Friday, 19 September 2025
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महागठबन्धन से चुभन क्यों

शिमला/शैल। कर्नाटक विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस और जनता दल (एस) ने भाजपा को उसी रणनीतिक शैली में जवाब दिया है जो उसने गोवा, मणिपुर, मेघालय और बिहार में अपनायी थी। कांग्रेस जद(एस) के मुख्यमन्त्री और उप-मुख्यमन्त्री के शपथ समारोह में देश के कई राजनीतिक दलों के बड़े नेता एक साथ आये हैं। इन नेताओं ने भाजपा को हराने के लिये इकट्ठे होने का संकल्प लिया है। माना भी जा रहा है कि यदि यह गठबन्धन का प्रस्ताव सफल हो जाता है तो भाजपा निश्चित रूप से सत्ता से बाहर हो जायेगी। लेकिन इस गठबनधन की आहट मात्र से ही भाजपा-संघ और उसके पैरोकार परेशान हो उठे हैं। भाजपा-संघ समर्थित मीडिया भी बहुत आहत हो रहा है। सब इस संभावित गठबन्धन को शक्ल लेने से पहले ही इसकी भ्रूण हत्या के प्रयास में जुट गये हैं। जो लोग सक्रिय राजनीति में हैं उनका पहला ध्येय येन-केन-प्रकारेण सत्ता हथियाना होता है और इसके लिये वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। भाजपा के पक्षधर दल इस दिशा में जो भी कर रहे हैं उसे राजनीति की भाषा में गलत नही कहूंगा। लेकिन आज मीडिया का एक वर्ग और उससे जुड़े लोग जब राजनीतिक दलों की ही भाषा बोलने और लिखने लग जाते हैं तो दुःख होता है।
मैं महागठबन्धन की वकालत नही करूंगा लेकिन इसका विरोध करने वालों से कुछ सवाल जरूर करना चाहूंगा। इसके लिये मैं आपका ध्यान आपातकाल की ओर आकर्षित करना चाहूंगा। क्योंकि कर्नाटक के घटना में जब भाजपा पर यह आरोप आया कि उसने देश में लोकतन्त्र की हत्या कर दी है तब इस आरोप का जवाब कांग्रेस को आपातकाल का स्मरण करके दिया गया। यह सही है कि उस समय लोकतन्त्र को चोट पहुंचाई गयी थी। इस चोट का प्रतिकार करने के लिये उस समय का विपक्ष इकट्ठा हुआ था और जनता पार्टी गठित हुई थी। 1980 में यह जनता पार्टी जनसंघ घटक की दोहरी सदस्यता के कारण क्यों टूटी और शिमला के रिज मैदान पर तत्कालीन केन्द्रिय मन्त्री राजनारायण की गिरफ्तारी क्यों हुई तथा उसका जनता पार्टी के भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ा था मैं इसकी व्याख्या में नही जाना चाहता। लेकिन यह सवाल जरूर उठाना चाहता हूं कि क्या आज भी आपातकाल जैसे हालात नही बनते जा रहे हैं? क्या आडवाणी जी ने भी इसका संकेत नही दिया है? आज क्या एनडीए में भाजपा के साथ अन्य दल नही है? क्या पीडीपी और नीतिश के जद (यू) के साथ चुनाव परिणामों के बाद गठबन्धन नही बने हैं।
इसलिये आज यदि इस संभावित आपातकाल का सामना करने के लिये एक महागठबन्धन आकार ले रहा है तो इसमें बुराई क्या है। क्या आज यह स्मरण नही किया जाना चाहिये कि 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान देश की जनता के साथ जो अच्छे दिनों के वायदे किये गये थे उनमें से कितने पूरे हुए हैं। उस समय मोदी जी ने यह कहा था कि वह प्रधानमंत्री नही वरन् प्रधान चैकीदार बनकर देश की सेवा करेंगे। लेकिन क्या इस चैकीदार के सामने से ललित मोदी, विजय माल्या, मेहुल चैकसी और नीरव मोदी जैसे लोग देश का हजारों करोड़ लेकर फरार नही हुए हैं। जिस कालेधन और भ्रष्टाचार को ढ़ोल पीटकर सत्ता में आये थे क्या उस दिशा मेें एक भी ठोस कदम उठाया गया है। आज सरकारी बैंको का एनपीए