नागरिकता संशोधन अधिनियम पर उभरा विरोध लगातार बढ़ता जा रहा है। जनता प्रधानमंत्री मोदी की बात नही सुन रही है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि जनता प्रधानमंत्री पर विश्वास नही कर पा रही है। यही सबसे दुखद है कि प्रधानमंत्री जनता का विश्वास खोते जा रहे हैं। इसलिये यह जानना/ समझना बहुत आवश्यक हो जाता है कि ऐसा हो क्यों रहा है। क्या प्रधानमंत्री को अपने ही लोगों का सहयोग नही मिल रहा है। क्योंकि मोदी के मन्त्री अमितशाह, प्रकाश जावडेकर, रविशंकर प्रसाद जैसे वरिष्ठ लोग ही प्रधानमन्त्री से अलग भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। प्रधानमन्त्री और उनके मन्त्रीयों के अलग -अलग ब्यानों से पैदा हुए विरोधाभास के कारण उभरी भ्रान्ति तथा डर को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में इण्डियन यूनियन मुस्लिम लीग और असम ऐडवोकेट ऐसोसियेशन ने दो याचिकाएं भी दायर कर दी हैं। बंगाल के एक अध्यापक मण्डल की एनपीआर को लेकर आयी याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को नोटिस भी जारी कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय में केरल सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर विधिवत चुनौती दे रखी है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस संद्धर्भ में आयी पांच दर्जन से अधिक याचिकाओं पर 22 जनवरी से सुनवाई करने की भी घोषणा कर दी है। ऐसे मे जब सर्वोच्च न्यायालय ने इस विषय पर सुनवाई शुरू करने की बात कर दी है तो केन्द्र सरकार को भी इस अधिनियम और इसी के साथ एनपीआर तथा एनआरसी पर शीर्ष अदालत का फैसला आने तक सारी प्रक्रिया स्थगित कर देनी चाहिये।
इस समय नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों में आ चुकी हैं उससे पता चलता है कि देश में इसका विरोध कितना हो रहा है। शायद आज तक इतना विरोध किसी भी मुद्दे पर नही उभरा है। एनआरसी, सीएए और एनपीआर का जिस भी व्यक्ति ने ईमानदारी से अध्ययन किया है वह मानेगा कि तीनों में गहरा संबंध है बल्कि एनपीआर ही सबकी बुनियाद है। ऐसे में जब प्रधानमंत्री अैर उनके मन्त्री इस विषय पर कुछ भी बोलते हैं तो उससे सरकार और नेतृत्व की नीयत पर ही सवाल खड़े होने लग जाते हैं। राज्य मन्त्री किरन रिजजू ने राज्य सभा में 24-7-2014 को एक प्रश्न के उत्तर में स्वयं यह माना है कि एनपीआर ही इस सबका आधार है। स्थितियां जो 2014 में थी वही आज भी हैं। यह सही है कि अवैध घुसपैठिये और धर्म के कारण प्रताड़ित हो कर आने वाले व्यक्ति में फर्क होता है। प्रताड़ित की मद्द की जानी चाहिये घुसपैठिये की नहीं लेकिन फर्क कैसे किया जायेगा सवाल तो यह है। क्योंकि नियमों में ऐसा कोई प्रावधान ही नही रखा गया है। जिस तरह की परिस्थितियां निर्मित की जा रही हैं उससे यही संकेत उभरता है कि केवल मुस्लिम समुदाय के लोगों को ही बाहर का रास्ता दिखाने की बिसात बिछायी जा रही है।
