Friday, 19 September 2025
Blue Red Green
Home सम्पादकीय

ShareThis for Joomla!

क्या पुलवामा का विकल्प युद्ध ही है

पुलवामा आतंकी हमले के बाद प्रधानमंत्री ने देश को विश्वास दिलाया है कि शहीदों के खून का बदला लिया जायेगा। इसी के साथ यह भी स्पष्ट किया है कि सेना को इस संद्धर्भ में फैसला लेने का पूरा अधिकार दे दिया है। इस हमले का जवाब कब कहां और कैसे दिया जायेगा यह सब सेना तय करेगी। प्रधानमन्त्री के इस आश्वासन के बाद देशभर में उभरी प्रतिक्रियाओं में भी यही सामने आया है कि देश की जनता भी इसमें कोई निर्णायक कदम चाहती है। देश की यह प्रतिक्रिया स्वभाविक है क्योंकि इन्हीं घटनाओं में हमारेे सैंकड़ों सैनिक शहीद हो चुके हैं इन सैंकड़ों घरों के चिराग बुझे हैं। हर घटना के बाद ऐसी ही प्रतिक्रियाएं और ऐसे ही दावे सामने आते रहे हैं। सर्जिकल स्ट्राईक तक की गई। नोट बन्दी तक का देश ने स्वागत किया क्योंकि इससे आतंकवाद खत्म हो जायेगा यह कहा गया था। लेकिन आज पुलवामा ने इन सारे दावों पर नये सिरे से प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। हर घटना के बाद पाकिस्तान को गाली देकर जनता के आक्रोश को शांत किया जाता रहा है। हर बार हर आतंकी घटना के पीछे पाकिस्तान का हाथ होने की बात की जाती रही है और पाकिस्तान हर बार इन आरोपों के ठोस सबूत मांगता रहा है। आज भी यही हो रहा है। यह सबूत हम मित्र देशों के साथ सांझा करने को तैयार हैं लेकिन पाकिस्तान को देने के लिये तैयार नही है। यह कैसी कूटनीति है? क्या हम मित्र देशों को दिये जाने वाले सबूत पाकिस्तान को भी साथ ही देकर अन्र्तराष्ट्रीय समुदाय में अपना पक्ष और पुख्ता नही कर सकते हैं? क्योंकि पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री यही कह रहे हैं कि सबूत दो तो हम करवाई करेंगे और उन्होने जमात-उद-दावा तथा फलह-ए-इन्सानियत फाऊंडेशन के खिलाफ कारवाई शुरू कर दी है। इन संगठनों के पाकिस्तान में 300 से ज्यादा मदरसे स्कलू, अस्पताल, एम्बुलैन्स सेवा-प्रकाशन संस्थान और 50,000 स्वयं सेवक कहे जाते हैं। यदि सही में पाकिस्तान ने इन संगठनों के खिलाफ कोई ठोस कदम उठाये हैं तो अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में उसकी बात भी सुनी जायेगी। ऐसे में क्या यह सही नही होगा कि भारत सरकार पाकिस्तान के इन दावों की पड़ताल करके इसका सच देश और दुनिया के सामने रखे। क्योंकि युद्ध एक भयानक विकल्प है। न्यूर्याक के तीन विश्वविद्यालयों के एक अध्ययन की जो रिपोर्ट न्यूर्याक टाईम्स के माध्यम से सामने आयी है उसमें एक ही दिन में करोड़ो लोगों के मरने की आशंका जताई गयी है। रिपोर्ट के मुताबिक यदि युद्ध होता है तो उसके परिणाम सदियों तक भुगतने पड़ेंगे। क्योंकि दोनों देशों के पास परमाणु हथियार है और पाकिस्तानी सेना पर जिस ढंग से वहां के आतंकी संगठनों को सहयोग करने के आरोप लगते आये हैं उससे यह खतरा और बढ़ जाता है। युद्ध में जानेे से पहले इसे भी ध्यान में रखना आवश्यक होगा।
क्योंकि यह एक स्थापित सत्य है कि आतंकी को मार देनेे से ही आतंकी का खात्मा नही हो जाता है। मार देने से केवल अपराधी गैंग समाप्त किये जा सकते हैं। यदि आतंक विचार जनित है तो उसके लिये समानान्तर विचार लाया जाना आवश्यक हैं जम्मूकश्मीर में यह सामने आ चुका है कि सेना की कारवाई का विरोध वहां के छात्रों/युवाओं ने पत्थरबाजी से दिया। हजारों पत्थरबाजों को जेल में डाला गया और फिर छोड़ना पड़ा। पत्थबाजी की इस मानसिकता को समझना होगा। आज केन्द्र सरकार ने वहां के अठारह नेताओं की सुरक्षा वापिस ले ली है। इन नेताओं पर आरोप है कि यह लोग अलगाववादी गतिविधियों को समर्थन देते हैं। इन्हें विदेशों से आर्थिक मदद मिलती है। यदि यह आरोप सही हैं तो फिर सरकार पर ही यह सवाल आता है कि फिर इन लोगों को यह सुरक्षा दी ही क्यों गयी थी? क्योंकि विदेशों से गैर कानूनी तरीके