Friday, 19 December 2025
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प्रशासनिक तबादलों ने फिर-उठाये सरकार की नीयत और नीति पर सवाल

शिमला/शैल। जयराम सरकार पर विपक्ष का सबसे बड़ा आरोप यह लग रहा है कि सरकार अधिकारियों और कर्मचारियों के तबादलों में ही उलझकर रह गयी है। यह आरोप कितना सही है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जनवरी से लेकर जून तक लगभग हर माह प्रशासनिक अधिकारियों तक के तबादले होते रहे हैं। बल्कि यहां तक होता रहा है कि आज आदेश जारी हुए तो कल ही कुछेक को फेन पर निर्देश दे दिये गये कि आपने अभी कार्यभार ग्रहण नही करना है। कई पदों पर तो यहां तक रहा है कि तीन-तीन, चार- चार बार अधिकारी बदले गये हैं। विपक्ष के आरोप का जवाब भी सरकार की ओर से यही आया है कि कांग्रेस के समय में भी यही होता था। कुल मिलाकर छः महीने के कार्यकाल के बाद भी प्रशासनिक अधिकारियों में स्थिरता का भाव नहीं आ पाया है और यही सरकार का सबसे नकारात्मक पक्ष चल रहा है।
प्रशासन में व्याप्त इसी अस्थिरता का परिणाम है कि सरकार अभी तक प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में खाली चले आ रहे सदस्यों के पदों को अब तक नहीं भर पायी है। क्योंकि इन पदों के लिये संभावित उम्मीदवारों के रूप में पूर्व मुख्य सचिव और वर्तमान मुख्य सचिव दोनो का नाम माना जा रहा है। वर्तमान मुख्य सचिव की सेवानिवृति सितम्बर माह मे है इसलिये चर्चा है कि ट्रिब्यूनल के पद सितम्बर के बाद ही भरे जायेंगे भले ही कर्मचारी न्याय के लिये बाट जोहते रहें। विश्वविद्यालय में अभी तक वाईसचान्सलर का चयन नही हो पा रहा है। लोकायुक्त और मानवाधिकार आयोग खाली चल रहे हैं जबकि इन पदों पर तो अब तक नियुक्तियां हो जानी चाहिये थी। इससे सुशासन को लेकर सरकार की छवि पर प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो गये हैं।
प्रशासन पर मुख्यमन्त्री की पकड़ कितनी बन पायी है और प्रशासन की आन्तरिक समझ सरकार को कितनी आ पायी है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जब सरकार ने पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव को सेवानिवृति से एक सप्ताह पूर्व तक की स्टडी लीव सारे नियमों/कानूनों को ताक पर रखकर दे दी। यह फैसला अपराध की श्रेणी में आता है पूरे प्रशासन में कर्मचारियों तक यह चर्चा का विषय बना हुआ है। इसी तरह अब आरसीएस के पद पर की गयी नियुक्ति को लेकर सवाल उठने शुरू हो गये हैं क्योंकि एचपीसीए कंपनी है या सोसायटी यह मामला अभी तक आरसीएस के पास फैसले के लिये लंबित चल रहा है। अब जिस अधिकारी को आरसीएस की जिम्मेदारी दी गयी है वह स्वयं एचपीसीए में नामजद है। एचपीसीए का मामला एक संवेदनशील राजनीतिक मुद्दे का रूप ले चुका है। क्योंकि वीरभद्र के पांच साल के सारे कार्यकाल में विजिलैन्स के पास एक प्रमुख मुद्दा रहा है। यह प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय तक भी पंहुचा हुआ है। सरकार इसमें एचपीसीए की मदद करना चाहती है जबकि कांग्रेस इस पर बराबर शोर करेगी। ऐसे में जब सरकार आरसीएस के पद पर ऐसी नियुक्ति करेगी तो इसका सीधा सा अर्थ होगा कि आप जानबझूकर कांग्रेस को एक मुद्दा दे रहे हैं। अप्रत्यक्षतः इससे यह भी संकेत जायेगा कि शायद एचपीसीए को लेकर सरकार की नीयत ही साफ नही है।
