शिमला/शैल। नागरिकता संशोधन अधिनियम अन्नतः लागू हो गया है क्योंकि भारत सरकार ने दस तारीख को इस आशय की अधिसूचना जारी कर दी है। लेकिन इस अधिनियम के खिलाफ उठे विरोध के स्वर लगातार बढ़ते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री सहित सारा केन्द्रिय नेतृत्व लगातार यह कह रहा है कि इस संशोधन से किसी की भी नागरिकता नही जायेगी बल्कि यह संशोधन तो नागरिकता प्रदान करेगा। विपक्ष द्वारा उठाये गये विरोध पर यह कहा जा रहा है कि वह इस बारे में भ्रम फैला रहा है। सरकार की ओर से यह कहा जा रहा है कि इस संशोधन के माध्यम से पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश के उन अप्लसंख्यकों को जिन्हें धर्म के आधार पर प्रताड़ित किया गया तथा ऐसे लोग 31 दिसम्बर 2014 तक भारत आ गये हैं। इन अप्लसंख्यकों में इन देशों के हिन्दुओं, सिखों, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसियों को शामिल किया गया है। नागरिकता अधिनियम 1955 के अनुसार कोई भी नागरिक जो भारत में 11 वर्षों से रह रहा है वह यहां की नागरिकता के लिये आवदेन कर सकता है। अब संशोधन करके यह अवधि घटाकर पांच वर्ष कर दी गयी है। इन तीनों देशों का इन धर्माे से ताल्लुक रखने वाला व्यक्ति यदि वह 31 दिसम्बर 2014 को भी भारत में आ गया है और पांच वर्षों से यहीं रह रहा है तो वह इस संशोधन से यहां की नागरिकता का पात्र हो जायेगा।
अब इस परिप्रेक्ष में यह सवाल उठता है कि जब सारा मुद्दा ही इतना सा ही है तो इस पर यह विवाद क्यों खड़ा किया जा रहा है? प्रधानमंत्री की बात पर विश्वास क्यों नही किया जा रहा है। यदि किसी अल्पसंख्यक के साथ उसके हिन्दु, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी होने के कारण प्रताड़ना की जा रही है तो उसकी इस तरह से सहायता करने में आपति क्यों होनी चाहिये? इन सवालों के लिये नागरिकता संशोधन अधिनियम के मसौदे पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। तीन पृष्ठों के इस संशोधन में धर्म के आधार पर प्रताड़ना का एक बार भी उल्लेख नही किया गया है। पूरे देश में यह बताया जा रहा है कि इन देशों में इन समुदायों के लोगों के साथ धर्म के कारण प्रताड़ना की जा रही है। पिछले दिनों एक अंग्रेजी दैनिक में वित्त राज्य मन्त्री अनुराग ठाकुर का एक लेख छपा था। उसमें यह आंकड़ा दिया गया था कि अफगानिस्तान में पचास हजार हिन्दु थे जो धर्म के आधार पर हुई प्रताड़ना के कारण वहां से पलायन करके भारत आ गये हैं और अब वहां पर केवल एक हजार हिन्दु ही रह गये हैं। यदि वित्त राज्य मन्त्री का यह आंकड़ा सही है तो यह चैंकाने वाला है। लेकिन भारत सरकार ने जो आंकड़ा संसद में रखा है उसके मुताबिक तीनों देशों के केवल 31 हजार लोगों ने भारत की नागरिकता के लिये आवदेन कर रखा है। आंकड़ों का यह विरोधाभास भी भारत सरकार की नीयत पर शक का कारण बन जाता है।
इसी के यह भी उल्लेखनीय है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम असम में एनआरसी पर उठे विरोध के बाद लाया गया। एनआरसी पर संसद में गृहमंत्री का स्पष्ट ऐलान रहा है कि इसे पूरे देश में लागू किया जायेगा। गृहमंत्री के बाद भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष नड्डा ने भी इसी तरह का ब्यान दिया है। अभी विरोध शांत भी नही हुए कि सरकार ने एनपीआर की भी घोषणा कर दी। इसके लिये 3941.35 करोड़ की धन राशी भी जारी कर दी। इस तरह एक ही समय में एनआरसी, सीएए और एनपीआर तीन मुद्दे जनता के सामने आ खड़े हुए हैं। तीनों का आधार 1955 का नागरिकता अधिनियम है। इसमें यह प्रावधान है कि सरकार अपने नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर एनआरसी तैयार कर सकती है। सरकार अपने नागरिकों का एक जन संख्या (एनपीआर) रजिस्टर तैयार कर सकती है। सरकार यही सब कर रही है फिर इसमें यह विवाद और विरोध क्यों? इसे समझने के लिये एनआरसी, एनपीआर और सीएए तथा इनमें आपसी संबंध को एक साथ समझना आवश्यक है। क्योंकि तीनों का संचालन एक ही अथाॅरिटी रजिस्ट्रार जनरल आॅफ इण्डिया के पास है।