से आर्थिक मदद लेना एक बहुत बड़ा अपराध है और फिर उस मदद से अलगाववाद को बढ़ावा देना तो अपराध को और बड़ा कर देता है। क्या सरकार इन लोगों को सुरक्षा देकर स्वयं ही अपरोक्ष में इन गतिविधियों को बढ़ावा नही दे रही थी? पुलवामा के बाद सारे देश मेे जहां कही भी कश्मीरी छात्र पढ़ रहे थे उन्हें प्रताड़ित किये जाने की घटनाएं समाने आयी है और सर्वोच्च न्यायालय को इन्हें सुरक्षा दिये जाने के आदेश करने पड़े हैं। क्या इस तरह की घटनाओं से जम्मू कश्मीर का आम नागरिक विचलित नही होगा। वह क्या सोचगा? वहां के हर नागरिक को तो आतंकी करार नही दिया जा सकता फिर जिन नेताओं की सुरक्षा वापिस ली गयी है उनके खिलाफ सरकार केे पास क्या पुख्ता प्रमाण है? इन्हे अभी तक देश के सामने नही रखा गया है। आज सबसे पहले देश को विश्वास में लेने की आवश्यकता है क्योंकि यह पुलवामा में उस समय घटा है जब देश लोकसभा चुनावों में जा रहा है। पुलवामा में हुई सुरक्षा की चुक को लेकर सरकार पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। जब गुप्तचर ऐजैन्सीयों ने सरकार को पहले ही आगाह कर दिया था तो फिर उस चेतावनी को किसके स्तर पर और क्यों नजरअन्दाज किया गया? यह सही है कि देश अब कोई निर्णायक हल चाहता है। युद्ध को ही विकल्प माना जा रहा है। लेकिन युद्ध के परिणाम क्या होंगे उससे कितना विनाश होगा इसका अनुमान भावनाओं में बहकर नही लगाया जा सकता। युद्ध की अपरिहार्यता के ठोेस कारण देश के सामने रखने होंगे और इसके पीछे किसी भी तरह की कोई राजनीतिक मंशा नही रहनी चाहिये। क्योंकि देश चुनावों में जा रहा है और सरकार का हर कदम चुनावी चर्चा का विषय बनेगा यह तय है।

सत्ता के पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर खोजना होगा आतंक का हल

जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में गुरूवार को हुए आतंकी हमले में सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हो गये हैं। पूरा देश इस कायराना हमले के बाद सदमे और आक्रोश में है। हरके इस घटना की निन्दा करते हुए यह सवाल पूछ रहा है कि यह सब कब तक चलता रहेगा? मोदी सरकार के शासन में आतंक की यह सत्राहवीं घटना है। उड़ी में 18 सितम्बर 2016 को हुई आंतकी घटना में सेना बीस जवान शहीद हो गये थे और भारत ने उसका जवाब देते हुए 20 सितम्बर 2016 को ही पाक सीमा में घुसकर सर्जीकल स्ट्राईक करके आतंकीयों के सात ठिकानां को नष्ट करते हुए 38 आतंकीयों को मार भी गिराया था। इस सर्जीकल स्ट्राईक को सरकार का बड़ा कदम माना गया था। इस स्ट्राईक के बाद यह दावा किया गया था कि आतंकी गतिविधियों को शह देने वाले पाकिस्तान को कड़ा सबक सिखाया जायेगा। लेकिन इस स्ट्राईक के बाद भी यह घटनाएं रूकी नही है। बल्कि अब एक सप्ताह पहले ही खुफिया ऐजैन्सीयों के अर्लट के वाबजूद यह घटना अपने में बहुत सारे सवाल खड़े कर जाती है। यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि क्या जम्मू-कश्मीर को लेकर हमारी नीति सही भी है या नही।
हर आतंकी घटना के बाद उसकी निन्दा की जाती है और उसके पीछे पाकिस्तान का हाथ होने का आरोप लगाया जाता है। टीवी चैनलों पर बहस चलती है और उस बहस में सेना के कई सेवानिवृत बड़े अधिकारियों को बुलाकर उनकी राय/प्रतिक्रिया ली जाती है। कई चैनल पाकिस्तान के पीरजादा तक की प्रतिक्रिया ले लेते हैं। इस प्रतिक्रिया में आरोप-प्रत्यारोप लगाये जाते हैं जिनसे कोई परिणाम नही निकलता है केवल इसी धारणा को पुख्ता किया जाता है कि इन आतंकी घटनाओं के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। इस बार भी यही हुआ है। इस बार सेना के कुछ विशेषज्ञों ने सेना के लिये खरीदे जा रहे उपकरणों की खरीद प्रक्रिया पर उठने वाले सवालों पर यह कहकर एतराज जताया है कि इससे सेना की तैयारीयों पर असर पड़ता है। शायद उनका इंगित राफेल पर चल रहे वाद विवाद की ओर था। लेकिन इस घटना