Friday, 19 September 2025
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क्यों बना है नफरती ब्यानों का वातावरण

नफरती ब्यानों से हुई वस्तुस्थिति पर उभरी चिन्ताओं पर चिन्तन को लेकर सर्वाेच्च न्यायालय के जस्टिस के.एम.जोसेफ और जस्टिस हृषिकेश राय की खण्डपीठ के पास सुदर्शन टीवी द्वारा दिखाये यूपीएससी जिहाद शो और धर्म संसदों में दिये गये ब्यानों तथा कोविड महामारी के दौरान एक समुदाय विशेष को चिन्हित व इंगित करते हुए सोशल मीडिया के मंचों पर आयी टिप्पणियों पर आयी याचिकाएं निपटारे के लिये लगी हैं। शीर्ष न्यायालय ने इस पर गंभीर चिन्ता व्यक्त करते हुए यह प्रश्न उठाया है कि आखिर देश जा कहां जा रहा है? अदालत ने इस पर सरकार की मुकदर्शिता पर भी चिन्ता व्यक्त करते हुये इस संद्धर्भ में एक सख्त नियामक तंत्र गठित किये जाने पर आवश्यकता पर बल दिया है। सरकार से इस पर अपना पक्ष स्पष्ट करने को कहा है। सर्वाेच्च न्यायालय में उठे सवालों में ही कमीशन की सिफारिश और चुनाव आयोग के सुझाव भी चर्चा में आये हैं। यह भी सामने आया है कि कानून में नफरती ब्यान और अफवाह तक परिभाषित नहीं है। देश के 29 राज्यों में से केवल 14 ने ही इस पर अपने विचार रखे हैं यह सामने आने के बाद सर्वाेच्च न्यायालय ने राज्यों को अपनी राय शीर्ष अदालत में रखने के निर्देश दिये हैं। शीर्ष अदालत में यह सब घटने के बाद कुछ टीवी चैनलों ने इस मुद्दे पर सार्वजनिक बहस भी आयोजित की है। इस सारे मन्थन से क्या निकल कर सामने आता है यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा। लेकिन आज देश में इस तरह का वातावरण क्यों निर्मित हुआ है? केन्द्र में सत्तारूढ़ पक्ष इस पर क्यों मौन चल रहा है? उसे इससे किस तरह का राजनीतिक लाभ मिल रहा है? इस मन्थन से इन सवालों का कोई सीधा संद्धर्भ नहीं उठाया जा रहा है। जबकि मेरा मानना है कि यह सवाल इस बहस का केन्द्र बिन्दु होने चाहिये। अदालत ने भी सरकार की खामोशी पर सवाल उठाते हुए एक सख्त नियामक तन्त्र के गठन की बात की है। आज केन्द्र में वह राजनीतिक दल सत्तारूढ़ है जिसका वैचारिक नियन्त्रण आर.एस.एस. के पास है। 1947 में देश की आजादी के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने वैचारिक धरातल को विस्तार देने के लिये 1948 और 1949 में ही युवा संगठन के नाम पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का गठन करने के साथ ही हिन्दुस्तान समाचार एजेन्सी का गठन कर लिया। यह वह क्रियात्मक कदम थे जिन से आने वाले वक्त में मीडिया यूथ की भूमिका का आकलन उसी समय कर लिया गया। उसके बाद आगे चलकर इसकी अनुषंागिक इकाइयों संस्कार भारती और इतिहास लेखन प्रकोष्ठ आदि का गठन इस दिशा के दूसरे मील के पत्थर सिद्ध हुए हैं। इसी सबका परिणाम संघ के सनातकों के रूप में सामने आया। मजे की बात तो यह है कि यह स्नातक लाखों की संख्या में तृतीय वर्ष पास करके आ चुके हैं। अधिकांश राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों में शामिल हो चुके हैं लेकिन इस पाठयक्रम को लेकर चर्चा नहीं के बराबर रही है। आज के नये राजनीतिक कार्यकर्ताओं से चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल से ताल्लुक रखते हो यदि यह पूछा जाये कि संघ का आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक