शिमला/शैल। एचपीसीए के खिलाफ दर्ज मामलों को राजनीति से प्रेरित करार दे रही है और इसी आधार पर इन्हे वापिस लेने की बात कर रही है। इस कड़ी के इस प्रकरण में नामज़द दो अधिकारियों दीपक सनान और अजय शर्मा के खिलाफ मुकद्दमा वापिस लेने की अनुमति भी दी जा रही है। संयोगवश एचपीसीए का एक मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी लंबित चल रहा है। स्मरणीय है कि जब वीरभद्र सरकार ने एचपीसीए की लीज़ कैन्सिल करके आधी रात को एचपीसीए की संपत्तियों पर कब्जा कर लिया था। उस समय एचपीसीए ने सरकार के इस कदम को अदालत में चुनौती दी थी और इसमे वीरभद्र सिंह को व्यक्तिगत तौर पर नामित कर दिया था। उस समय एचपीसीए को सर्वोच्च न्यायालय तक जाना पड़ा था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर प्रदेश उच्च न्यायालय को एचपीसीए की याचिकाओं पर पुनः विचार करने तथा इन्हे अपना पक्ष रखने का मौका देने की बात कही थी। एचपीसीए ने उच्च न्यायालय में रजिस्ट्रार कोआपरेटिव सोसायटीज़ आरडी नजी़म को भी व्यक्तिगत तौर पर पार्टी बनाने की गुहार लगायी थी। इस तरह सरकार ने अदालत में चल रही कारवाई के दौरान ही लीज़ रद्द करने का फैसला वापिस ले लिया था। इससे एचपीसीए की अपनी संपत्तियां तो वापिस मिल गयी लेकिन वीरभद्र सिंह का नाम प्रतिवादियों की सूची में आज तक चलता आ रहा है।
अब जब वीरभद्र सिंह व्यक्तिगत तौर पर इसमें प्रतिवादी चल रहे हैं तब उनके पास इस मामले में अपना पक्ष रखने का हक हासिल हो जाता है। सर्वोच्च न्यायालय कई मामलों में यह स्पश्ट कह चुका है कि एक बार मुकद्दमा चलाने के लिये दी गयी अनुमति पर न तो पुनः विचार किया जा सकता है और न ही उसे वापिस लिया जा सकता है। इस समय यह पूरा मामला सर्वोच्च न्यायालय में एक ऐसे मोड़ उपर पहुंचा हुआ है कि यदि इसमें वीरभद्र सही में गंभीरता दिखायेंगे तो इसका फैसला गुणदोष के आधार पर होकर ही रहेगा क्योंकि इस मामले के चालान में जो तथ्य रिकार्ड पर आ चुके हैं उन्हे नज़रअन्दाज कर पाना आसान नही होगा।
स्मरणीय है कि एचपीसीए को वर्ष 2002 में 49118.25 वर्ग मीटर भूमि लीज़ पर दी गयी थी। उसके बाद 2009 में 3.28 हैक्टेयर ज़मीन लीज़ पर गयी। लेकिन 1993 और 1998 के लीज़ रूल्ज़ के तहत किसी भी खेल संघ को दो वीघा से अधिक ज़मीन देने का कोई प्रावधान ही नही था। लीज़ रूल्ज़ में 2012 में संशोधन किया गया और इसमें ज़मीन देने की कोई सीमा तय नही की गयी। यह नियम सचिव स्तर पर ही मन्त्री परिषद् की अनुमति के बिना ही संशोधित कर दिये गये। इस संशोधन को भी कानून विभाग ने अनुमोदित नही किया था क्योंकि 28.1.11 को सर्वोच्च न्यायालय ने जगपाल सिंह बनाम स्टेट आॅफ पंजाब में कामन लैण्ड के आंवटन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले की अनुपालना सुनिश्चित करने के लिये देश के सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को निर्देश जारी किये हैं और उन्हे समय - समय पर इस संद्धर्भ में सर्वोच्च न्यायालय को सूचित रखने को भी कहा है। फिर यदि 2012 के संशोधन को सही भी मान लिया जाये तो भी उसे 2002 और 2009 से लागू नही किया जा सकता।
इसी तरह चालान में एक यह भी आरोप है कि मन्त्री परिषद् ने एचपीसीए को ज़मीन अपनी 27.5.2002 की बैठक में दे दी। लेकिन यह ज़मीन लीज़ पर लेेने के लिये आवेदन 1.6.2002 को आया। लीज़ एक रूपये पर दी गयी जबकि रेट के लिये एचपीसीए की ओर से कोई आवेदन ही नही आया। इसलिये आज वीरभद्र सिंह के पास यह सारे तथ्य नये सिरे से अदालत के सामने लाने का मौका है। सर्वोच्च न्यायालय में वीरभद्र की ओर से पी चिदाम्बरम और अनुप जाॅर्ज के पेश होने की संभावना है। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण होगा कि यदि विजिलैन्स ने अपनी ओर सेे ही बिना साक्ष्यों के इतना बड़ा झूठा मामला खड़ा कर दिया है तो उनके खिलाफ भी सरकार और अदालत को कड़ा संज्ञान लेना पड़ेगा।