पर जो प्रतिक्रिया केन्द्र के राज्य मन्त्रा जितेन्द्र सिंह की आयी है उसमें पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की भूमिका पर भी सवाल उठाया गया है। जितेन्द्र सिंह की प्रतिक्रिया से ऐसा लग रहा था कि वह इस घटना पर राजनीतिक सवाल उठा रहे थे। अभी अफजगुरू की फांसी की बरसी के मौके पर जिस तरह से महबूबा मुफ्ती की प्रतिक्रिया रही है शायद जितेन्द्र सिंह उस पर अपना आक्रोश व्यक्त कर रहे थे। क्या केन्द्रिय मंत्री की इस तरह की प्रतिक्रया इस मौके पर आनी चाहिये थी यह एक अपने में बड़ा सवाल है।
आज देश के सामने बड़ा सवाल यह है कि यह सब कब तक चलता रहेगा? और यह सवाल देश की सरकार से ही पूछा जायेगा। आतंक को पाकिस्तान समर्थन दे रहा है देश यह लम्बे अरसे से सुनते आ रहे हैं। लेकिन इसी के साथ एक सच यह भी है कि पाकिस्तान इन घटनाओं को अंजाम देने के लिये हमारे ही युवाओं को इस्तेमाल कर रहा है। उन्हे ही आतंक की ट्रेनिंग दी जा रही है और ट्रेनिंग के बाद हथियार और गोलाबारूद दिया जा रहा है। यह सब हम सुनते आ रहे हैं लेकिन इसे रोक नही पाये हैं। पिछले दिनां यह भी सामने आया है कि अब गोला बारूद की जगह पत्थरबाजी लेती जा रही है। इन पत्थरबाजों के खिलाफ सेना ने कारवाई भी की है। इस कारवाई पर जम्मू-कश्मीर के बड़े नेताओं डा. फारूख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती की प्रतिक्रिएं भी आयी हैं। लेकिन क्या इन प्रतिक्रियाओं के तर्क का गुण दोष देश के सामने रखा गया। भाजपा के साथ अब्दुल्ला और महबूबा दोनां काम कर चुके हैं। महबूबा के साथ तो अभी भाजपा सरकार में भी भागीदार थी। लेकिन इस भागीदारी के बावजूद आज तक देश के सामने यह नही रखा गया कि आखिर जम्मू-कश्मीर की समस्या है क्या? वहां का युवा आतंकी क्यों बनता जा रहा है। वहां के नेतृत्व की इसमें क्या भूमिका है? उस भूमिका को सारे देश के सामने क्यों नही रखा जा रहा है? जब पाकिस्तान का ही हाथ इन घटनाओं के पीछे है तो फिर इसके खिलाफ आज तक कोई बड़ी राजनीतिक कारवाई क्यों नही की जा सकी है। जब पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित करने का प्रस्ताव यूएन में आया था तब चीन ने उस पर वीटो की थी। आज चीन के साथ हमारे व्यापारिक रिश्ते बहुत आगे है। देश के हर प्रदेश में चीन को काम मिला हुआ है। फिर हम चीन को इसके लिये सहमत क्यां नही कर पाये हैं कि वह इस मुद्दे पर भारत का साथ दे। हमारे प्रधानमंत्रा पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री के यहां एक समारोह में अचानक पहुंच गये थे। वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रकाश वैदिक पाकिस्तान के एक बड़े आतंकी नेता से मुलाकात करके आये थे और यह चर्चा रही थी कि वह प्रधानमन्त्री के दूत बन कर गये थे। लेकिन इस सबका आखिर परिणाम क्या रहा? आतंकी घटनाएं बराबर जारी हैं। पाकिस्तान के साथ हमारे राजनीतिक रिश्ते अपनी जगह कायम हैं।
यही नही भाजपा जनसंघ के समय से ही जम्मू-कश्मीर में धारा 370 का विरोध करती आयी है। यह उसका एक बड़ा मुद्दा रहा है। आज केन्द्र में जिस प्रचण्ड बहुमत के साथ भाजपा की सरकार रही है शायद आगे इतने बड़े बहुमत के साथ कोई सरकार न बन पाये। लेकिन इस सरकार ने धारा 370 हटाने के लिये कोई कदम नही उठाया। बल्कि जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 35। के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में आयी याचिका पर केन्द्र सरकार का स्पष्ट पक्ष सामने नही आया है। ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर केन्द्र सरकार अपना पक्ष स्पष्ट नही कर पायी है। नोटबंदी लाते हुए भी एक बड़ा तर्क यह दिया गया था कि इससे आतंकवाद खत्म हो जायेगा। लेकिन ऐसा कुछ हो नही पाया है। इससे सीधे यह सवाल उठता है कि इस आतंकवाद की समस्या को राजनीति से ऊपर उठकर हल करने की आवश्यकता है। इसके लिये सारे राजनीतिक दलों को एक होकर इसका हल खोजना होगा। आज देश का कितना बड़ा बजट हमारी रक्षा तैयारियों पर खर्च हो रहा है और इन तैयारियों के नाम पर हम अत्याधूनिक हथियार व गोलाबारूद संग्रह करने के अतिरिक्त और क्या कर रहे हैं। लेकिन जब भी यह हथियार और गोला बारूद चलेगा तो इससे केवल विनाश ही होगा यह तय है। ऐसे में आज आवश्यकता इस बात की है कि समस्याओं को सत्ता के तराजू में तोलते हुए उन्हें आम आदमी के नजरिये से देखा जाये क्योंकि आम नागरिक की कहीं के भी दूसरे नागरिक से कोई शत्रूता नही होती है यह शत्रूता केवल राजनीतिक सत्ता की देन है और अब इससे ऊपर उठना होगा।

मोदी-ममता की जीत में चिट फण्ड का पीड़ित हारा

क्या देश सत्ता की राजनीति के आगे हारता जा रहा है? क्या सत्ता ही एक मात्र सरोकार रह गया है? क्या सत्ता के आगेे सबकुछ बौना पड़ गया है? आज यह सवाल शायद हर संवेदनशील व्यक्ति के ज़हन में उठ रहे हैं। क्योंकि पिछले दिनों जो कुछ मोदी और ममता के बीच घटा उससे यही सवाल तो उभरकर सामने आते हैं। 2014 में जब केन्द्र में सत्ता परिवर्तन हुआ था तब पूरा चुनावी परिदृश्य भ्रष्टाचार के गिर्द घूम गया था। अन्ना का लोकपाल के लिये आन्दोलन इसका सबसे बड़ा गवाह है। आज जब फिर लोकसभा के चुनाव सामने हैं और फिर सत्ता का फैसला होने जा रहा है तब फिर वही सबकुछ अपने को दोहराता नज़र आ रहा है। भ्रष्टाचार जहां 2014 में खड़ा था आज 2019 में भी वहीं खड़ा है। भ्रष्टाचार के जो मुद्दे उस समय खड़े थे उन पर पांच वर्षों के कार्यकाल में कुछ भी आगे नहीं बढ़ा है। अन्ना को फिर अनशन पर बैठना पड़ा। लेकिन इस बार अन्ना ने यह अवश्य स्वीकारा है कि 2014 में मोदी और केजरीवाल ने उनका इस्तेमाल किया था। परन्तु इस अनुभव के बाद भी अन्ना यह नहीं बता पाये कि वह इन चुनावों मे किसका समर्थन करेंगे। यह चुप्पी अन्ना की ईमानदारी है या विवशता इसका फैसला पाठकों को स्वयं करना होगा।
भ्रष्टाचार आज व्यवस्था की सबसे बड़ी बीमारी है और सभी इससे सहमत भी हैं। 1975 के आपातकाल के बाद हुए हर चुनाव में भ्रष्टाचार मुद्दा रहा है। भ्रष्टाचार कतई बर्दाश्त नही होगा और भ्रष्टाचारी को कड़ी से कड़ी सजा़ दी जायेगी यह वायदे भी हर चुनाव में मिले हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच आयोग भी बैठे लेकिन क्या कोई ठोस परिणाम सामने आया है शायद नही। हां इस दौरान राज्यों में लोकायुक्त अवश्य स्थापित हुए हैं लेकिन क्या लोकायुक्त भी कोई स्मरणीय परिणाम दे पाये हैं? शायद इसका जबाव भी नहीं ही हैै। ऐसे में जब लोकायुक्त परिणाम नही दे पाये हैं तो लोकपाल क्या परिणाम देंगे इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। भ्रष्टाचार पर देश की सबसेे बड़ी जांच ऐजेन्सी सीबीआई के शीर्ष अधिकारियों ने एक दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाये हैं यह देश देख चुका है। सीबीआई सीधे प्रधानमन्त्री के नियन्त्रण में है और पीएमओ इन अधिकारियों के झगड़े पर तब तक खामोश बैठा रहा जब तक की एफआईआर दर्ज होने और उच्च न्यायालय तक जाने की नौबत नही आ गयी। इसके बाद जो कुछ सरकार ने किया सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की इस कारवाई को गलत करार दिया। लेकिन उसी सर्वोच्च न्यायालय का जब राफेल पर फैसला आया और उस फैसले पर अभी प्रतिक्रियाओं में जब सरकार पर शीर्ष अदालत में गलत ब्यानी का आरोप लगा तब सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को यह कह दिया कि अदालत ने सरकार के जवाब में प्रयुक्त व्याकरण और भाषा को सही से नही समझा है। सरकार ने शीर्ष अदालत में यह सबकुछ लिखकर दिया है और आग्रह किया है कि इसे सुधार लिया जाये। लेकिन अभी तक शीर्ष अदालत ने सरकार के इस आग्रह पर आगे कुछ नही किया है। इस कुछ न करने से यह कहना कठिन है कि कौन सही है।
