Saturday, 20 December 2025
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अदालती आदेशों को हल्के से लेने पर सर्वोच्च न्यायालय में लगा पांच लाख का जुर्माना

शिमला/शैल। सर्वोच्च न्यायालय ने हिमाचल सरकार पर पांच लाख का जुर्माना लगाया है। यह जुर्माना ‘‘कम्यूनिटी किचन’’ मुद्दे पर आयी एक याचिका पर समय रहते जवाब दायर न करने के कारण लगा है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस याचिका पर पूरे देश की राज्य सरकारों से जवाब मांगा था। यह याचिका पिछले वर्ष दायर की गयी थी। इसमें हिमाचल सरकार पिछले वर्ष ही एक पेशी पर हाज़िर हो गयी थी और तब शीर्ष अदालत ने इस पर राज्य सरकार से उसका पक्ष रखने के लिये कहा था। उसी समय याचिका राज्य सरकार के पास आ गयी थी और सरकार के पास इसमें जवाब दायर करने के लिये काफी समय था। लेकिन प्रदेश सचिवालय में यह विषय कई विभागों में घूमता रहा और कोई भी विभाग इसे उसका विषय मानने से इन्कार करता रहा। इसी दौरान जवाब दायर करने की तारीख आ गयी और सर्वोच्च न्यायालय में सरकार का पक्ष रखने के लिये शायद कोई भी उपलब्ध नही था। सर्वोच्च न्यायालय ने इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार पर पांच लाख का जुर्माना लगा दिया। इस पर मामले को मुख्य सचिव के संज्ञान में लाया गया और तब यह मामला सचिव सिविल सप्लाई को भेजा गया और इसका जवाब भेजा गया। इस मामले मे सर्वोच्च न्यायालय में अदा किया गया पांच लाख का जुर्माना बचाया जा सकता था यदि अधिकारी इसमें टाल मटोल की राह पर न चलते।
प्रदेश उच्च न्यायालय ने 3237 सरकारी कर्मचारियों को दी गयी नौतोड़ भूमि को वापिस लेने का फैसला 2015 में सुनाया था। सरकारी कर्मचारियों को हुए इस आवंटन को फ्राड की संज्ञा देते हुए इस पर कारवाई के कड़े निर्देश दिये थे जिन पर तीन वर्षों के भीतर अमल किया जाना था लेकिन नही हुआ और न ही किसी की जिम्मेदारी तय की गयी। यह मामला भी जब पुनः अदालत के संज्ञान में आयेगा तब इसमें भी जुर्माना लगने की नौबत आ जायेगी।
सर्वोच्च न्यायालय ने राज कुमार, राजेन्द्र सिंह बनाम एसजेवीएनएल मामले में राजेन्द्र सिंह के आचरण को फ्राड करार देते हुए इस परिवार को मिले करीब छः करोड़ के मुआवज़े को 12% ब्याज सहित वापिस लेने के आदेश किये हैं। लेकिन इसमें फ्राड और पूरी सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा अधिग्रहित की गयी जमीनों पर कारवाई करने की बजाये इसे एसजेवीएनएल तक ही सीमित रखा जा रहा है। एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदेश में हुए रेप के मामलों मे की गयी कारवाई के बारे में सभी राज्य सरकारों से जानकारी मांगी है। इसमें प्रदेश के मुख्य सचिव, गृह सचिव, डीजीपी और उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पत्र भेजा गया है। प्रदेश में पिछले दो वर्षो में विधानसभा में रखे गये रिकार्ड के अनुसार 500 से अधिक रेप के मामले हुए हैं। इनमें कितनी गिरफ्तारीयां हुई, कितने मामलों में अदालत से सजा़ हो चुकी है और कितने मामले क्यों लंबित हैं यह सारी जानकारी मांगी गयी है लेकिन अभी तक इसका कोई जवाब सर्वोच्च न्यायालय को नही गया है। 
एक अन्य मामले में प्रदेश उच्च न्यायालय ने कोल डैम से बिजली ले जाने के प्रकरण में स्थाानीय लोगों की जमीनों पर बिना उनकी अनुमति के टावर लगाने और लाईनें बिछाने के प्रकरण में रिलाईंस की कंपनी के खिलाफ मामले दर्ज करने के निर्देश दिये थे। निचली अदालत ने इसमें एफआईआर दर्ज होना सुनिश्चित भी किया था। लेकिन अब इस मामले को भी दबाने और रिलाॅंयंस को बिजली के खम्भे ही बेचने का फैसला ले लिया गया है। 
इस समय अकेले शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग में ही अदालती आदेशों की अनुपालना न होने के कारण अवमानना के 200 से ज्यादा मामले लंबित चल रहे हैं। इनके कारण शिक्षा विभाग में पिछले 18 माह से प्रधानाचार्या और मुख्याध्यापकों के 200 मामले पदोन्नतियों के लंबित पड़े हुए हैं। बिना इमरजैंसी कमीशन के सेना में भर्ती हुए पूर्व सैनिकों को सेवा लाभ दिये जाने के मामले में 2017 सर्वोच्च न्यायालय के R.K Barwaal बनाम हिमाचल सरकार एवं अन्य में आये फैसले पर आज तक अनुपालना नही हो पायी है इसमें अदालत ने कहा हैDivision Bench of this Court in V.K.Behal and ors. vs. State of H.P. and ors. 2009 LIC 1812 and the judgment rendered by the Hon'ble Supreme Court in R.K.Barwal and ors. vs. State of H.P. and ors. (2017) 16 SCC 803, wherein judgment in V.K. Behal's case has been affirmed. एक अन्य फैसले में हिमाचल उच्च न्यायालय के फैसले के विरूद्ध आयी अपील में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाते हुए 1993 के अपने फैसले पर मोहर लगा दी थी जिसमें DEMOBLISED SERVICES Rule 5 ,1972, Released Armed Forces Personnel in Administrative Services as well. These Rules were framed in the year 1974 and are called the ‘Demobilised Armed Forces Personnel (Reservation of Vacancies in the Himachal Pradesh Administrative Services) Rules, 1974 (hereinafter referred to as the ‘1974 Rules’) इन नियमों को असंवैधानिक करार देते हुए निरस्त कर दिया था। ऐसे अनेक मामले हैं जिन पर प्रशासन आज तक अमल नही कर पाया है।
प्रशासन में अदालती आदेशों के प्रति कितनी संवदेना है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता हैं कि 2012 में सर्वोच्च न्यायालय से 2003 में दर्ज एक झूठे मुकदमे में बाइज्जत बरी हुए एक अन्य प्रशासनिक अधिकारी के विरुद्ध उसी FIR पर जिसमें उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय बरी कर चुका है विभागीय जाँच कार्मिक विभाग की ‘‘मैं न मानु’’ प्रवृति के चलते जारी है जब की 1999 से 2018 तक सर्वोच्च न्यायालय यह निरंतर व्यवस्था दे चुका है कि आपराधिक मामले में बरी होने पर IENTICAL CHARGE पर विभागीय जाँच नहीं हो सकती, 2016 में सेवा निवृति पाए इस अधिकारी को प्रशासनिक हठधर्मिता के चलते 50-60 लाख के लंबित देय पेंशन लाभ से भी वंचित रखा गया है। इसी तरह के मामलों में गोयल जैसे कुछ WHISTLE ब्लोवर सर्वोच्च न्यायालय से स्पष्ट आदेशों के बावजूद धक्के खा रहे हैं।

