Friday, 19 September 2025
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अमृत काल में विश्वास का टूटना

आजादी के स्वर्णिम जयन्ती को अमृत काल की संज्ञा दी है हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री ने। इस अमृत काल में स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर प्रधानमंत्री के गुजरात में ही बिलकिस बानो के दोषीयों को न केवल रिहाई का तोहफा दिया गया बल्कि उन्हें एक तरह से सम्मानित भी किया गया। 2002 में जब गुजरात में गोधरा काण्ड घटा था तब उसके बाद राज्य में दंगे भड़क उठे थे। इन्ही दंगों में दंगाईयों ने बिलकिस बानो के परिवार के साथ व्यस्क सदस्यों की हत्या करने के बाद उसकी गोद से बच्चे को छीन कर उसे भी मौत के घाट उतार दिया। दंगाई इतने पर ही नहीं रुके बल्कि 5 माह की गर्भवती बिलकिस बानो के साथ 11 लोगों ने सामूहिक बलात्कार भी किया। बाद में इस पर मुकद्दमा चला मुंबई की विशेष अदालत में सुनवाई हुई। सभी ग्यारह लोगों को उम्र कैद की सजा सुनाई गई। उच्च न्यायालय में इसकी अपील दायर हुई और हाईकोर्ट ने भी विशेष अदालत के फैसले को बहाल रखा। इन दोषियों को मृत्युदण्ड की सजा क्यों नहीं हुई इसका जवाब आज तक नहीं आया है और यही इनके प्रभावशाली होने का प्रमाण है। अब स्वर्ण जयंती के अमृत काल में गुजरात सरकार ने इन्हें रिहाई का तोहफा दिया। संगठन से जुड़े मंचों ने उन्हें भगवा पटके पहनाकर और माथे पर तिलक लगाकर सम्मानित किया। पूरे देश ने यह देखा है। यह लोग इतने बड़े जघन्य अपराध के दोषी थे जिन्हें अदालत ने सजा दी थी। अब ऐसे लोगों की रिहाई जहां कानून के कमजोर पक्षों पर कई गंभीर सवाल खड़े कर रही है वहीं पर इनका इस तरह से सम्मानित किया जाना समाज के एक वर्ग की मानसिकता और नीयत पर जो सवाल खड़े कर जाती है उसके परिणाम आने वाले समय के लिये घातक होंगे। क्योंकि इस तरह के आचरण से विदेशों में भी सरकार और देश की छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। जब विश्व गुरू बनने का दावा करने वाले समाज की यह तस्वीर विश्व के सामने जायेगी कि यहां तो जितना बड़ा अपराध उतना ही बड़ा उसका महिमा मण्डन और इनसे भी बड़ी सरकार की चुप्पी तो सारा परिदृश्य ही बदल जाता है। प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक संघ परिवार सहित किसी ने भी ऐसे आचरण की निंदा नहीं की है। केवल पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने इसे देश का दुर्भाग्य कहा हैं इन्हीं गुजरात दंगों को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री स्व.अटल बिहारी बाजपेयी ने यहां राजधर्म की अनुपालना न होने की बात की थी। परन्तु पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट ने जाकिया जाफरी की याचिका को यह कहकर खारिज कर दिया था कि इन दंगों में प्रायोजित जैसा कुछ नहीं है और इस फैसले के बाद जिस तरह से यह मामला उठाने वालों के खिलाफ कारवायी हुयी क्या उस पर इस आचरण के बाद स्वतः ही प्रश्नचिन्ह नहीं लग जाता है? क्या इस परिदृश्य में आज सीबीआई, ई डी और अन्य एजेंसियां जो सक्रियता दिखा रही है उन पर आसानी से आम आदमी का विश्वास बन पायेगा? क्या सर्वाेच्च न्यायालय ऐसे महिमा मण्डन का स्वतः संज्ञान लेकर कुछ कारवाई का साहस दिखायेगा? क्या इसी पृष्ठभूमि में वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल यह कहने को बाध्य नहीं हुये कि अब तो सुप्रीम कोर्ट से भी उम्मीद नहीं रही? क्योंकि अब जांच एजेंसियों का राजनीतिक उपयोग होने के खुले आरोप लगने लग पड़े हैं। जांच एजेंसियों और न्यायिक व्यवस्था पर से उठता विश्वास कालान्तर में लोकतंत्र के लिए बहुत घातक प्रमाणित होगा यह तय है।

आजादी की स्वर्ण जयन्ती-कुछ बिन्दु...