इसी तरह बंगाल में घटा चिटफण्ड घोटाला तो हुआ है। जनता के हजारों करोड़ों इसमें डूबे हैं। इतने बड़े घोटाले के पीछ किसी का राजनीतिक और प्रशासनिक आशीर्वाद न रहा यह विश्वास करना भी कठिन है लेकिन आज यह मामला किस तरह राजनीति की भेंट चढ़ रहा है यह देश के सामने आ गया है। जब इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने राजीव कुमार की गिरफ्तारी पर रोक लगाते हुए उसे सीबीआई के पास पेश होने के निर्देश दिये तो इसे ममता और मोदी दोनों ने अपनी जीत करार दिया। जब दोनों की ही जीत हुई है तो निश्चित रूप से इसमें हर वह आदमी हारा है जिसका पैसा इस घोटाले में डूबा है। क्योंकि अब घोटाले से पहले यह जांच होगी कि इसमें सीबीआई सही था या राजीव कुमार। इसमें अब राजनीति के लिये दोनो पक्षों को खुला मैदान मिल गया है। क्योंकि इसी मामले में जिस टीएमसी सांसद मुकुल कुमार से सीबीआई पूछताछ कर चुकी है वह अब भाजपा में शामिल हो चुका है। यही नही वह आईएस अधिकारी भारती घोष जिसके यहां छापेमारी में 2.5 करोड़ की रिकवरी हुई थी वह भी भाजपा में शामिल हो चुकी है। इसी के साथ सीबीआई के जिस निदेशक नागेश्वर राव के निर्देशों पर ऐजैन्सी के चालीस लोगों की टीम राजीव कुमार के यहां छापेमारी के लिये गयी थी उसकी पत्नी और बेटी के खिलाफ बंगाल में चल रही जांच का प्रकरण भी सामने आ गया है। इस तरह एक दूसरे के खिलाफ राजनीतिक फायरिंग करने के लिये काफी बारूद इकट्ठा हो गया है। इस पर अब खुलकर इन चुनावों तक राजनीति होगी और चिटफण्ड घोटाला अगले चुनावों तक ऐसे ही धीरे-धीरे सुलगता रहेगा। यही सबकुछ अखिलेश, माया, हुड्डा और वाड्रा के मामलों का सच है। हर चुनाव से पहले उठेंगे और फिर शांत हो जायेंगे। 1984 के दंगो में अब सज़ा की बारी आयी है इसी तरह संभव है कि गुजरात दंगा के दोषीयों  की बारी भी चालीस साल बाद आ जाये क्योंकि हत्यायें तो वहां भी हुई हैं।
यह सब एक भयानक सच है कि आज देश के राजनीतिक नेतृत्व को अपराध और भ्रष्टाचार से राजनीति से हटकर कोई सरोकार नही रह गया है। न्यापालिका भी अब इसमें बराबर की भागीदार बनती जा रही है क्योंकि दशकों तक लोकहित के मामले लंबित रखे जा रहे हैं। जांच ऐजैन्सीयों की जिम्मेदारी अदालतें अपने फैसलों में तो लगा देती हैं लेकिन उसके बाद उन निर्देशों /आदेशों पर कितना अमल हुआ है यह जानने का प्रयास ही नही किया जाता। क्योंकि सामाजिक सरोकारों के लिये कोई भी गंभीर और संवेदनशील नही रह गया है। हर अपराध और भ्रष्टाचार को सत्ता की सीढी बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है। सत्ता के लिये सारी स्थापित रिवायतों को तोड़ा जा रहा है और फिर उसे जायज़ भी ठहराया जा रहा है। इस पर सवाल उठाने वाले को आसानी से वैचारिक विरोधी करार दे दिया जाता है। आज सत्ता इस राजनीति के आगे तो शायद राम भी हारते जा रहे हैं। क्योंकि जब मन्दिर निर्माण के लिये साधुओं ने कूच कर दिया है तो वहां पर होने वाली कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी किसी भी संगठन को लेने की आवश्यकता ही नही रह जाती है। इसी परिदृश्य में तो वीएचपी ने चार माह के लिये अपना आन्दोलन स्थगित किया है। राजनीति की इस पराकाष्ठा के बाद शायद यही कहना पड़ेगा कि आज की राजनीति के आगे सिर्फ देश हार रहा है।

संसदीय रिवायतों का टूटना कहीं हिंसा का कारक न बन जाये

मोदी सरकार का इस कार्यकाल का अन्तिम बजट आ गया है लेकिन जिस तर्ज पर यह बजट है उससे एक अब तक चली आ रही संसदीय परम्परा को बदल दिया गया। संसद की परम्परा है कि चुनावी वर्ष में सत्तारूढ़ सरकार अन्तरिम बजट में कोई नीतिगत निर्णय नहीं लेती है। यह काम आने वाली सरकार के लिये छोड़ दिया जाता है क्योंकि जाने वाली सरकार के पास इतना समय शेष नहीं होता कि वह इन फैसलों को अमली जामा पहना सके। और आने वाली सरकारअपनी नीतियां तथा कार्यक्रम अपनी चुनावी घोषणाओं के अनुसार तय करेगी। इस परिप्रेक्ष में जाने वाली सरकार की नीतिगत घोषणाओं को चुनाव जीतने के प्रलोभनों के रूप में देखा जाता है। 2014 में लोकसभा के परिणाम 16 मई को आ गये थे। इस नाते अब भी तब तक परिणाम आ जायेंगे। इसके लिये मार्च के प्रथम सप्ताह में आचार संहिता लग जायेगी और तब ना कोई फैंसले लिये जायेंगे और न ही लिये हुए फैसलों पर अमल हो पायेगा। इस तरह केवल एक ही फैसला अमल में आ पायेगा और वह है किसानों को छः हजार रू. की राहत पहुंचाना क्योंकि इसे दिसम्बर 2018 से लागू कर दिया गया है।
