Sunday, 21 December 2025
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निगम चुनावों पर गंभीर है भाजपा के आरोप

शिमला/शैल। प्रदेश भाजपा ने अध्यक्ष सुरेश कश्यप की अध्यक्षता में राज्य चुनाव आयुक्त को नगर निगम शिमला के लिये कांग्रेस द्वारा फर्जी वोट बनाये जाने का गंभीर आरोप लगाया है। कहा गया है कि एक घर में 18 से 20 वोट बनाने का प्रयास किया जा रहा है और ऐसा उप-मुख्यमंत्री और कुछ अन्य मंत्रीयों के घरां में हो रहा है। आरोय लगाया गया है कि वैनमोर में एक ही कमरे में 18 से 20 लोगों ने वोट बनाने के लिये आवेदन किया है और भी कई वार्डों से ऐसी शिकायतें आ रही हैं। निगम चंनावों के लिये जारी किये गये रोस्टर को तैयार करने में भी पक्षपात का आरोप लगाया गया है। भाजपा के यह आरोप गंभीर है और इन चुनावों में यह बड़ा मुद्दा बनेंगे यह तय है। राज्य निर्वाचन आयोग और संबद्ध प्रशासन कि इन आरोपों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। निवर्तमान निगम सदन में भाजपा का बहुमत था। सी.पी.एम. और कांग्रेस के कुछ पार्षद भी पासा बदलकर भाजपा में शामिल हो गये थे। इस समय निगम क्षेत्र में स्मार्ट सिटी और अन्य परियोजनाओं में जो कार्य चले हये हैं उनका केंद्रीय सहायता के बिना पूरा होना संभव नहीं होगा। यह तथ्य भी इन चुनावों को प्रभावित करेगा ऐसा माना जा रहा है। भाजपा प्रदेश विधानसभा का चुनाव एक प्रतिश्त से भी कम अन्तर से हारी है। सुक्खू सरकार के पहले बजट सत्र में भाजपा ने विपक्ष की भूमिका काफी प्रभावी निभाई है। नेता प्रतिपक्ष सदन में काफी आक्रामक रहे हैं। यह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक संयोग रहा है कि सुक्खू सरकार ने शपथ ग्रहण समारोह के दूसरे ही दिन पिछले छः माह के फैसले पलटकर ऐसा मुद्दा भाजपा को थमा दिया जिससे वह पहले ही मंत्रिमंडल विस्तार तक प्रदेश के हर कोने तक ले गयी। प्रदेश उच्च न्यायालय में इस संद्धर्भ में याचिका भी दायर कर दी गयी है। पूरे बजट सत्र में भाजपा ने इस मुद्दे को काफी भुनाया है। इन सारे मुद्दों के अतिरिक्त सरकार ने गारंटीयों को पांच वर्ष में पूरा करने की बात कहकर विपक्ष को और मुद्दा दे दिया है। तीन सौ यूनिट बिजली मुफ्त तब दी जायेगी जब 2000 मेगावाट सोलर ऊर्जा का उत्पादन हो जाएगा और तब तक बिजली की दरें बढ़ा दी गयी हैं। बिजली के अतिरिक्त निगम क्षेत्रों में पानी और गारवेज कलैक्शन की दरें भी 10% बढ़ाकर भाजपा को मुद्दा थमा दिया है। इस तरह मुद्दों के नाम पर निश्चित रूप से भाजपा का प्रक्ष कुछ मजबूत है। देखना है कि चुनाव में आक्रामकता रहती है या नहीं।

