंनैंस होने के कारण यहां की हर सुविधा पर आबंटितों का मालिकाना हक हो जाता है। कॉलोनी विशुद्ध रूप से आवासीय होगी यही खरीददारों के लिये सबसे बड़ा आकर्षण था। क्योंकि इसमें व्यवसायिक दुनिया की हलचल और शोर शराबा नही होगा। एकदम शान्त वातावरण रहेगा इसलिये यह वरिष्ठ नागरिकों की पसन्द बना।
लेकिन जब यहां पर व्यवहारिक रूप से लोगों ने प्लॉट/ मकान खरीदने बनाने शुरू किये तब आगे चल कर यह सामने आने लगा कि जो भू-स्थल ग्रीन एरिया और पार्क आदि के लिये रखे गये थे वहां पर कई जगह भू उपयोग बदल कर उसे दूसरे उद्देश्यों के लिये प्रयुक्त कर लिया गया। इस तरह भू उपयोग बदले जाने से कॉलोनी का आवासीय चरित्र ही बदल गया। जब इसके लिये ज़मीन का अधिग्रहण 1986 में किया गया तब ऐजैन्सी साडा थी। साडा बाद में बदलकर नगर विकास प्राधिकरण बन गया। फिर नगर विकास प्राधिकरण का विलय हिमुडा में हो गया और अब हिमुडा से इसे शिमला नगर निगम को दे दिया गया है। यह सारी ऐजैन्सीयां कानून की नज़र से इस कॉलोनी की ट्रस्टी हैं मालिक नही। भू उपयोग बदले जाने के जितने भी मामले घटित हुए हैं वह सब इन्ही ऐजैन्सीयों ने किये। अब नगर निगम शिमला भी यहां पर ‘‘विकास के नाम से कई निर्माण कार्य करवा रही है इस तरह के कार्यो से जब यहां का आवासीय चरित्र बदलने लगा तब आबंटितां ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया और भू-उपयोग बदले जाने के मामले सामने आने लगे। इसका संज्ञान लेते हुए आबंटितों ने वाकायदा एक अपनी रैजिडैन्ट वैलफेयर सोसायटी का सैक्टर वाईज़ गठन कर लिया और फिर सारी ईकाईयों न मिलकर एक शीर्ष संस्था का गठन कर लिया है।
इसी दौरान इन मुद्दों पर 2012 में प्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर हो गयी है। इसी याचिका की सुनवाई के दौरान यहां पर चल रही विभिन्न व्यवसायिक गतिविधियों की ओर से उच्च न्यायालय का ध्यान आकर्षित हुआ। उच्च न्यायालय ने सबंद्ध प्रशासन से इस बारे में रिपोर्ट तलब की। प्रशासन ने जब इस संबंध में जांच शुरू की तो सैकड़ो ऐसे मामले सामने आये जहां पर प्रशासन से भू उपयोग बदलने की अनुमति लिये बिना ही व्यवसायिक गतिविधियां चल रही थी। इसका कड़ा संज्ञान लेकर ऐसे भवनों के बिजली, पानी के कनैक्शन तक काटे गये। भू उपयोग बदलकर ग्रीन एरिया को पार्कांं में बदलने और इसके लिये पेड़ों को काटे जाने के तथ्य जब उच्च न्यायालय के सामने आये थे तब उच्च न्यायालय ने यहां निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। लेकिन इस प्रतिबन्ध के बाद भी यहां पर दो ब्लाक बनाकर बेच दिये गये। ग्रीन एरिया में रद्दोबदल कॉलोनी के सैक्टर 1,2,3 और 4 में सामने आये हैं। यह आरोप नगर शिमला पर लगे हैं जो याचिका में प्रतिवादी नम्बर 5 हैं। इन आरोपों का संज्ञान लेते हुए उच्च न्यायालय ने यह रोक लगा दी थी कि अदालत की अनुमति के बिना यहां के खाली/ग्रीन और कामन एरिया में कोई भी निर्माण न किया जाये। लेकिन नगर निगम ने यहां पर अम्रूत योजना और मर्जड एरिया ग्रांट के नाम पर मिले धन से कई निर्माण कार्य शुरू करवा रखे हैं। इन सारे कार्यो को ठेकेदारों के माध्यम से करवाया जा रहा है। निगम ने इन कार्यों की बाकायदा सूचियां अदालत में दे रखी हैं। अब अदालत के आदेश से बन्द किये गये इन कार्यों को पुनः शुरू करवाने के लिये उच्च न्यायालय में गुहार लगा रखी है।