किसानों को दी गयी इस 17 रूपये प्रतिदिन की सहायता पर किसानों की क्या प्रतिक्रिया रहती है यह आने वाले दिनों में सामने आ जायेगी। अभी ही देश भर के किसान दिल्ली के बाहर जमा हो गये हैं और प्रधानमन्त्री से मिलने का समय मांग रहे हैं। किसानों के बाद आयकर में जो पांच लाख की छूट की बात की गयी है उसमें केवल चतुर्थ श्रेणी के ही कर्मचारी सीधे लाभान्वित होंगे अन्य कर्मचारियों को इससे कोई बड़ी राहत नहीं मिलेगी क्योंकि कुल वेतन की आय पांच लाख से बढ़ जाती है। ऐसे कर्मचारियों को पूर्ववत ही राहत मिलेगी। लेकिन इससे एक बड़ा सवाल आने वाले समय में यह सामने आयेगा कि सरकार ने आर्थिक आधार पर आरक्षण के लिये आय सीमा आठ लाख रखी है और आयकर राहत पांच लाख। यह अपने में स्वतः विरोधी हो जाता है। इस पर आने वाले दिनों में सरकार को अपना पक्ष स्पष्ट करना होगा। क्योंकि आर्थिक आधार पर आरक्षण को सर्वोच्च न्यायालय मे चुनौति दी जा चुकी है और अब सरकार का 5 लाख तक आयकर राहत और आरक्षण के 8 लाख की सीमा से आरक्षण पर सरकार की अपनी ही अस्पष्टता सामने आ जाती है। इसका सर्वोच्च न्यायालय क्या संज्ञान लेता है यह तो आने वाले समय में ही सामने आयेगा लेकिन यह तय है कि सरकार की इस नीति पर बहस अवश्य उठेगी। इस तरह सरकार ने अन्तरिम बजट में नीतिगत फैसले करके सीधे यही इंगित किया है कि आने वाले चुनाव में जीत हासिल करने के लिये सरकार किसी भी हद तक जा सकती है।
अन्तरिम बजट में संसदीय परम्परा से हटने के साथ ही सरकार की नीयत और नीति राम मन्दिर निर्माण को लेकर भी सवालों के घेरे में आ जाती है। जब सरकार से मांग की जा रही थी कि वह इसके लिये अध्यादेश लाये तब प्रधानमंत्री ने कहा कि वह अदालत के फैसले की प्रतिक्षा करेंगे। लेकिन उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में उस जमीन के लिये आवेदन कर दिया जिसे अविवादित कहा जा रहा है। जबकि सरकार के इस अधिग्रहण को ही अदालत में ‘‘अंवाच्छित’’ कहा हुआ है। फिर सरकार तो इस प्रकरण में अदालत में पार्टी ही नही है ऐसे में अदालत सरकार के आग्रह को कैसे लेती है और कैसे इस पर त्वरित सुनवाई करती है यह देखना भी रोचक होगा। लेकिन इसी के साथ जिस ढ़ग से दो दो धर्म संसद आयोजित हुये हैं ओर 21 फरवरी को यह निर्माण शुरू कर देनें की घोषणाएं हुई हैं तथा अदालत के जजों के यहां धरने प्रदर्शन करने की चेतावनीयां दी गई हैं उससे एकदम 1992 जैसा माहौल बनने की पूरी पूरी संभावनाएं बन गयी हैं। क्योंकि यह तय है कि साधु समाज का एक वर्ग इस निर्माण की शुरूआत करने आयेगा ही और निर्माण स्थल तथा उसके आसपास धारा 144 लागू ही है। ऐसे में यदि सरकार इन्हे यहां आने से रोकती नही है तब भी कानून और व्यवस्था को लेकर स्वाल उठेंगे। यदि रोकने का प्रयास करेगी तब हिंसा से इसे कोई रोक नही सकेगा। यह सब इससे होना तय लग रहा है। देश में लोकसभा चुनाव से पुर्व साम्प्रदायिक दंगे भड़कने की आशंका तो अमेरिका की सीनेट में वैश्विक खतरों पर आयी डाॅन कोटस की रिपोर्ट में बड़े स्पष्ट शब्दों में व्यक्त की गई है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भाजपा लोकसभा चुनावों से पहले अपने हिन्दु एजैण्डा को बढ़ाने के लिये जैसे ही कदम उठायेगी उसी के साथ देश में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठेगी। अमरीका की सीनेट में चर्चा में आयी इस रिपोर्ट पर भारत सरकार और भाजपा की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। कोई प्रतिक्रिया न आना तथा धर्म संसद द्वारा 21 फरवरी का निर्माण कार्य शुरू करने के लिये समय तय करना इन आशंकाओं को पुख्ता करता है।