सात लाख करोड़ से भी ऊपर जा पहुंचा हैं। क्या यह जनता के पैसे की दिन दिहाड़े डकैती नही हैं। क्या इस एनपीए को वसूलने के लिये कोई कदम उठाया गया है। बल्कि जिन नौजवान बैंक मैनजरों ने एनपीए को लेकर सख्ती दिखायी उन्हे नीतिश के बिहार में गोली मार दी गयी। क्या एनपीए के नाम पर शीर्ष बैंक प्रबन्धन अपनी बईमानी को छिपा सकता है। क्या यह सही नही है कि इसी एनपीए के कारण बैंको में पैसे की कमी का प्रभाव सरकार के राजस्व पर भी पड़ा है। क्योंकि इसी एनपीए वालों को अपरोक्ष में लाभ देने के लिये ही तो नोटबंदी लायी गयी थी। यदि कालेधन को लेकर सरकार का आकलन और सूचना सही होती तो स्थिति ही कुछ और होती। पुराने नोट बन्द करने के बाद जब वही नोट पूरी करंसी का करीब 90% वापिस आ गया और उसे बदलना पड़ा तो सारा गणित गड़बड़ा गया। इसी कारण से आज सरकार तेल की कीमतें बढाकर अपना राजस्व इकट्ठा कर रही है। तेल को इसी कारण से जीएसटी के तहत नहीं लाया जा रहा है। इस तरह के आज अनेकों कारण ऐसे खड़े हो गये हैं जो आपातकाल से भी बदत्तर स्थिति बन गयी है। विरोध की हर आवाज़ को देशद्रोह कहने का चलन शुरू हो गया है।
इस परिदृश्य में आज देश को मन्दिर-मस्जिद, हिन्दु-मुस्लिम और दलित बनाम अन्य के नाम पर ज्यादा देर तक नही चलाया जा सकता। किसान आत्महत्या के कगार पर पहुंचा हुआ है। लाखों टन अनाज खुले में बर्बाद हो रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही है। क्या यह सारे कारण एक नये राजनीतिक गठबन्धन की आवश्यकता नही बन जाते? इस संभावित गठबन्धन को नेता के प्रश्न पर जिस तरह तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है और उसमें मीडिया का भी एक वर्ग सक्रिय भूमिका निभाने में लग गया है वह चिन्ता और निंदा का विषय है।

कर्नाटक में सत्ता ही नही नीयत और नीति भी हारी भाजपा

कर्नाटक में अन्ततः सत्ता भाजपा के हाथ नही आ पायी है। भाजपा की यह हार सत्ता से अधिक उसकी नीयत और नीति की हार है। क्योंकि जिस तर्क से उसने गोवा, मणीपुर, मेघालय और बिहार में सरकारें बनायी थी उसी तर्क पर उसके हाथ से कर्नाटक की सत्ता निकल गयी। गोवा, मणिपुर, मेघालय और बिहार में सभी जगह चुनाव परिणामों के बाद गठबन्धन बनाकर सत्ता हासिल की गयी थी लेकिन जब कर्नाटक में कांग्रेस और जद (एस) ने उसी रणनीति का सहारा लेकर चुनावों के बाद गठबन्धन बनाकर अपना बहुमत बना लिया और राज्यपाल ने गठबन्धन को सरकार बनाने के लिये आमन्त्रित न करके भाजपा को सबसे बड़े दल के रूप में यह न्यौता दे दिया तब सर्वोच्च न्यायालय में यह मामला पहुंच गया। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपाल के फैसले पर अपना कोई अन्तिम फैसला न देते हुए उसमें आंशिक सुधार करके बहुमत सिद्ध करने के लिये 15 दिन के समय को घटाकर शनिवार चार बजे तक का समय कर दिया। सदन की कार्यवाही चलाने के लिये अध्यक्ष का होना आवश्यक होता है लेकिन अध्यक्ष का विधिवत चुनाव सदस्यों द्वारा शपथ लेने के बाद ही होता है और शपथ दिलाने के लिये राज्यपाल प्रोटम अध्यक्ष की नियुक्ति करता है। यहां राज्यपाल ने जिस विधायक को प्रोटम स्पीकर नियुक्त किया उस पर कांग्रेस और जद (एस) ने एतराज उठाया। मामला एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा। न्यायालय ने प्रोटम स्पीकर को तो नही हटाया लेकिन सदन की सारी कारवाई के लाईव टैलीकास्ट के आदेश कर दिये। इस तरह जब सदन की कारवाई चली और मुख्यमन्त्री येदियुरप्पा ने विश्वास मत का प्रस्ताव रखा तब इस प्रस्ताव पर मतदान होने से पूर्व ही अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।