शिमला/शैल। नव गठित जयराम ठाकुर सरकार के पहले बजट सत्र के पहले ही दिन विपक्षी दल कांग्रेस ने सदन से वाॅकआऊट कर दिया। वाॅकआऊट का विषय बना मुख्यमंत्री का वह ब्यान जिसमें उन्होने भू सुधार अधिनियम की धारा 118 में संशोधन किये जाने का संकेत दिया था। मुख्यमंत्री के ब्यान के साथ ही सरकार का इस आश्य का एक प्रेस नोट भी जारी हो गया था। यह सब उस समय हुआ जब बजट सत्र की तारीख घोषित हो चुकी थी। धारा 118 में संशोधन करना या न करना एक नीतिगत फैसला है और कायदे से ऐसे फैसले सदन में चर्चा के बाद ही लिये जाने चाहिये। फिर यह ब्यान किसी और का न होकर स्वयं मुख्यमंत्री का था इस नाते ब्यान को गंभीरता से लिया जाना स्वभाविक था और इस पर सदन में चर्चा की मांग किया जाना भी बनता था। यह दूसरी बात है कि यह चर्चा नियम 67 की बजाये किसी अन्य नियम में भी हो सकती थी। लेकिन नियमों के इस विवाद में यह चर्चा नही हो पायी और जनता के सामने सही स्थिति नही आ पायी है। क्योंकि बजट भाषण में इसका कोई सीधा जिक्र तो नही किया गया है लेकिन उद्योगों और अन्य पर्यटन आदि से जुड़ी योजनाओं की स्थापना को और सरल बनाने की प्रक्रिया में धारा 118 की भूमिका तो आवश्यक रूप से रहेगी ही। ऐसे में धारा 118 को लेकर प्रदेश की जनता के सामने सदन
के माध्यम से यह आ जाना आवश्यक है कि सरकार की इस संबध में मंशा क्या है? जब यह धारा अधिनियम में लायी गयी है तो निश्चित रूप से इसके पीछे कोई ठोस वजह रही होगी जो संशोधन अबतक इसमें हो चुके हैं उनसे इसके मूल उद्देश्य पर क्या प्रभाव पड़ा है यह जानना जनता का हक है जिसे एक बार फिर टाल दिया गया।
स्मरणीय है कि धारा 118 की उल्लघंना के आरोप हर सरकार पर लगते आये हैं और इन्ही आरोपों के चलते बेनामी खरीद की जांच के लिये सिद्धू कमेटी, सेवानिवृत जस्टिस रूप सिंह ठाकुर कमेटी और फिर सेवा निवृत जस्टिस डीपी सूद की अध्यक्षता में जांच कमेटीयां तक गठित हो चुकी हैं। इन कमेटीयों की रिपोर्ट में हजारों की संख्या में बेनामी के मामले सामने भी आ चुके हैं। लेकिन किस कमेटी की रिपोर्ट पर क्या और कितनी कारवाई हुई है इसकी कोई अधिकारिक जानकारी जनता के सामने नही आयी है। यही नही धारा 118 को चुनौती देते हुए प्रदेश उच्च न्यायालय में CWP 443of 95, CWP 1068 of 95, CWP 1083 of 2003, CWP 484 of 2006, CWP 844 of 2010 और CWP 1500 of 2010 आ चुकी है। इन सारी याचिकाओं में धारा 118 के पक्ष में ही फैसले आये हैं। लेकिन इन फैसलों के बावजूद धारा 118 और इसके नियम 38 में सरकार 2014 तक कई संशोधन भी कर चुकी है। इस परिदृश्य में धारा 118 को इसकी Statement of Objects की लाईट में समझना और उसे प्रदेश की जनता के सामने रखना और भी आवश्यक हो जाता है।
प्रदेश का भू- सुधार अधिनियम विधानसभा ने 1972 में पारित किया था। उस समय इसे संविधान के शेडयूल VII में रखा गया था। उसके बाद संविधान के चालीसवें संशोधन के बाद इसे 27-5-1976 को शेडयूल नौ में डाल दिया गया था। इस अधिनियम के तहत इसके संचालन के लिये नियम 1975 में बने थे जिनमें समय- समय पर संशोधन होते रहें हैं। यहां यह भी स्मरणीय है कि इस अधिनियम की संवैधानिक वैधता को 1975 में उच्च न्यायालय में CWP 298 व of 1975 के माध्यम से चुनौती दी गयी थी और इस याचिका 22-6-1978 को आये फैसले में अदालत ने इसे वैध करार दिया है। इस पर अब तक 1988, 1995, 1997, 2007, 2011, 2012 और 2014 में संशोधन आ चुके है।
धारा 118 के तहत कोई भी गेर कृषक प्रदेश में जमीन नही खरीद सकता है। इसमें कहा गया है कि The Section 118 of the Act now is as follows: “118. Transfer of land to non-agriculturists barred: (1) Notwithstanding anything to the contrary contained in any law, contract, agreement, custom or usage for the time being in force, but save as otherwise provided in this Chapter, no transfer of land (including transfer by a decree of a Civil Court or for recovery of arrears of land revenue) by way of sale, gift, will, exchange, lease, mortgage with possession, creation of a tenancy or in any other manner shall be valid in favour of a person who is not an agriculturist. इस अधिनियम में गैर कृषकों