प्रधानमन्त्री कह चुके हैं कि एनआरसी को लेकर कहीं कोई चर्चा ही नही हुई है और जब इस पर सरकार में कोई चर्चा कोई फैसला ही नही हुआ है तब एनपीआर को लेकर कोई प्रक्रिया क्यों शुरू की जा रही है इसके लिये धन का प्रावधान क्यों किया जा रहा है। एनपीआर का प्रतिफल तो एनआरसी और सीएए में आयेगा। जब एनआरसी लागू ही नही किया जाना है तो एनपीआर का बखेड़ा ही क्यों शुरू किया जाये। सर्वोच्च न्यायालय में आयी याचिकाओं पर सरकार को यह जवाब देना है। सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी एक तरफ प्रधानमंत्री और उनके मन्त्रीयों के ब्यान होंगे और दूसरी एनआरसी, सीएए तथा एनपीआर पर जारी सरकारी आदेश होंगे। सबका मसौदा सामने होगा। यह स्थिति एक तरह से सरकार और सर्वोच्च न्यायालय दोनो के लिये परीक्षा की घड़ी होगी। इस परीक्षा में दोनो का एक साथ पास होना संभव नही है। लेकिन किसी एक का भी असफल होना देश के लिये घातक होगा। आज देश की अर्थव्यवस्था भी एक संकट के दौर से गुजर रही है और इसे नोटों पर महात्मा गांधी की जगह लक्ष्मी माता की फोटो छापकर उबारा नही जा सकता जैसा कि भाजपा नेता डा. स्वामी ने सुझाव दिया है। इस समय सरकार को अपने ऐजैण्डे से हटकर नागरिकता संशोधन को वापिस सर्वदलीय बैठक बुलाकर सर्व सहमति से इसका हल निकालना होगा। यदि ऐसा नही हो पाता है तो आने वाला समय नेतृत्व को माफ नही कर पायेगा।
इस परिदृश्य में यदि सारी वस्तुस्थिति का आकलन किया जाये तो सबसे पहले यह सामने आता है कि सरकार इस संशोधन को लेकर यह तर्क दे रही है कि देश की जनता ने उसे इसके लिये अपना पूरा समर्थन दिया है क्योंकि उसने लोकसभा चुनावों के दौरान अपने घोषणा पत्रा में इसका स्पष्ट उल्लेख किया हुआ है। आज सत्ता में आने पर उसी घोषणा पत्रा को अमली शक्ल दी जा रही है। भाजपा का यह चुनाव घोषणा पत्र मतदान से कितने दिन पहले जारी हुआ था और इस पर कितनी सार्वजनिक बहस हो पायी थी यह सवाल हर पक्षधर को ईमानदारी से अपने आप से पूछना होगा। भाजपा को देश के कुल मतदाताओं के कितने प्रतिशत का समर्थन हासिल हुआ है यदि इसका गणित सामने रखा जाये तो बहुजन के समर्थन का दावा ज्यादा नही टिक पायेगा यह स्पष्ट है। इसी के साथ दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि लोकसभा चुनावों में भाजपा और जेडीयू ने इकट्ठे मिलकर चुनाव लड़ा। लेकिन आज नितिश कुमार ने कहा है कि वह इस विधयेक पर अपने राज्य में अमल नही करेंगें यही स्थिति शिवसेना की है। लोस चुनावों में भाजपा के साथ थी लेकिन आज अलग होकर अपनी सरकार बनाकर महाराष्ट्र में इस विधयेक को लागू न करने की घोषणा की है। आकाली दल भी खुलकर इस अधिनियम के पक्ष में नही आया है। आखिर क्यों भाजपा के सहयोगी रहे यह दल नागरिकता संशोधन का समर्थन नही कर रहे हैं।
गैर भाजपा शासित सभी राज्यों के मुख्यमन्त्रियों ने इस अधिनियम पर अपने-अपने राज्यों में अमल करने से मना कर दिया है। जब से इस संशोधन को लेकर विवाद, खड़ा हुआ है उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को सीधे समर्थन नही मिला है। हरियाणा में लोकसभा चुनावों में सभी सीटें जीतने के बाद विधानसभा में अपने दम पर सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल नही कर पायी। झारखण्ड भी उसके हाथ से निकल गया है। इस समय देश के दस बड़े राज्यों के मुख्यमन्त्री खुलकर इस अधिनियम का विरोध कर रहे हैं। देश में ऐसा पहली बार हो रहा है कि केन्द्र और राज्यों में किसी मुद्दे पर टकराव की स्थिति उभरी है। सर्वोच्च न्यायालय में नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर पांच दर्जन याचिकाएं आ चुकी है। इसके अतिरिक्त कई उच्च न्यायालयों में भी ऐसी ही याचिकाएं आ चुकी हैं। केरल विधानसभा तो इस संबंध में एक प्रस्ताव भी पारित कर चुकी है। लेकिन इतना सब कुछ होने पर भी शीर्ष अदालत ने इन याचिकाओं पर तब तक सुनवाई करने से इन्कार कर दिया है जब तक हिंसा थम नही जाती है। सर्वोच्च न्यायालय का पिछले अरसे से संवदेनशील मुद्दों पर तत्काल प्रभाव से सुनवाई न करने का रूख रहा है। कश्मीर मुद्दे पर लम्बे समय तक सुनवाई नही की गयी।ं जेएनयू हिंसा से लेकर छात्र हिंसा से जुडें सभी मुद्दों पर सुनवाई लंबित की गयी है। यदि इन मुद्दों पर तत्काल प्रभाव से सुनावाई हो जाती तो बहुत संभव था कि हालात इस हद तक नही पहुंचते। क्योंकि दोनांे पक्ष अदालत के फैसले से बंध जाते परन्तु ऐसा हो नही सका है।
आज विश्वविद्यालयों का छात्र इस आन्दोलन में मुख्य भूमिका में आ चुका है क्योंकि वह इन मुद्दों के सभी पक्षों पर गहन विचार करने की क्षमता रखता है। विश्वविद्यालय के छात्र की तुलना हाई स्कूल के छात्र से करना एकदम गलत है। विश्वविद्यालय के छात्र में मुद्दों पर सवाल पूछने और उठाने की क्षमता है। उसे सवाल पूछने से टुकड़े-टुकड़े गैंग संबोधित करके नही रोका जा सकता है। आज प्लस टू का छात्र मतदाता बन चुका है। ऐसे में जब प्लसटू से लेकर विश्वविद्यालय तक का हर छात्र मतदाता हो चुका है और सभी राजनतिक दलों ने अपनी-अपनी छात्र ईकाईयां तक बना रखी है। हर सरकार बनाने में इस युवा छात्र की भूमिका अग्रणी है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद देश का सबसे पुराना छात्र संगठन है और संघ परिवार की एक महत्वपूर्ण ईकाई है। इस परिप्रेक्ष में आज के विद्रोही छात्र के सवालों को लम्बे समय तक अनुतरित रखना घातक होगा। किसी भी विचारधारा का प्रचार-प्रसार गैर वौद्धिक तरीके से कर पाना संभव नही होगा। किसी भी वैचारिक मतभेद को राष्ट्रद्रोह की संज्ञा नही दी जा सकती है उसे आतंकी करार नही दिया जा सकता है। क्योंकि हर अपराध से निपटने के लिये कानून मे एक तय प्रक्रिया है उसका उल्लघंन शब्दों के माध्यम से करना कभी भी समाज के लिये हितकर नही हो सकता। नागरिकता संशोधन को इतने बड़े विरोध के बाद ताकत के बल पर लागू करना समाज के हित में नही हो सकता ।
किसी भी सरकार के सत्ता के पहले दो वर्ष प्राईम टाईम माने जाते हैं। क्योंकि नीतिगत महत्वपूर्ण फैसले इसी शुरू के समय में लिये जाते हैं। अगले दो वर्षों में उन फैसलों पर अमल किया जाता है। अन्तिम वर्ष चुनाव का होता है और तब इस सब का परिणाम जनता के सामने स्वतः ही आ जाता है। इसलिये अक्सर दो वर्ष के बाद भी सरकारों को लेकर उनका सर्वे किये जाने का चलन भी आ चुका है। जयराम सरकार का भी एक ऐसा ही सर्वे सामने आया है। इस सर्वे में कहा गया है कि यदि आज चुनाव