क्यों नहीं आ पाया प्रदेश की आर्थिकी पर श्वेत पत्र उठने लगा है सवाल

  • श्वेत पत्र न ला पाना सरकार की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्न चिन्ह
  • सरकार भ्रष्ट अधिकारियों/कर्मचारियों पर अभी सूचना ही एकि़त्रत कर रही है
शिमला/शैल। सुक्खू सरकार का पहला बजट सत्र समाप्त हो गया और इस सत्र में यह प्रदेश की आर्थिकी पर श्वेत पत्र नहीं ला पायी है। जबकि ऐसा आश्वासन प्रदेश की जनता को दिया गया था। क्योंकि जब कांग्रेस विपक्ष में थी तब भी पूर्व जयराम सरकार पर प्रदेश को कर्ज के गर्त में डुबाने का आरोप लगाती थी। बल्कि उस समय भी प्रदेश की आर्थिकी पर श्वेत पत्र की मांग करती थी। अब जब स्वंय सत्ता में आ गयी तो पहले दिन से ही प्रदेश की जनता को यह बताया गया कि प्रदेश की वित्तीय स्थिति नाजुक है। 75000 करोड़ का कर्ज और 11000 करोड़ की देनदारियो विरासत में मिलने का आंकड़ा जनता के सामने रखा गया। पिछली सरकार पर वित्तीय कुप्रबंधन का आरोप लगाते हुये यहां तक आशंका व्यक्त की गयी कि प्रदेश के हालत कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। जब इस आशंका पर सवाल उठे तो यह कहा गया कि सरकार वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र जारी करेगी। यह श्वेत पत्र जारी करने के लिए नयी सरकार के पहले बजट सत्र से ज्यादा अनुकूल अवसर और विधानसभा पटल से बेहतर और कोई मंच नहीं हो सकता। लेकिन सरकार यह श्वेत पत्र ला नही पायी है और अगले किसी भी सत्र में इसे लाने का कोई औचित्य नहीं होगा। क्योंकि तब तक इस सरकार के अपने खर्चों और लिये जा रहे कर्ज पर सवाल उठने शुरू हो जाएंगे।
सुक्खू सरकार ने जब श्रीलंका जैसी आशंका जताई थी तब इस पर कुछ सवाल भी उठे थे। लेकिन अब जब वर्ष 2023-24 का बजट पेश होकर पारित भी हो गया है और वर्ष 2021-22 कि कैग रिपोर्ट भी सदन पर आ गयी है तो इनके आंकड़ों और खुलासों पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। सरकार ने कर्ज का आंकड़ा 75000 करोड़ बताया है इसमें साथ यह भी बताया है कि इस ऋण का 30% से भी अधिक अगले तीन वर्षों में लौटाया जाना है। यह भी बताया गया है कि केन्द्र से जीएसटी की प्रतिपूर्ति नहीं मिल रही है इसलिये केंद्रीय ग्रान्ट में भी कटौती होगी। 