राजस्व में केन्द्र पर बढ़ती जा रही है राज्य सरकार की निर्भरता

वर्ष 2017-18 में कुल राजस्व का 65% केन्द्र से मिला है
ऊर्जा में लगातार घटता जा रहा है राजस्व
शिमला/शैल। वर्ष 2017-18 की सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक राजस्व के मामले मेें राज्य सरकार की केन्द्र पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही हैं। रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2017-18 सरकार का अपना कर और करेतर राजस्व केवल 35% था। भारत सरकार से केन्द्रिय करों के हिस्से तथा ग्रांट-इन-ऐड के रूप में प्रदेश को 65% राजस्व प्राप्त हुआ है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि राज्य सरकार अपने राजस्व के साधन बढ़ाने में असफल क्यों हो रही है। इसमें भी सबसे गंभीर पक्ष तो यह है कि जहां सरकार यह दावा करती थी कि हिमाचल ऊर्जा राज्य है और आने वाले समय में इसी ऊर्जा के सहारे प्रदेश का सारा वित्तिय संकट खत्म हो जायेगा आज सीएजी के मुताबिक ऊर्जा में प्रदेश का राजस्व लगातार कम होता जा रहा है।
यही नही सीएजी ने प्रदेश में कर वसूली के लिये तैनात विभिन्न विभागों और ऐजैन्सीयों की कार्यप्रणाली पर भी गंभीर सवाल उठाये हैं। रिपोर्ट के मुताबिक वैट/सीएसटी, एक्ससाईज़, स्टांप डयूटी, पंजीकरण फीस, और यात्री तथा माल ढुलाई भाड़ा के मामलों में सरकार को 330.87 करोड़ का नुकसान हुआ है। ऐसे 863 मामलों में 490.09 करोड़ का नुकसान हुआ है। प्रदेश में कार्यरत ‘‘केबल नेटवर्क’’ ईकाईयों से करोड़ो रूपये का मनोरजन टैक्स नही लिया गया है।








