राम मन्दिर आन्दोलन में देश के साधु संतों और हिन्दू नेताओं की अग्रिम भूमिका रही है। कांग्रेस और भाजपा सभी सरकारों का इसमें योगदान रहा है। क्योंकि भगवान राम सबके पूज्य हैं। बहुत लोगों ने इसके निर्माण के लिये यथासंभव आर्थिक योगदान भी किया है। मन्दिर के निर्माण के बाद इसमें मूर्ति की स्थापना और मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा इसके अभिन्न अंग है। लेकिन इस समय जो 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन किया जा रहा है उसको लेकर मन्दिर ट्रस्ट के साथ बहुत लोगों का गंभीर वैचारिक मतभेद उभर गया है क्योंकि मन्दिर का निर्माण इस वर्ष के अन्त तक पूरा हो पायेगा। जब तक मन्दिर पर गुंबद और ध्वजा की स्थापना न हो जाये तब तक मन्दिर के निर्माण को पूरा नहीं माना जाता। अधूरे मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा का हमारे धर्म ग्रंथो में कोई प्रावधान ही नहीं है। क्योंकि गुंबद और ध्वजा के निर्माण के लिये तो मंदिर पर चढ़ना पड़ेगा। लेकिन मूर्ति स्थापना के बाद ईश्वर के सिर पर पैर नहीं रखे जाते। इसी अधूरे निर्माण पर चारों शंकराचार्यों का विरोध है और शंकराचार्योंं से बड़ा कोई धर्मगुरु नहीं है।
प्राण प्रतिष्ठा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका अग्रणी है। इस अग्रणी भूमिका को राजनीतिक तराजू में तोल कर देखा जा रहा है। इस निर्माण का श्रेय वह स्वयं लेना चाहते हैं और आने वाले लोकसभा चुनावों में यह उनका सबसे बड़ा चुनावी हथियार होगा। प्रधानमंत्री इस आयोजन के अग्रणी पुरुष होंगे इसीलिये विभिन्न राजनीतिक दलों में इसमें शामिल होने को लेकर आन्तरिक विवाद उभरने लग पड़े हैं। यह विवाद ही इस आयोजन का प्रसाद माना जा रहा है। लेकिन जिस स्तर पर शंकराचार्यों ने इस प्राण प्रतिष्ठा में शामिल होने से इन्कार कर दिया है। साधु महात्माओं का एक वर्ग इसके विरोध में खड़ा हो गया है। इस विरोध से यह सवाल खड़ा हो गया है की जो प्रधानमंत्री अधूरे मन्दिर की ही प्राण प्रतिष्ठा करवाने जा रहे हैं उन्हें धर्म का संरक्षक कैसे मान लिया जाये। इस अधूरे मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद जो सवाल उठेंगे वह संघ भाजपा के लिये नुकसानदेह होंगे यह तय है।