देश को आजाद हुए पचहत्तर वर्ष हो गये हैं इसलिए इसे स्वर्ण जयन्ती कहा जा रहा है। लेकिन इसी के साथ इसे अमृत काल की संज्ञा भी दी जा रही है। समय के गणित से तो यह अवसर स्वर्ण जयन्ती बन जाता है लेकिन इसे अमृत काल क्यों कहा जा रहा है यह समझना कुछ कठिन हो रहा है। इसलिये इस कालखण्ड पर एक मोटी नजर डालना अवश्यक हो जाता है। देश को आजादी अंग्रेजों के तीन सौ वर्ष के शासनकाल से 1947 में मिली। अंग्रेज व्यापारी बनकर देश में आये और शासक बन कर गये। व्यापारी से शासक बन जाना अपने में ही बहुत कुछ कह जाता है। इससे यह भी समझ आता है कि व्यापारी की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण हो जाती है। तीन सौ से अधिक रियासतों में बंटे देश में एक व्यापारी कैसे शासक होने तक पहुंच गया यह अपने में ही एक बड़ा सवाल बन जाता है। इसी सवाल के परिपेक्ष में अंग्रेज के शासन का ‘‘मूल मन्त्र फूट डालो और राज करो’’ इस मन्त्र को समझने और इसका विश्लेषण करने पर बाध्य कर देता है। करोड़ों की जनसंख्या और सैकड़ों राजाओं वाले देश में एक व्यापारी तीन सौ वर्ष तक राज कर जाये यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि संख्या बल के रूप में तो अंग्रेज बहुत ही नगण्य थे। फिर उन्होंने किसमें फूट डाली। स्वभाविक है कि इस फुट का आधार यहीं के लोगों को बनाया गया। एक राजा को दूसरे से श्रेष्ठ बताया गया। एक धर्म और जाति को दूसरे धर्म और जाति से श्रेष्ठ बताया गया। इसी श्रेष्ठता को प्रमाणित करने के लिये सब में आपसी वैमनस्य बढ़ता चला गया। इसके सैकड़ों प्रमाण इन तीन सौ वर्षों के इतिहास में उपलब्ध है। इस श्रेष्ठता के अहंकार को सामान्य करने में भी बहुत लोगों का बहुत समय लगा है और इसके भी सैकड़ों प्रमाण उपलब्ध है। अंग्रेजी शासन का तीन सौ वर्ष का इतिहास इस तथ्य से भरा पड़ा है कि जाति-धर्म और भाषा की श्रेष्ठता की होड़ समाज में ऐसी दूरियां खड़ी कर देती हैं जिन्हें पारना आसान नहीं होता है।  इसी तीन सौ वर्ष के इतिहास में यह भी मौजूद है कि जब अंग्रेज को यह लगने लगा कि यह जाति, धर्म और भाषा की श्रेष्ठता का हथियार ज्यादा देर तक नहीं चल पायेगा तब उसने इन्हीं आधारों पर राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को उभार दिया और राजनीतिक संगठन खड़े करवा दिये। इन संगठनों ने आजादी की लड़ाई के बीच ही अपने लिये अलग-अलग राज्यों की मांग तक कर डाली कुछ संगठनों के कार्यकर्ता तो यहां तक चले गये कि वह स्वतंत्रता सेनानियों के विरुद्ध अंग्रेज के मुखबिर तक बन गये। देश का विभाजन इसी सब का परिणाम है। धार्मिक श्रेष्ठता और उससे उपजी राजनीतिक महत्वकांक्षा