पर जमीन खरीदने पर प्रतिबन्ध लगाने का उद्देश्य यह था ैSTATEMENT OF OBJECTS AND REASONS: “As a result of the re-organisation of the erstwhile State of Punjab in November, 1966, some areas were integrated in Himachal Pradesh under section 5 of the Punjab Re-organisation Act, 1966. There are different enactments regarding tenancy and agrarian reforms in force in new and old areas of the Pradesh. In the areas as comprised in Himachal Pradesh immediately before 1st November, 1966, the Himachal Pradesh Abolition of Big Landed Estates and Land Reforms Act, 1953, is in force which is a progressive legislation about the security of tenures of tenants and their other rights. In the areas added to Himachal Pradesh under section 5 of the Punjab Re-organisation Act, 1966, however, occupancy tenants have been vested with proprietary rights under two Acts on the subject namely, the Punjab Occupancy Tenants (Vesting of Proprietary Rights) Act, 1953 and the Pepsu Occupancy Tenants (Vesting of Proprietary Rights) Act, 1954. In the old areas the occupancy tenants have to apply for ownership under section 11 of the Himachal Pradesh Abolition of Big Landed Estates and Land Reforms Act. It has, therefore, been considered necessary to unify the various laws relating to tenancies as in force in the Pradesh and to provide for a measure of land reforms to remove disparities. Restrictions have been imposed to purchase land by the non-agriculturists to avoid concentration of wealth in the hands of non-agriculturists moneyed class. The Bill is to achieve the above objects.” इसके बाद इसी अधिनियम की धारा 104 में 1987 में संशोधन किया गया इस संशोधन का उद्देश्य यह था।Statement of Objects and Reasons of the Himachal Pradesh Tenancy and Land Reforms (Amendment) Bill, 1987 provides as under: STATEMENT OF OBJECTS AND REASONS: “Under the existing provisions contained in the Himachal Pradesh Tenancy and Land Reforms Act, 1971 the right, title and interest of the Government in the lands owned by it and leased out to a person vest in tenants. It is imperative that the proprietary rights in Government lands, by and large regenerated through public funds, should not pass to private persons. It has, therefore, become necessary to make suitable amendment in section 104 of the said Act. Under the proviso to section 113 of the said Act, the land in respect of which proprietary rights have been acquired by a non-occupancy tenant, can be transferred by way of sale, mortgage gift or otherwise only for productive purposes with the permission of the Collector. In orders to avoid misuse of this provision and to ensure that such permission should be accorded rarely and only under genuine circumstances, it has been decided that the said permission be given by the State Government alone. Section 118 of the principal Act, which restricts transfer of land to non-agriculturists, does not apply to the transfer of lands situated in urban areas, nor does it apply to transfer of lands not used for purposes subservient to agriculture. The lands classified as “Gair-mumkin makan”, “Gair-mumkin dhank” can be transferred in favour of non-agriculturists and thus the provisions as they exist leave a loophole in law which is designed to prevent the transfer of land to non-agriculturists. It has, therefore, become necessary to make suitable amendments in the existing law. The Bill seeks to achieve the aforesaid objectives.
