केन्द्र सरकार गरीबों को मुफ्त अनाज देने की योजना को अभी एक वर्ष और जारी रखेगी ऐसा कहा गया है। अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दिया जा रहा है ऐसा दावा है। एक सौ तीस करोड़ की कुल जनसंख्या में से 80 करोड़ को मुफ्त राशन दिये जाने का अर्थ है कि हर दूसरे व्यक्ति को मुफ्त राशन मिल रहा है। क्या वास्तव में ही ऐसा है या किसी ने आंकड़ों पर ध्यान ही नहीं दिया है? जिस देश की आधे से भी अधिक जनसंख्या को मुफ्त राशन देना सरकार की बाध्यता बन जाये उसके विकास का आकलन कैसे किया जाये यह अपने में ही क्या एक बड़ा सवाल नही बन जाता है? इसी के साथ एक और रोचक आंकड़ा पिछले दिन राज्यसभा में आया है। इसके मुताबिकवर्ष 2014 तक केंद्र में रही सारी सरकारों ने पच्चपन लाख करोड़ का कर्ज लिया है और 2014 में आयी मोदी सरकार ने 2022 तक आठ वर्षों में ही पच्चासी लाख करोड का कर्ज ले लिया है। केंद्र सरकार का कुल कर्ज इस समय डेढ़ लाख करोड़ से भी ऊपर चला गया है। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारों का कर्ज 1,70,000 करोड़़ हो चुका है। इस तरह केंद्र से लेकर राज्यों तक सभी सरकारें कर्ज पर अधारित हैं। कर्ज के बढ़ने से ही महंगाई और बेरोजगारी बढ़ती है। इन आंकड़ो का जिक्र करना इसलिये प्रसांगिक हो जाता है कि इनसे उठते सवाल बहुत अहम हो जाते हैं। यह स्वभाविक सवाल उठता है कि जिस देश में आधे से अधिक आबादी आज भी अपने दो वक्त के भोजन के लिये सरकार के मुफ्त राशन पर निर्भर हो वहां के विकास के दावों की विश्वसनीयता का आकलन कैसे किया जाये? जब कर्ज के आंकड़े संसद के पटल पर आ जाये तब तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। यह सवाल स्वतः ही खड़ा हो जाता है कि यह पैसा चला कहां गया। क्योंकि इसी संसद के सत्र में सरकार ने यह भी बताया कि साढे़ दस लाख करोड़ का एन पी ए बट्टे खाते में डाल दिया गया है। इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि सरकार कर्ज भी ले तही रही है और एन पी ए को बट्टे खाते में भी डाल रही है। इसी एन पी ए की वसूली के लिए बैड बैंक तक का गठन भी किया गया है। लेकिन इसके परिणाम अभी तक कोई संतोषजनक नहीं रहे हैं। एन पी ए बढ़ता जा रहा है और रिकवरी बहुत धीमी होती जा रही है। बैंक अपना घाटा पूरा करने के लिये लोगों के हर तरह के जमा पर ब्याज दरें घटाता जा रहा है। जबकि आर बी आई अपने रैपो रेट लगातार बढ़ाता जा रहा है। यह सही है कि आम आदमी को वितीय स्थिति के इन पक्षों की कोई ज्यादा जानकारी नही है। परन्तु यह भी यक कड़वा सच है कि इस सबका प्रभाव बेरोजगारी और महंगाई के रूप में इसी आम आदमी पर ज्यादा पड़ रहा है। क्यों बेरोजगारी और महंगाई पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। इस वस्तुस्थिति में यह सवाल और अहम हो जाता है कि इस आम आदमी की वितिय सहायता कैसे की जाये। इसके लिये एक प्रयोग यह किया गया कि कुछ सामाजिक सुरक्षा योजनायें शुरु की जाये। जिनसे यह आम आदमी लाभान्वित हो। लेकिन इन योजनाओं के बाद भी आम आदमी की स्थिति में कोई ठोस सुधार नजर नहीं आया। इस लिये एक और प्रयोग आम आदमी के हाथ में कुछ नकद पैसे देने का कांग्रेस सरकारों द्वारा किया जाने लगा है। सभी राजनीतिक दल सता में आने के लिये इस तरह के प्रयोग कर रहे हैं। अपने प्रयोगों को सही ठहराने और दूसरों के प्रयोगों को रेवड़ियां बांटने की संज्ञा दी जा रही है। भाजपा ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव इन्ही रेवड़ियों के सहारे जीते हैं। लेकिन जब दूसरेे दलों ने यही सब करने का रास्ता अपनाया तो आर बी आई से लेकर केन्द्र सरकार तक सभी इस पर चीख पड़े। यह सही है कि जब किसी एक को कुछ मुफ्त में दिया जाता है तो उसकी कीमत किसी दूसरे को चुकानी पड़ती है। इस कीमत चुकाने का असर अपरोक्ष में सभी पर पड़ जाता है। ऐसे में सरकार की योजनाओं का आकलन किया जाना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि अधिकांश योजनाएं ऐसी है जिन पर भारी निवेश तो हो रहा है लेकिन उनका व्यवहारिक लाभ कुछ मुट्ठी भर को ही होता है और बहुसंख्यक के हिस्से में केवल आंकडे़ और मंहगाई तथा बेरोजगारी ही आती है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि भारी निवेश की योजनाओं के लॉंच से पहले उन पर सार्वजनिक बहस करवाई जाये।