क्योंकि सरकार के पास अर्थिक मोर्चे पर भी कोई बहुत कुछ ऐसा नही है जिसे चुनावों में आसानी से भुनाया जा सके। भारत सरकार के आर्थिक मामलों के विभाग द्वारा पेश की गई वितिय स्टेटस रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार का जो कर्जभार 2014 में था उसमें दिसम्बर 2018 तक 49% की वृद्धि हुई है। इसी के साथ सरकार के सांख्यिकी आयोग की रिपोर्ट के अनुसार नोटबन्दी के बाद देश में 1.10 करोड़ नौकरियों में कमी आयी है। यह आयोग सरकार के आंकड़ो की निगरानी और उनका आकलन करता है। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार बेरोजगारी 7.4% तक पहुंच गयी है। जो अब तक की सबसे बड़ी बेरोजगारी है। सरकार ने इस आयोग की रिपोर्ट को जब जारी नही किया तब इसके अध्यक्ष पी सी मोहनन और सदस्य डा. मीनाक्षी ने अपने पदों से त्यागपत्र दे दिया। जबकि मई 2017 में नियुक्त हुए इन लोगों का कार्यकाल जून 2020 तक था। ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां सरकार की असफलताएं सामने है और चुनावों में इनके मुद्दा बननें की आशंका हैै। ऐसे में इन मुद्दों को चर्चा से बाहर रखने के लिये सांप्रदायिक हिंसा एक हथियार हो सकती है यह आशंका कोटस की रिपोर्ट में व्यक्त की गई है।

घातक होगी मर्यादाएं लांघती राजनीति

शिमला/शैल। किसी व्यक्ति या संगठन के कथ्य मे तथ्य और तर्क का अभाव होता है तब वह अपने को प्रमाणित करने के लिये ऐसी आक्रामकता का सहारा ले लेता है जिसमें भाषाई मर्यादाएं तक लांघ दी जाती है। आज देश का राजनीतिक परिदृश्य इसी दौर से गुजर रहा है। इसमें राजनीतिक दल तथ्य और तर्क के स्थान पर भाषायी अमर्यादा का शिकार होते जा रहे हैं। इस अमर्यादित भाषायी प्रयोग का अन्जाम क्या होगा? कई बार तो इसे सोचकर ही डर लगने लगता है। क्योंकि अभी एक भाजपा सांसद की जनसभा का वो वीडियो सामने आया है इसमें सांसद महोदय ने कांग्रेस अध्यक्ष राहूल गांधी को अपने संबोधन में ‘‘पप्पु’’ कह दिया। इस संबोधन पर वहां बैठे लोगों मे तीव्र प्रतिक्रिया हुई। सभा में से उठकर एक महिला ने सांसद महोदय से यह सवाल कर दिया कि उन्होंने राहुल गांधी को अपने संबोधन में ‘‘पप्पु’’ क्यों कहा? महिला के इस सवाल पर सारी भीड़ उत्तेजित हो गयी और पूरा वातावरण हिंसक हो चला था। इस घटना से यह सामने आता है कि जनता हर छोटी- 2 चीज पर गहरी नजर रख रही है। आज जनता को इस तरह के संबोधनों से गुमराह नही किया जा सकेगा उसे हर कथ्य के साथ तथ्य और तर्क भी देना होगा।
इस परिदृश्य में यदि 2014 से लेकर अब तक मोदी सरकार का मोटा आंकलन भी किया जाये तो सबसे पहले यही भाषायी अमर्यादा सामने आती है जिसकी कीमत भी भाजपा को चुकानी पड़ी है। इसी कारण 2014 में प्रचण्ड बहुमत लेकर सरकार बनाने वाली भाजपा को दिल्ली विधानसभा के चुनावों में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। क्योंकि लोकसभा चुनावों के दिल्ली विधानसभा आने तक मुस्लिम समुदाय के लोगों पर भाजपा के कुछ मन्त्रियों तक ने जिस भाषा में निशाना साधा उससे सीधे यह सन्देश गया कि यह पार्टी और इसका नियन्ता संघ किस हद तक मुस्लिम समाज को दूसरे दर्जे का नागरिक मानता है। दिल्ली की प्रबुद्ध जनता में इसका सकारात्मक सन्देश नही गया और परिणास्वरूप भाजपा हार गयी। प्रधानमन्त्री मोदी ने कई बार इस तरह की ब्यानबाजी करने वाले नेताओं को जुबान पर लगाम लगाने तक की नसीहत दी जिसका किसी पर कोई असर नहीं हुआ और न ही ऐसे लोगों के खिलाफ सरकार और संगठन की ओर से कोई कारवाई हुई। जबकि दर्जनों वैचारिक विरोध रखने वालों के खिलाफ देशद्रोह के मामले बनाए गये। सरकार के इस आचरण से भी यही सन्देश गया कि यह सब एक सुनियोजित रणनीति के तहत हो रहा है। इसी के साथ जब आगे