इस अधिनियम में गैर कृषकों के लिये सरकार से अनुमति लेकर जमीन खरीदने का प्रावधान है। इसमें खरीददार को खरीद का वैध उद्देश्य बताने की आवश्यकता है। इस अधिनियम के तहत बनाये गये नियमों में नियम 38 के तहत यह अनुमति प्रदान की जाती है। इसमें हुए अन्तिम संशोधन में संवद्ध अधिकारियों को अनुमति की प्रक्रिया 15 दिन के भीतर पूरी करने के भी निर्देश हैं। संशोधित नियमों के अनुसार अनुमति की प्रक्रिया जिलास्तर तक ही पूरी हो जाती है। ऐसे में जितने भी संशोधन इसमें अब तक हो चुके हैं उनके बाद इसमें अब कोई और ज्यादा सरलीकरण की गुंजाईश नजर नही आती है। बल्कि इन संशोधनों की आड़ में बहुत सारे लोगों ने इसका नाजायज़ फायदा भी उठाया है। इस अधिनियम के तहत खरीदी गयी जमीन पर दो वर्ष के भीतर उस उद्देश्य की प्रतिपूर्ति हो जानी चाहिये जिसके लिये ऐसी खरीद की गयी है। इसमें एक वर्ष और तक का भी प्रावधान रखा गया है। लेकिन सैंकड़ो मामले ऐसे मिल जायेंगे जिनमें कई दशकों तक पूरी भूमि को उपयोग में नही लाया गया है। बल्कि ऐसा लगता है कि अनुमति की आड़ में फालतू जमीनें खरीदी गयी है। लेकिन ऐसी फालतू जीमनों को इसी अधिनियम के तहत अब तक वापिस नही लिया गया है। आज भी प्रदेश के अन्दर चल रहे कई नीजि विश्वविद्यालयों के पास हजारों बीघे जमीने बिना उपयोग के पड़ी हुई हैं जिन्हे वापिस लेने के लिये सरकार की ओर से कोई कदम नही उठाये जा रहे हैं। विश्वविद्यालयों की ही तरह कई जलविद्युत परियाजनाओं के पास भी ऐसी फालतू जमीने पड़ी है विवेकानन्द ट्रस्ट की जमीन को लेकर तो उच्च न्यायलय में याचिका तक आ चुकी है। धारा 118 पर अपनी साफ नीयत का परिचय देने के लिये सरकार को इन फालतू जमीनों पर कारवाई करनी चाहिये। प्रदेश में किसने कब कितनी जमीन कहां खरीदी है इसको लेकर धूमल शासन के दौरान सदन में एक प्रश्न के उत्तर में करीब सौ पन्नो में जानकारी दी गयी है। जिसमें कई चौंकाने वाले खुलासे हैं। कई समाचार पत्रों के नाम पर भी जमीनें ली गयी हैं जिनका कोई उपयोग नही किया गया है। लेकिन इस जानकारी पर कभी कोई कारवाई नही हो पायी है। क्या जयराम सरकार इस पर कोई कारवाई कर पायेगी इसको लेकर अब लोगों में चर्चाएं चल पड़ी हैं।
शिमला/शैल। केन्द्र की सीबीआई और ईडी की जांच झेल रहे वीरभद्र परिवार की मुश्किलें इन मामलों में कितनी बढे़ंगी इसका सही पता तो आने वाले दिनों में ही लगेगा। क्योंकि सीबीआई तो इसमें चालान दायर कर चुकी है लेकिन ईडी ने सहअभियुक्त आनन्द चौहान की गिरफ्तारी के बाद उनके खिलाफ जब चालान दायर किया तो उस समय इस मामले के मुख्य अभियुक्त वीरभद्र के खिलाफ चालान नही डाला। इस पर अदालत ने ईडी को इस मामले में जल्द अनुपूरक चालान डालने के निर्देश दिये। इन निर्देशों के बाद चार बार चालान के लिये वक्त मांगने के बाद भी जब ईडी वीरभद्र के खिलाफ चालान नही डाल पायी तब अदालत ने आनन्द चौहान को ज़मानत दे दी। यह ज़मानत मिलने के बाद अन्नतः ईडी को वीरभद्र के खिलाफ चालान दायर करना ही पड़ा लेकिन