चिन्तन क्या है तो वह शायद कुछ भी न बता पायें। उनकी नजर में यह एक सांस्कृतिक संगठन है जिसकी सांस्कृतिक विरासत मनुस्मृति से आगे नहीं बढ़ती। इसी संस्कृति का परिणाम है कि आज समाज का एक बड़ा वर्ग न्यायपालिका से लेकर राजनेताओं तक हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे में शामिल हो चुका है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के 1998 के राष्ट्रीय अधिवेशन में त्रीस्तरीय संसद के गठन का प्रस्ताव पारित होने के बाद आज हालात इन ब्यानों तक पहुंच गये हैं। स्कूलों में मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाने की बात हो रही है। क्योंकि जब गुजरात दीन्नानाथ बत्रा की किताबों को स्कूल पाठयक्रम का हिस्सा बनाया जा रहा था तब इसकी चर्चा तक नहीं उठाई गयी थी। आज संघ की विचारधारा पर जब तक सार्वजनिक बहस के माध्यम से स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता तक नहीं पहुंचा जाता है तब तक हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे की वकालत के लिए ऐसे नफरती ब्यानों को रोकना आसान नहीं होगा।

यह चुनावी घोषणाएं कहां ले जायेगी

अभी कुछ ही समय पहले जयराम सरकार ने 2600 करोड़ का कर्ज लिया है। यह कर्ज लेने के लिये सरकार को प्रतिभूतियों की नीलामी करनी पड़ी है। निश्चित है कि जब सरकार को कर्ज लेने के लिए प्रतिभूतियों की नीलामी करने पड़ जाये तो कर्ज लेने के अन्य सारे मार्ग समाप्त हो चुके होतेे हैं। प्रतिभूतियां सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा उठाये जाने वाले कर्ज की एवज में सरकार द्वारा दी जाती है। इस समय यदि सरकार और सार्वजनिक उपक्रमों के कर्ज को मिलाकर देखें तो यह कर्ज एक लाख करोड़ से भी बढ़ जाता है। कर्ज की यह स्थिति इसलिये है क्योंकि एफ.आर.बी.एम. में संशोधन करके वित्तीय आकलनोे के फेल हो जाने को अपराधिक जिम्मेदारी से बाहर निकाल दिया गया है। इस परिदृश्य में आज जब मुख्यमंत्री प्रदेश के हर विधानसभा क्षेत्र में जाकर करोड़ों की योजनाओं की घोषणाएं कर रहे हैं तो यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि क्या यह घोषणाएं जमीन पर उतर पायेगी या नहीं? इन घोषणाओं को पूरा करने के लिये कितना कर्ज लिया जायेगा और उसके लिए क्या-क्या गिरवी रखा जायेगा। यह सवाल इसलिये प्रसांगिक हो जाते हैं क्योंकि इन घोषणाओं को पूरा करने के लिये प्रदेश सरकार को अपने ही स्तर पर संसाधन जुटाने पड़ेंगे। केन्द्र की ओर से प्रदेश को अब तक क्या मिला है इसका सच प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और अन्त में मुख्यमंत्री द्वारा प्रधानमन्त्री के सामने रिज मैदान की सार्वजनिक सभा में रखें आंकड़ों से पता चल जाता है। प्रधानमंत्री ने मण्डी में यह आंकड़ा दो लाख करोड़ परोसा था। चम्बा में गृहमन्त्री ने एक लाख बीस हजार करोड़ तथा नड्डा 72000 करोड़ और रिज मैदान पर मुख्यमन्त्री ने 12000 करोड़ बताया था। सूचना और जनसंपर्क विभाग के प्रेस नोट में यह दर्ज है।