2023-24 के बजटीय आंकड़ों में विकासात्मक राशि उतनी ही है जितनी 2022-23 में थी। राजस्व खर्चों में केवल आठ सौ करोड़ की बढ़ौतरी है। आंकड़ों के इस परिदृश्य में स्पष्ट है कि जो भी वायदे यह सरकार करके आयी है उनकी आंशिक प्रतिपूर्ति के लिये भी सरकार को पहले से ज्यादा कर्ज लेना पड़ेगा। यह वित्तीय स्थिति एक कड़वा सच है जिसे किसी भी लीपापोती से छिपाया नहीं जा सकता। क्योंकि तीन वर्षों में 30% से भी अधिक के कर्ज की भरपायी और गारंटियां पूरी करने में ठोस कदम उठा पाना कर्ज और पिछले दरवाजे से कर लगाये बिना संभव नहीं हो सकेगा। यही सरकार की सेहत के लिये भारी पड़ेगा।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि यह सरकार श्वेत पत्र क्यों नहीं ला पायी। प्रदेश के वित्तीय प्रबंधन के लिये चयनित सरकार और उसके मुख्यमंत्री से ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी सचिव वित्त की होती है। क्योंकि वह स्थायी कार्यपालिका का सदस्य होता है उसे चयनित सरकार के बाद भी रहना होता है। यह सही है कि कार्यपालिका के यह अधिकारी चयनित सरकार का अपने में एक आकलन कर लेते हैं और फिर वैसा ही व्यवहार करते हैं। अपने बचाव के लिये इन्होंने एफ आर बी एम में ऐसा संशोधन कर रखा है कि किसी भी वित्तीय आकलन की असफलता के लिये इनके ऊपर को आपराधिक जिम्मेदारी आयत नहीं होती। स्वभाविक है कि जब सरकार पहले दिन से ही वित्तीय कुप्रबंधन के आरोप पूर्व सरकार पर लगाने लग गयी थी तो श्वेत पत्र के माध्यम से यह लोग ऐसा कुछ भी सदन के पटल पर क्यों आने देते। इस धारणा की पुष्टि इससे भी हो जाती है कि सदन में चार अप्रैल को विधायक यादविंदर गोमा का प्रश्न था कि ऐसे कितने अधिकारी/कर्मचारी है जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। क्या सरकार आरोपित अधिकारियों/कर्मचारियों को उन विभागों से हटाने तथा उन पर कारवाई करने का विचार रखती है। इसके उत्तर में सरकार ने जवाब दिया है कि सूचना एकत्रित की जा रही है। यह सूचना किस अधिकारी से शुरू होती है पूरा प्रदेश जानता है। लेकिन सरकार ने यह सूचना सदन के पटल पर न लाकर यह स्पष्ट कर दिया है की भ्रष्टाचार को लेकर उसका क्या रुख रहने वाला है। स्पष्ट है कि अधिकारी सरकार पर भारी पड़ते जा रहे हैं। क्योंकि सदन के पटल पर श्वेत पत्र न रखकर सरकार ने अपनी ही विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर लिया है।
 