हो जायें तो भाजपा को 25 से 27 सीटें ही मिल पायेंगी। इसी सर्वे के मुताबिक इन्वैस्टर मीट का असर केवल 14% जनता पर ही है। भाजपा के उच्च सूत्रों के मुताबिक यह सर्वे हाईकमान में भी चर्चित हुआ है। सूत्रों का दावा है कि जिस तरह की राष्ट्रीय परिस्थितियां आज बनती जा रही हैं उन्हें सामने रखते हुए इस तरह के सर्वे अन्य प्रदेशों को लेकर भी करवाये गये हैं। ‘‘आई विटनैस’’ के इस सर्वे का यदि प्रदेश की परिस्थितियों के संद्धर्भ में आकलन किया जाये तो यह सर्वे जमीनी हकीकत के बहुत नजदीक लगता है।
आज मीडिया और सरकारों में जिस तरह के संबंध बन चुके हैं और इन संबंधों के कारण सरकारों को जो श्रेष्ठता के प्रमाणपत्र मिल रहे हैं उनकी विश्वसनीयता भी उसी अनुपात में प्रश्नित हो चुकी है। पूर्व की धूमल और वीरभद्र सरकारों को थोक में यह श्रेष्ठता प्रमाण पत्र मिले हैं। यदि यह प्रमाण पत्र हकीकत के थोड़ा भी नजदीक होते तो यह सरकारें सत्ता में वापसी करती। लेकिन एक भी सरकार ऐसा नही कर पायी है। इससे सबसे ज्यादा मीडिया की अपनी विश्वसनीयता पर ही सवाल उठे हैं। इसलिये जयराम सरकार भी इस दिशा में कोई अपवाद सिद्ध नही हो पायेगी यह तय है। सरकार ने प्रदेश की जनता को इन दो वर्षों में क्या दिया है जिसका रिपोर्ट कार्ड लेकर यह सरकार जनता के सामने लेकर गयी है यदि उस पर निष्पक्षता से नजर डाली जाये तो स्थितियां बहुत निराशाजनक तस्वीर सामने रखती हैं। आम आदमी को रोजगार और मंहगाई सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। क्योंकि इन्ही के कारण उसकी रसोई, शिक्षा और स्वास्थ्य का बजट प्रभावित होता है। सरकार ने कितने लोगों को दो वर्षों में रोजगार उपलब्ध करवाया है इसको लेकर विधानसभा के हर सत्र में सवाल आये हैं। इन सवालों के जवाब में कब क्या आंकड़े दिये गये है और कितनी बार यह कहा गया है कि सूचना एकत्रित की जा रही है। इसी को अगर इकठ्ठा रखकर कोई भी मंत्री या अधिकारी देखेगा तो शायद वह स्वयं ही शर्मसार महसूस करेगा क्योंकि यह सब कुछ सांख्यिकी विभाग द्वारा प्रकाशित अधिकारिक सूचनाओं से मेल नही खाता है। शैल यह सारे दस्तावेजी प्रमाण अलग-अलग समय पर पाठकों के सामने रख चुका है। शिक्षा और स्वास्थ्य की सही हालत क्या है इसका खुलासा प्रदेश उच्च न्यायालयों में आयी याचिकाओं से लग जाता है जहां अदालत को संबंधित सचिवों को व्यक्तिगत रूप से अदालत में उपस्थित रहने के फरमान देने पड़े हैं। मंहगाई के प्रति सरकार की गंभीरता इसी से पता चल जाती है जब रसोई गैस और पैट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाये गये तथा प्याज कम खाने की नसीहत दी गयी। लेकिन जो रिपोर्ट कार्ड जनता के सामने रखा गया उसमें इन मुद्दों का जिक्र तक नही किया गया।