यह सब असम में एनआरसी तैयार करने से शुरू हुआ। एनआरसी नागरिकता अधिनियम की धारा 14ए के तहत तैयार किया जाता है। असम में यह रजिस्टर तैयार हुआ तब करीब 20 लाख लोग इसकी गिनती से बाहर हो गये। इनमें हिन्दु और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग थे। चर्चा है कि इसी स्थिति से निपटने के लिये नागरिकता संशोधन अधिनियम लाया गया। इसमें प्रचार तो यह किया जा रहा है कि धर्म के आधार पर प्रताड़ित लोगों को नागरिकता प्रदान की जायेगी। लेकिन संशोधन के मसौदे की एक भी लाईन में धार्मिक प्रताड़ना का जिक्र नही है और साथ ही इससे मुस्लिम समुदाय के लोगों को बाहर कर दिया गया। लेकिन इसी के साथ यह सवाल था कि यदि एनआरसी को राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाना है तो उसके लिये जनसंख्या रजिस्टर तैयार करना होगा। एनपीआर तैयार करने का प्रावधान 2003 के नागरिकता नियमों में है। नियम 3(a)के तहत इसे तैयार किया जाता है। इसके लिये 2010 में शुरूआत की गयी थी। 2011 में हाऊस लिस्टिंग की गयी जिसे 2015 में डोर टू डोर सर्वे करके अपडेट किया गया। लेकिन एनपीआर के लिये 2010 में जो नियम तय किये गये थे आज 2019-20 के नियम उससे भिन्न हैं। अब एनपीआर के लिये माता-पिता का जन्म स्थान और जन्म तिथि बताना आवश्यक है। जनगणना में सारी जानकारी व्यक्ति के अपने सत्यापन पर आधारित होती है यह 1948 के जनगणना अधिनियम के तहत तैयार किया जाता है जबकि एनपीआर 2003 के नागरिकता नियमों के आधार पर तैयार किया जाता है और अब इसके नियम 17 के तहत दण्ड का भी प्रावधान कर दिया गया है। इस तरह यदि इस सबको समग्रता में देखा जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि एनपीआर ही एनआरसी और सीएए का आधारभूत डाटा उपलब्ध करवायेगा। इसी में यह प्रावधान किया गया है कि कोई भी व्यक्ति किसी की भी नागरिकता को लेकर सन्देह व्यक्त कर सकता है। इस सन्देह का निराकरण व्यक्ति को स्वयं करना होगा। इस तरह पूरे प्रकरण पर जो भी गंभीर सवाल उठ रहे हैं उनका कोई सीधा और स्पष्ट जवाब नही दिया जा रहा है। बल्कि जो प्रधानमंत्री कह रहे हैं उनके लोग एकदम उनसे भिन्न बात और आचरण कर रहे हैं। इससे यह संकेत उभरना स्वभाविक है कि सरकार एक रणनीति के तहत जनता के सामने वास्तविक स्थिति नही रख रही है। इसी कारण से यह आरोप लग रहा है कि यह सारा भ्रम का वातावरण हिन्दुराष्ट्र के ऐजैण्डे को लागू करने की नीयत से पैदा किया जा रहा है।

शिमला/शैल। कांगड़ा जिला के योल निवासी अनूप दत्ता ने प्रदेश के तीन बड़े नौकरशाहों श्री कान्त बाल्दी, प्रबोद सक्सेना और पालरासू के खिलाफ महामहिम राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, चीफ जिस्टस आफ इण्डिया, चीफ जस्टिस हिमाचल हाईकोर्ट, महामहिम राज्यपाल और मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर को एक शिकायत भेजी है। शिकायत में इन अधिकारियों के खिलाफ सीबीआई से जांच करवाने की मांग की गयी है। यह सभी अधिकारी किसी न किसी समय कांगड़ा के जिलाधीश रह चुके हैं। आरोप है कि कांगड़ा में एक गैर कृषक गैर हिमाचली फैज मुर्तज़ा अली को कृषि कार्य के लिये 