जब वीरभद्र, प्रतिभा सिंह और चार अन्य के खिलाफ चालान अदालत में आया तो उसमे वक्कामुल्ला चन्द्रशेखर का नाम नही था। जबकि ईडी ने जो पहला अटैचमैन्ट आर्डर 23 मार्च 2016 को जारी किया था उसमें स्पष्ट लिखा था कि अभी वक्कामुल्ला को लेकर जांच पूरी नही हुई है। ईडी जब वीरभद्र के खिलाफ चालान डालने के लिये बार -बार और समय मांग रही थी उस दौरान प्रदेश विधानसभा के चुनाव चल रहे थे। चुनाव खत्म होने के बाद वीरभद्र के खिलाफ चालान दायर हुआ है। इसी दौरान जब वीरभद्र सिंह की बेटी गुज़रात हाईकोर्ट से चीफ बनकर त्रिपुरा चली गयी तो उसके बाद इसी मामले के सहअभियुक्त वक्कामुल्ला चन्द्रशेखर को भी ईडी ने गिरफ्तार कर लिया। वह अभी तक हिरासत में ही है। इस मामले में अन्य सहअभियुक्तों और मुख्य अभियुक्तों की भी गिरफ्तारी होती है या नहीं इसको लेकर अभी अनिश्चितता बनी हुई है।
स्मरणीय है कि वीरभद्र सिंह के खिलाफ यह मामले 2015 में दर्ज हुए थे। वीरभद्र इनके लिये प्रेम कुमार धूमल, अनुराग ठाकुर और अरूण जेटली को जिम्मेदार ठहराता रहा है। वीरभद्र ने इन लोगों के खिलाफ मानहानि का मामला तक दायर किया था लेकिन बाद में जेटली के खिलाफ वापिस भी ले लिया था। इन मामलो में वीरभद्र या परिवार के किसी अन्य सदस्य की कभी कोई गिरफ्तारी नही हुई है जबकि आनन्द चौहान और अब वक्कामुल्ला की गिरफ्तारी पर यह सवाल उठे हैं कि मुख्य अभियुक्त को छोड़ सहअभियुक्त की गिरफ्तारी क्यों हो रही है। इस पूरे मामले में यह भी स्मरणीय है कि जब से यह मामले दर्ज हुए हैं तब से कांग्रेस के अन्दर वीरभद्र ने सुक्खु को अध्यक्ष पद से हटाने की मांग उठा रखी है। इन्ही मामलों के बाद वीरभद्र ने अपने नाम से ब्रिगेड का गठन करवाया। सुक्खु को हटाने की मांग पर ही चुनावोें मे पूरी कमान अपने हाथ में ली। लेकिन पार्टी को चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा क्योंकि वीरभद्र के इस पूरे कार्यकाल में उनका सारा समय दिल्ली में अपने केसों की पैरवी में ही निकल गया। पूरे कार्यकाल में वह प्रदेश में कुछ ठोस नही कर पाये। संगठन में भी जब सत्ता संभालते ही वह निगमो/बोर्डों की ताजपोशीयां के मामलेे में विवादित हुए तब उन्होने अधिकांश विधायकों के क्षेत्रों में अपने लोगों को ताजपोशीयां देकर समानान्तर सत्ता केन्द्र खड़े कर दिये। विधान चुनावों में अधिकांश में इन समानान्तर सत्ता केन्द्र बने नेताओं ने अधिकारिक उम्मीदवारों के खिलाफ काम किया है जिसके परिणामस्वरूप पार्टी हार गयी।
लेकिन अब पार्टी के हारने के बावजूद वीरभद्र ने सुक्खु को हटाने की मांग चालू रखी है। अब इस मांग को और हवा देते हुए पार्टी सम्मेलन का ही बायकाट कर दिया। वीरभद्र और उनके विधायक बेटे के साथ ही वीरभद्र खेमे के माने जाने वाले विधायकों तथा पूर्व विधायकों से भी इस पार्टीे सम्मेलन का बहिष्कार करवा दिया। अब वीरभद्र बनाम सुक्खु विवाद को जितनी हवा वीरभद्र ने दे दी है उसे देखते हुए विश्लेष्कों के लिये यह बड़ा सवाल बनता जा रहा है