इस तरह चुनाव परिणामों से लेकर मुख्यमन्त्री के त्यागपत्र देने तक जो कुछ घटा है उससे स्पष्ट हो गया है कि भाजपा ने सत्ता हथियाने के लिये कोई कोर- कसर नही छोड़ी थी। इन प्रयासों में मीडिया चैनलों और सोशल मीडिया में सरदार पटेल से लेकर आपातकाल और बुटा सिंह प्रकरण तक का सारा राजनीतिक इतिहास देश के सामने अपने ही तर्कों के साथ परोसा गया। यह कहने का प्रयास किया गया कि कांग्रेस ने भी भूतकाल में ऐसा ही कुछ किया था इसलिये आज भाजपा को वह सब कुछ दोहराने का दो गुणा हक हासिल हो गया है। इसमें भाजपा के पक्षधरों ने एक बार भी यह नही माना कि जो कुछ उसने गोवा, मणिपुर और मेघालय में किया था वही सबकुछ अब कांग्रेस और जद(एस) कर रहे हैं वह भी जायज है। सत्ता के इस खेल के लिये भाजपा जिस हद तक चली गयी है उससे भाजपा की नीयत और नीति दोनों पर एक बड़ा सवालिया निशान लग गया है। क्योंकि इस चुनाव में जिस हद तक मोदी, अमितशाह और योगी चुनाव प्रचार में चले गये थे उससे यह चुनाव एक तरह से केन्द्र सरकार बनाम कांग्रेस होकर रह गया था। चुनाव प्रचार में जिस तरह से भाषायी मर्यादाएं लांघ दी गयी थी उसको लेकर पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह को भी राष्ट्रपति को पत्र लिखने के लिये बाध्य होना पड़ा है। लेकिन इस सारे प्रचार के बावजूद मोदी, शाह और योगी भाजपा को बहुमत नही दिला पाये। बल्कि वोट शेयर में भी कांग्रेस को 38% तो भाजपा को 36% वोट हासिल हुए हैं। प्रधानमन्त्री के इतने प्रयासोें के बाद भी भाजपा को बहुमत न मिल पाना और उसके बाद सत्ता के लिये अपनाई गयी रणनीति का इस तरह असफल हो जाना भाजपा के भविष्य के लिये खतरे का संकेत है। क्योंकि इससे यही संकेत और संदेश जाता है कि भाजपा देश की जनता को दे पायी है कि सत्ता के लिये वह किसी भी हद तक जा सकती है।
कर्नाटक के इस चुनाव के बाद जो कुछ घटा है उसने एक और सवाल खड़ा कर दिया है कि जिन लोगों को राजनीतिक दल अपना टिकट देकर चुनाव मैदान में उतारते हैं उनमें से अधिकांश अभी तक इसके पात्र नही बन पाये हैं। भाजपा के पास आंकड़ो का बहुमत नही था। यह बहुमत कांग्रेस और जद(एस) के विधायकों को किसी न किसी तरह तोड़कर ही हासिल किया जाना था। इसी व्यवहारिक सच को जानते हुए भी राज्यपाल ने भाजपा को यह सबकुछ करने का मौका दिया इससे राजभवन की मर्यादा को ही नुकसान पहुंचा है जो कि लोकतन्त्र के भविष्य के लिये एक बड़ा खतरा बन गया है। इस सबसे हटकर भी यदि मोदी सरकार का आकलन किया जाये तो भी यह सरकार अपने ही वायदों पर खरी नही उतरती है। 2014 में सत्ता में आने के लिये यह वायदा किया था कि कांग्रेस जो 60 वर्षों में नही कर पायी है वह हम 60 महीनों में कर देंगे। अच्छे दिनों का दावा किया गया था। लेकिन बेरोज़गारी और मंहगाई का जो स्तर 2014 के चुनावों से पहले था आज उससे भी बदत्तर हो चुका है। भ्रष्टाचार के खात्मे के जो दावे किये गये उनमें भी आज तक एक भी मामला अन्तिम परिणाम तक नही पहुंचा है बल्कि इस सरकार में मुख्य अभियुक्त तो खुले घूमते और सत्ता भोगते रहे और उनके सहअभियुक्त बिना फैसले के सलाखों के पीछे रहे। नोटबन्टी