विकास की स्थिति यह है कि प्रदेश के लिये केन्द्र द्वारा घोषित राष्ट्रीय राज मार्ग अभी तक सिद्धान्त रूप से आगे नही बढ़े हैं। प्रदेश की सड़कों और अन्य कार्यों के लिये केन्द्र से चैहद हजार करोड़ की मांग की गयी है। लेकिन अपने लिये दो सौ से ज्यादा गाड़ियां खरीद ली गयी। अपने वेतन भत्ते बढ़ा लिये गये और उस पर उठे जन रोष के बाद भी उसे वापिस नही लिया गया। सरकार के खर्चे चलाने के लिये हर माह कर्ज लिया जा रहा है। बजट से पहले और बजट के बाद टैक्स लगाये जाते रहे हैं लेकिन बजट को टैक्स फ्री घोषित/प्रचारित किया जाता है। जब सार्वजनिक जीवन में इतनी भी सुचिता नही रह जायेगी कि हम अपनी जनता से स्पष्ट ब्यानी कर सकें तो फिर ऐसे आयोजनों से क्या लाभ मिलेगा। इसीलिये इन आयोजनों को कर्ज लेकर घी पीने की संज्ञा दी जा रही है। ऐसे में जब सरकार बजट के लिये सुझाव आमन्त्रित करने की बात करती है तब यही लगता है कि सरकार कैसे जनता को ना समझ मानकर चलती है। पिछले कई वर्षों से हर बजट टैक्स फ्री बजट दिया जाता रहा है और इसके बावजूद वस्तुओं और सेवाओं के दाम तथा सरकार की आय बढ़ती रही है। जयराम सरकार ने भी बजट के लिये सुझाव मांगे है ऐसे में सरकार से आग्रह है कि आप तो टैक्स फ्री बजट का झूठ अब जनता को न परोसने का साहस दिखायें। इसी के साथ यह सच्च भी स्वीकारें की बजट में दिखायी गयी पूंजीगत प्राप्तियां शुद्ध ऋण होती हैं और इस ऋण के साथ सरकार के कर्ज का आंकड़ा जनता के सामने रखने का साहस करें।
इस समय देश में करोड़ों की संख्या में गैर हिन्दु हैं। जो वातावरण एनआरसी और संशोधित नागरिकता अधिनियम से देश में बन गया है क्या उसको सामने रखते हुए इन करोड़ों गैर हिन्दुओं की आशंका एकदम आधारहीन कही जा सकती है? आसाम में राष्ट्रीय रजिस्ट्रर से बाहर हुए लाखों लोगों को बंग्लादेशी कहा जा रहा है। बंग्लादेश ने ऐसे लोगों की अधिकारिक सूची भारत से मांगी है। यदि कल को बंग्लादेश भी ऐसे लोगों को अपने यहां से आया हुआ मानने से इन्कार कर देता है तो उसका अन्तिम परिणाम क्या होगा? क्या यह एक चिन्ता और चिन्तन का विषय नही बन जाता है। अभी संशोधित नागरिकता अधिनियम की प्रक्रिया तय करने वाले नियम बनने है। यह स्पष्ट होना है कि धार्मिक प्रताड़ना तय करने का पैमाना क्या होगा? इसके लिये कानूनी प्रक्रियाएं क्या होंगी? यह सब कुछ अभी स्पष्ट होना बाकि शेष है। संसद में जब इस पर बहस चल रही थी तब इसका विरोध कर रहे सांसदो की अपतियां भी इसी तर्ज पर थी। इस सबको बहुमत के तर्क से नकार दिया गया। अब सर्वोच्च न्यायालय में भी उसके पास आयी याचिकाओं पर तब तक सुनवाई न करने की बात की है जब तक कि प्रदर्शनों में हिंसा नही रूक जाती है। सिद्धान्त रूप में यह तर्क सही है क्योंकि हिंसा कहीं भी स्वीकार्य नही हो सकती लेकिन जब संसद में विरोध के तर्काें को नकार दिया गया तो स्वभाविक है कि संसद के बाहर भी उन्हे आसानी से नही सुना जायेगा। फिर जब एनआरसी को लेकर यह कहा गया था कि पूरे देश में इसे लागू करने से पूर्व सबको सुना जायेगा तो फिर इस आन्दोलन के बीच संगठन के शीर्ष पर बैठे नड्डा जैसे नेता के ब्यान का क्या अर्थ लगाया जाये। क्या ऐसे ब्यान आग में घी डालने का कारक नही बनेगे।