चलकर गो रक्षकों का अति उत्साह और लव जिहाद जैसे मामलों की स्थिति भीड़ हिंसक तक पंहुच गयी तब इससे भी इसी धारणा की पुष्टि हुई। क्योंकि इन मामलों में सबसे ज्यादा पीड़ित और प्रताड़ित दलित और मुस्लिम समाज ही हुआ। यह समाज अपने को एकदम असुरक्षित मानने पर विवश हुआ। इस समाज की परैवी करने के लिये मायावती और अखिलेश जैसे नेता भी सामने नही आ पाये। कांग्रेस के अन्दर राहुल ही नही बल्कि नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ सोशल मीडिया में एक जिहाद ही छेड़ दिया गया। लेकिन इस सबका प्रतिफल लोस के हर उपचुनावों में भाजपा की हार के रूप में सामने आया और जब इस हार का विश्लेषण और आकलन किया गया तो इसकी पृष्ठभूमि में समाज के इस बड़े वर्ग का आक्रोश सामने आया।
संघ -भाजपा की इस वैचारिक सोच का खुलासा स्कूलों और विश्वविद्यालयों के कई पाठयक्रमों में किये गये बदलाव से भी सामने आया। दीनानाथ बत्रा की कई पुस्तकों को इन पाठय्क्रमों में परोक्ष/अपरोक्ष रूप से स्थान दिया जाना इसका उदाहरण है। इस सबसे संघ- भाजपा की सामाजिक सोच और समझ को लेकर बुद्धिजीवी समाज में एक अलग ही धारणा बनती चली गयी। इस सामाजिक सोच- समझ के साथ ही प्रशासनिक और आर्थिक स्तर पर भी मोदी सरकार अपने को प्रमाणित नही कर पायी। भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल की नियुक्ति 2014 के अन्ना आन्दोलन का केन्द्रिय मुद्दा था। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप ही मनमोहन सिंह सरकार को लोकपाल विधेयक संसद में लाना और पारित करवाना पड़ा। इसके बाद आयी मोदी सरकार को केवल लोकपाल की नियुक्ति करने का ही काम बचा था जो आज तक नही हो पाया। यही नहीं मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम से आपराधिक सांठ-गांठ का प्रावधान ही हटा दिया। जिसे टूजी स्कैम मनमोहन सिंह सरकार के समय केन्द्र के मन्त्री, सरकार के सचिव स्तर के अधिकारी और कारपोरेशन जगत के अधिकारी जेल गये थे। उस मामले की पैरवी में मोदी सरकार के वक्त में यह सारे लोग छूट गये और अदालत को यह कहना पड़ा कि यह स्कैम हुआ ही नही था। इससे भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार की प्रतिबद्धता का सच सामने आ जाता है। इसी सच का प्रमाण है कि सरकार राफेल मामले में संसदीय जांच का सामना करने से डर रही है। इसी कारण आज चुनावों की पूर्व संध्या पर सीबीआई को अखिलेश और हुड्डा के खिलाफ सक्रिय किया गया है। इस सक्रियता पर स्वभाविक रूप से यह प्रश्न उठ रहा है कि इन मामलों में सरकार और सीबीआई पांच वर्ष क्या करती रही। इससे अनचाहे ही सरकार की नीयत और नीति पर सवाल उठने लगे हैं।
दूसरी ओर आर्थिक मुहाने पर भी सरकार की कोई बड़ी सकारात्मक उपलब्धि नही है। आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान करते हुए जब आठ लाख की आय तक के व्यक्ति को सरकार गरीब मान रही है तो इस मानक के आधार पर तो शायद देश की 70% से अधिक जन संख्या गरीब निकलेगी। क्योंकि देश के किसान और बागवान तो शायद 1% भी ऐसा नही निकल पायेगा जो साठ हजार रूपये प्रतिमाह कमा पा रहा हो। इस मानक से सरकार की व्यवहारिक सोच पर प्रश्न उठने लगा है। नोटबन्दी में 99% से अधिक पुराने नोट नये नोटों के साथ बदल दिये गये हैं। इकट्ठे कालेधन को लेकर किये गये सारे दावों और प्रचार का सच सामने आ गया है। इसी तरह जीएसटी में किये गये संशोधनों से यह सामने आ गया कि यह फैसला जल्दबाजी में किया गया था। इस फैसले से रोजगार के अवसर पैदा होने की बजाये काफी कम हुए हैं। इस तरह मोदी सरकार का हर बड़ा फैसला देशहित में पूरा खरा नही उतरा है। बल्कि इन फैसलों के बाद यह चुनाव सीधे-सीधे दो विचारधाराओं मे से चयन का चुनाव होने जा रहा है। क्योंकि देश वाम विचारधारा को देश आज तक स्वीकार नही कर सका है और दक्षिण पंथी विचारधारा की परीक्षा मोदी शासन में हो चुकी है।

Facebook



  Search