सुक्खू सरकार की पहली चुनावी परीक्षा होगी नगर निगम शिमला के चुनाव

  • अराजकता का पर्याय बन चुका है नगर निगम
  • सत्ता परिवर्तन का कोई असर नहीं हुआ प्रशासन पर
  • एन.जी.टी. के फैसले पर स्पष्ट रुख अपनाना होगा चुनाव में उतरने से पहले

शिमला/शैल। कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद होने जा रहे नगर निगम शिमला के चुनाव सुक्खू सरकार की पहली चुनावी परीक्षा होने जा रहे हैं। मुख्यमंत्री सुक्खू के लिये यह और भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है कि वह इसी नगर निगम से दो बार छोटा शिमला वार्ड से पार्षद रहे हैं। उनकी पढ़ाई लिखाई भी इसी शहर में हुई है। लेकिन अब मुख्यमंत्री बनने के बाद होने जा रहा यह चुनाव उनकी सरकार के लिये भी किसी परीक्षा से कम नहीं होगा। क्योंकि शिमला को मिनी हिमाचल की संज्ञा भी हासिल है। प्रदेश के हर भाग का आदमी शिमला में मिल जाता है। फिर यह नगर निगम क्षेत्र का सबसे बड़ा क्षेत्र भी है। इस नाते यह चुनाव सुक्खू सरकार द्वारा चार माह में लिये गये फैसलों का भी आकलन होगा। सुक्खू सरकार ने यह घोषित कर रखा है कि वह व्यवस्था परिवर्तन करने आयी है और इसी व्यवस्था परिवर्तन के तहत शिमला नगर निगम के आयुक्त और संयुक्त आयुक्त नहीं बदले गये है। इस निगम के चुनाव पिछले वर्ष होने थे जो कुछ कारणों से नहीं हो पाये और आज यह प्रशासक के अधीन चल रही है। प्रशासक का दायित्व जिलाधीश शिमला के पास है और वह भी नहीं बदले गये हैं। पुराने प्रशासन के साये में ही यह चुनाव हो रहे हैं। नगर निगम के वार्ड 34 हो या 41 इस संबंध में भाजपा की एक याचिका प्रदेश उच्च न्यायालय में लंबित है । बल्कि इस पर फैसला सुरक्षित है जो कभी भी घोषित हो सकता है। उस फैसले का असर भी निगम चुनावों के परिणाम पर पड़ेगा। यदि वार्ड 41 हो जाते हैं तो इसका कुछ लाभ वामदलों को भी मिलेगा। इस बार आम आदमी पार्टी ने यह चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। आप के रिश्ते कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी पर हैं। इसका असर दोनों कांग्रेस और भाजपा पर एक बराबर पड़ेगा। अभी जो वार्डों को लेकर रोस्टर जारी हुआ है उसमें कांग्रेस की गुटबन्दी ज्यादा चर्चा में है।
इस सबसे हटकर यदि राजनीतिक आकलन किया जाये तो इस समय मंत्रिमंडल और अन्य राजनीतिक ताजपोशी की बात की जाये तो सबसे अधिक प्रतिनिधित्व जिला शिमला का है। यह इसलिये हुआ कहा जा रहा है कि सुक्खू की कार्यस्थली ही शिमला रही है। कई ऐसे लोगों की ताजपोशियां भी शायद हो गयी हैं जो शायद कांग्रेस संगठन में भी कोई बड़े कार्यकर्ता नहीं थे। शिमला में ही कई वरिष्ठ कार्यकर्ता नजरअंदाज हो गये हैं जिनकी निष्ठा शायद हॉलीलाज के साथ थी। जितना प्रतिनिधित्व जिला शिमला को दे दिया गया है उतना किसी भी अन्य जिले को मिल पाना अब संभव नहीं रह गया है और देर सवेर यह एक बड़ा मुद्दा बनेगा यह तय है। इसलिए यह राजनीतिक असंतुलन यदि कहीं नगर निगम चुनावों में चर्चित हो गया तो निश्चित रूप से संकट खड़ा हो सकता है। क्योंकि गारंटीयां देकर सत्ता में आयी सरकार अभी तक व्यवहारिक तौर पर जनता को कोई राहत नहीं दे पायी है। बल्कि आते ही तीन रूपये प्रति लीटर डीजल के दामों में बढ़ौतरी कर दी गयी। अब बिजली की दरें 22 से 46 पैसे प्रति यूनिट बढ़ा दी गयी हैं। कैग रिपोर्ट के मुताबिक 74वें संविधान संशोधन के अनुरूप स्थानीय निकायों को सशक्त बनाने के लिये शक्तियां ही नही दे पायी हैं। क्या सुक्खू सरकार कैग की सिफारिशों के अनुरूप कदम उठाने का वायदा करेगी।
शिमला नगर निगम प्रशासन एक तरह से अराजकता का पर्याय बना हुआ है यहां पर अदालती फैसलों पर अमल करने या उनके खिलाफ अगली अदालत में अपील करने की बजाये फैसलों पर पार्षदों की कमेटियां राय बनाकर लोगों को परेशान करती है। एन.जी.टी. के फैसले को नजरअंदाज करके शहर में कितने निर्माण खड़े हो गये हैं यह अराजकता का ही परिणाम है। शिमला जल प्रबन्धन निगम रिटायरियों की शरण स्थली बनकर रह गयी है वहां पर सुक्खू सरकार के आदेश भी लागू नहीं हो पाये हैं। स्मार्ट सिटी के तहत कितने निर्माण बनने की स्टेज पर ही गिर गये और किसी की कोई जिम्मेदारी तय नही हो पायी। अब चुनावों के दौरान ऐसे दर्जनों मामले जवाब मांगेंगे। क्योंकि निगम प्रशासन में सत्ता परिवर्तन की कोई झलक देखने को नहीं मिली है।

