इस समय नर्सी केेजी से ही निजी से प्राइवेट सेक्टर शिक्षा में बराबर का भागीदार बना हुआ है। हिमाचल जैसे राज्य में भी प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या करीब 45% है। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वालों बच्चों की संख्या 55% है। यहीं से शिक्षा में यह विसंगति आनी शुरू हो जाती है। क्योंकि राजनेताओं से लेकर प्रशासकों और शिक्षकों तक के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इससे सरकारी स्कूलों का प्रबंधन और स्तर प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले कमजोर पड़ता जा रहा है। इस समय नई शिक्षा नीति की भूमिका में ही यह कहा गया है की खाड़ी देशों में हेल्परों की बहुत आवश्यकता है और हमारे बच्चों को आसानी से वहां रोजगार मिल जाएगा इसलिए नई शिक्षा नीति में व्यवसायिक प्रशिक्षण को विशेष बल दिया गया है। यह शिक्षा नीति सरकारी स्कूलों में तो शुरू हो जाएगी लेकिन क्या महंगे प्राइवेट स्कूलों में भी लागू हो पायेगी। इसको लेकर कोई स्पष्टता नहीं है। ऐसे में जब स्कूल स्तर पर से ही यह मनोवैज्ञानिक व्यवस्था ऐसी बना दी जायेगी कि गरीब का बच्चा तो हेल्पर बनने की मानसिकता से पढे़गा और अमीर का बच्चा इंजीनियर डॉक्टर और वकील बनने के लिए पढ़ेगा तो तय है कि सरकारी स्कूलों की व्यवहारिक स्थिति इससे भी बत्तर होती जायेगी।
शिक्षा और स्वास्थ्य हर व्यक्ति की बुनियादी आवश्यकताएं बन चुकी है। इसलिए यहां बड़ा बाजार बनती जा रही है। यह बाजारीकरण ही सामाजिक असमानता का मूल बनता जा रहा है। शिक्षा में अटल आदर्श विद्यालय और राजीव गांधी डे बोर्डिंग स्कूल खोलकर राजनीतिक आकाओं के आगे तो स्थान बनाया जा सकता है लेकिन इससे समाज में बढ़ती गैर बराबरी को नहीं रोका जा सकेगा। आने वाले समाज में यह बाजारीकरण सबसे बड़ा मुद्दा बनेगा यह तय है। विश्व बैंक की इन रिपोर्ट का व्यवहारिक संज्ञान लेकर इस वस्तु स्थिति के लिये जिम्मेदार तंत्र को जवाब देह बनाने के लिये अभी से कदम उठाने होंगे अन्यथा हर बार यह रिपोर्ट आती रहेगी और देश प्रदेश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का पात्र बनते रहेंगे।