जबकि 31 मार्च 2020 को सदन के पटल पर रखी कैग रिपोर्ट के मुताबिक 2019 तक केन्द्रीय योजनाओं में प्रदेश को एक भी पैसा नहीं मिला है। कैग के मुताबिक ही सरकार 96 योजनाओं में कोई पैसा नहीं खर्च कर पायी है। बच्चों को स्कूल बर्दी तक नहीं दी जा सकी है। कर्मचारियों को संशोधित वेतनमान के एरियर की किस्त तक नहीं दी जा सकी है क्योंकि सरकार के पास पैसा नहीं था। लेकिन 2019 में लोकसभा के चुनाव थे। 2019-20 के बजट दस्तावेज के मुताबिक इस वर्ष सरकार के अनुमानित खर्च और वास्तविक खर्चे में करीब 16,000 करोड़ का अन्तर आया है। कैग रिपोर्ट में यह दर्ज है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि जब केन्द्र ने कोई वितिय सहायता नही दी है तो इस बड़े हुये खर्च का प्रबन्ध कर्ज लेकर ही किया गया होगा। कैग रिपोर्ट पर आज तक कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है। सत्ता पक्ष और विपक्ष के माननीय और मीडिया तक ने इस रिपोर्ट को शायद पढ़ने समझने का प्रयास नही किया है। इसी रिपोर्ट में यह कहा गया है कि कुल बजट का 90% राजस्व व्यय हो चुका है। विकास कार्यों के लिए केवल 10% ही बचता है। वर्ष 2022-23 के 51,365 करोड़ का 10% ही जब विकास के लिये बचता है तो उसमें आज मुख्यमन्त्री द्वारा की जा रही घोषणाएं कैसे पूरी हो पायेगी? स्वभाविक है कि इसके लिये कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है।
आज मुख्यमन्त्री अपनी सरकार की सत्ता में वापसी के लिये हजारों करोड़ों दाव पर लगा रहे हैं। हर विधानसभा क्षेत्र में करोड़ों की घोषणाएं की जा रही है। अभी अगला चुनावी घोषणा पत्र तैयार हो रहा है। उसमें भी वायदे किये जायेंगे। विपक्ष भी इसी तर्ज पर घोषणा पत्रों से पहले ही गारटियों की प्रतिस्पर्धा में आ गया है। केन्द्र द्वारा प्रदेश को जो कुछ भी देना घोषित किया गया है वह अब तक सैद्धांतिक स्वीकृतियों से आगे नहीं बढ़ पाया है। प्रदेश के घोषित 69 राष्ट्रीय राजमार्ग इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर सरकार श्वेत पत्र जारी करने के लिये तैयार नहीं है और न ही विपक्ष इसकी गंभीरता से मांग कर रहा है। जयराम सरकार को विरासत में 46,385 करोड़ का कर्ज मिला था लेकिन आज यह कर्जभार कहां पहुंच गया है इस पर कुछ नहीं कहा जा रहा है। 1,76,000 करोड़ की जी.डी.पी. वालेे प्रदेश में सार्वजनिक क्षेत्र के कर्ज को मिलाकर यह आंकड़ा एक लाख करोड़ तक पहुंचना क्या चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिये यह पाठकों के आकलन पर छोड़ता हूं।

वक्त की जरूरत है भारत जोड़ो यात्रा

क्या कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा इस समय की आवश्यकता बन गयी है? क्या इस यात्रा के लिये कांग्रेस का ही एक वर्ग मानसिक रूप से तैयार नहीं है? क्या भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का आहवान लोकतन्त्र को सशक्त बनायेगा? क्या भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का क्षेत्रीय दलों को लेकर आया ब्यान एक स्वस्थ राजनीतिक संकेत है? क्या न्यायपालिका में भी एक वर्ग द्वारा परोक्ष/अपरोक्ष में हिन्दू राष्ट्र की वकालत करना सही है? यह कुछ सवाल है जो इस समय हर संवेदनशील, बुद्धिजीवी को कौंध रहे हैं। इन सवालों पर खुले मन मस्तिष्क से चिन्तन और चिन्ता करना आज की आवश्यकता बन चुका है। देश के हर व्यक्ति को यह सवाल प्रभावित करते हैं भले ही वह इनके प्रति सजग हो या न हो। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने यह यात्रा उस समय शुरू की है जब गुलाम नवी आजाद और कपिल सिब्बल जैसे नेता कांग्रेस छोड़कर चले गये हैं। कांग्रेस से यह नेता उस समय बाहर गये हैं जब कांग्रेस ने राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की तारीख का ऐलान कर दिया था। कांग्रेस छोड़कर जाने वाले नेताओं का आरोप रहा है कि गांधी परिवार का नेतृत्व कांग्रेस को कमजोर कर रहा है। इस परिदृश्य में इन नेताओं के पास अब वह अवसर था कि यह लोग स्वयं संगठन की अध्यक्षता के लिए अपनी दावेदारी का दावा पेश करते। लेकिन ऐसा करने की बजाये इन लोगों ने राहुल गांधी पर आरोप लगाते हुये संगठन छोड़ने का आसान रास्ता चुना। इससे स्वतः ही यह प्रमाणित हो जाता है कि इनके तार कहीं और से संचालित हो रहे थे। क्योंकि पिछले आठ वर्षों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि इस अवधि में राहुल गांधी ही सबसे ज्यादा सत्ता पक्ष के निशाने पर रहे हैं। कोबरापोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन में यह सामने आ चुका है कि राहुल गांधी को पप्पू प्रचारित करने के लिये मीडिया में कितना निवेश किया गया था। इन आठ वर्षों में यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सत्ता पक्ष के सामने आज तक पूरी ताकत के साथ खड़ा रहने वाला राहुल गांधी पहला नेता है। शायद राहुल गांधी की इस राजनीतिक दृढ़ता के कारण ही आज इस यात्रा के दौरान उनके पहरावे और यात्रा के प्रबंधों पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं।
इस परिदृश्य में यह तलाशना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि आज यह यात्रा वक्त की जरूरत क्यों बन गयी। इसके लिये अगर अपने आस पास नजर दौड़ायें तो सामने आता है कि सत्तारूढ़ भाजपा ने विपक्ष की सरकारों को गिराने के लिये केन्द्रीय जांच एजेन्सियों का इस्तेमाल किस हद तक बढ़ा दिया है। इन एजेन्सियों के बढ़ते दखल ने इनकी विश्वसनीयता पर ही गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। पिछले काफी समय से संघ प्रमुख डॉ. मनमोहन भागवत के नाम से भारत के नये संविधान के कुछ अंश वायरल होकर बाहर आ चुके हैं। लेकिन इस पर न तो केन्द्र सरकार और न ही संघ परिवार की ओर से कोई खण्डन आया है। बल्कि मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस सेन के दिसंबर 2018 में आये हिन्दू राष्ट्र के फैसले और अब डॉ. स्वामी की संविधान से धर्म निरपेक्षता तथा समाजवाद शब्दों को हटाने के आग्रह की सर्वाेच्च न्यायालय में आयी याचिका ने इन आशंकाओं को और बढ़ा दिया है। क्या आज के भारतीय समाज में यह सब स्वीकार्य हो सकता है।
2014 के लोकसभा चुनावों से पहले अन्ना आन्दोलन के माध्यम से भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को उछाला गया था क्या उनमें से एक भी अन्तिम परिणाम तक पहुंचा है? क्या आज भाजपा शासित राज्यों में सभी जगह लोकायुक्त नियुक्त है? क्या सभी राज्यों में मानवाधिकार आयोग सुचारू रूप से कार्यरत हैं? क्या इस दौरान हुये दोनों लोकसभा चुनावों में हर बार चुनावी मुद्दे बदले नहीं गये हैं? इस दौरान नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक जितने भी आर्थिक फैसले लिये गये हैं क्या उनसे देश की आर्थिकी में कोई सुधार हो पाया है? क्या सार्वजनिक संस्थानों को प्राइवेट सैक्टर के हवाले करना स्वस्थ्य आर्थिकी का लक्षण माना जा सकता है? आज जब