सरकार की मीडिया पॉलिसी पर उठे सवाल शिकायत पहुंची उच्च न्यायालय

शिमला/शैल। सरकार की मीडिया पॉलिसी पर गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं और इसकी शिकायत प्रदेश उच्च न्यायालय तक भी पहुंच गयी है। पत्रकार संजय ठाकुर ने मीडिया पॉलिसी के खिलाफ निदेशक सूचना एवं जनसंपर्क को 28 फरवरी 2023 को एक शिकायत भेजी थी और सात दिन के भीतर इस पर कारवाई करने और इसकी सूचना देने का आग्रह किया था। लेकिन जब विभाग ने इस समय के भीतर कारवाई नहीं की तब संजय ठाकुर में प्रदेश उच्च न्यायालय में दस्तक दे दी। संजय ठाकुर की दस्तक का संज्ञान लेते हुए जस्टिस त्रिलोक चौहान ने इस शिकायत पर पन्द्रह दिन के भीतर कारवाई करने के निर्देश निदेशक सूचना एवं जनसंपर्क को दिये हैं। इस पर विभाग क्या कारवाई करता है इसकी प्रतीक्षा है। संजय ठाकुर की शिकायत भी पाठकों के सामने यथास्थिति रखी जा रही है। सूचना और जनसंपर्क विभाग किसी भी सरकार का एक महत्वपूर्ण विभाग होता है क्योंकि हर तरह के मीडिया से डील करता है। मीडिया से डील करने के नाते इस विभाग के पास सरकार और समाज से जुड़ी हर तरह की सूचना रहना अपेक्षित रहता है। क्योंकि मीडिया सरकार और समाज के बीच संवाद सेतु का धर्म निभाता है।
हर सरकार का यह प्रयास रहता है कि उसकी नीतियों और कार्यप्रणाली को लेकर ज्यादा से ज्यादा सकारात्मक संदेश जनता के बीच जाये। सरकार से यह अपेक्षा रखती है कि वह उसका ज्यादा से ज्यादा यशोगान करें। लेकिन जब मीडिया और सरकार दोनों ही अपने इसमें अपने-अपने धर्म का अतिक्रमण कर जाते हैं और इससे समाज का नुकसान होना शुरू हो जाता है। आज जिस तरह से देश का राजनीतिक वातावरण राहुल बनाम मोदी की पराकाष्ठा तक जा पहुंचा उसमें सबसे पहला सवाल मीडिया की ही भूमिका पर उठता है। बल्कि मीडिया को गोदी मीडिया की संज्ञा भी इसी कारण से मिल रही है। क्योंकि मीडिया समाज की पक्षधरता छोड़कर केवल सरकार का ही स्तुतिवाचक होकर रह गया है। मीडिया को गोदी मीडिया बनाने में प्रशासन की भी अहम भूमिका रहती है। क्योंकि प्रशासन में भी हर कनिष्ठ कर्मचारी अधिकारी अपने वरिष्ठ को नजरअन्दाज करवा कर बड़ी कुर्सी हथियाना चाहता है। इसी कारण से सरकारों को मीडिया मंचों के माध्यम से सैकड़ों के हिसाब से श्रेष्ठता के पुरस्कार मिलने के बावजूद यह सरकारें सत्ता में वापसी नहीं कर पाती हैं। आज चार माह की सुक्खू सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग को लेकर जो सवाल उठने शुरू हो गये हैं वह एकदम निराधार नहीं है। यह सरकार भी अपनी यशोगान के गिर्द ही केंद्रित होती जा रही है। जो लोग पिछली सरकार को पांच वर्ष हरा ही हरा दिखाते रहे वही आज इस सरकार के गिर्द भी घेरा डाल कर बैठ गये हैं। पिछली सरकार को भी अपनी नीतियों और कार्य योजनाओं में कमियां देखने का साहस नहीं था। सुक्खू सरकार भी उसी चलन पर आ गयी है। यह आरोप लगना शुरू हो गया है। पिछली सरकार में भी सच लिखने वालों को विज्ञापन न देकर उनकी आवाज बन्द करवाने के प्रयास किये गये थे और अब भी वही प्रयास शुरू हो गये हैं। जिस सरकार का सूचना और जनसंपर्क विभाग और उसके संचालक पहले दिन से ही विवादित हो जायें उसके दूसरे विभागों का अन्दाजा भी इसी से लगाया जा सकता है। यदि सरकार और विभाग समय रहते न संभले तो स्थितियां बिगड़ जायेंगी। क्योंकि कुछ सलाहकारों के झगड़े और कुछ अफसरों के आपसी विवाद चर्चित होने शुरू हो गये हैं।

 संजय ठाकुर की शिकायत

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

क्या सरकार गारंटीयों की दिशा में कोई कदम उठा पायेगी बजटीय आंकड़ों के परिदृश्य में उठा सवाल

