इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद यह चर्चा चल पड़ी है कि क्या सरकार पांच राज्यों में होने वाले चुनावों को टालने की योजना बना रही है। उत्तर प्रदेश की चुनावी अहमियत इसी धारणा से पता चल जाती है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। जिस उत्तर प्रदेश में 2017 और 2019 के चुनावों के बाद यह कहा जाने लगा था कि उसे वहां पर कोई चुनौती ही नहीं बनी है वहां पर आज जिस तरह की भीड़ अखिलेश यादव, प्रियंका गांधी और राहुल गांधी की जनसभाओं में उमड रही है उससे भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें साफ उभरना शुरू हो गयी हैं। क्योंकि इसी अनुपात में अब प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष नड्डा की सभाओं में खाली कुर्सियां दिखनी शुरू हो गयी है। प्रियंका और राहुल के प्रयासों से कांग्रेस ने मुकाबले को तिकोना बना दिया है। फिर अयोध्या, काशी और मथुरा के प्रयोगों से भी धार्मिक और जातीय धुव्रीकरण नहीं बन पाया है। लखीमपुर खीरी काण्ड के बाद भी किसान आंदोलन में हिंसा न हो पाना इसी कड़ी में देखा जा रहा है। बल्कि इस काण्ड पर आई एस.आई.टी. की रिपोर्ट के बाद गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा भाजपा का नैगेटिव बनता जा रहा है। राम मंदिर के लिये की गई जमीन में लगे घोटाले के आरोपों का अभी तक कोई जवाब नहीं आया है। महंगाई और बेरोजगारी से जिस कदर आम आदमी पीड़ित हो उठा है उससे किसी भी तरह के धुव्रीकरण के प्रयास सफल नहीं हो रहे हैं। ऊपर से अब कृषि मंत्री तोमर का यह ब्यान कि सरकार कृषि कानूनों को लेकर फिर से एक प्रयास करेगी से स्थिति और उलझ गयी है। बल्कि इस ब्यान के बाद ममता बनर्जी के लिये भी अदानी के साथ बन रहे रिश्तों पर जवाब देना कठिन हो जायेगा। इस सब को अगर एक साथ मिलाकर देखा जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि यू.पी. में भाजपा की राह लगातार कठिन होती जा रही है और इससे एकदम बाहर निकलने के लिए ओमीक्राम के खतरे के नाम पर चुनाव टालने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जाता है।
पांच राज्यों के लिये हो रहे चुनावों को लेकर सर्वे आ रहे हैं उनके मुताबिक कहीं भी भाजपा सुखद स्थिति में नहीं है। उत्तराखंड में भाजपा के कई मंत्री और विधायक कांग्रेस में वापसी कर चुके हैं। पंजाब में भाजपा को उस अमरिंदर सिंह का दामन थामना पड़ रहा है जो कांग्रेस छोड़ने के बाद पटियाला में ही अपने आदमी को मेयर का चुनाव नहीं जीतवा पाये। बंगाल की हार से प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत साख को जो धक्का पहुंचा है उससे अभी तक बाहर नहीं निकल पाये हैं। इस लिए अभी ओमीक्राम के नाम पर छः माह के लिए चुनाव टालने की भूमिका बनाई जा रही है। कुछ राज्यों द्वारा रात्रि कर्फ्यू लगाया जाना इसी दिशा का प्रयास है। यदि एक बार चुनाव टाल दिये जाते हैं तो इन राज्यों में अपने आप ही राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति आ जायेगी। जिसे आगे बढ़ाया जा सकता है। ऐसे में महामारी अधिनियम और महामारी की व्यवहारिकता को लेकर एक चर्चा की आवश्यकता हो जाती है और इसे अगले अंक में उठाया जायेगा।