ने मिलकर पाकिस्तान का सृजन किया है। इस परिदृश्य में आजाद हुये देश की नई सरकार के सामने चुनौतियों का पहाड़ था। नया संविधान बनाया जाना था। रियासतों को देश में मिलाना था। बहुजातीय, बहुभाषी और बहुधर्मी देश में यह सब आसान नहीं था। क्योंकि देश का बंटवारा ही धर्म के आधार पर हुआ था। इसलिये इस बहुविधता को सामने रखते हुये देश और सरकार को धर्मनिरपेक्ष रखा गया। संविधान सभा में बहुमत से यह फैसला लिया गया था। इसके बाद देश के विकास की ओर कदम बढ़ाया गया। देश की जनसंख्या का एक बड़ा भाग अति पिछड़ा था इसे मुख्यधारा में लाने के लिये उसकी पहचान करने और उपाय सुलझाने के लिये काका कालेलकर की अध्यक्षता ने एक कमेटी बनाई गयी जिसने आरक्षण का सुझाव दिया। इसी के साथ भू-सुधारों का मुद्दा आया। बड़ी जमीदारी प्रथा को खत्म करने के लिये कानून बने। फिर बैंकों के राष्ट्रीयकरण के लिये कदम उठाये गये। संसद में कानून बनाया गया। जब यह सारे उपाय किये जा रहे थे तभी एक वर्ग इसका विरोध करने पर आ गया। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद बड़े बहुमत से बनी सरकार के मुिखया के चुनाव को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी। चुनाव रद्द हो गया और देश में आपातकाल की नौबत आ गयी। 1977 में जनता पार्टी की सरकार ऐतिहासिक बहुमत से बनी। लेकिन 1980 में यह सरकार दोहरी सदस्यता के नाम पर टूट गयी। जिस दोहरी सदस्यता के कारण सरकार टूटी उसका खुला रूप मण्डल बनाम कमण्डल आंदोलन में सामने आया। आज यही रूप डॉ. मोहन भागवत के नाम से कथित रूप से लिखे गये संविधान के वायरल रूप में सामने आया है। लेकिन सरकार से लेकर संघ तक किसी ने भी इसका खण्डन नहीं किया है। सारे आर्थिक संसाधन योजनाबद्ध तरीके से प्राइवेट सेक्टर के हवाले किये जा रहे हैं। बैंक पुनः निजी क्षेत्र को सौंपने की तैयारी है। आम आदमी आज भी बीमारी का इलाज ताली थाली बजाने में ही ढूंड रहा है। नई शिक्षा नीति की प्रस्तावना में ही कह दिया गया है कि हमारे बच्चे खाड़ी के देशों में बतौर हेल्पर समायोजित हो जायेंगे। अच्छी शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही है। सतारुढ़ दल कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के बाद सारे क्षेत्रीय छोटे दलों के खत्म हो जाने की भविष्यवाणी का चुका है। लेकिन इस सब के बाद भी यह काल अमृत काल कहा जा रहा है और हम स्वीकार कर रहे हैं। पाठको और देशवासियों को स्वर्ण जयन्ती और अमृत काल की शुभकामनाओं के साथ यह आग्रह रहेगा कि इन बिन्दुआंे पर कुछ चिन्तन करने का प्रयास अवश्य करें।

बढ़ती महंगाई बेरोजगारी और गिरती अर्थव्यवस्था में....

