शिमला/शैल। मोदी के वित्तमंत्री अरूण जेटली ने फरवरी 2016 के अपने बजट भाषण में कहा था कि सरकार बैकिंग संस्थानों में बेहत्तर अनुशासन लाने की दिशा में कुछ बडे़ और स्थायी कदम उठाने जा रही है। वित्तमन्त्री की इस घोषणा के बाद आर्थिक मामलों के अतिरिक्त सचिव अजय त्यागी की अध्यक्षता में मार्च 2016 में इस आश्य की एक कमेटी का गठन किया गया। इस कमेटी ने सितम्बर 2016 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी उसकेे बाद इस रिपोर्ट पर जनता की प्रतिक्रियाएं आमन्त्रित की गयी और 14 अक्तूबर को ही प्रतिक्रियाओं और सुझावों का सिलसिला बन्द कर दिया गया। 20 दिन से भी कम का समय जनता को इस रिपोर्ट को समझने के लिये दिया गया। इसी कारण सेे आज आम आदमीे को इस रिपोर्ट और फिर इस रिपोर्ट के आधार पर लाये गये एफआरडी आई बिल के बारे में कोई जानकारी ही नही है। इस रिपोर्ट के बाद वित्त मन्त्रालय में इस आश्य का विधेयक तैयार किया गया जिसे मोदी मन्त्रीमण्डल की स्वीकृति के बाद संसद के पिछले मानसून सत्र के अन्तिम दिन से एक दिन पहले सदन में पेश किया। सदन में पेश होने के बाद इसेे संसद की वित्त मन्त्रालय की स्लैक्ट कमेटीे को भेजने की बजायेे संसद की संयुक्त कमेटी को भेजा गया है। संयुक्त कमेटी ने इस बिल पर रिजर्ब बैंक का पक्ष जानने के लियेे उर्जित पटेल को भी तलब किया है। संयुक्त कमेटी की रिपोर्ट के बाद यह बिल संसद में पारित होने के लिये आ जायेगा और फिर कानून बन जायेगा।
इस पृष्ठभूमि में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि यह प्रस्तावित विधेयक है क्या और इसे क्यों लाया जा रहा है? इससेे बैंकिंग संस्थानों और उनके उपभोक्ताओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उपभोक्ता के बिना तो किसी भी बैंकिंग संस्थान की कल्पना ही नही की जा सकती है। उपभोक्ता अपना पैसा बैंक में बचत खाते के रूप में या फिक्सड डिपाॅजिट शक्ल में रखता है। बैंक इस पैसेे पर उसेे ब्याज देता है। बैंक इस पैसे को आगे निवेशित करता है और उस पर ब्याज कमाता है। आम आदमी भी जरूरत पड़ने पर बैंक से ऋण लेता है और ब्याज अदा करता है। बैंक ऋण देने की एवजे में ऋण लेनेे वाले से सामान्य 15% तक की धरोहर (चल-अचल संपति) जमानत के रूप में रखता है। यदि किसी कारण से ऋण की वसूली न हो पाये तोे ज़मानत के रूप में रखी गयी धरोहर को निलाम करकेे अपना ऋण वसूलने का अधिकार बैंक को रहता है। बैंकों के साथ साथ ही अब इन्शयोरैन्स कंपनीयां भी इसी तरह के व्यवसाय में आ चुकी हैं। बैंक उपभोक्ता के विश्वास पर चलता है। लेकिन बैंक के प्रबन्धन में उपभोक्ता का कोई दखल नही रहता। उपभोक्ता को यह जानकारी ही नही होती है कि बैंक का प्रबन्धन ठीक चल रहा है और वह लाभ कमा रहा है। यदि किन्ही कारणों से बैंक फेल हो जाये और बन्द होने केे कगार पर पहुंचे जाये तो उससेे जुड़े उपभोक्ताओं का क्या होगा? बैंक के पास उनकी जमा पूंजी का क्या होगा? क्योंकि जब बैंक खुद ही बीमार होगा तो वह उपभोक्ता का पैसा कैसे वापिस दे पायेगा। केन्द्र सरकार ने 1961 में इस स्थिति पर विचार किया था और तब संसद ने Deposit Insurance and Credit Gaurntee Corporataive Act. परित किया था। इस एक्ट के तहत उपभोक्ता के एक लाख के डिपाॅजिट को ब्याज सहित सुरक्षित कर दिया गया था। लेकिन यह सीमा आज भी एक लाख तक की ही है। एक लाख से अधिक का डिपाॅजिट बैंक के बीमार होने की सूरत में कानून सुरक्षित नही है।