शिक्षा और स्वास्थ्य को पीपीपी मोड के माध्यम से प्राइवेट सैक्टर को देने की घोषणा की जा चुकी है तब क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि यह आवश्यक सेवाएं आम आदमी को सुगमता से उपलब्ध हो पायेंगी? कल तक यह कहा जा रहा था कि चीन हमारी सीमा में घुसा ही नहीं है परन्तु अब यह कहा जा रहा है कि चीन वापिस जाने को तैयार हो गया है। कुल मिलाकर राष्ट्रीय महत्व के हर मुद्दे पर लगातार गलत ब्यानी हो रही है और उसे हिन्दू-मुस्लिम तथा मन्दिर-मस्जिद के नाम पर नया रूप देने का प्रयास किया जा रहा है। आज इन सवालों को आम आदमी के सामने ले जाने की आवश्यकता है और इस काम के लिये किसी बड़े नेता को ही भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से इस काम को अन्जाम देना होगा। राहुल गांधी की यात्रा से सता पक्ष में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं उभर रही हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि यह यात्रा सही वक्त पर सही दिशा में आयोजित की गयी है।

क्या धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद संविधान से हटा देना चाहिये?

भाजपा के राज्यसभा सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने सर्वाेच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करके गुहार लगाई है कि संविधान के उद्घोष से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के शब्दों को हटा दिया जाये। डॉ. स्वामी की याचिका से पहले भी मेघालय उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एस.आर. सेन दिसम्बर 2018 में यह फैसला दे चुके है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाना चाहिये। जस्टिस सेन के इस निर्देश के खिलाफ कुछ लोग सर्वाेच्च न्यायालय गये थे। जस्टिस गोगोई की पीठ ने मेघालय उच्च न्यायालय को नोटिस भी जारी किये थे। लेकिन बाद में जस्टिस गोगोई ने यह कहकर मामला बन्द कर दिया था कि इसमें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। अब डॉ. स्वामी की याचिका अगर स्वीकार हो जाती है तो संविधान संशोधन का रास्ता कानूनी तौर पर साफ हो जाता है। इस से स्वतः ही देश हिन्दू राष्ट्र हो जाता है। ऐसे में बड़ा सवाल यह हो जायेगा कि इस समय देश में जो धार्मिक अल्पसंख्यक है उनका भविष्य क्या हो जायेगा? क्योंकि इस समय जो दल सत्तारूढ़ है वह लगभग मुस्लिम मुक्त है। संसद में उसके पास शायद कोई भी मुस्लिम सांसद नहीं है। शायद भाजपा शासित राज्यों में मुस्लिम विधायक भी नहीं के बराबर हैं। पहली बार है कि केंद्रीय मन्त्रीमण्डल में कोई मुस्लिम मन्त्री नहीं है। यही नहीं ऐसा पहली बार देखने को मिल रहा है कि सत्तारूढ़ दल का नेतृत्व कांग्रेस और क्षेत्रीय दल मुक्त भारत का नारा दे रहा है। सत्तारूढ़ दल व्यवहारिक रूप से अपने को मुस्लिम विरोधी कहलाने में संकोच नहीं कर रहा है। भारत बहुभाषी और बहुत धर्मी देश है यही बहुलता इसकी विशेषता है। लेकिन जब सत्तारूढ़ दल के प्रयास यह हो जायें कि वह देश में किसी भी दूसरे दल की उपस्थिति ही न चाहता हो तो और इसके लिये भ्रष्टाचार के नाम पर जांच एजेंसियों का खुला दुरुपयोग होने के आरोप लग जायें तो इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था कैसे बची रह पायेगी? यह सवाल आने वाली पीढ़ियों के