राजस्व रसीदें, पैन कार्ड और बैंक दस्तावेज नागरिकता के प्रमाण नही

शिमला/शैल। इस समय देश एनआरसी, एनपीआर और सीएए के खिलाफ उभरे विरोध के दौर से गुजर रहा है। इसी विरोध के साये तले हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है। चुनाव परिणाम आने के बाद भी शाहीन बाग का धरना-प्रदर्शन जारी है। इसी बीच सरकार ने फिर कहा है कि वह सीएए के मामले में किसी भी दवाब में नही आयेगी। सरकार के स्टैण्ड से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह मामला आगे बढ़ेगा ही। इस परिदृश्य में यह और स्पष्ट हो जाता है कि जब एनपीआर के तहत जनसंख्या की गिनती शुरू होगी तब उसमें सूचीबद्ध दस्तावेजों की आवश्यकता होगी। राजस्व रिकार्ड को एक प्रमाणिक दस्तावेज माना जाता है। राजस्व प्रमाण के आधार पर ही अन्य दस्तावेज तैयार होते हैं। लेकिन अब जब एनआरसी के संद्धर्भ में गुवाहटी उच्च न्यायालय ने जब विदेशी ट्रिब्यूनल के फैसले पर मोहर लगाते हुए राजस्व रसीदों, पैन कार्ड और बैंक दस्तावेजों को नागरिकता का प्रमाण मानने से इन्कार कर दिया है तो उससे स्थिति और भ्रमित हो गयी है।
       गुवाहटी उच्च न्यायालय में आये मामले में भारत सरकार चुनाव आयोग, असम सरकार, स्टे्ट काॅआरडिनेटर और जिलाधीश तथा एसपी बकसा सभी प्रतिवादी बनाये गये थे। इन्ही के माध्यम से बने दस्तावेजों को वादी ने नागरिकता प्रमाण के तौर पर पेश किया था। लेकिन विदेशी ट्रिब्यूनल और फिर गुवाहटी उच्च न्यायालय ने इनको नागरिकता का प्रमाण नही माना है।
गुवाहाटी हाईकोर्ट ने कहा है कि भूमि राजस्व (Land Revenue) के भुगतान की रसीद के आधार पर किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं होती है। साथ ही, अपने पिछले फैसले के बाद, न्यायालय ने माना कि पैन कार्ड और बैंक दस्तावेज भी नागरिकता साबित नहीं करते हैं। न्यायमूर्ति मनोजीत भुयान और न्यायमूर्ति पार्थिवज्योति सैकिया की पीठ ने विदेशी ट्रिब्यूनल, बक्सा के आदेश के खिलाफ जुबैदा बेगम द्वारा दायर रिट याचिका को खारिज करते हुए ये टिप्पणियां कीं। इस आदेश में जुबैदा बेगम को 1971 के घटनाक्रम के परिपेक्ष्य में विदेशी घोषित किया गया था। पुलिस अधीक्षक (बी) के एक संदर्भ के आधार पर विदेशी ट्रिब्यूनल, बक्सा, तामुलपुर, असम ने याचिकाकर्ता को नोटिस जारी कर उसे भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए कहा था। ट्रिब्यूनल से पहले, उसने कहा कि उसके माता-पिता के नाम 1966 की वोटर लिस्ट में थे। उसने दावा किया कि उसके दादा-दादी के नाम भी 1966 की वोटर लिस्ट में दिखाई दिए थे। याचिकाकर्ता ने आगे कहा कि सन 1970 और सन 1997 की मतदाता सूची भी में भी उसके पिता का नाम था। ट्रिब्यूनल ने पाया कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित माता-पिता के साथ संबंध दिखाने वाला कोई भी दस्तावेज पेश नहीं कर सकी। हाईकोर्ट ने ट्रिब्यूनल के इन निष्कर्षों से सहमति व्यक्त की। पैन कार्ड और बैंक दस्तावेजों पर याचिकाकर्ता की निर्भरता को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया और कहा, ‘भारत में यह मामला बाबुल इस्लाम बनाम भारत संघ [WP(C)@3547@2016] में पहले ही आयोजित किया जा चुका है कि पैन कार्ड और बैंक दस्तावेज नागरिकता का प्रमाण नहीं हैं। ‘इस फैसले में कहा गया था कि समर्थित साक्ष्य के अभाव में केवल एक मतदान फोटो पहचान पत्र प्रस्तुत करना नागरिकता का प्रमाण नहीं होगा।
मतदान फोटो पहचान पत्र नागरिकता का निर्णायक प्रमाण नहीं:गुवाहाटी हाईकोर्ट
यह भी पाया गया कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित भाई के साथ संबंध दिखाते हुए दस्तावेज पेश नहीं कर सकी, जिसका नाम 2015 की मतदाता सूची में दिखाई दिया था। कोर्ट ने कहा कि गांव बूरा द्वारा जारी प्रमाण पत्र किसी व्यक्ति की नागरिकता का प्रमाण नहीं हो सकता। पीठ ने कहा कि भूमि राजस्व के भुगतान प्राप्तियां ;रसीदद्ध किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं करती हैं। इन निष्कर्षों पर हाईकोर्ट ने रिट याचिका को खारिज कर दिया और कहा, ‘हम पाते हैं कि ट्रिब्यूनल ने इससे पहले रखे गए साक्ष्यों की सही ढंग से सराहना की है और हम ट्रिब्यूनल के निर्णय में व्यापकता देख सकते हैं। यही स्थिति होने के नाते, हम इस बात को दोहराएंगे कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित माता-पिता और उसके अनुमानित भाई के साथ संबंध को साबित करने में विफल रही, इसलिए, हम पाते हैं कि यह रिट याचिका योग्यता रहित है और उसी के अनुसार, हम इसे खारिज करते हैं।’
                                           यह है फैसला