इस वस्तुस्थिति को सामने रखते हुए यह सवाल उठता है कि आन्दोलनकारी प्रधानमन्त्री और उनकी पूरी सरकार के आश्वासनों पर विश्वास क्यों नही कर रहे है? इसके लिये शायद यही लोग जिम्मेदार है क्योंकि 2014 से लेकर आज तक जो वायदे किये गये उनमें से पूरे क्या हुए। अच्छे दिन और पन्द्रह लाख का परिणाम है कि मंहगाई और बेरोजगारी आज शिखर पर है। जीडीपी 5% से नीचे आ गया है। कमाई वाले सारे उपक्रमों को प्राईवेट सैक्टर के हवाले किया जा रहा है। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों का बजट हर वर्ष घटता जा रहा है। सरकार की हर बड़ी योजना का लाभार्थी अंबानी अदानी होता जा रहा है। फास्ट टैग जैसी योजना से भी लाखों करोड़ का लाभ इन उद्योग घरानों को दिया जा रहा है सारे आंकड़े बाहर आ चुके हैं। जब सरकार जनता का ध्यान बांटने के लिये हर रोज कुछ नया मुद्दा लेकर आती रहेगी तो क्या वह युवा जिसका भविष्य दाव पर लगा हुआ है वह इस सबके निहित मंतव्य को नही समझेगा? जब इस युवा की सरकार बनाने में अहम भूमिका रही है तब इसे सरकार को समझने की समझ भी आने लगी है। क्योंकि भव्य राम मन्दिर के निर्माण और तीन तलाक तथा धारा 370 को हटाने से उसे रोजगार नही मिल पाया है। इससे प्याज और आलू की कीमतें कम नही हो पायी है। जब भाजपा ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में धार्मिक ध्रुवीकरण की नीयत से एक भी मुस्लमान को चुनाव का टिकट नही दिया तो क्या उससे राजनीतिक नीति सामने नही आ जाती है। एनआरसी के बाद नागरिकता संशोधन को लाना क्या परोक्ष में हिन्दु-मुस्लिम के बीच भेद को जन्म नही देता है? यदि आने वाले दिनों इस सबके परिणाम स्वरूप करोड़ों मुस्लिमों के सामने नागरिकता का सवाल आ खड़ा होता है तब उसका हल क्या होगा? क्या उन्हें पाकिस्तान, बंग्लादेश और अफगानिस्तान अपने यहां जगह देंगे? क्या तब हम अनचाहे ही एक और बंटवारे को आमन्त्रण नही दे बैठेंगे? आज समय इन सवालों पर राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर सोचने की आवश्यकता है। आज विज्ञान और तकनीक के युग में धर्म के आधार पर राष्ट्रों की स्थापना नही की जा सकती। क्योंकि हमारे ही देश के एक हिस्से में रावण पूज्य हैं तो दूसरे हिस्से में उसे जलाया जाता है। ऐसे में कौन हिन्दु है और कितना श्रेष्ठ है यह भेद करना कठिन हो जायेगा।
आज रेप और हत्या के जो आंकड़े प्रतिदिन सामने आ रहे हैं उसको लेकर क्या कोई भी जिम्मेदार आदमी चुप बैठा रह सकता है। यदि संसद में इसके दोषीयों को जनता के हवाले करने की मांग आ सकती है तो क्या विपक्ष के जिम्मेदार नेता राहुल गांधी जनता के मंच पर ऐसे मामलों पर किसी भाषा में प्रतिक्रिया देंगे। क्या उन्हें मोदी को मेक इन इण्डिया के नारे के सामने यह याद नही दिलाना होगा कि जिसे आप मेक इन इण्डिया बनाने जा रहे थे वह तो रेप इन इण्डिया बनता जा रहा है। जब हर पन्द्रह मिनट के बाद एक रेप होने का आंकड़ा कड़वा सच बनता जा रहा है तो इस पर प्रतिक्रिया की भाषा क्या होनी चाहिये। ऐसे में जब राहुल गांधी ने रेप इन इण्डिया कह कर मोदी से उसकी खामोशी पर सवाल उठाया है तो इस पर स्मृति ईरानी के बवाल को कैसे जायज ठहराया जा सकता है क्या भाजपा के इन लोगों पर आरोप नही है और नेतृत्व खामोश बैठा रहा है। स्मृति ईरानी का गुस्सा क्या उनकी वैज्ञाणिक योग्यता के अलग- अलग रिकार्ड सामने आने पर उठे सवालों का प्रतिफल तो नही