प्रदेश के सहकारी बैंकों में 900 करोड़ से अधिक का एनपीए हो चुका है। यह जानकरी जयराम सरकार के पहले बजट सत्र में एक प्रश्न के माध्यम से सामने आयी है। प्रश्न के उत्तर में एनपीए के यह आंकड़े दिये गये हैं। जिसका अर्थ है कि सरकार और बैंक प्रबन्धनों ने पूरी जांच पड़ताल के बाद ही यह जानकारी सदन को दी है। इस एनपीए पर अब कारवाई आगे बढ़ाने की बजाये सहकारी बैंको के प्रबन्ध निर्देशकों की नियुक्ति को ही सरकार स्थायी रूप से नही दे पा रही है। उधर प्रबन्धन को ही कुछ लोगों ने एनपीए को लेकर यह वकालत करनी भी शुरू कर दी है कि सबकुछ ठीक है और कोई घपला नही हुआ है। चर्चा है कि बैंको के पूर्व प्रबन्धन ने एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी के माध्यम से जयराम सरकार के शीर्ष प्रशासनिक स्तर पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके एनपीए की जांच को शुरू होने से पहले ही दबाने का पूरा प्रबन्ध कर दिया है। ऐसी ही स्थिति कई अन्य मामलों में भी है जिनका जिक्र बाद में उठाया जायेगा।
इस तरह प्रशासन में जो कुछ हो रहा है उसका प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष सारा प्रभाव राजनीतिक नेतृत्व पर ही पडे़गा। नेतृत्व को ही जनता में जवाब देना पड़ता है यह स्थिति मुख्य सचिव को लेकर उठे मामले में आ चुकी है। केन्द्र सरकार में किन कारणों से वह सचिव के पैनल में नही आ पाये हैं उसको लेकर राज्य सरकार की अपनी भूमिका बहुत सीमित है लेकिन जो कुछ केन्द्र में घटा है उसका यह आरोप तो लग ही गया है कि इससे अधिकारी की निष्ठा तो संदिग्धता के दायरे में आ जाती है। इस आरोप पर मुख्यमन्त्री को विवशता में बचाव में उतरना पड़ा है। आने वाले समय में ऐसे कई और मामले खड़े होंगे जहां इस तरह के बचाव में उतरना पड़ेगा। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि प्रशासन में जो स्थिरता अभी तक नही बन पा रही है वह महज़ संयोगवश है या उसके पीछे एक सुनिश्चित रणनीति काम कर रही है। क्योंकि यह अपने में ही हास्यस्पद हो जाता है कि पहले तो तबादले के आदेश जारी हो जायें और उसके तुरन्त बाद उनकी अनुपालना फोन करके रोक दी जाये। इससे यह सवाल उठता है कि क्या मुख्यमन्त्री ने आदेश करने से पूर्व इस पर पूरा विचार नहीं किया या फिर बाद में प्रशासन ने अपने ही स्तर पर फेरबदल कर लिये। वास्तविकता कुछ भी रही हो लेकिन आम आदमी पर इसको लेकर सरकार का प्रभाव अच्छा नही पड़ रहा है।