पिछले दिनों जब सरकार ने सामान्य खाद्य सामग्री पर भी जीएसटी लगा दिया था तब से महंगाई और बेरोजगारी देश में एक प्रमुख मुद्दा बनकर चर्चा का केंद्र बन गयी है। जीएसटी के फैसले के बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुफ्ती योजनाओं पर चिंता व्यक्त की है। बल्कि प्रधानमंत्री के बाद सर्वाेच्च न्यायालय ने भी इस पर चिंता व्यक्त करते हुए सरकार चुनाव आयोग नीति आयोग और राजनीतिक दलों से भी उनकी राय पूछी है। संसद में महंगाई बेरोजगारी और जांच एजेंसियों के बढ़ते दुरुपयोग पर विपक्ष लगातार बहस की मांग करता आ रहा है। लेकिन सरकार बहस को टालती आ रही है। सर्वाेच्च न्यायालय की चिंता के बाद संसद में भाजपा के सुशील मोदी मुफ्तखोरी की योजना पर एक प्रस्ताव लेकर आये और इस प्रस्ताव में जिस तरह से प्रतिक्रिया भाजपा सांसद वरुण गांधी ने ही व्यक्त की है वही अपने में बहुत कुछ कह जाती है। वरुण का यह सवाल कि क्या चर्चा करने वाले सबसे पहले अपनी ही सुविधाओं में कमी करने को तैयार होंगे। विधायकों सांसदों को मिलने वाली पैंशन और अन्य सुविधाएं एक अरसे से चर्चा का विषय बनी हुई हैं। विधानसभाओं और संसद को अपराधियों से मुक्त करने का प्रधानमंत्री का वायदा अभी तक अमली शक्ल नहीं ले पाया है। जबकि आज आर बी आई कर्ज की ब्याज दरें बढ़ाने को बाध्य हो गया है। आज स्थिति उस मोड़ तक आ चुकी है जहां हर समझदार व्यक्ति यह आशंका व्यक्त करने लग गया है कि देश के हालात कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। वरिष्ठ नौकरशाह प्रधानमंत्री को इस बारे में सचेत कर चुके हैं। आरबीआई उन राज्यों की सूची जारी कर चुका है जो श्रीलंका होने की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। डॉलर के मुकाबले रुपये की लगातार गिरावट के कारण विदेशी निवेशक अपना निवेश बाजार से निकालते जा रहे हैं। लेकिन सरकार तथ्यों के विपरीत जनता को अर्थव्यवस्था के प्रति आश्वस्त करने का जितना प्रयास कर रही है उसी अनुपात में इस पर सवाल पूछने वाले सांसदों का निलंबन और राजनीतिक दलों के खिलाफ जांच एजेंसियों का इस्तेमाल बढ़ाती जा रही है। जांच एजेंसियों पर अपने विवेक का इस्तेमाल करने की बजाये सरकार के हाथों खिलौना बनने का आरोप ज्यादा लग रहा है। क्योंकि ईडी की जांच उन्हीं लोगों के खिलाफ हो रही है जो सरकार से सवाल पूछने का साहस कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के चुनावों में यह सामने आ चुका है कि एक जैन के यहां छापा मारकर कैस की बरामदगी जब हुई और यह पता चला कि यह जैन तो भाजपा का समर्थक है तो इस मामले को आयकर का मामला बताकर रफा-दफा कर दिया गया। उसके बाद सपा के समर्थक एक अन्य जैन के यहां छापेमारी की गयी और मामला बनाया गया। यही स्थिति आज हेराल्ड मामले में हो रही है। एजे सैक्शन 25 के तहत पंजीकृत कंपनी है और इस नाते ईडी के दायरे से बाहर है। विधि विशेषज्ञ लगातार यह कह रहे हैं लेकिन ई डी इसका जवाब ही नहीं दे रही है। ई डी ने जब यह सवाल पूछा कि आप हेराल्ड को जिंदा क्यों करना चाहते हैं तब यह सारा कुछ स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि सरकार को निष्पक्ष मीडिया मंच के आने से कष्ट हो रहा है। ऐसे दर्जनों मामले हैं जिन से यह प्रमाणित हो जाता है कि ईडी और दूसरी जांच एजेंसियां राज्यों से लेकर केंद्र तक सरकार के हाथों में कठपुतली बनकर काम कर रही हैं। इस परिदृश्य में अहम सवाल हो जाता है कि सरकार ऐसा कर क्यों रही है। इस समय वित्तीय स्थिति के कुछ आंकड़ों को यदि ध्यान में रखा जाये तो इसे समझना आसान हो जायेगा। बैंकों में आम आदमी के हर तरह के जमा पर 2014 के बाद से लगातार ब्याज दरें क्यों कम होती जा रही हैं? 