के फैसले ने देश की अर्थव्यवस्था को जो व्यवहारिक नुकसान पहुंचाया उससे उबरने के लिये दशकों लग जायेंगे। इसी नोटबन्दी का परिणाम आज सामने आ रही कंरसी की कमी है। सत्ता के लिये सारे स्थापित संस्थानों को विश्वसनीयता के संकट के कगार पर पहुंचा दिया है। इन्ही के साथ यह सवाल भी अभी तक कायम है कि यह सरकार इतने प्रचण्ड बहुमत के बाद भी धारा 370 को हटा नही पायी है बल्कि 35(A) को लेकर जो याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में आयी हैं उन पर अभी तक बन पाया सरकार अपना जबाव दायर नही कर पायी है। राम मन्दिर अभी तक नही बन पाया है और विश्वहिन्दु परिषद् के नेता डा. प्रवीण तोगड़िया ने जो आरोप लगाये हैं उनका भी कोई खण्डन आज तक नही आ पाया है। इस तरह कर्नाटक के घटनाक्रम ने भाजपा की नीयत और नीति पर देश के सामने एक नयी बहस का जो मुद्दा परोस दिया है उसने विपक्ष को नये सिरे से एकजुट होने का मौका दे दिया है।

मुख्यमन्त्री की कार्यशैली पर उठने लगे सवाल

शिमला/शैल। लोकसभा के आगामी चुनावों के लिये सत्तारूढ़ भाजपा अभी से रणनीति बनाने में जुट गयी है इसके लिये पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में बैठकों का दौर शुरू हो चुका है। उच्चस्थ सूत्रों के मुताबिक भाजपा हाईकमान मानकर चल रही है कि इस बार भी उसे प्रदेश की चारों सीटें मिल जायेंगी। हाईकमान की यह अपेक्षा कितनी पूरी होती है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन जिन मानकों के आधार पर ऐसे आकलन किये जाते हैं वह सार्वजनिक रूप से सबके सामने है। उस दिवार पर लिखे हुए को कोई कितना खुली आॅंख से पढ़ता और कितना बंद आॅंख से यह हर आदमी पर व्यक्तिगत रूप से निर्भर करेगा। क्योंकि जो लोग भीष्म पितामह से बंधकर गांधारी की तरह आंख पर पट्टी बांध कर चलेंगे उनका आंकलन अलग होगा और बाकियों का अलग। यह चुनाव केन्द्र और राज्य सरकार दोनों के कामकाज़ पर स्पष्ट फतवा होगा यह तय है। जो लोग इस फतवे में भाग लेंगे उन्हे भी आसानी से तीन वर्गों में चिन्हित किया जा सकता है। इसमें राजनीतिक वर्ग को छोड़कर सबसे पहले शीर्ष प्रशासनिक वर्ग आता है। यह वह वर्ग होता है जिसे स्थायी सरकार कहा जाता है जिनके वेतन- भत्ते देश के राष्ट्रपति द्वारा सुरक्षित होते है। प्रशासन का यही शीर्ष वर्ग राजनीतिक नेतृत्व का जहां सिद्धान्त रूप से पथ प्रदर्शक होता है वहीं पर यही वर्ग सत्ता डूबने और तैरने का भी कारण रहता है। इस वर्ग के बाद दूसरे स्थान पर राजनीति कार्यकर्ताओं का वर्ग आता है। यह वर्ग जहां सिद्धान्त रूप से पार्टी की नीतियों और कार्यक्रमों से जुड़ा हुआ होने का दावा करता है। वहीं पर जब इस वर्ग की भी अपनी अपेक्षाएं और व्यक्तिगत स्वार्थ पूरे नही हो पाते है तब यही वर्ग नेतृत्व का आलोचक हो जाता है। इसके बाद तीसरा वर्ग वह आता है जो मतदाता होता है, यह वर्ग अब हर रोज जागरूक होता जा रहा है। उसी की सीधी नज़र दूसरे वर्ग पर बनी रहती है। यह वर्ग सबसे पहले यह जान पाता है कि दूसरे वर्ग को व्यक्तिगत रूप से कितने और क्या लाभ मिले हैं।