नगर निगम पर आरोप है कि उसने भू-उपयोग को बदला है निगम द्वारा कार्यों की सूची अदालत में रखना कानून की नज़र में इस आरोप को स्वतः ही स्वीकार करना बन जाता है यदि उच्च न्यायालय निगम को यह कार्य पूरे करने की अनुमति दे देता है तो इसका अर्थ यह होगा कि अदालत ने भी भू उपयोग बदलने की अपरोक्ष में अनुमति दे दी। दूसरी ओर याचिकाकर्ता का निगम पर आरोप है कि 1998 से लेकर आज तक निगम ने एक पेड़ तक यहां नही लगाया है। धन का दुरूपयोग किया जा रहा है। बल्कि अदालत के आदेशां की अनुपालना नही की जा रही है। जो निर्माण/विकास कार्य किये जा रहे हैं वह डवैल्पमैन्ट प्लान के अनुरूप नही बल्कि प्लान पारूप की धारा 26, 27 की अवेहलना के कारण दण्डनीय बन जाते हैं। उच्च न्यायालय में आज तक डवैल्पमैन्ट प्लान पेश नही किया गया है। ऐसे में यह और भी बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है कि जब प्लान ही नही है तो फिर निर्माण किस आधार पर हो रहा है। नगर निगम तो नियोजक की भूमिका में है न कि विकासिक की। फिर भू उपयोग को बदलना तो याचिकाकर्ता के अनुसार उच्च न्यायालय के भी अधिकार क्षेत्र में नही है फिर नगर निगम किसी अन्य ऐजैन्सी का तो सवाल ही पैदा नही होता। ऐसे में यदि नगर निगम भू उपयोग बदलने के लिये अधिकृत ही नही है तब तो उसके द्वारा किये गये कार्यो की सूची स्वतः ही अदालत के सामने रखना अन्ततः निगम प्रशासन के गले की फांस बन सकता है।

क्या न्यू शिमला में भू उपयोग बदला जा सकता है उच्च न्यायालय के सामने उठा सवाल

शिमला/शैल। न्यू शिमला आवासीय हाऊसिंग कॉलोनी का प्रारूप जब सार्वजनिक प्रचारित एवम् प्रसारित किया था तब यहां पर ग्रीन एरिया, पार्क और अन्य सार्वजनिक सुविधाओं के लिये अलग से विशेष भूस्थल चिन्हित किये गये थे। क्योंकि यह कालोनी विशुद्ध रूप से आवासीय कालोनी घोषित की गयी थी। यह प्रदेश की दूसरी आवासीय कालोनी थी जो पूरी तरह सैल्फ फाईनसिंग से वित्त पोषित थी। इसी आधार और आशय से इसका विकास प्रारूप तैयार किया था। इसी कारण से इस कॉलोनी के लिये अधिगृहित भूमि के एक-एक ईंच हिस्से की कीमत इसके आबंटितों से ली गयी है जिसमें सड़क, सीवरेज, पेयजल, ग्रीन एरिया, पार्क तथा अन्य सार्वजनिक सुविधाएं शामिल हैं। इन सारी सुविधाओं की कीमत वसूलने के कारण ही 83.84 लाख में खरीदी गयी ज़मीन आबंटितों को 9.10 करोड़ में दी गयी है। कॉलोनी में पूरी सैल्फ फाईंनैंस होने के कारण यहां की हर सुविधा पर आबंटितों का मालिकाना हक हो जाता है। कॉलोनी विशुद्ध रूप से आवासीय होगी यही खरीददारों के लिये सबसे बड़ा आकर्षण था। क्योंकि इसमें व्यवसायिक दुनिया की हलचल और शोर शराबा नही होगा। एकदम शान्त वातावरण रहेगा इसलिये यह वरिष्ठ नागरिकों की पसन्द बना।
लेकिन जब यहां पर व्यवहारिक रूप से लोगों ने प्लॉट/ मकान खरीदने बनाने शुरू किये तब आगे चल कर यह सामने आने लगा कि जो भू-स्थल ग्रीन एरिया और पार्क आदि के लिये रखे गये थे वहां पर कई जगह भू उपयोग बदल कर उसे दूसरे उद्देश्यों के लिये प्रयुक्त कर लिया गया। इस तरह भू उपयोग बदले जाने से कॉलोनी का आवासीय चरित्र ही बदल गया। जब इसके लिये ज़मीन का अधिग्रहण 1986 में किया गया तब ऐजैन्सी साडा थी। साडा बाद में बदलकर नगर विकास प्राधिकरण बन गया। फिर नगर विकास प्राधिकरण का विलय हिमुडा में हो गया और अब हिमुडा से इसे शिमला नगर निगम को दे दिया गया है। यह सारी ऐजैन्सीयां कानून की नज़र से इस कॉलोनी की ट्रस्टी हैं मालिक नही। भू उपयोग बदले जाने के जितने भी मामले घटित हुए हैं वह सब इन्ही ऐजैन्सीयों ने किये। अब नगर निगम शिमला भी यहां पर ‘‘विकास के नाम से कई निर्माण कार्य करवा रही है इस तरह के कार्यो से जब यहां का आवासीय चरित्र बदलने लगा तब आबंटितां ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया और भू-उपयोग बदले जाने के मामले सामने आने लगे। इसका संज्ञान लेते हुए आबंटितों ने वाकायदा एक अपनी रैजिडैन्ट वैलफेयर सोसायटी का सैक्टर वाईज़ गठन कर लिया और फिर सारी ईकाईयों न मिलकर एक शीर्ष संस्था का गठन कर लिया है।