2014 में जो विदेशी कर्ज 54 हजार करोड़ था वह अप्रैल 2022 तक 1,30,000 करोड़ कैसे हो गया? 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले 18.50 लाख करोड़ प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में क्यों बांटा गया? इसके लाभार्थी कौन हैं? इसमें से क्या कोई पैसा वापस आया है? इसी संसद सत्र में यह जानकारी आयी है कि बैंकों का दस लाख करोड़ राइट ऑफ किया गया? एनपीए के लिये बैड बैंक बनाने की नौबत क्यों आयी? आज 5G स्पैक्ट्रम रिजर्व कीमत से भी कम पर क्यों बेच दिया गया? यह कुछ सामान्य और मोटे स्वाल हैं जिन पर निष्पक्षता के साथ विचार करने पर देश की वित्तीय स्थिति और आम आदमी पर उसका महंगाई तथा बेरोजगारी के माध्यम से पड़ने वाला प्रभाव समझ आ जायेगा। आम आदमी को जिस दिन यह समझ आ जायेगा तब उसके पास सड़क पर निकलने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जायेगा। इसलिये इस सब से बचने के लिये जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के अतिरिक्त और कोई साधन सरकार के पास नहीं बचा है।

चौकाने वाली है आई एम एफ की रिपोर्ट

संसद का वर्तमान सत्र अब तक जिस तरह के हंगामे में गुजर गया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार अपने संख्या बल के सहारे प्रमुख मुद्दों पर बहस से बचना चाहती है। जितने विपक्षी सांसदों का निलंबन अब तक हो चुका है वह भी इसी दिशा का एक प्रमाण है। महंगाई और बेरोजगारी से जनता त्रस्त है। सरकार सेना जैसे संस्थान में भी स्थायी नौकरी दे पाने की स्थिति में नहीं रह गयी है यह कड़वा सच अग्निवीर योजना के माध्यम से सामने आ चुका है। विपक्ष की सरकारों को जांच एजेंसियों के माध्यम से तोड़ा जा रहा है। विपक्ष संसद में इन्हीं सब मूद्दों पर बहस उठाना चाहता है और सरकार हर कीमत पर इस बहस से बचना चाहती है। इसमें कौन कितना सफल रहता है यह आने वाले दिनों में स्पष्ट हो जायेगा। लेकिन संसद के इस सत्र से पहले प्रधानमंत्री ने मुफ्त खोरी की योजनाओं पर गंभीर चिंता जताई थी। यह मुद्दा सर्वाेच्च न्यायालय में भी पहुंचा हुआ है। सर्वाेच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से इस पर जवाब मांगा था। चुनाव आयोग ने इसमें कुछ कर पाने में असमर्थता व्यक्त कर दी है। शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से इस संबंध में कोई योजना बनाने को कहा है और इसमें वित्त आयोग को भी शामिल करने को कहा है। केंद्र सरकार इसमें क्या करती है यह देखना दिलचस्प होगा।