इन मानकों पर यदि प्रदेश का आकलन किया जाये तो सबसे पहलेे मुख्यमंत्राी इस आकलन का विषय बनते हैं। मुख्यमन्त्री का बतौर विधायक यह पांचवा कार्यकाल है। वह एक बार मन्त्री भी रह चुके हैं और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी। विद्यार्थी काल में आरएसएस और विद्यार्थी परिषद् के सक्रिय नेता/ कार्यकर्ता रह चुके हैं। 1998 से वह विधायक चले आ रहे हैं। उन्ही की तरह केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा 1990 में विधायक बन गये थे और विद्यार्थी परिषद् के अखिल भारतीय अध्यक्ष भी रह चुके हैं। प्रदेश में भी मन्त्री रह चुके हैं। इस बार मुख्यमन्त्री की दौड़ में वह सबसे पहले स्थान पर थे। एक समय तो वह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की रेस में भी माने जा रहे थे। नड्डा के साथ ही दूसरा नाम सुरेश भारद्वाज का आता है। भारद्वाज भी 1990 में विधायक बन गये थे। विद्यार्थी परिषद् के अखिल भारतीय महामन्त्री पर प्रदेश के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नड्डा और भारद्वाज भी वरियता मे जय राम से कम नही है और यदि किसी समय जयराम के विकल्प की चर्चा उठती है तो स्वभाविक रूप से इन दो नामों की चर्चा सबसे पहले आयेगी जबकि महेन्द्र सिंह सबसे वरिष्ठ है लेकिन वह आरएसएस से जुड़े नही रहे हैं इसलिये इस गणना से बाहर हो जाते हैं।
इस परिदृश्य में जब अगले लोकसभा चुनावों को लेकर रणनीति तैयार की जायेगी तो उसमें केन्द्र की मोदी सरकार की उपलब्धियां और प्रदेश की जयराम सरकार की कारगुजारीयां दोनो की बराबर की भूमिका रहेगी। केन्द्र की मोदी सरकार को लेकर अब यह धारणा पूरी तरह पुख्ता हो चुकी है कि मोदी के भाषणों के अतिरिक्त व्यवहारिक तौर पर इस सरकार की ऐसी कोई उपलब्धि नहीं रही है जिसको लेकर इस सरकार का फिर से समर्थन किया जाये। मंहगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसे हर मोर्चे पर यह सरकार बुरी तरह असफल रही है। पाकिस्तान, बंग्लादेश, नेपाल और चीन के साथ संबंधो में कोई गुणात्मक सुधार सामने नहीं आ पाया है। प्रधानमन्त्री चीन यात्रा के दौरान जब बड़े सकारात्मक दावे कर रहे थे तब उसी समय भारत- तिब्बत मैत्री संघ की बैठक में चीन को सबसे बड़ा घातक करार दिया जा रहा था। आज प्रधानमन्त्री के भाषणों की भी वह गरिमा नही रही है जो अबतक मानी जा रही थी। प्रधानमन्त्री के स्तर पर यह सार्वजनिक रूप से माना जाने लगा है कि प्रधानमन्त्री के भाषणों से ही चुनावी सफलता मिलना आसान नही होगा। नोटबंदी के बाद देश की अर्थव्यवस्था को जो आघात पहुंचा था वह अब एटीएम में कैश की कमी तक पहुंचा चुका है।
इसी कड़ी में जब चार माह की जयराम सरकार का आंकलन किया जा रहा है तो उस पर कसौली कांड को लेकर जो फतवा सर्वोच्च न्यायालय के बाद शान्ता कुमार और वीरभद्र सिंह दे चुके हैं उसी से स्थिति बहुत स्पष्ट हो जाती है। यही नहीं इन अवैध निर्माणों के लिये एनजीटी जिन लोगों को सीधे नाम से चिन्हित करके कारवाई करने के निर्देश दे चुका है उन लोगों के खिलाफ आज तक कारवाई न हो पाना सरकार की नीयत और नाति पर अपने में ही एक बड़ा फतवा हो जाता है। आज यह चर्चा आम हो चुकी है कि सरकार में पूरी तरह अराजकता का माहौल बन चुका है। सरकार जो काम कर भी रही है उसका कोई सकारात्मक सन्देश नही जा पा रहा है। मुख्यमन्त्री जितना समय सचिवालय से बाहर गुजा़र रहे हैं वह अब उपलब्धि की जगह असफलता माना जा रहा है। आज संघ के भी कई गंभीर लोग यह मान रहे हैं कि लोकसभा चुनावों में इच्छित सफलता मिलना कठिन है।

काली खो पुल के पत्र पर खामोशी क्यों