राज्य सहकारी बैंक में अराजकता की विरासत से निपटना बना चुनौती

                            668 कर्मीयों को दिये लाभ में बैंक को करोड़ों का नुकसान
                              आर सी एस के आदेश पर नहीं हुई कोई कारवाई
शिमला/शैल। प्रदेश के राज्य सहकारी बैंक में अराजकता का आलम किस हद तक पहुंच गया है इसका खुलासा आरसीएस के 22-12-2017 के आदेश में देखा जा सकता है। इस आदेश पर अमल करने में प्रबन्धन के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो गयी है। क्यांकि इसके तहते 668 बैंक कर्मीयों को दिये गये अनुचित लाभ को वापिस लेने के साथ ही भविष्य के लिये इसे बन्द भी किया जाना है। इस लाभ देने से प्रतिवर्ष बैंक को करोड़ों का नुकसान हो रहा है जबकि बैंक का एनपीए 250 करोड़ से ऊपर जा चुका है। एनपीए के और बढ़ने के आसार हैं क्योंकि जिन हाईडल परियोजनाओं को बैंक ने नियमां में ढील देकर फाईनैस कर रखा है वह खाते एनपीए के कगार पर पहुंच चुके हैं। यह सब इसलिये हुआ है कि बैंक में कार्यरत कर्मचारियों से लेकर प्रबन्धन तक भाई भतीजावाद में इस कदर उलझ गया कि बैंक में कायदा कानून को अगूंठा दिखाते हुए ‘‘अंधा बांटे रेवडियां ’’ की कहावत चरितार्थ होती गयी जो आज वर्तमान प्रबन्धन के लिये एक गंभीर चुनौती बन गयी है।
बैंक में 2005 में कान्ट्रैक्ट पर भर्ती किये जाने की पॉलिसी स्वीकृति की गयी थी। इसके तहत 2006़ में बैंक के विभिन्न संवर्गो में 360 कर्मी भर्ती किये गये थे 2006 में भर्ती हुए इन कर्मीयों को पॉलिसी के मुताबिक पांच साल बाद रैगुलर कर दिया गया। इसके बाद 2012, 2014, 2016 में फिर कान्टै्रक्ट पर 450 के करीब भर्तीयां हुई। लेकिन इन सभी लोगों को पाचं वर्ष का कार्यकाल पूरा किये बिना ही 18 जुलाई 2016 को रैगुलर कर दिया।
यही नही कान्टै्रक्ट में ही कुछ को डीए का लाभ भी दिया गया है। जो कि बैंक नियम 25 का सीधा उल्लघंन है। इसी समय में 150 पार्ट टाईम कर्मीयों को भी नियमित कर दिया गया। इस तरह नियमित किये जाने और लाभ दिये जाने के कारण कई संवर्गो में वेतन विसंगतियां खड़ी हो गयी। सरकार में कान्टै्रक्ट पर नियुक्ति हुए कर्मीयों को पांच साल का कार्यकाल पूरा होने पर नियमित किये जाने का नियम है लेकिन बैंक ने इस नियम को नज़रअन्दाज करके छः माह वाले को भी नियमित कर दिया। यहां सवाल उठा हैं कि क्या सहकारिता के नाम पर बैंक सरकार की नीति और नियमों को नज़र अन्दाज कर सकता है और वह भी उस सूरत में जब बैंक का एनपीए बढ़ता जा रहा हो। सूत्रों की माने तो यह सब इसलिये किया गया था क्योंकि इस तरह नियुक्त हुए लोग सत्ता के उच्च गलियारों से जुड़े हुए थे। शायद इसी कारण से सरकार के वित्त विभाग ने भी इस पर कोई आपति नही उठाई जबकि बोर्ड की हर बैठक में विभाग का प्रतिनिधि आरसीएस के माध्यम से मौजूद रहता है।
बैंक में इस तरह का चलन लम्बे समय से चला आ रहा था और पहली बार इसके खिलाफ एक संजय सिंह मण्डयाल ने 31.5.2012 को प्रधान सचिव सहकारिता को एक शिकायत भेजी। इस शिकायत की एक प्रति आरसीएस को भी भेजी गयी थी। लेकिन जब इस शिकायत पर लम्बे समय तक कोई कारवाई नही हुई तब मण्डयाल ने इसको प्रदेश उच्च न्यायालय में CWP No 2055 of 2017 के माध्यम से चुनौती दे दी। इस याचिका पर उच्च न्यायालय ने 13.9.17 को आरसीएस को निर्देश दिये कि वह इस शिकायत को विधिवत तरीके से सुने और इस पर फैसला करे। उच्च न्यायालय के निर्देशों की अधिकारिक जानकारी आरसीएस को 25.10.2017 को मिली। इस पर 8.11.2017 को आरसीएस ने सुनवाई रखी इस सुनवाई पर बैंक ने जबाव में 4.5.13 की एक जांच रिपोर्ट पेश की। यह जांच आरसीएस के निर्देशों पर हुई थी जब शिकायत की प्रति मिली थी। जांच के लिये तीन सदस्यों की कमेटी बनाई गयी थी जिसने 4.5.13 को रिपोर्ट सौंपी थी। इस रिपोर्ट में तीन बिन्दु सामने आये थे

(a) That the Bank granted special increments to its employees in lieu of passing graduation degree after appointment in Bank and allowed wrong stepping up of pay to the incumbents out of cadre;
(b) That the Bank granted special increment to its employee after their appointment in the Bank and treating it as pay anomaly; and
(c) That the Bank granted special increment to its employee for passing graduation degree and merged the same in the basic pay.

