आजादी के स्वर्णिम जयन्ती को अमृत काल की संज्ञा दी है हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री ने। इस अमृत काल में स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर प्रधानमंत्री के गुजरात में ही बिलकिस बानो के दोषीयों को न केवल रिहाई का तोहफा दिया गया बल्कि उन्हें एक तरह से सम्मानित भी किया गया। 2002 में जब गुजरात में गोधरा काण्ड घटा था तब उसके बाद राज्य में दंगे भड़क उठे थे। इन्ही दंगों में दंगाईयों ने बिलकिस बानो के परिवार के साथ व्यस्क सदस्यों की हत्या करने के बाद उसकी गोद से बच्चे को छीन कर उसे भी मौत के घाट उतार दिया। दंगाई इतने पर ही नहीं रुके बल्कि 5 माह की गर्भवती बिलकिस बानो के साथ 11 लोगों ने सामूहिक बलात्कार भी किया। बाद में इस पर मुकद्दमा चला मुंबई की विशेष अदालत में सुनवाई हुई। सभी ग्यारह लोगों को उम्र कैद की सजा सुनाई गई। उच्च न्यायालय में इसकी अपील दायर हुई और हाईकोर्ट ने भी विशेष अदालत के फैसले को बहाल रखा। इन दोषियों को मृत्युदण्ड की सजा क्यों नहीं हुई इसका जवाब आज तक नहीं आया है और यही इनके प्रभावशाली होने का प्रमाण है। अब स्वर्ण जयंती के अमृत काल में गुजरात सरकार ने इन्हें रिहाई का तोहफा दिया। संगठन से जुड़े मंचों ने उन्हें भगवा पटके पहनाकर और माथे पर तिलक लगाकर सम्मानित किया। पूरे देश ने यह देखा है। यह लोग इतने बड़े जघन्य अपराध के दोषी थे जिन्हें अदालत ने सजा दी थी। अब ऐसे लोगों की रिहाई जहां कानून के कमजोर पक्षों पर कई गंभीर सवाल खड़े कर रही है वहीं पर इनका इस तरह से सम्मानित किया जाना समाज के एक वर्ग की मानसिकता और नीयत पर जो सवाल खड़े कर जाती है उसके परिणाम आने वाले समय के लिये घातक होंगे। क्योंकि इस तरह के आचरण से विदेशों में भी सरकार और देश की छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। जब विश्व गुरू बनने का दावा करने वाले समाज की यह तस्वीर विश्व के सामने जायेगी कि यहां तो जितना बड़ा अपराध उतना ही बड़ा उसका महिमा मण्डन और इनसे भी बड़ी सरकार की चुप्पी तो सारा परिदृश्य ही बदल जाता है। प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक संघ परिवार सहित किसी ने भी ऐसे आचरण की निंदा नहीं की है। केवल पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने इसे देश का दुर्भाग्य कहा हैं इन्हीं गुजरात दंगों को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री स्व.अटल बिहारी बाजपेयी ने यहां राजधर्म की अनुपालना न होने की बात की थी। परन्तु पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट ने जाकिया जाफरी की याचिका को यह कहकर खारिज कर दिया था कि इन दंगों में प्रायोजित जैसा कुछ नहीं है और इस फैसले के बाद जिस तरह से यह मामला उठाने वालों के खिलाफ कारवायी हुयी क्या उस पर इस आचरण के बाद स्वतः ही प्रश्नचिन्ह नहीं लग जाता है? क्या इस परिदृश्य में आज सीबीआई, ई डी और अन्य एजेंसियां जो सक्रियता दिखा रही है उन पर आसानी से आम आदमी का विश्वास बन पायेगा? क्या सर्वाेच्च न्यायालय ऐसे महिमा मण्डन का स्वतः संज्ञान लेकर कुछ कारवाई का साहस दिखायेगा? क्या इसी पृष्ठभूमि में वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल यह कहने को बाध्य नहीं हुये कि अब तो सुप्रीम कोर्ट से भी उम्मीद नहीं रही? क्योंकि अब जांच एजेंसियों का राजनीतिक उपयोग होने के खुले आरोप लगने लग पड़े हैं। जांच एजेंसियों और न्यायिक व्यवस्था पर से उठता विश्वास कालान्तर में लोकतंत्र के लिए बहुत घातक प्रमाणित होगा यह तय है।
लेकिन इस परिदृश्य में महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि प्रधानमंत्री को यह कहने की बाध्यता क्यों आयी? क्या प्रधानमंत्री को केजरीवाल के मुफ्ती मॉडल की बढ़ती लोकप्रियता से डर लगने लगा है। जबकि मुफ्ती के सही मायनांे में जनक प्रधानमंत्री और उनकी भाजपा है। क्या प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में बांटा गया 18.50 लाख करोड कर्ज रेवड़ी बांटना नहीं है? क्या सरकारी बैंकों का आठ लाख करोड़ का एन पी ए वहे खाते में डालना मुफ्ती नहीं है। किसान सम्मान निधि और उज्जवला योजनाएं मुफ्ती नहीं हैं। मुफ्त बिजली, पानी और बसों में महिलाओं को आधे किराये में छूट देना सब मुफ्ती में आता है। इस मुफ्ती की कीमत महंगाई बढ़ाकर और कर्ज लेेकर पूरी की जाती है। यह सारा कुछ 2014 में सत्ता पाने और उसके बाद सत्ता में बने रहने के लिये किया गया। जिसे अब केजरीवाल और अन्य ने भी सत्ता का मूल मन्त्र मान लिया है। इसलिये इसमें किसी एक को दोष देना संभव नहीं होगा।