शिमला/शैल। क्या लोकतन्त्र सही मे खतरे मे पड़ चुका है? क्या अब इन्साफ की प्रतीक‘‘आंखो पर पटी बंधी देवी’’ का अर्थ बदल चुका है? अब न्यायधीशों को ‘‘माईलाॅर्ड’’ का सम्बोधन अर्थहीन हो चुका है? क्या अब इन्साफ राजनीति की दहलीज़ से होकर मिलेगा? आज यह सारे सवाल एकदम उठ खडे हुए हैं और जवाब मांग रहे हैं लेकिन जवाब कहीं से भी नही आ रहा है। क्योंकि आज देश के सर्वोच्च न्यायालय का भविष्य क्या हो इस पर चिन्ता और चिन्तन करने के लिये इसी सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ जजों ने प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखकर ‘‘फुल कोर्ट ’’ बुलाने का आग्रह किया है। इससे पहले सर्वाेच्च न्यायालय के ही चार वरिष्ठतम जजों ने पूरी प्रैस के माध्यम से अपनी चिन्ता देश के साथ सांझी की थी। यह कोई पत्रकार सम्मेलन नही था क्योंकि इसमें किसी भी तरह के कोई प्रश्न नही पूछे गये थे और जजों ने भी जो पत्र उन्होने प्रधान न्यायाधीश को लिखा वही प्रैस के सामने रखा था। इसके बाद जब जज लोया की हत्या की जांच किये जाने की मांग को सर्वोच्च न्यायालय नेे खारिज करते हुए याचिकाकर्ताओं को एक तरह से लताड़ लगाई तब प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव 71 सांसदों के हस्ताक्षरों के साथ राज्यसभा में दायर कर दिया गया। देश के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। अब इस खारिज किये जाने को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने की बात प्रस्तावकों ने की है। इसलिये महाभियोग में लगाये गये आरोपों पर अभी चर्चा करना बहुत संगत नही होगा। लेकिन महाभियोग के इस प्रस्ताव को जज लोया की मौत की जांच की मांग पर आये फैसले का प्रतिफल कहा जा रहा है। इसके लिये मेरा पाठकों से आग्रह है कि वह गोधरा काण्ड के बाद गुजरात में भड़की हिंसा पर एक किताब आयी है। ‘‘गुजरात फाईल्स’’ इसका अध्ययन अवश्य करें। इस किताब को लेकर अगले लेख में विस्तार से चर्चा करूंगा।
लेकिन इस समय इस महाभियोग में लगाये गये आरोपों से हटकर मैं पाठकों का ध्यान अरूणांचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री काली खो पुल के उस पत्र की ओर आकर्षित करना चाहूंगा जो उन्होंने अपनी मौत से पहलेे लिखा था। काली खो पुल 9 अगस्त 2017 को अपने घर में सुबह मृत पाये गये थे। जैसे ही उनकी मौत की खबर आयी थी तब सम्बन्धित प्रशासन उनके घर पहुंचा और सारी औपचारिकताओं के बाद उनका अन्तिम संस्कार किया गया था। उस समय यह 60 पन्नों का पत्र सामने आया था। इस पत्र के हर पन्ने पर स्व. पुल के हस्ताक्षर हैं। इस पत्र को आत्महत्या से पूर्व समाने आने से पुल की मौत को आत्महत्या माना गया और पत्र को आत्महत्या से पूर्व का हस्ताक्षरित ब्यान। कानूनी प्रावधानों की अनुपालना करते हुए इस पत्र के आधार पर उनकी जांच किये जाने का प्रशासन ने फैसला लिया था और राज्यपाल राज खोबा ने भी इस जांच का अनुमोदन किया था। लेकिन जब किन्ही कारणों से यह जांच नही की गयी तथा राज्यपाल को भी हटा दिया गया तब पुल की पत्नी दंगविमसाय पुल ने फरवरी 2016 में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायधीश को पत्र लिखकर इस पत्र में नामित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की अनुमति मांगी थी। यह अनुमति सर्वोच्च न्यायालय के 1991 में के वीरा स्वामी के मामले में आये फैसले के आधार पर मांगी गयी थी। इस फैसले में जजों को भी 1986 के भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत जनसेवक करार देते हुए यह प्रावधान किया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय के जजों के खिलाफ एफआईआर करने के लियेे प्रधान न्यायधीश से अनुमति लेनी होगी। इसी अनुमति के लिये यह पत्र लिखा गया था। लेकिन अनुमति देने की बजाये इस पत्र को याचिका में बदल दिया गया और जस्टिस आदर्श गोयल और जस्टिस यू यू ललित की खंडपीठ को सुनवायी के लिये दिया गया। जस्टिस गोयल ने अपने को मामले से यह कहकर हटा लिया कि उन्होने जस्टिस केहर के साथ काम किया है। श्रीमति पुल को अन्ततः यह पत्र वापिस लेना पड़ा जिसको लेकर बहुत कुछ कहा गया है।
कालीखो पुल कांग्रेस नेता थे और राज्य में अपने पहले चुनाव जीतने के बाद ही मन्त्री बन गये थे। जब वह मुख्यमंत्री बने उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। प्रणव मुखर्जी वित्त मन्त्री थेे तब उन्होंने राज्य के लिये 200 करोड़ की ग्रांट लेने के लियेे कैसे कांग्रेस नेताओं नारायण स्वामी, कमलनाथ, सलमान खुर्शीद, गुलाम नवी आजाद, मोती लाल बोहरा और कपिल सिब्बल के साथ उनकी मुलाकातें रही और किसने उनसे क्या मांगा इसका पुरा खुलासा उनके पत्र में है। लेकिन सबसे बड़ा खुलासा तो सर्वोच्च न्यायालय के जजों को लेकर है। किसने कैसे कितने पैसे उनसे मांगे किसको क्या दिया इसका पूरा खुलासा है। इसमें मुख्य न्यायधीश रहे जस्टिस केहर और अब मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा तक का नाम है। सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों का नाम इस पत्र में है। 86 करोड़ से लेकर 49 करोड़ और 37 करोड़ की मांग की गयी। कपिल सिब्बल को लेकर भयानक खुलासा है। यह पत्र एक पूर्व मुख्यमन्त्री का अपनी आत्महत्या से कुछ पहले लिखा गया पत्र है। यह पत्र सार्वजनिक हो चुका है। इसलिये आज जब महाभियोग की बात की जा रही तब क्या यह पत्र उसमें प्रसांगिक नही है? इस पत्र पर जांच क्यों नही होनी चाहिये। इस पत्र को लेकर सभी राजनीतिक दल खामोश क्यों है। इसी तरह की खामोशी गुजरात फाईल्स को लेकर है। क्या यह खामोशी पूरी व्यवस्था पर अविश्वास नही खड़ा करती है।

बढ़ता सामाजिक ध्रुवीकरण समय पूर्व चुनावों का संकेत

शिमला/शैल। मोदी सरकार को सत्ता में आये चार साल हो गये हैं। अगले चुनावों के लिये एक वर्ष बचा है। यदि तय समय मई 2019 से पहले यह चुनाव नही होते हैं तो। वैसे यह संभावना बनी हुई है कि शायद लोकसभा का चुनाव 2018 के अन्त तक ही करवा लिया जाये। इस संभावना का बड़ा आधार यह माना जा रहा है कि विपक्ष अब एक जुट होने का प्रयास कर रहा है। विपक्ष की इस संभाविक एकजुटता का असर उत्तर प्रदेश में देखने को मिल चुका है। जहां सपा-वसपा के साथ आने पर योगी सरकार दोनों ही सीटों का उपचुनाव हार गयी जबकि यह सीटें मुख्यमन्त्री और उप मुख्यमन्त्री द्वारा खाली की गयी थी। यही नही इसी के साथ भाजपा राजस्थान, मध्यप्रदेश और बिहार में भी उपचुनाव हार गयी इन सारे राज्यों में भाजपा की ही सरकारें थी। वैसे मोदी सरकार लोकसभा का कोई भी उपचुनाव नही जीत पायी है। कई केन्द्रिय विश्वविद्यालयों में हुए छात्र संघो के चुनावों में भी भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को हार का सामना करना पड़ा है। इन विश्व़विद्यालयों में मोदी के अपने लोकसभा क्षेत्रा का बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय भी शामिल है। जहां पिछले लोकसभा चुनावों में पूरा युवा वर्ग, पूरा छात्र समुदाय बहुमत में मोदी के साथ खड़ा था वह आज वैसा हीे नही रह गया है।
