Friday, 19 September 2025
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क्या बेदी कमेटी की रिपोर्ट के परिदृश्य में गुजरात दंगा पीड़ितों को न्याय मिलेगा

गुजरात में 2002 से 2006 के बीच जो कुछ हिंसक घटा है उसमें कितने लोगों की जान और माल की हानि हुई है इसका पूरा आंकलन शायद आज भी उपलब्ध नही है। लेकिन हिंसा को प्रोत्साहित और प्रायोजित करने के आरोप शासन /प्रशासन पर भी लगे हैं। कई राजनीतिक नेताओं पर सीधे आरोप लगे और यह आरोप आज तक पीछा नही छोड़ रहे हैं। राजनीतिक नेतृत्व इन घटनाओं के लिये इस कारण से निशाने पर आ गया था क्योंकि उस समय देश के प्रधानमन्त्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने इन घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया में यह कहा था कि यहां पर राजधर्म का पालन नही किया गया। अब जब पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय ने 1984 के दंगा पीड़ितों को न्याय देते हुए सज्जन कुमार जैसेे बड़े नेता को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई है तब से एक बार फिर यह आस बंधी है कि शायद गुजरात के पीड़ितों को भी न्याय मिल पायेगा। देश ने सज्जन कुमार को सज़ा मिलने का स्वागत किया है लेकिन उसी अनुपात में जब गुजरात में एक मन्त्री को मिली ऐसी ही सज़ा के बाद उसे निर्दोष करार देकर छोड़ देने पर अफसोस भी जाहिर किया है।
गुुजरात में जो कुछ घटा है उसमें एक आरोप वहां पर फर्जी एनकाऊंटर दिखाये जाने का भी पुलिस प्रशासन पर लगा है। इन फर्जी मुठभेड़ों पर सर्वोच्च न्यायालय में 2007 में वीजी वर्गीज और जावेद अख्तर तथा शबनम हाशमी ने दो याचिकाएं दायर की थी। इनमें सत्रह मामले फर्जी एनकाऊंटर के आरोपों के उठाये गये थे। यह याचिकाएं 2007 में दायर हुई थी और इनके दायर होने के बाद गुजरात सरकार ने इसका संज्ञान लेते हुए इनकी जांच के लिये स्पैशल टास्क फोर्स का गठन किया था। इस एसटीएफ का मुखिया पुलिस अधिकारी ए. के. शर्मा को लगाया गया। लेकिन ए. के. शर्मा की नियुक्ति पर शबनम हाशमी ने कुछ एतराज उठाये। एतराज में ए.के. शर्मा और नरेन्द्र मोदी के बीच घनिष्ठ संबंध होने का भी गंभीर आरोप था। जब यह सबकुछ सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में लाया गया तब शीर्ष अदालत ने इसकी माॅनिटरिंग के लिये एक कमेटी का गठन कर दिया। इसका चेयरमैन शीर्ष अदालत के ही पूर्व जज एम वी शाह को बनाया गया लेकिन जस्टिस शाह ने इस जिम्मेदारी को स्वीकारने में असमर्थता दिखाई। जस्टिस शाह के असमर्थता दिखाने के बाद गुजरात सरकार ने अपने ही स्तर पर इस कमेटी के अध्यक्ष पद पर मुंबई उच्च न्यायालय के सेवानिवृत मुख्य न्यायाधीश के आर ब्यास को नियुक्त कर दिया जबकि जस्टिस शाह की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गयी थी। जब जस्टिस ब्यास की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में आयी तब शीर्ष अदालत ने यह जिम्मेदारी सर्वोच्च न्यायालय के ही पूर्व जज जस्टिस एचएस वेदी को सौंप दी।
जस्टिस शाह की नियुक्ति 25 जनवरी 2012 को हुई थी और उनके स्थान पर जस्टिस बेदी की नियुक्ति 12 मार्च 2012 को हुई। जब यह माॅनिटरिंग बनाई गयी थी तब इसकी नियुक्ति में यह कहा गया था कि वह इस नियुक्ति के तीन माह के भीतर पूर्ण या अन्तरिम रिपोर्ट सौंपेंगे। इस कमेटी के सामने जो सत्रह मामले आये थे उनकी जांच के लिये पूरी प्रक्रिया अपनाई गयी। इस तरह बेदी कमेटी की जो फाईनल रिपोर्ट तैयार हुई उसे सार्वजनिक नही किया गया। गुजरात सरकार इसके सार्वजनिक किये जाने का विरोध कर रही थी। यह विरोध इस हद तक गया कि जिन याचिकाओं के बाद एसटीएफ का गठन हुआ और उसकी माॅनिटरिंग के लिये शीर्ष अदालत को कमेटी बनानी पड़ी उन याचिकाकर्ताओं को भी इस कमेटी की रिपोर्ट नही दी गयी। यह रिपोर्ट न दिये जाने पर फिर सर्वोच्च न्यायालय में मामला आया और शीर्ष अदालत ने 18 दिसम्बर 2018 को यह याचिकाकर्ताओं को दिये जाने के आदेश किये। शीर्ष अदालत के इन आदेशों की अनुपालना में जस्टिस बेदी ने 20 दिसम्बर 2018 को यह 220 पन्नो की रिपोर्ट सौंपी है। जस्टिस बेदी की रिपोर्ट में इस कमेटी के सामने आये सत्रह मामलों में से तीन मामलों को पुलिस हिरासत में हुई मौत करार देते हुए इनमें गंभीर कारवाई किये जाने की संस्तुति की है। जब जस्टिस बेदी कमेटी इन मामलों को देख रही थी उसी दौरान इन दंगो को लेकर एक पत्रकार राणा अयूब ने एक स्टिंग आपरेशन किया है। यह स्टिंग आपरेशन गुजरात फाईल्ज़ पुस्तक के रूप में सामने आ चुका है। इस आपरेशन में कई चौंकाने वाले खुलासे दर्ज है और इस स्टिंग आप्रेशन का जिक्र जस्टिस बेदी की रिपोर्ट में भी आया है। इस तरह जस्टिस बेदी की रिपोर्ट और राणा अयूब की गुजरात फाईल्ज़ के परिदृश्य में गुजरात दंगो को लेकर जो कुछ सामने आया है उसके परिदृश्य में इस पर नये सिरे से विचार किये जाने की आवश्यकता आ खड़ी होती है।
जस्टिस बेदी ने अपनी रिपोर्ट में इन मामलों को लेकर जो कुछ कहा है वह उन्ही के शब्दों में पाठकों के सामने रख रहा हूं ताकि इस पर आप अपने स्तर पर राय बना सके।

I have, therefore, taken a conscious decision that initially action will be sussested asainst only those police officers whose participation was admitted or prima facie proved leaving it open for others who are subsequently found to have been involved in conspiracy or in any other manner in regular court proceedings, to be arraigned later as per law. thease directions must be read into the three matters in which I have found prima facie evidence of custodial killings.

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