  • कई विभाग बाह्य वित्त पोषित योजनाओं के सहारे ही चल रहे

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने 17 मार्च को 53412.72 करोड़ का बजट अनुमान वर्ष 2023-24 के लिए सदन में रखा था जो 29 मार्च को पारित होने तक बढ़कर 56684 करोड़ का हो गया है। यह बढ़ौतरी राजस्व व्यय में हुई है। जब बजट पेश किया गया था तब राजस्व व्यय 42704 करोड़ आंका गया जो बढ़कर अब 45925 करोड़ हो गया है। पूंजीगत व्यय बजट पेश करते समय 8708.72 करोड़ आंका गया जो बढ़कर 10758.68 करोड़ हो गया है। वर्ष 2022-23 में राजस्व व्यय 45115 करोड़ संशोधित अनुमानों में आंका गया है। वर्ष 2022-23 के लिये 13141.07 करोड़ की अनुपूरक मांगे भी लायी और पारित की गयी है। इनके खर्चे का अंतिम ब्योरा जब आयेगा तब वर्ष 2022-23 के राजस्व व्यय और बजट के कुल आकार का आंकड़ा भी बढ़ेगा। आंकड़ों के इस गणित में वर्ष 2023-24 के लिये जो बजटीय अनुमान सदन में पारित किये गये हैं वह शायद अंतिम अनुमानों में वर्ष 2022-23 से कम पड़ जाएंगे और सरकार को पहले से भी ज्यादा आकार की अनुपूरक मांगे लानी पड़ेगी। बजट के इन आंकड़ों का आम आदमी पर सीधा प्रभाव नहीं पड़ता है क्योंकि यह गणित आम आदमी का विषय ही नहीं होता है परन्तु इन आंकड़ों का व्यवहारिक प्रभाव आदमी पर ही पड़ता है। अभी सरकार को बने चार माह हुए हैं और उसका पहला बजट आया है। यह सरकार लोगों को 10 गारंटीयां देकर सत्ता में आयी है। दो गांरटीयों को अमलीजामा पहनाने का फैसला ले लिया गया है। लेकिन जब पिछले वर्ष और इस वर्ष के राजस्व व्यय के आकड़ों पर नजर डाली जाये और यह सामने आये कि यह आंकड़ा तो लगभग एक जैसा ही है तो कुछ सवाल और शंकाएं अवश्य उभरती हैं। क्योंकि इसमें पिछले वर्ष की तुलना में राजस्व व्यय में केवल 800 करोड़ की बढ़ौतरी है। इतनी बढ़ौतरी तो सामान्य तौर पर कर्मचारियों को वार्षिक वेतन वृद्धि और महंगाई भत्ते की किस देने में भी कम पड़ जायें। इस वस्तुस्थिति में नये खर्चे कैसे समायोजित किये जायेंगे यह प्रश्न और जिज्ञासा बनी रहेगी। बजट सरकार के विजिन के अतिरिक्त उसकी व्यवहारिकता का भी प्रमाण रहता है। अभी सरकार को बिजली और पानी की दरें बढ़ानी पड़ गयी है। अन्य सेवाओं में भी दरां में बढ़ौतरी होगी क्योंकि सरकार ने कर राजस्व में करीब पांच हजार करोड़ जुटाने का लक्ष्य तय कर रखा है। अभी कुछ आउटसोर्स कंपनियों के साथ नये सिरे से अनुबंध नहीं हुआ है और परिणाम स्वरूप हजारों लोगों को एकदम बेरोजगार होना पड़ा है। स्वास्थ्य जैसे विभाग में आवश्यक सेवाएं प्रभावित हुई हैं। किन्नौर में आउटसोर्स कर्मचारीयों पिछले छः माह से वेतन नहीं मिल पाने के समाचार लगातार आ रहे हैं ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस स्थिति का पूर्व संज्ञान क्यों नहीं लिया गया। संबद्ध प्रशासन इसके प्रति कितना संवेदन रहा है यह एक बड़ा सवाल बनता जा रहा है क्योंकि आऊटसोर्स पर रखे गये कर्मचारियों की सभी विभागों में ऐसी ही स्थिति रहेगी। क्योंकि नयी सरकार है और संयोगवश नया वित्तीय वर्ष भी साथ ही शुरू हो रहा है और यह नहीं लगता कि आऊटसोर्स कंपनियों के साथ पूर्व सरकार के समय में ही इस वित्तीय वर्ष के लिये भी अनुबंध कर लिये गये हों। ऐसे में जो बजटीय आकलन इस वित्तीय वर्ष के लिये रखे गये हैं उन्हें सामने रखते हुए सरकार के लिये गारंटीयों पर कोई व्यवहारिक कदम उठा पाना संभव नहीं लगता। विकासात्मक बजट का आंकड़ा इस वर्ष भी पिछले वर्ष जीतना है। अधिकांश विभाग बाह्य सहायता प्राप्त योजनाओं के सहारे ही चल रहे हैं। इन योजनाओं के लिये राज्य सरकार के अपने साधन नहीं के बराबर हैं। यह योजनाएं बन्द हो जायें तो कई नये विभाग बन्द होने के कगार पर पहुंच जायेंगे।

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