कमेटी की यह रिपोर्ट बैंक के एमडी को 19.6.13 को भेजी गयी थी और इस पर तुरन्त कारवाई करने के निर्देश दिये गये थे। मण्डयाल ने भी 6.3.2016 को एक और प्रतिवेदन देकर रिपोर्ट पर कारवाई सुनिश्चित किये जाने का आग्रह आरसीएस से किया। इस आग्रह को भी एमडी को 2.4.2016 को भेज दिया गया।
बैंक ने 4.5.13 की रिपोर्ट पर पहली बार पांच वर्ष बाद 8.11.2017 को अपना जवाब आरसीएस को भेजा। इस जवाब में यह कहा गया कि कई बार यह मामला वीओडी के सामने लाया गया लेकिन निदेशक मण्डल इस पर कोई फैसला नही ले पाया क्योंकि कई कर्मचारी सेवानिवृति हो चुके थे तथा इस पर अमल करने से और मुकद्दमें खड़े होने का अंदेशा था। इस रिपोर्ट पर बैंक ने अपने वेतन विंग का विस्तृत ऑडिट करने के लिये एक वित्तिय सलाहकार भी नियुक्ति किया। इस सलाहकार ने भी 668 कर्मचारियों को गल्त तरीके से वित्तिय लाभ देने का दोषी पाया। बैंक को और इस पर कारवाई करने के लिये कहा। लेकिन बैंक ने फिर कारवाई न करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के 18.12.2014 को रफीक मसीह बना स्टेट ऑफ पंजाब में आये फैसले का कवर लिया। आरसीएस ने बैंक की इस दलील को इस आधार पर नकार दिया कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला 18.12.2014 को आया जबकि बैंक में हुई गड़बड़ी की जानकारी 31.5.2012 को ही आरसीएस के संज्ञान में आ गयी थी और बैंक को 19.6.2013 को ही इस पर कारवाई करने के निर्देश दे दिये गये थे। फिर 2014 का फैसला वर्षों पहले हुई धांधली पर कैसे लागू किया जा सकता है। यही नही सहकारिकता में यह प्रावधान है कि यदि बैंक में किसी नियम की व्याख्या में कोई सन्देह पैदा हो जाये तो उसमें आरसीएस की व्याख्या ही अन्तिम मानी जायेगी।
आरसीएस ने अपने 12.12.17 के आदेशों में बैंक के एमडी को स्पष्ट निदेश दिये हैं कि 19.6.2013 की रिपोर्ट पर तीन माह में अमल किया जाये। यदि ऐसा नही होता है तो वह संवद्ध दोषी अधिकारियों और बैंक के पदाधिकारियों के खिलाफ कारवाई अमल में लायी जायेगी। आरसीएस के इस आदेश को आये छः माह का समय हो गया है लेकिन अभी तक न तो रिपोर्ट पर बैंक कोई कारवाई कर पाया है और न ही संवद्ध प्रबन्धन के खिलाफ कोई कारवाई की जा सकी है। लगता है कि विरासत में मिली इस अराजकता पर नया प्रबन्धन भी कारवाई का साहस नही कर पा रहा है या कोई बड़ा दवाब चल रहा है।






















पांच माह में ओक ओवर से सचिवालय नही पहुंचा मांग पत्र

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर को पूर्व कर्मचारी नेता ओम प्रकाश गोयल ने उनके सरकारी आवास ओक ओवर में 18 फरवरी को एक करीब 190 पेज का प्रतिवेदन सौंपा था। इस प्रतिवेदन में गोयल ने उस सबका देस्तावेजी प्रमाणों के साथ खुलासा किया था जो उनके साथ पर्यटन विकास निगम में पेश आया था जब उन्होने निगम में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई थी। इस भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का ईनाम उन्हे नौकरी से बर्खास्तगी के रूप में मिला जबकि हर सरकार भ्रष्टाचार कतई सहन नही किया के दावे करती आयी है। यही नही भाजपा ने जब 6.3.2007 को महामहिम राज्यपाल को तत्कालीन वीरभद्र सरकार के खिलाफ आरोप पत्र सौंपा था तब जयराम ठाकुर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे। इस आरोप पत्र में वीरभद्र सरकार पर एक आरोप कर्मचारियों के उत्पीडन का था और इस उत्पीड़न में वाकायदा ओम प्रकाश गोयल का नाम शामिल था। आरोप पत्र प्रेम कुमार धूमल और जयराम ठाकुर के हस्ताक्षरों से सौंपा गया था। लेकिन जब धूमल सरकार सत्ता में आयी तो तब गोयल को इन्साफ नही मिल पाया। इसके बाद वीरभद्र सरकार सत्ता में आयी। इस सरकार ने गोयल के आरोपों की जांच के लिये पर्यटन निगम के एक निदेशक धर्माणी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया। धर्माणी कमेटी ने गोयल के लगाये आरोपों को एकदम सही पाया और न्याय दिये जाने की संस्तुति की। लेकिन इतना होने के बावजूद वीरभद्र काल में गोयल को न्याय नही मिल पाया।

