भ्रष्टाचार के खिलाफ शीर्ष न्यायपालिका के साथ अब देश के चुनाव आयोग ने भी गंभीर चिन्ता व्यक्त की है। चुनाव आयोग ने स्पष्ट कहा है कि अब चुनाव केवल धन का ही खेल होता जा रहा है। क्योंकि चुनाव जीतना ही एक मात्र ऐजैण्डा होकर रह गया है और इसकी पूर्ति के लिये साधनों की नैतिकता का कोई प्रश्न ही नही रह गया है। राजनीतिक दलों को पिछले दिनों मिले चन्दे के जो आंकड़े अभी ए डी आर के माध्यम से समाने आये हैं वह चैंकाने वाले हैं। इन आंकड़ो के अनुसार 750 करोड़ का ऐसा चन्दा सत्तारूढ़ दल के पास आया है जिसका कोई स्त्रोत सामने नही आया है। इस संद्धर्भ में सारे राजनीतिक दलों की स्थिति लगभग एक जैसी ही है। चुनाव के लिये सबको पैसा चाहिये और इसी पैसे के कारण आज देश की संसद से लेकर राज्यों के विधान मण्डलों तक आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग माननीय होकर बैठे हैं। इन लोगों के मामलों का फैसला कई-कई वर्षों तक नही आता है जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने अधीनस्थ अदालतों को स्पष्ट निर्देश दे रखे हैं कि ऐसे लोगों के आपराधिक मामलों का निपटारा एक वर्ष के भीतर किया जाये। लेकिन इन निर्देशों की अनुपालना नही हो रही है और उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय भी निर्देश जारी करने के बाद इसे भूल गये हैं। जबकि हर राज्य में ऐसे मामलें मिल जायेंगे।
इस परिदृश्य में स्पष्ट हो जाता है कि जब संगीन अपराधों के आरोपी होने के वाबजूद हमारे माननीयों को कानून का डर इसलिये नही हैं कि उनके पास सत्ता और पैसा है तब फिर उसी पैसे के दम पर दूसरा कानून से क्यों डरेगा। आज अपराध और पैसे से हासिल की हुई सत्ता की बुनियाद पर चोट करने की आवश्यकता है। इसके लिये चुनाव की वर्तमान व्यवस्था ओर इस संद्धर्भ में न्यायपालिका की प्रक्रिया में सुधार करने की आवश्यकता है। चुनावों को पूरी तरह पैसे के प्रभाव से मुक्त किया जा सकता है इसके लिये केवल जनता में एक जमीन तैयार करनी होगी। चुनावों को पैसे के प्रभाव से कैसे मुक्त रखा जा सकता है इसके ब्लूप्रिन्ट पर चर्चा करने से पहले यह समझना आवश्यक है कि चुनावों को धन के प्रभाव से मुक्त रखने की आवश्यकता क्यों है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में आम आदमी के वोट के माध्यम से ही पंचायत से लेकर संसद तक पहुंचा जाता है। पंचायत से संसद तक का हर प्रतिनिधि जन सेवा के नाम यहां जाता है। लेकिन आज इन सारे पदों के साथ वेत्तन भत्तों के नाम पर इतने सारे पैसे के लाभ दे दिये गये हैं जो शीर्ष प्रशासनिक सेवा में मिलने वाले लाभों से भी अधिक हैं और फिर सत्ता साथ में। एक बार विधानसभा या संसद के लिये निवार्चित होने के साथ ही पैन्शन के लाभ की पात्रता बन जाती है। जिसे ढंग से यह वेत्तन भत्ते इस जन सेवा के साथ जोड़े गये हैं उससे यह किसी भी अर्थ में आज सेवा नही रह गयी है। इन्ही सेवकों के कारण हर राज्य का कर्जभार लगातार बढ़ता जा हरा है जिसके कारण मंहगाई और बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। सरकारें गरीब होती जा रही हैं। कर्ज के सहारे चल रही है लेकिन उन्हें चलाने वाले नेता लगातार अमीर होते जा रहे हैं। ऐसा क्यों और किस व्यवस्था के कारण हो रहा है? क्या इस पर एक गहन चिन्तन की आवश्यकता नही है।
आज लोकसभा के चुनाव लड़ने के लिये उम्मीदवार पर 70 लाख खर्च की सीमा तय है लेकिन राजनीतिक दलों पर खर्च की कोई सीमा नही है क्यों? आज 70 लाख सफेद धन खर्च करके कितने लोग चुनाव लड़ने का साहस कर सकते हैं । मैने हिमाचल के सारे सांसदों और विधायकों के चुनाव शपथ पत्रा देखे हंै उनमें जितनी आय दिखा रखी उसके मुताबिक एक भी माननीय की स्थिति ऐसी नही है कि वह चुनाव खर्च के लिये तय सीमा तक सफेद धन खर्च कर सकता हो। लेकिन चुनाव खर्च तो तय सीमा से कहीं अधिक रहा है। तब सवाल उठता है कि यह पैसा कहां से आया। स्वभाविक है कि चुनाव खर्च तो बड़े उद्योगपति उठा रहे हैं। आदरणीय मोदी जी लोकसभा चुनावों के दौरान जो हैलीकाॅप्टर हर रोज इस्तेमाल कर रहे थे क्या वह उनके घोषित साधनों से संभव था। मोदी ही नही सभी बड़े नेताओं की यही स्थिति रही है और जब उद्योगपति अपरोक्ष में चुनाव का संचालन करेंगे तो उनका हित तो इसी में है कि हर बार चुनाव खर्च बढ़ता रहे। राजनीतिक दलों पर खर्च की कोई सीमा न रहे और राजनीतिक दल औद्योगिक घरानों की ईकाईयां बनकर रह जायें। इसी कारण से चुनाव आचार संहिता उल्लंघना अभी तक आईपीसी के तहत दण्डनीय अपराध नही बन पाया है। इसी कारण राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणा में दर्ज वायदों के लिये धन कहां से आयेगा और इसके लिये कोई कर्ज नही उठाया जायेगा ऐसी जानकारी और वायदा अनिवार्यता नही बन पायी है। इसलिये आज यह पहली आवश्यकता है कि चुनावों को धन के प्रभाव से मुक्त करने की मांग पूरे समाज से उठनी चाहिये। इसके ब्लूप्रिन्ट पर आगे चर्चा करूंगा।