लेकिन इस परिदृश्य में महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि प्रधानमंत्री को यह कहने की बाध्यता क्यों आयी? क्या प्रधानमंत्री को केजरीवाल के मुफ्ती मॉडल की बढ़ती लोकप्रियता से डर लगने लगा है। जबकि मुफ्ती के सही मायनांे में जनक प्रधानमंत्री और उनकी भाजपा है। क्या प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में बांटा गया 18.50 लाख करोड कर्ज रेवड़ी बांटना नहीं है? क्या सरकारी बैंकों का आठ लाख करोड़ का एन पी ए वहे खाते में डालना मुफ्ती नहीं है। किसान सम्मान निधि और उज्जवला योजनाएं मुफ्ती नहीं हैं। मुफ्त बिजली, पानी और बसों में महिलाओं को आधे किराये में छूट देना सब मुफ्ती में आता है। इस मुफ्ती की कीमत महंगाई बढ़ाकर और कर्ज लेेकर पूरी की जाती है। यह सारा कुछ 2014 में सत्ता पाने और उसके बाद सत्ता में बने रहने के लिये किया गया। जिसे अब केजरीवाल और अन्य ने भी सत्ता का मूल मन्त्र मान लिया है। इसलिये इसमें किसी एक को दोष देना संभव नहीं होगा।
सत्ता में बने रहने के लिये बांटी गयी इन रेवडी़यों का काला पक्ष अब सामने आने वाला है और इसी की चिन्ता में प्रधानमंत्री को यह चेतावनी देने पर बाध्य किया है। क्योंकि आर बी आई देश के तेरह राज्यों की सूची जारी कर चुका है जिनकी स्थिति कभी भी श्रीलंका जैसी हो सकती है। आर बी आई से पहले वरिष्ठ नौकर शाह प्रधानमंत्री के साथ एक बैठक में यही सब कुछ कह चुके हैं। इन लोगों ने जो कुछ कहा है वह सब आई एम एफ की अक्तूबर 2021 में आयी रिपोर्ट पर आधारित है। आई एम एफ की इस रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि सरकार द्वारा लिया गया कर्ज जी डी पी का 90.6 प्रतिशत हो गया है। इस कर्ज में जब सरकारी कंपनीयों द्वारा लिया गया कर्ज भी शामिल किया जायेगा तो इसका आंकड़ा 100 प्रतिशत से भी बढ़ जाता है। आई एम एफ की रिपोर्ट का ही असर है कि विदेशी निवेशकों ने शेयर बाजार से अपना निवेश निकालना शुरू कर दिया। इसी के कारण डॉलर के मुकाबले रुपए में गिरावट आयी। खाद्य पदार्थों पर जी एस टी लगाना पड़ा है। देश का विदेशी मुद्रा भण्डार भी लगातार कम होता जा रहा है क्योंकि निर्यात के मुकाबले आयात बहुत ज्यादा है। अगले वित्त वर्ष में जब 265 अरब डॉलर का कर्ज वापिस करना पड़ेगा तब सारी वित्तीय व्यवस्था एकदम बिगड़ जायेगी यह तय है। तब जो महंगाई और बेरोजगारी सामने आयेगी तब उसमें समर्थक और विरोधी दोनों एक साथ और एक बराबर झेलेंगे।

महामहिम द्रौपदी मुर्मू और कुछ संभावित सवाल

राष्ट्रपति देश का संविधान प्रदत्त सर्वाेच्च पद है। पन्द्रहवें राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मू इस पद के लिए निर्वाचित हुई हैं। उनकी जीत सुनिश्चित थी क्योंकि वह एन.डी.ए. की उम्मीदवार थी। केन्द्र में पिछले आठ वर्षों से एन.डी.ए. की सरकार है और अठारह राज्यों में भी भाजपा या एन.डी.ए. की सरकारें हैं। इस गणित को सामने रखते हुये यह सोचना/मानना भी अपने आप को ही झुटलाने जैसा होता कि इसके परिणाम कुछ भिन्न भी हो सकते थे। इसलिये इस जीत के लिये जहां आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू बधाई की पात्र हैं वहीं पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इसका श्रेय जाता है जिन्होंने मर्मू को उम्मीदवार बनाया। द्रौपदी मुर्मू की जीत जितनी सुनिश्चित थी उसी अनुपात में इस चुनाव में विपक्षी उम्मीदवार यशवन्त सिन्हा ने जितने सवाल देश के सामने उछाले हैं वह शायद इस जीत से भी ज्यादा बड़े हो जाते हैं। यशवन्त सिन्हा पूरे चुनाव प्रचार के दौरान यह सवाल देश के सामने अपनी पत्रकार वार्ताओं के माध्यम से रखते आये हैं जबकि द्रौपदी मुर्मू ने एक बार भी देश के सामने इन सवालों पर अपना मुंह नहीं खोला। भाजपा/एन.डी.ए. में सोचने और बोलने का अधिकार केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही पास है और मुर्मू ने भी इस प्रथा का ईमानदारी से निर्वहन किया है।