सामने एक बड़ा सवाल बनकर जवाब मांगेगा यह तय है। क्योंकि इस समय हिन्दू-मुस्लिम का मुद्दा जिस तरह से लगातार बड़ा बनाया जा रहा है उससे देश में एक बार फिर बंटवारे जैसे हालात उभरते जा रहे हैं जो कालान्तर में बहुत घातक सिद्ध होंगे यह भी तय है। देश ने आजादी के लड़ाई अंग्रेज के शासन के खिलाफ लड़ी है मुस्लिम के विरुद्ध नहीं यह इतिहास का एक नितान्त कड़वा सच है। देश का बंटवारा भी अंग्रेज को भगाने के लिये स्वीकार किया गया था। उस समय भी कुछ लोग स्वतंत्रता सेनानियों का विरोध कर रहे थे और इस विरोध के अदालती प्रमाण स्वयं डॉ. स्वामी ने देश के सामने रखे हैं। बाद में इसी लोकतंत्र में यह विरोध करने वाले भी देश के शीर्ष पदों तक पहुंचे हैं। क्योंकि विरोध के स्वर अंग्रेजों के प्रायोजित शब्द थे। लेकिन दुर्भाग्य से यही विरोध के स्वर नये कलेवर में आज फिर उठने शुरू हो गये हैं और मुस्लिम विरोध इनका बड़ा हथियार बन गया है। इस परिदृश्य में आज लोकतंत्र के लिये सही में बड़ा खतरा खड़ा हो गया है। आज यह दावा किया जा रहा है कि भारत विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुकी है। इंग्लैंड को भारत ने पीछे छोड़ दिया है। ऐसे में यह सवाल पूछा जाना आवश्यक हो जाता है कि इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम क्षेत्र भी पी.पी.पी. मोड पर प्राइवेट सैक्टर को देने की नौबत क्यों आ रही है। साधारण खाद्यानों पर भी जीएसटी क्यों लगानी पड़ी है? बेरोजगारी ने इस दौरान पिछले सारे रिकॉर्ड क्यों तोड़ दिये हैं। नई शिक्षा नीति की भूमिका में यह क्यों कहना पड़ा है कि हमारे बच्चे खाड़ी के देशों में बतौर हैल्पर ज्यादा समायोजित हो पायेंगे। ऐसे दर्जनों सवाल है जो सरकारी दावों पर गंभीर प्रश्न चिन्ह उठाते हैं। क्योंकि आर्थिकी उत्पादन में बढ़ौतरी से नहीं वरन स्थापित संसाधनों को प्राइवेट क्षेत्र के हवाले करने से बड़ी है। इस परिदृश्य में यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि यदि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों को संविधान के उद्घोष से हटाने की अदालती स्वीकृति मिल जाती है तो उसके बाद किस तरह का सामाजिक वातावरण निर्मित होगा।

कर्ज लेकर मुफ्त कब तक बांटा जा सकता है

इस समय सड़क से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक मुफ्ती की घोषणाएं एक बड़े मुद्दे के तौर पर हर संवेदनशील नागरिक का ध्यान आकर्षित किये हुए हैं। अश्वनी उपाध्याय की याचिका के माध्यम से सर्वाेच्च न्यायालय पहुंचे इस मामले को अब तीन जजों की पीठ को सौंप दिया है। सर्वाेच्च न्यायालय ने इस विषय पर केंद्र सरकार, राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग और कुछ वरिष्ठ वकीलों से उनकी राय जानने का प्रयास किया है। अब तक जो कुछ भी चर्चित हुआ है वह मुफ्ती की परिभाषा चुनाव आयोग के दखल और सर्वाेच्च न्यायालय के दखल की सीमा के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा है। इस सवाल की ओर कोई ध्यान ही नहीं गया है कि राजनीतिक दलों को मुफ्ती की घोषणाएं करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है? इन योजनाओं के लाभार्थियों के जीवन स्तर में कितना सुधार हो पाया है? इनका लाभ लेने के बाद उनकी क्रय शक्ति में कितना सुधार हुआ है? यहां कुछ ऐसे