अब जब जयराम की सरकार आयी तब 18 फरवरी को गोयल ने मुख्यमन्त्री आवास ओक ओवर में फिर मुख्यमंत्री को न्याय की गुहार लगाते हुए एक प्रतिवेदन सौंपा। मुख्यमन्त्री जयराम ने उन्हे पूरा आश्वासन दिया कि उनको इन्साफ मिलेगा। गोयल ने मुख्यमन्त्री के साथ ही इस प्रतिवेदन की प्रतियां महामहिम राज्यपाल, शिमला के विधायक एवम् शिक्षा मन्त्री सुरेश भारद्वाज और प्रदेश के मुख्य सचिव को भी सौंपी। इसके बाद जब 8.3.2018 को आरटीआई के तहत गोयल ने अपने इस प्रतिवेदन पर अब तक हुई कारवाई के बारे में जानकारी मांगी तब विशेष सचिव पर्यटन के कार्यालय से उन्हे जवाब मिला कि उनके प्रतिवेदन को लेकर राज्यपाल, शिक्षा मन्त्री और मुख्य सचिव के कार्यालयों से तो पत्र प्राप्त हुए हैं लेकिन मुख्यमन्त्री कार्यालय से कोई पत्र नही मिला है। इस पर गोयल ने मुख्यमन्त्री कार्यालय से भी जानकारी मांगी और वहां से भी जवाब आया कि मुख्यमन्त्री कार्यालय में उनका कोई पत्र प्राप्त ही नही हुआ है।
आरटीआई में मिली इस सूचना के बाद फिर गोयल ने मुख्यमन्त्री के आवास पर दस्तक दी। इस बार बड़ी प्र्रतीक्षा के बाद मुख्यमन्त्री को मिल पाये। लेकिन मिलने पर इसका कोई जवाब नही मिल पाया कि उनके प्रतिवेदन का हुआ क्या है। इस बार भी उन्हे केवल आश्वासन ही मिला है कि वह उनकी फाइल मंगवायेंगे। इस सबसे यह सवाल उठता है कि जब मुख्यमन्त्री के आवास पर दिया गया प्रतिवेदन ही पांच माह में आवास से कार्यालय तक न पहुंच पाये और न ही संवद्ध विभाग में पहुंचे तो क्या इससे मुख्यमन्त्री के अपने ही सचिवालय की कार्यप्रणाली पर आम आदमी का भरोसा बन पायेगा। प्रतिवेदन में की गयी मांग से सहमत होना या न होना प्रतिवेदन का आकलन करने वाले का अपना अधिकार है लेकिन उस प्रतिवेदन पर हुई कारवाई की जानकारी तो प्रतिवेदन देने वाले को मिलनी चाहिये यह उसका अधिकार है। यदि प्रतिवेदन से असहमत हो तो असहमति के आधार जानने का भी प्रतिवेदन देने वाले को अधिकार है लेकिन जब प्रतिवेदन मुख्यमन्त्री के यहां से कहीं पहुंचे ही नही तो फिर सारी कार्यशैली की नीयत और नीति पर सवाल उठने स्वभाविक हैं। क्योंकि इस प्रतिवेदन में कई बड़े अधिकारियों और नेताओं को लेकर गंभीर आरोप हैं और इससे यही संदेश जाता है कि बड़ो के भ्रष्टाचार पर केवल जनता में भाषण ही दिया जा सकता है उस पर कारवाई नही। ऐसे मे जिन बड़े लोगों से संपर्क करके समर्थन मांगा जा रहा है उन सबके लिये यह एक बड़ा आईना है जिसमें वह सरकार की सही छवि का दर्शन और फिर आकलन कर सकते हैं। क्योंकि ऐसे और कई मामले आने वाले दिनों में सामने आयेंगे। 

 

 






































 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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