कि वीरभद्र ऐसा कर क्यों रहे हैं। अभी हाईकमान ने वीरभद्र को केन्द्र में भी संगठन की किसी भी कमेटी में कोई जगह नही दी है। प्रदेश में व्यवहारिक स्थिति यह बनी हुई है कि यदि आज संगठन की बागडोर वीरभद्र के हाथ में दे दी जाये तो भी कोई लाभ होने वाला नही है। क्योंकि इस कार्यकाल में उनकी उपलब्धि के नाम पर प्रदेश में कोई भी बड़ा निवेशक नही आया। जल विद्युत परियोजनाएं लेने के लिये भी कोई नही आया। उल्टे उनके कार्यकाल में प्रदेश के कर्जभार में ही बढ़ौत्तरी हुई है। उनके कार्यकाल में क्या विकास हुआ है इसका आकलन इसी से किया जा सकता है कि उन्होने अपने क्षेत्र मे डाक्टरों और अध्यापकों की कमी का रोना शुरू कर दिया जबकि यह सवाल तो उन्ही से पूछा जाना चाहिये था कि यह कमीयां क्यों है। कुल मिलाकर स्थिति यह बनती जा रही है कि जिस अनुपात में मोेदी की विश्वसनीयता में कमी आ रही है और कांग्रेस आक्रामक हो रही है उसी अनुपात में वीरभद्र प्रदेश कांग्रेस को कमज़ोर करने पर आमादा हो गये हैं। ऐसा लगने लगा है कि वही वीरभद्र किसी योजना के तहत कांग्रेस को कमज़ोर करक भाजपा को लाभ देने का जुगाड़ कर रहे हैं बल्कि अब तो विक्रमादित्य की होली के अवसर पर आयी एक फेसबुक पोस्ट में जब उन्होने भाजपा में शामिल होने की बात की तो उस पर अब यकीन करने जैसी स्थिति इस पार्टी सम्मेलन का बायकाट करने से बनती जा रही है।
शिमला/शैल। वीरभद्र के खिलाफ सीबीआई में आय से अधिक संपत्ति और ईडी में दर्ज मनीलाॅंड्रिंग मामलें में सहअभियुक्त बने एलआईसी ऐजैन्ट आनन्द चौहान को ईडी ने 8.7.2016 को गिरफ्तार किया था। इस मामलें में 6.9.2016 को चालान दायर हुआ और 7.9.2016 को अदालत ने इसका संज्ञान लिया था। इस प्रकरण में आरोप तय करने के लिये जब 7.7.2017 को यह मामला सुनवाई के लिये आया तब ईडी के विशेष अधिवक्ता ने आरोपों पर बहस करने के लिये यह कहकर समय लिया की इसमें अन्य अभियुक्तों के खिलाफ अनुपूरक चालान सात सप्ताह के भीतर दायर किया जायेगा। इसी आधार पर 4.9.2017 - 31.10.2017 और 15.12.2017 को भी समय लिया गया। लेकिन यह अनुपूरक चालान अन्य अभियुक्तों के खिलाफ आज तक दायर नही हो पाया है। स्मरणीय है कि इसमें वीरभद्र सिंह, प्रतिभा सिंह, चुन्नी लाल चौहान और आन्नद चौहान एंवम अन्य अभियुक्त है। Applicant/ accuse was arrested in this case on 08.07.2016 and complaint was filed in the court against the applicant/accused on 06.09.2016 on which cognizance as taken by Ld. Predecessor on 07.09.2016. The record reveals that on 07.07.2017. Special public prosecutor for ED took adjournment to argue on charge on the ground that supplementary complaint against other accused persons is to be filed within seven weeks. On similar grounds, Adjournment was taken on 04.09.2017, 31.10.2017 and 15.12.2017 Till date, supplementary complaint against other accused persons has not been filed by ED.