द्रौपदी मुर्मू देश की पन्द्रहवीं राष्ट्रपति बनी है। आजाद भारत में पैदा हुई और आदिवासी समाज से आने वाली मुर्मू का प्रारम्भिक जीवन बहुत संघर्षपूर्ण रहा है। पति और बेटों की मौत के बाद एक लिपिक के रूप में अपना जीवन शुरू करके शिक्षक बनी और वहीं से राजनीतिक शुरुआत करके इस पद तक पहुंची हैं। यह आदिवासी होना ही इस चयन का आधार बना है। क्योंकि देश में 10 करोड़ आदिवासी हैं और बहुत सारे राज्यों में जीत का गणित आदिवासियों के पास है। इसी गणित के कारण झारखण्ड सरकार ने राजनीति में कांग्रेस के साथ होने के बावजूद राष्ट्रपति के लिए आदिवासी मुर्मू को अपना समर्थन दिया। पश्चिम बंगाल में भी करीब सात प्रतिश्त आदिवासी हैं इसी के कारण ममता को यह बयान देना पड़ा था कि यदि एन.डी.ए. ने मुर्मू की पूर्व जानकारी दे दी होती तो टी.एम.सी. भी द्रौपदी मुर्मू का समर्थन कर देती। पिछली बार जब एन.डी.ए. ने रामनाथ कोविन्द को उम्मीदवार बनाया था तब दलित वर्ग से ताल्लुक रखने का तर्क दिया गया था। इस तरह के तर्कों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अब राष्ट्रपति जैसे सर्वाेच्च पद के लिये भी संविधान की विशेषज्ञता जैसी अपेक्षाओं की उम्मीद करना असंभव होगा। जिस दल के पास सत्ता होगी अब राष्ट्रपति भी उसी दल की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध एक बड़ा कार्यकर्ता होगा। दल के नेता के प्रति निष्ठा ही चयन का आधार होगी।
इस समय देश की आर्थिक स्थिति बहुत ही संकट से गुजर रही है। सरकार को साधारण खाद्य सामग्री पर भी जीएसटी लगाना पड़ गया है। रुपये की डॉलर के मुकाबले गिरावट लगातार जारी है। संसद में महंगाई और बेरोजगारी पर लगातार हंगामा हो रहा है। राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ जांच एजेंसियों का इस्तेमाल अब आम आदमी में भी चर्चा का विषय बनता जा रहा है। सत्तारूढ़ भाजपा मुस्लिम मुक्त हो चुकी है। संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक भाजपा में एक भी मुस्लिम सदस्य नहीं है। सर्वाेच्च न्यायालय के जजों तक को सोशल मीडिया में निशाना बनाया जा रहा है। नई शिक्षा नीति में मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाने की बात हो रही है। इस परिदृश्य में भी सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास के दावे किये जा रहे हैं। यशवन्त सिन्हा लगातार यह सवाल जनता के सामने रख रहे थे और द्रौपदी मुर्मू लगातार चुप्पी साधे चल रही थी। आदिवासी समाज के सौ से अधिक लोग कैसे बिना कसूर के पांच वर्ष जेल में रहे हैं यह सच भी सामने आ गया है। ऐसे में आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि बाबासाहेब अंबेडकर के संविधान की रक्षा मुख्य मुद्दा बनेगी या मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाना।

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