है। क्योंकि जो बात राहुल गांधी आज कह रहे हैं वही बात तो मोदी ने 2013 में कह दी थी। क्या स्मृति ईरानी मोदी के 2013 के ब्यान पर कोई प्रतिक्रिया देंगी। स्मृति जी आप आज सत्ता में हैं इस नाते इन बढ़ते अपराधों पर अंकुश लगाना आपकी जिम्मेदारी है जिसमें आपकी सरकार लगातार असफल हो रही है। ऐसे में राहुल की प्रतिक्रिया को मुद्दा बनाकर आप सच्चाई से भाग नही सकती है। राहुल ने हकीकत ब्यान की है उस पर माफी की मांग करके आप अपना ही पक्ष कमज़ोर कर रही हैं।
आज जब नागरिकता संशोधन अधिनियम पर देशभर में रोष उभर गया है। अमरीका और ब्रिटेन के मानवाधिकार संगठनों ने भारत के गृहमन्त्री पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की है। ढाका ने भारत के गृहमन्त्री पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की है। ढाका ने भारत के राजपूत को तलब कर लिया है। तब यह चिन्ता करना स्वभाविक हो जाता है कि भारत के इस कदम का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर असर पड़ने जा रहा है। क्योंकि पहली बार भारत ने अपने पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों के खिलाफ धर्म के आधार पर प्रताड़ना होने की बात की है। यह प्रताड़ना हिन्दु, सिखों, पारसीयों, जैन, बौद्ध और ईसाईयों के खिलाफ हो रही है और यह लोग इस प्रताड़ना से पीड़ित होकर भारत में आ गये हैं यह हम नागरिकता संशोधन अधिनियम में कह रहे हैं। इस प्रताड़ना से बचाने के लिये हम इन्हें भारत की नागरिकता देने जा रहे हैं। लेकिन इसके लिये जब 31 दिसम्बर 2014 की तारीख की लकीर खींच दी जाती है तभी हमारी नीयत और नीति पर सवाल उठ खड़े होते हैं। इस तारीख के बाद क्या इन देशों में यह प्रताड़ना बन्द हो गयी है? क्या इसके लिये भारत ने इन देशों के साथ यह मुद्दा उठाया था जिसमें यह तय हुआ हो कि अब तुम यह प्रताड़ना बन्द कर दो और पहले से ऐसे प्रताड़ितों को हम अपने देश में नागरिकता दे देंगें क्या भारत के अन्य पड़ोसी देशों श्रीलंका, वर्मा, म्यांमार, भूटान आदि में ऐसी प्रताड़ना नही हो रही है। इस प्रताड़ना के लिये पड़ोसी मुस्लिम देश ही क्यों चुने गये? ऐसे बहुत सारे सवाल जिनके जवाब आने जरूरी हैं। फिर सरकार ने एनआरसी पूरे देश में लागू करने की बात की है। अकेले असम में ही 19 लाख लोग इस रजिस्टर के दायरे से बाहर हो गये हैं। पूरे देश में यह संख्या करोड़ों में पहुंच जायेगी यह स्वभाविक है। तब क्या नागरिकता संशोधन अधिनियम के तहत ऐसे लोगों को नागरिकता देने की बात नहीं आयेगी। क्या तब उन्हें देश से बाहर जाने की बात की जायेगी। आने वाले दिनों में ऐसे दर्जनों सवाल जवाब मांगेंगे। जब भी किसी देश में इस तरह की परिस्थितियां बनती हैं तब सबसे पहले अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। आज ही अर्थव्यवस्था गंभीर सकंट से गुजर रही है। मंहगाई और बेरोजगारी इसके सीधे प्रतिफल हैं। आज आम आदमी भी इसके लिये सरकार को दोषी मानने लग गया है और यही सरकार का सबसे बड़ा डर है। राहुल से माफी की मांग को इसी ध्यान भटकाने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है।