105 एकड़ ज़मीन खरीद की अनुमति भू -राजस्व अधिनियम की धारा 118 के तहत गैर कानूनी तरीके से दे दी गयी है। शिकायतकर्ता का दावा है कि उसने इस जमीन का सौदा इसके असली मालिक मोहिन्द्र सिंह पुत्र महाराजा पटियाला भूपिन्द्र सिंह से किया था। लेकिन फैज अली ने अधिकारियों के साथ मिलकर धोखाधड़ी से इस जमीन पर बिना किसी कानूनी दस्तावेज के अपना जबरन अधिकार का दावा कर दिया। शिकायतकर्ता ने इस बावत जिलाधीश कांगड़ा और पुलिस अधिकारियों से शिकायत की। इसको लेकर पुलिस थाना पालमपुर में एफआईआर 50/12 और पुलिस थाना धर्मशाला में एफआईआर 97/3 तथा 72/5 दर्ज हैं। इन एफआईआर की उचित जांच किये जाने की बजाये शिकायतकर्ता को ही 24-7-2002 को पुलिस थाना पालमपुर में बिना किसी केस के हवालात में बन्द कर दिया। 25-7-2002 को पंजाब पुलिस की वर्दी में आयें कुछ लोगों ने उसका अपहरण तक कर दिया। इस सबकी शिकायतें की गयी लेकिन कोई कारवाई नही की गयी।
शिकायतकर्ता के मुताबिक 6-8-2002 को पत्र संख्या त्मअ-ठथ्;10द्ध 248/ 2002 को गैर कृषक, गैर हिमाचली के नाम 105 एकड़ ज़मीन कृषि कार्य के लिये खरीदने का अनुमति पत्र तैयार किया गया। राजस्व विभाग का कहना है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही सरकारों में इस खरीद की अनुमति दी गयी है। शिकायतकर्ता अनूप दत्ता का दावा है कि उसने 27 मई 2019 को एडीजीपी विजिलैन्स को और 29 जुलाई 2019 को मुख्य सचिव को इस बारे में पत्र लिखा परन्तु कोई कारवाई नही हुई। इसके बाद उसने 18-8-2019 को एक और शिकायत पत्रा भेजा। इस पत्रा पर एसपी कांगड़ा ने डीआईजी को पत्र लिखा है। इस पत्र में एसपी ने माना है कि वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ गंभीर मामले उठाये गये हैं जिनका बड़े स्तर पर असर पड़ेगा इसलिये इस सबकी एक सघन जांच होनी चाहिये। एसपी कांगड़ा द्वारा डीआईजी को लिखे पत्र से यह स्पष्ट हो जाता है कि शिकायतकर्ता ने इन बड़े अधिकारियों के खिलाफ संगीन आरोप लगाये हंै और इन आरोपों की अभी तक कोई जांच नही हुई है। आरोपों में सच्चाई है या नही इसका पता तो जांच से ही चलेगा। यह शिकायतें भी लम्बे अरसे से चली आ रही हैं। जिन पर अब प्रार्थी को महामहिम राष्ट्रपति से लेकर शीर्ष अदालत तक का दरवाजा खटखटाना पड़ा है। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर तक शिकातय पहुंची है लेकिन अभी तक कोई कारवाई न होना अपने में कई सवाल खड़े करता है।
इस पूरे प्रकरण में सबसे अहम सवाल यह सामने आता है कि जब प्रदेश में लैण्ड सिलिंग एक्ट लागू किया गया था तब इसके प्रावधानों के मुताबिक एक व्यक्ति अपने पास ज्यादा से ज्यादा 101बीघे/300 कनाल ज़मीन रख सकता है। लैण्ड सिलिंग में अधिकतम भू-सीमा की छूट केवल बागीचा धारकों को दी गयी थी। जिन लोगों/किसानों/बागवानों के बागीयों की राजस्व रिकार्ड में बतौर बागीचा एन्ट्री दर्ज थी उन्हंे यह छूट हासिल थी। लेकिन ऐसा व्यक्ति जब बागीचा बेचना चाहेगा तो उसे सरकार से इसकी अनुमति लेनी होगी और तब उस पर लैण्ड सिलिंग के प्रावधान लागू होंगे। यदि कोई गैर कृषक व्यक्ति कृषि कार्य के लिये ज़मीन खरीदना चाहता है तो वह केवल चार एकड़/चालीस कनाल ही खरीद सकता है। इस प्रावधान के तहत फैज़ अली चार एकड़ से ज्यादा जमीन नही खरीद सकता है। उसे धारा 118 के तहत ऐसी अनुमति दी ही नही जा सकती थी। इसलिये यह स्वभाविक है कि यदि फैज अली को 105 एकड़ खरीद की अनुमति दी गयी है तो वह एकदम नियमों के विरूद्ध है। यदि उसने धोखाधड़ी करके 105 एकड़ पर कब्जा करने का प्रयास किया है तब उसका अपराध दोगुणा हो जाता है। इस 105 एकड़ खरीद की अनुमति किसी भी नियम के तहत दिया जाना संभव ही नही है। ऐसे में अनूप दत्ता की शिकायत से स्पष्ट हो जाता है कि या तो इन अधिकारियों को राजस्व निमयों की जानकारी ही नही थी या फिर इन्होने किन्ही निहित कारणों से यह सब होने दिया और सरकार को नुकसान पहुंचाया। अब जब यह शिकायत राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्राी और सर्वोच्च न्यायालय/ प्रदेश उच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीशों तक पहुंच गयी है तब इस पर किस तरह से आगे कारवाई की जाती है या एक बार फिर इस मसले को दबा दिया जाता है यह देखना रोचक होगा।





शिमला/शैल। जयराम सरकार ने सत्ता संभालने के बाद पहले ही वर्ष में 15 जनवरी 2019 तक 229 गाड़ियां राजनेताओं और अधिकारियों के लिये खरीदी है। इनमें राजभवन के लिये दो गाड़ियां एक 18,03,600 तो दूसरी 70,00,000 रूपये की खरीदी गयी हैं। सचिवालय के लिये सात गाड़ियां 2,22,50,266 रू. में ली गयी है। सचिवालय के लिये यह खरीद बैगंलूर की कंपनी किर्लोस्कर मोटर प्रा.लि. के माध्यम से की गयी है। नयी गाड़ियां पाने वालों में राज्य शिक्षा बोर्ड, राज्य कृषि बोर्ड, राज्य सूचना आयोग, योजना सलाहकार और आयुर्वेद बोर्ड शामिल हैं। इन सभी को टोयटा गाड़ियां दी गयी है। जिनकी कीमत 31 लाख से 36 लाख तक प्रति गाड़ी रही है। इन सभी अदारों को यह महंगी गाड़ियां इसलिये दी गयी हैं क्योंकि सरकार बदलने के बाद इनमें नयी ताजपोशीयं हुई थी। सचिवालय में शायद मंत्रीयों के लिये नयी गाड़ियां खरीदनी पड़ी है। सरकार द्वारा नयी गाड़ियां को खरीदने को लेकर मुख्यमंत्री द्वारा वर्ष 2018-19 का बजट सदन में पेश करने के बाद विधानसभा में ही हुई पत्रकार वार्ता में भी सवाल पूछा गया था जिसे अधिकारियों ने टाल दिया था। अब यह जानकारी विधानसभा के शीतकालीन सत्र में पूछे गये एक सवाल के जवाब में सामने आयी है। ऐसा नही है कि 15 जनवरी 2019 के बाद नयी गाड़ियां नही खरीदी गयी है। अब भी मंहगी गाड़ियां लगातार खरीदी जा रही है। यही नहीं घाटे में चल रही एचआरटीसी ने तो इलैक्ट्रिक कार मुख्यमंत्री को भेंट की है। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां कर्ज लेकर खैरात बांटने की कहावत लागू होती है।
आज यह विषय इसलिये महत्वपूर्ण हो जाता है कि सरकार को लगभग हर माह कर्ज उठाने की आवश्यकता पड़ती रही है। यही नही पैट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतें बढ़ानी पड़ी है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब सरकार की वित्तिय स्थिति मजबूत नही है तो फिर क्या इन गाड़ियों की खरीद पर करोड़ों रूपया खर्च करने की एकदम जरूरत क्यों पड़ गयी। क्या इन गाड़ियों के बिना सरकार का काम नही चल रहा था। मुख्यमंत्री के सत्ता संभालते ही प्रशासन ने चण्ड़ीगढ़ में हिस्सेदारी के दावे को लेकर बड़े- बड़े ब्यान दिलवाये थे। यह संदेश दिया गया था कि सर्वोच्च न्यायालय में लंबित चल रहे मामले को कुछ ही दिनों में निपटाकर प्रदेश की माली हालत को मजबूत कर लिया जायेगा। मीडिया ने भी इन दावों को बड़ी उपलब्धि बनाकर जनता में परोसा था। लेकिन आज दो वर्ष का कार्यकाल पूरा होने पर भी इस दिशा में कोई प्रगति नही है। मुख्यमंत्री से लेकर मीडिया तक सभी मौन होकर बैठ गये हैं उद्योग मंत्री के माध्यम से प्रदेश सरकार ने केन्द्र से चौदह हजार करोड़ की सहायता मांगी है जिस पर आश्वासन तक नही मिला है। ऐसे में प्रदेश को बढ़ते कर्ज से बचाने के लिये कर्ज लेकर घी पीने की आदत को सुधारना होगा।





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