Challenge in this writ petition is to the opinion dated 30.07.2019, passed by the Foreigners Tribunal No. Tinsukia, Assam in F.T. Case No. 411 of 2007 P.E. No. 315/1998.
Heard Mr. G. P. Bhoumik, learned senior counsel for the petitioner. Also heard Ms. G. Hazarika,learned standing CGC representing respondent No. 1; and Mr. J. Payeng, learned standing counsel forthe Foreigners Tribunal representing respondent Nos. 2 to 5.
On a reference made by the competent authority, notice was issued to the petitioner askinghim to prove his Indian citizenship. He accordingly appeared before the Tribunal and filed a writtenstatement. He claimed therein that he is an Indian by birth and is a permanent resident of MargheritaTown, in the District of Tinsukia, Assam. He filed voter list of 1997 containing his name. The petitionerfurther claimed before the Tribunal that his grandfather Lt. Durga Charan Biswas hailed from thedistrict of Nadia, West Bengal. The petitioner stated that his father Lt. Indra Mohan Biswas was bornthere and later migrated to Assam in the year 1965 and started to reside at Kolpara, Ledo in thedistrict of Tinsukia, Assam. According to the petitioner, his father had purchased land in the year1970. While filing the written statement before the Tribunal, the petitioner also filed a Registered SaleDeed. The petitioner also filed a copy of Electoral Photo Identity Card.
During the hearing, the petitioner examined himself only and he introduced some documents.The documents are;
1. Exhibit-1 is the voter lists of 1997 bearing the name of the petitioner;
2. Exhibit-2 is the Electoral Photo Identity Card (EPIC) of the petitioner;
3. Exhibit-3 is the Registered Sale Deed of 1964;
4. Exhibit-4 is the Sale Deed dated 23.04.1970;
5. Exhibit-5 is the Revenue Receipt of the year 1971.
The Tribunal has held that Exhibits 3 and 4 were not proved in the manner as required by law.Since no voter lists prior to 1997 could be furnished by the petitioner, the Tribunal held that thepetitioner failed to prove that his parents entered into Assam prior to 01.01.1966. On the conclusionof hearing, the Tribunal declared the petitioner to be a foreigner of post 1971 stream.
We have carefully gone through the judgment of the Tribunal. Sale Deeds are privatedocuments, therefore, they must be proved in accordance with law. In the case of  Narbada DeviGupta Vs. Birendra Kumar Jaiswal reported in (2003) 8 SSC 745, the Supreme Court has reiteratedthe legal position that marking of documents as exhibits and their proof are two different legalconcepts. Mere production and marking of a document as exhibits cannot be held to be due proof ofits contents. Its execution has to be proved by admissible evidence i.e., by the evidence of thosepersons who can vouch safe for the truth of the facts in issue.
Regarding Electoral Photo Identity Card this court in the case of Md. Babul Islam Vs. State of Assam [WP(C) No. 3547 of 2016]  has held that Electoral Photo Identity Card is not a proof of citizenship.
The petitioner herein has failed to file voter lists prior to 1997, thereby the petitioner failed toprove that he has been staying in Assam prior to 25.03.1971.
We find that the Tribunal has correctly appreciated the evidence placed before it and arrivedat a correct finding. There is no perversity in the decision of the Tribunal.
The power of the Writ Court exercising jurisdiction under Article 226 of the Constitution ofIndia is supervisory only, not appellate/reviewing. The opinion of the Tribunal is based on facts. As aWrit Court we would not have gone into evidence. We just wanted reassure ourselves and we findthat there is no perversity in the decision of the Tribunal. Hence, we find that this writ petition isdevoid of merit. It stands dismissed and disposed of accordingly.No costs.

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