स्मरणीय है कि सीबीआई में आय से अधिक संपत्ति प्रकरण में भी यही लोग अभियुक्त है। सीबीआई भी इस मामलें में ट्रायल कोर्ट में चालान दायर कर चुकी है और इसमें आनन्द चौहान सहित अभियुक्तों को ज़मानत भी मिल चुकी है। सीबीआई में यह मामला 27-10-15 को दर्ज हुआ था इसमें आनन्द चौहान के खिलाफ यह आरोप था कि उसके माध्यम से वीरभद्र, प्रतिभा सिंह एवंम अन्य परिजनों के नाम पर जो एलआईसी पाॅलिसियां ली गयी हैं उनमें निवेष हुआ पैसा वीरभद्र का काला धन था। इस काले धन को एलआईसी पाॅलिसियों में निवेष करने के लिये आनन्द चौहान को वीरभद्र के सेब बागीचेे का प्रबन्धक बनाया गया तथा इसके लियेे 15-6-2008 को वीरभद्र सिंह के साथ एक एमओयू साईन किया गया। सीबीआई की जांच में यह एमओयू जाली पाया गया है और इसकी मूल प्रति आनन्द चैहान से गुम हो गयी है। वीरभद्र के खिलाफ यह मामला संशोधित आयकर रिटर्नज़ दायर करने के बाद सामने आया था। क्योंकि मूल आयकर रिटर्नज़ और संशोधित रिटर्नज़ आय में करीब 6 करोड़ की आय का अन्तर आया है। इस बढ़ी हुई आय को बागीचे की आय बताया गया जबकि सीबीआई की नज़र में यह आय से अधिक संपत्ति है और ईडी की नज़र में अपने ही कालेधन को सफेद बनाने के लिये इस तरह के निवेश का सहारा लिया गया है।
संशोधित आयकर रिटर्नज़ में जो आय दिखायी गयी है उसे वीरभद्र ने कभी अस्वीकार नही किया है। इसमें विवाद केवल इतना है कि क्या वीरभद्र के बागीचे से इतनी आय हो सकती थीे या नही। दिल्ली उच्च न्यायालय में भी सीबीआई ने इस संशोधित आकर रिटर्न और 2012 के विधान सभा चुनाव में वीरभद्र सिंह द्वारा दायर शपथ पत्रा में दिखायीे आय में आयी भिन्नता का अदालत ने कड़ा संज्ञान लिया है। 31-3-2017 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में चुनाव के शपथ पत्र को झूठा करार देते हुए इस प्रकरण को चुनाव आयेाग को भेजने और चुनाव नियमों के तहत कारवाई करनेे के निर्देश दिये थे। लेकिन शायद यह मामला चुनाव आयोग तक पहुंच ही नही पाया है। इस तरह इस मामलें में ईडी द्वारा अदालत से अनुपूरक चालान दायर करने के लिये बार -बार समय लेने के बाद चालान का दायर न होना और उच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद शपथ पत्र के मामले का चुनाव आयोग न पहुंचाया जाना ऐसे सवाल है जिनसे केन्द्र की इन दोनो जांच ऐजैन्सीयों की नीयत और नीति पर गंभीर सवाल खडेे होते हैं।
इस मामले को भाजपा ने लोकसभा चुनावों और अब विधानसभा चुनावों में खूब भुनाया है। नरेन्द्र मोदी तक ने यह आरोप लगाये थे कि वीरभद्र के तो पेड़ो परे सेब की जगह नोट उगते हैं लेकिन अब जब ईडी ने आन्नद चौहान को तो डेढ़ वर्ष हिरासत में रखा और उसे ज़मानत तब मिली जब सर्वोच्च न्यायालय ने निकेश ताराचन्द शाह बनाम युनियन आॅफ इण्डिया मामलें में 23.11.17 को दिये फैसले में ईडी अधिनियम की धारा 45 को असंवैधानिक करार दे दिया। सर्वोच्च न्यायलय के इस फैसले के बाद 15.12.17 को भी ईडी ने अनुपूरक चालान दायर करने के लिये समय लिया। लेकिन जब यह चालान दायर ही नही हो सका और 2.1.18 को ट्रायल कोर्ट ने अन्ततः चौहान को ज़मानत दे दी है। चौहान को ज़मानत मिलने के बाद यह परा मामला स्वतः ही कमज़ोर हो जाता है बल्कि इस ज़मानत के बाद वीरभद्र के इस आरोप को बल मिल जाता है कि राजनीतिक दुर्भावना के तहत उसके खिलाफ यह मामले बनाये गये थे।
शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जय राम ठाकुर ने सचिवालय में वरिष्ठ अधिकारियों को सबोंधित करते हुए स्पष्ट किया है कि उसकी सरकार भ्रष्टाचार कतई सहन नही करेगी चाहे वह प्रशासनिक स्तर पर हो या राजनीतिक स्तर पर। इसी के साथ अधिकारियों को यह भी निर्देश दिये है कि वह अपने -अपने विभागों में सौ दिन की कार्य योजना तैयार करे और उसे इसी अवधि में पूरा करें। मुख्यमन्त्री ने अधिकारियों को यह भी खुला आमन्त्रण दिया है कि यदि किसी के पास किसी भी संद्धर्भ में कोई नयी योजना हो तो वह कभी भी उस पर उनसे खुली चर्चा कर सकता है। यह एक ऐसा आमन्त्रण है जिससे यह पता चलेगा कि हमारे वरिष्ठ अधिकारियों को समाज और आम आदमी की कितनी समझ है तथा उसके कल्याण के लियेे किस तरह की व्यवहारिक योजनाएं सोच पाते हैं। मुख्यमन्त्री की अधिकारियों सेे यह अपेक्षा कब और कितनी पूरी होती है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि मुख्यमन्त्री अभी किसी भी तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रसित नही है।
सरकार ने पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र को पहले ही दिन अपनाकर उसेे सरकार का योजना पत्र घोषित कर दिया है। सरकार की सोच को प्रशासनिक तन्त्र ही कार्यान्वित करता है। इसकेे लिये सरकार ने प्रशासनिक फेरबदल को भी अंजाम दे दिया है। भाजपा ने सत्ता में आने के लियेे वीरभद्र सरकार पर सबसे बड़ा हमला भ्रष्टाचार को लेकर बोला था। वीरभद्र की संशोधित आयकर रिटर्नो से ही भाजपा को यह मुद्दा मिला था कि वीरभद्र के तो पेड़ो पर भी नोट उगते है। भ्रष्टाचार का यह आरोप वीरभद्र के साथ अन्त तक चिपका रहा है और इसी के चलते पूरी सरकार पर माफियाराज का आरोप लगा। भाजपा ने इसी आधार पर सरकार के खिलाफ समय समय पर आरोप पत्र सौंपे है और इनकी जांच सीबीआई तक से करवाने की मांगे भी कर चुके हैं। अब भाजपा स्वयं सत्ता में है और भ्रष्टाचार कतई सहन न करनेे का संकल्प भी दोहराया है। ऐसे में अब इस भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कितना कारगर अमल होता है इस पर सबकी निगाहें रहेंगी।
सरकार में भ्रष्टाचार तब तक नही पनपता जब तक नेता और अधिकारी में इसके लिये गठजोड़ न हो जाये। स्वभाविक है कि वीरभद्र सरकार पर लगे माफियाराज के आरोपों में इसी प्रशासन के कुछ छोटे बडे अधिकारियों की भी बराबर की भागीदारी रही होगी। विजिलैन्स के पास दर्जनों गंभीर मामलों की शिकायतें आज भी लंबित है जिन पर कारवाई करने का साहस इसी प्रशासन के कारण नही हो सका है। बहुत सारे संस्थान इसी भ्रष्टाचार की भंेट चढ़ गयें है। जिनमें वित्त निगम का नाम सबसे पहले आता है। विकास इसी भ्रष्टाचार के नीचेे दब कर रह जाता है और इसी कारण से विकास के नाम पर सरकारें बहाल नही होती हैं। भ्रष्टाचार का एक आरोप सारे किये धरे पर पानी फेर देता है इस परिदृश्य में जयराम सरकार अपने स्तर पर वस्तुस्थिति का आंकलन कैसे करती है उस पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा। क्योंकि अभी तक जो प्रशासनिक फेरबदल हुआ है वह एकमुश्त न होकर किश्तों में हुआ है। एक एक करके भी अधिकारियों के आदेश हुए हैं। मुख्य सचिव को बदलने में भी समय लगा है। मुख्यमन्त्री के प्रधान सचिव की दौड़ में भी कई नाम सार्वजनिक चर्चा का हिस्सा बन चुके हैं। वरिष्ठ अधिकारियों में बड़े विभागों के लिये दौड़ रहती ही हैं एक स्वभाविक प्रक्रिया है। लेकिन कई बार इस दौड़ में ऐसा कुछ घट जाता है। जिसका नुकसान आने वाले समय में उठाना पड़ता है। संयोगवश अभी जो फेरबदल हुआ है उसमें भी बहुत कुछ नज़र अन्दाज होने जाने या कर दिये जाने की आशंकाएं अभी से उठने लग पड़ी हैं। यह माना जा रहा है कि इस सरकार पर संघ परिवार की दृष्टि और आर्शीवाद बराबर बना रहेगा क्योंकि संघ के हजारों स्वयं सेवकों ने चुनाव में सक्रिय भूमिका निभाई है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि अकेले संघ के वोटों से ही सरकार नही बनी है। इसलिये संघ और दूसरों में सरकार कितना तालमेल बिठा पाती है उस पर सबकी बराबर निगाहें लग गयी है।