इसी दौरान इन मुद्दों पर 2012 में प्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर हो गयी है। इसी याचिका की सुनवाई के दौरान यहां पर चल रही विभिन्न व्यवसायिक गतिविधियों की ओर से उच्च न्यायालय का ध्यान आकर्षित हुआ। उच्च न्यायालय ने सबंद्ध प्रशासन से इस बारे में रिपोर्ट तलब की। प्रशासन ने जब इस संबंध में जांच शुरू की तो सैकड़ो ऐसे मामले सामने आये जहां पर प्रशासन से भू उपयोग बदलने की अनुमति लिये बिना ही व्यवसायिक गतिविधियां चल रही थी। इसका कड़ा संज्ञान लेकर ऐसे भवनों के बिजली, पानी के कनैक्शन तक काटे गये। भू उपयोग बदलकर ग्रीन एरिया को पार्कांं में बदलने और इसके लिये पेड़ों को काटे जाने के तथ्य जब उच्च न्यायालय के सामने आये थे तब उच्च न्यायालय ने यहां निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। लेकिन इस प्रतिबन्ध के बाद भी यहां पर दो ब्लाक बनाकर बेच दिये गये। ग्रीन एरिया में रद्दोबदल कॉलोनी के सैक्टर 1,2,3 और 4 में सामने आये हैं। यह आरोप नगर शिमला पर लगे हैं जो याचिका में प्रतिवादी नम्बर 5 हैं। इन आरोपों का संज्ञान लेते हुए उच्च न्यायालय ने यह रोक लगा दी थी कि अदालत की अनुमति के बिना यहां के खाली/ग्रीन और कामन एरिया में कोई भी निर्माण न किया जाये। लेकिन नगर निगम ने यहां पर अम्रूत योजना और मर्जड एरिया ग्रांट के नाम पर मिले धन से कई निर्माण कार्य शुरू करवा रखे हैं। इन सारे कार्यो को ठेकेदारों के माध्यम से करवाया जा रहा है। निगम ने इन कार्यों की बाकायदा सूचियां अदालत में दे रखी हैं। अब अदालत के आदेश से बन्द किये गये इन कार्यों को पुनः शुरू करवाने के लिये उच्च न्यायालय में गुहार लगा रखी है।
नगर निगम पर आरोप है कि उसने भू-उपयोग को बदला है निगम द्वारा कार्यों की सूची अदालत में रखना कानून की नज़र में इस आरोप को स्वतः ही स्वीकार करना बन जाता है यदि उच्च न्यायालय निगम को यह कार्य पूरे करने की अनुमति दे देता है तो इसका अर्थ यह होगा कि अदालत ने भी भू उपयोग बदलने की अपरोक्ष में अनुमति दे दी। दूसरी ओर याचिकाकर्ता का निगम पर आरोप है कि 1998 से लेकर आज तक निगम ने एक पेड़ तक यहां नही लगाया है। धन का दुरूपयोग किया जा रहा है। बल्कि अदालत के आदेशां की अनुपालना नही की जा रही है। जो निर्माण/विकास कार्य किये जा रहे हैं वह डवैल्पमैन्ट प्लान के अनुरूप नही बल्कि प्लान पारूप की धारा 26, 27 की अवेहलना के कारण दण्डनीय बन जाते हैं। उच्च न्यायालय में आज तक डवैल्पमैन्ट प्लान पेश नही किया गया है। ऐसे में यह और भी बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है कि जब प्लान ही नही है तो फिर निर्माण किस आधार पर हो रहा है। नगर निगम तो नियोजक की भूमिका में है न कि विकासिक की। फिर भू उपयोग को बदलना तो याचिकाकर्ता के अनुसार उच्च न्यायालय के भी अधिकार क्षेत्र में नही है फिर नगर निगम किसी अन्य ऐजैन्सी का तो सवाल ही पैदा नही होता। ऐसे में यदि नगर निगम भू उपयोग बदलने के लिये अधिकृत ही नही है तब तो उसके द्वारा किये गये कार्यो की सूची स्वतः ही अदालत के सामने रखना अन्ततः निगम प्रशासन के गले की फांस बन सकता है।

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