इस समय 21 पब्लिक सैक्टर कार्यरत है और 82% बैंकिंग बिजनैस इनके पास है यह बैंक करीब 3000 करोड़ का इन्शयोरैन्स प्रिमियम अदा कर रहे हैं लेकिन इसके बावजूद उपभोक्ता की सुरक्षा केवल एक लाख तक की ही हैं इस समय हमार बैंको का एनपीए करीब दस लाख करोड़ को पहुंच रहा है। एनपीए तब होता जब ऋण लेने वाला ऋण की वापसी नही करता है। इस एनपीए का करीब 67% पैसा कुछ ही बड़े उद्योग घरानों के पास है। जैसे अब अनिल अंबानी ने 45000 करोड़ का घाटा दिखाकर अपना टैलीकाॅम बिजनैस बन्द कर दिया। अब 45000 करोड़ का पैसा स्वभाविक है कुछ बैंको का ही है। जेपी इन्फ्र्रा का मामला तो दिवालिया घोषित होने के लिये सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है इस बढ़ते एनपीए के कारण बहुत सारे बैंको की हालत बिगड़ चुकी है। बन्द होने के कगार पर पहुंच चुकी है। अभी पिछले ही दिनों स्टेट बैंक आॅॅफ इण्डिया में कुछ बैंको को मर्ज किया गया है। निजिक्षेत्र के कई बैंक डूबे चुके हैं। संभवतः इसी स्थिति को समझते हुए 1971 में बैंको का राष्ट्रीयकरण किया गया था। एनपीए के कारण 2007-08 से ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बैंकिंग क्षेत्र संकट में आया था। बैंकिंग क्षेत्र को रैगूलेट करने के लिये रिजर्ब बैंक स्टेट बैंक आॅफ इण्डिया एक्ट और 1961 में पास हुआ एक्ट तथा 2016 में लाया गया बैंकिंग कोड है। बैंको को बन्द होने से बचाने के लिये सरकार इनको बेल आऊट करती रही है। सरकार बजट से पैसा देकर बैंकों की सहायता करती रही है। लेकिन अब इस दिशा में Bail out की जगह Bail out का प्रावधान लाया जा रहा है।
नये प्रस्तावित विधेयक के तहत सरकार Financial Resolition Deposit Insurance Act 2017 एक नयी Resolution Corporation गठित करने जा रही हैं इसकेे गठन से पुराने सारे प्रावधान निःरस्त हो जायेंगे। इसके गठन से आरबीआई की भूमिका काफी गौण हो जायेगी। यह नयी बननेे वाली कारपोरेशन ही किसी भी बैंक या अन्य वित्तिय संस्थान का आंकलन करेगी कि उसकी वित्तिय सेहत कैसी है क्या उसे बचाया जा सकता है या नहीं इसके तहत कई संस्थान बन्द भी हो सकते हैं या उन्हे किसी दूसरे में मिलया जा सकता है। इस संद्धर्भ में इस कारपोरेशन का निर्णय अन्तिम होगा और उसेे किसी भी अदालत में सिवाय ट्रिब्यूनल के चुनौती नही दी जा सकेगी। इस स्थिति में यदि बैंक को बन्द करने का फैसला लिया जाता है तो उसमें उपभोक्ता का एक लाख से ज्यादा का सारा पैसा डूब जायेगा क्योंकि उसकी कोई गांरटी नही है। यदि बैंक को बचानेे का फैसला लिया जाता है तो उसके लिये Bail in के तहत उसके डिपाॅजिटरों के पैसेे का एक निश्चित % काटकर बैंक की इक्विटी में डाल दिया जायेगा। यह कितने % तक रहेगा इसको लेकर विधेयक में कोई स्पष्ट उल्लेख नही है। अब तक अन्तर्राष्ट्रीय जगत में साईप्रस जैसा देश 2013 में 47.50% तक की कटौती कर चुका है। इस विधेयक में यह स्पष्ट किया गया है कि बैंक को बचाने के लियेे Bail out की जगह Bail in का प्रावधान लागू होगा।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि जब बैंक अपने ऋणों की वसूलीे करने में असमर्थ रहता है और ऋण धारक की धरोहर को निलाम करने के कदम नही उठाता है तब तक उसे Bail in या Bail out का लाभ क्यों मिले? क्या ऐसे प्रबन्धन के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करकेे उसे सज़ा नही दी जानी चाहिये? ऐसेे एनपीए वालों के नाम सार्वजनिक करके उन्हे भविष्य के लिये ब्लैक लिस्ट नही कर दिया जाना चाहिये? यदि सरकार एनपीए धारकों और बैंक प्रबन्धनों के खिलाफ ऐसे कड़े कदम उठाये बिना ही Bail in जैसे प्रावधान लाती है तो यह आम आदमी के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात होगा।