पिछले चुनावों में जो वायदे आम आदमी से किये गये थे वह व्यवहार में कोई भी पूरे नही हुए हैं। कालेधन को लेकर जो दावे और वायदे किये गये थे वह पूरे नही हुए हैं। मंहगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसे बड़े मुद्दों पर सरकार एकदम असफल रही है। बल्कि इनके स्थान पर देश के सामने आया है हिन्दु मुस्लिम विवाद, फिल्म पदमावत, पाकिस्तान और चीन के साथ तनाव, गौ सेवा, गौ वध, तीन तलाक, बाबा रामदेव का योग, वन्देमारतम, राष्ट्रभक्ति और अन्त में आरक्षण। चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की निष्पक्षता अदालत के फैसले से लगा प्रश्न चिन्ह सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम जजों का पहली बार पत्रकार वार्ता के माध्यम से अपना रोष जनता के सामने लाना। दर्जनों पूर्व नौकरशाहों द्वारा प्रधानमंत्री को एक सामूहिक पत्र लिखकर अपनी वेदना प्रकट करना। यह कुछ ऐसे मुद्दे आज देश के सामने आ खड़े हुए हैं जिनको लेकर परे सामज के अन्दर एक ध्रुवीकरण की स्थिति खड़ी हो गयी है। क्योंकि यह ऐसे मुद्दे हैं जिनका देश की मूल समस्याओं पर से ध्यान भटकाने का प्रयास किया जा रहा है। आज रोटी, कपड़ा और मकान के साथ शिक्षा और स्वास्थ्य बुनियादी आवश्यकताएं बन चुकी हैं। लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्थिति यह हो गयी है कि अच्छी शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सेवा साधारण आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही है क्योंकि यह अपने में सेवा के स्थान पर एक बड़ा बाज़ार बन चुकी है।
अभी दलित अत्याचार निरोधक अधिनियम को लेकर आया सर्वोच्च न्यायालय का फैसला कैसे आरक्षण के पक्ष-विपक्ष तक जा पहुंचा है यह अपने में एक बड़ा सवाल बन गया है। लेकिन यह हकीकत है कि आरक्षण का मुद्दा अगले चुनावों में एक प्रमुख मुद्दा बनाकर उछाला जायेगा। क्योंकि इसी मुद्दे पर वीपी सिंह की सरकार गयी थी और कई छात्रों ने आत्मदाह किये थे। इस समय भी ऐसा ही लग रहा है कि एक बार फिर इस मुद्देे को उसी आयाम तक ले जाने की रणनीति अपनाई जा रही है। इसका और कोई परिणाम हो या न हो लेकिन इससे समाज में ध्रुवीकरण अवश्य होगा। इस ध्रुवीकरण का राजनीतिक परिणाम क्या होगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन यह तय है कि यह सवाल अवश्य उछलेंगे और सरकार को इन पर जवाब देना होगा। फिर इन्ही मुद्दों के साथ उनाव और कटुआ जैसे कांड जुड़ गये हैं और ऐसे कांड देश के कई राज्यों में घट चुके हैं। संयोगवश ऐसे कांड अधिकांश में भाजपा शासित राज्यों में घटे हैं लेकिन इनकी सार्वजनिक मुखर निन्दा करने और इनपर कड़ी कारवाई करने की मांग में भाजपा नेतृत्व खुलकर सामने नही आया है।
इस परिदृश्य में यह माना जा रहा है कि इन सारे मुद्दों पर सरकार के पास कोई संतोषजनक उत्तर नही है। इसलिये आने वाले समय में 2019 के चुनावों तक इन मुद्दों का दंश ज्यादा नुकसानदेह होने से पहले ही मोदी इसी वर्ष चुनाव का दाव खेल दें तो इनमें कोई हैरानी नही होनी चाहिये।

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