सवाल हैं जिन पर व्यवहारिकता में विचार किये बिना मुफ्ती को लेकर ठोस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता। इसमें पंचायत सदस्य से लेकर संसद तक कुछ न कुछ मानदेय ले रहा है और यह सब जन सेवक कहलाते हैं। जनता की सेवा के लिए अपना बहुमूल्य समय दे रहे हैं। इस जनसेवा के बदले जो कुछ उन्हें मिल रहा है और उस पर जनता की प्रतिक्रियाएं क्या हैं यह सब उन याचिकाओं के माध्यम से सामने आ चुका है। जिनमें इनकी पैन्शन बन्द किये जाने की मांग की गयी है। जबकि सरकारों की वित्तीय स्थिति यह है कि केंद्र से लेकर राज्य तक हर प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। वित्तीय जिम्मेदारी और बजट प्रबंधन अधिनियम एफआरबीएम के अनुसार कर्ज जीडीपी के 3% से 5% तक की सीमा में ही रहना चाहिये। लेकिन कई राज्य सौ प्रतिशत की सीमा पार कर चुके हैं। आर बी आई 13 प्रदेशों को तो कभी भी श्रीलंका होने की चेतावनी दे चुका है। हिमाचल का कर्ज जीडीपी का 38% से बढ़ चुका है और यह जानकारी मानसून सत्र में आयी है। जब राज्य या केंद्र कर्ज लेकर मुफ्त बांटे और फिर भी लाभार्थी की परचेज पॉवर में सुधार न हो तो ऐसी मुफ्ती का लाभ और अर्थ क्या रह जाता है। अदालत इस पर रोक लगा नहीं सकती क्योंकि यह जनप्रतिनिधित्व कानून में दखल हो जाता है। राजनीतिक दलों के अधिकारों का मामला हो जाता है। चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र से भी बाहर का मामला है। केवल जनता के समर्थन का मामला रह जाता है और जनता जिस महंगाई और बेरोजगारी के दौर से गुजर रही है उसमें उससे कोई उम्मीद रखना संभव नहीं हो सकता। इस परिदृश्य में केवल चुनाव प्रक्रिया में सुधार का ही एक मात्र विकल्प रह जाता है जिसके माध्यम से इस पर रोक लगाई जा सकती है। यहां यह विचारणीय हो जाता है कि राजनीतिक दलों को परोक्ष/अपरोक्ष मुफ्ती की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है। क्या मुफ्ती के भार से दलों की विश्वसनीयता बनेगी? मुफ्ती के आईने में उम्मीदवारों का सारा चरित्र छिपा रह जाता है। इसी के कारण आज विधानसभा से लेकर संसद तक में करोड़़पति और अपराधिक पृष्ठभूमि वाले माननीय की संख्या हर चुनाव में बढ़ती जा रही है। हर बार चुनाव खर्च का दायरा बढ़ा दिया जाता है। लेकिन राजनीतिक दलों को चुनाव खर्च सीमा से बाहर रखा गया है और यही सारी समस्या का मूल है। जब चुनाव महंगा होगा तो यह सिर्फ अमीर का ही अधिकार क्षेत्र होकर रह जायेगा। एक समय अपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के चुनाव प्रचारक हुआ करते थे जो आज स्वयं माननीय हो गये हैं। ऐसे में मुफ्ती और कर्ज से बचने के लिये चुनाव को खर्च से रहित करना होगा। सरकार को चुनाव खर्च उठाना होगा। चुनाव प्रचार के वर्तमान स्वरूप को बदलना होगा। यदि ऐसा न हुआ तो आने वाले समय में चुनाव लड़ने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। कुछ अमीर आपस में ही फैसला कर लेंगे। चुनाव सुधार करके चुनावों को खर्च मुक्त करना होगा क्योंकि कर्ज लेकर मुफ्त बांटना ज्यादा देर तक नहीं चल सकता है और अब जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक आ पहुंचा है तो हर नागरिक को इस बहस में हिस्सा लेना आवश्यक हो जाता है।

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