सत्ता में बने रहने के लिये बांटी गयी इन रेवडी़यों का काला पक्ष अब सामने आने वाला है और इसी की चिन्ता में प्रधानमंत्री को यह चेतावनी देने पर बाध्य किया है। क्योंकि आर बी आई देश के तेरह राज्यों की सूची जारी कर चुका है जिनकी स्थिति कभी भी श्रीलंका जैसी हो सकती है। आर बी आई से पहले वरिष्ठ नौकर शाह प्रधानमंत्री के साथ एक बैठक में यही सब कुछ कह चुके हैं। इन लोगों ने जो कुछ कहा है वह सब आई एम एफ की अक्तूबर 2021 में आयी रिपोर्ट पर आधारित है। आई एम एफ की इस रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि सरकार द्वारा लिया गया कर्ज जी डी पी का 90.6 प्रतिशत हो गया है। इस कर्ज में जब सरकारी कंपनीयों द्वारा लिया गया कर्ज भी शामिल किया जायेगा तो इसका आंकड़ा 100 प्रतिशत से भी बढ़ जाता है। आई एम एफ की रिपोर्ट का ही असर है कि विदेशी निवेशकों ने शेयर बाजार से अपना निवेश निकालना शुरू कर दिया। इसी के कारण डॉलर के मुकाबले रुपए में गिरावट आयी। खाद्य पदार्थों पर जी एस टी लगाना पड़ा है। देश का विदेशी मुद्रा भण्डार भी लगातार कम होता जा रहा है क्योंकि निर्यात के मुकाबले आयात बहुत ज्यादा है। अगले वित्त वर्ष में जब 265 अरब डॉलर का कर्ज वापिस करना पड़ेगा तब सारी वित्तीय व्यवस्था एकदम बिगड़ जायेगी यह तय है। तब जो महंगाई और बेरोजगारी सामने आयेगी तब उसमें समर्थक और विरोधी दोनों एक साथ और एक बराबर झेलेंगे।
द्रौपदी मुर्मू देश की पन्द्रहवीं राष्ट्रपति बनी है। आजाद भारत में पैदा हुई और आदिवासी समाज से आने वाली मुर्मू का प्रारम्भिक जीवन बहुत संघर्षपूर्ण रहा है। पति और बेटों की मौत के बाद एक लिपिक के रूप में अपना जीवन शुरू करके शिक्षक बनी और वहीं से राजनीतिक शुरुआत करके इस पद तक पहुंची हैं। यह आदिवासी होना ही इस चयन का आधार बना है। क्योंकि देश में 10 करोड़ आदिवासी हैं और बहुत सारे राज्यों में जीत का गणित आदिवासियों के पास है। इसी गणित के कारण झारखण्ड सरकार ने राजनीति में कांग्रेस के साथ होने के बावजूद राष्ट्रपति के लिए आदिवासी मुर्मू को अपना समर्थन दिया। पश्चिम बंगाल में भी करीब सात प्रतिश्त आदिवासी हैं इसी के कारण ममता को यह बयान देना पड़ा था कि यदि एन.डी.ए. ने मुर्मू की पूर्व जानकारी दे दी होती तो टी.एम.सी. भी द्रौपदी मुर्मू का समर्थन कर देती। पिछली बार जब एन.डी.ए. ने रामनाथ कोविन्द को उम्मीदवार बनाया था तब दलित वर्ग से ताल्लुक रखने का तर्क दिया गया था। इस तरह के तर्कों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अब राष्ट्रपति जैसे सर्वाेच्च पद के लिये भी संविधान की विशेषज्ञता जैसी अपेक्षाओं की उम्मीद करना असंभव होगा। जिस दल के पास सत्ता होगी अब राष्ट्रपति भी उसी दल की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध एक बड़ा कार्यकर्ता होगा। दल के नेता के प्रति निष्ठा ही चयन का आधार होगी।
इस समय देश की आर्थिक स्थिति बहुत ही संकट से गुजर रही है। सरकार को साधारण खाद्य सामग्री पर भी जीएसटी लगाना पड़ गया है। रुपये की डॉलर के मुकाबले गिरावट लगातार जारी है। संसद में महंगाई और बेरोजगारी पर लगातार हंगामा हो रहा है। राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ जांच एजेंसियों का इस्तेमाल अब आम आदमी में भी चर्चा का विषय बनता जा रहा है। सत्तारूढ़ भाजपा मुस्लिम मुक्त हो चुकी है। संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक भाजपा में एक भी मुस्लिम सदस्य नहीं है। सर्वाेच्च न्यायालय के जजों तक को सोशल मीडिया में निशाना बनाया जा रहा है। नई शिक्षा नीति में मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाने की बात हो रही है। इस परिदृश्य में भी सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास के दावे किये जा रहे हैं। यशवन्त सिन्हा लगातार यह सवाल जनता के सामने रख रहे थे और द्रौपदी मुर्मू लगातार चुप्पी साधे चल रही थी। आदिवासी समाज के सौ से अधिक लोग कैसे बिना कसूर के पांच वर्ष जेल में रहे हैं यह सच भी सामने आ गया है। ऐसे में आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि बाबासाहेब अंबेडकर के संविधान की रक्षा मुख्य मुद्दा बनेगी या मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाना।