इस परिदृश्य में 2014 से लेकर आज 2021 तक मोदी सरकार द्वारा लिये कुछ अहम फैसलों पर नजर दौडा़ना आवश्यक हो जाता है। सामाजिक और राजनीतिक संद्धर्भ में मुस्लिम समुदाय के माथे से तीन तलाक का कलंक मिटाना एक बड़ा फैसला रहा है और इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिये। राजनीतिक परिप्रेक्ष में जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाना जहां आवश्यक फैसला था वहीं पर इस प्रदेश से पूर्ण राज्य का दर्जा छीन इसे केन्द्र शासित राज्यों में बांटने से अच्छे फैसले पर स्वयं ही प्रश्नचिन्ह आमन्त्रित करना हो गया है। आयोध्या विवाद पर आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर इसी अदालत के कुछ पूर्व जजों की आई प्रतिक्रियाओं ने ही इसे प्रश्नित कर दिया है। दूसरी ओर इसी दौरान जो आर्थिक फैसले लिये गये हैं उनमें सबसे पहले नोटबन्दी का फैसला आता है। इस फैसले से कितना कालाधन बाहर आया और आतंकवाद कितना रूका इसके कोई आंकडे आज तक सामने नहीं आये हैं। यही सामने आया है कि 99.6% पुराने नोट नये नोटों से बदले गये हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नोटबन्दी के लिये कालेधन और आंतकवाद के तर्क आधारहीन थे। नोटबन्दी से जो कारोबार प्रभावित हुआ है वह आर्थिक पैकेज मिलने के बाद भी पूरी तरह से खड़ा नहीं हो पाया है। जीरो बैलेन्स के नाम पर जनधन में खोले गये बैंक खातों पर जब न्यनूतम बैलेन्स रखने की शर्त लगा दी गयी तब यह खाते खोलने का घोषित लाभ भी शून्य हो गया है।
इसके बाद जब कोरोना के कारण पूरे देश में लॉकडाऊन लगाया गया तब इसी काल में श्रम कानूनों में संशोधन करके श्रमिकों से हड़ताल का अधिकार छीन लिया गया। श्रम कानूनों में संशोधन के बाद इसी काल में विवादित कृषि कानून लाकर जमा खोरी और कीमतों पर नियन्त्रण हटाकर सबकुछ खुले बाजार के हवाले कर दिया गया है। इसी का परिणाम है कि डीजल-पैट्रोल से लेकर खाद्यानों तक की कीमतें बढ़ गयी हैं। इन कानूनों से कृषिक्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होगा। इसी चिन्ता को लेकर देश का किसान आन्दोलन पर है और इन कानूनों को वापिस लेने की मांग कर रहा है। कोरोना के कारण लगाये गये लॉडाऊान से बीस करोड़ से अधिक श्रमिकों का रोज़गार खत्म हो गया है। जीडीपी शून्य से भी बहुत नीचे चला गया है। इस कोरोना काल में प्रभावित लोगों को मुफ्रत राशन देकर जिन्दा रहने का सहारा देना पड़ा है। एक ओर करोड़ों लोगों का रोज़गार छिन गया और सारे महत्वपूर्ण संसाधनों को मुद्रीकरण के नाम पर प्राईवेट सैक्टर के हवाले किया जा रहा है। राज्यों को भी मुद्रीकरण के निर्देश जारी कर दिये गये हैं जब यह सारे संसाधन पूरी तरह प्राईवेट सैक्टर के हवाले हो जायेंगे तब रोज़गार और मंहगाई की हालत क्या होगी इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है।
जहां सर्वोच्च न्यायालय भीख मांगने को भी जायज़ ठहराने को बाध्य हो जाये वहीं पर सैन्ट्रल बिस्टा और बुलेट ट्रेन जैसी योजनाएं कितने लोगों की आवश्यकताएं हो सकती है यह हर व्यक्ति को अपने विवेक से सोचना होगा। सरकार के इन आर्थिक फैसलों का देश के भविष्य पर कितना और कैसा असर होगा यह भी हरेक को अपने विवेक से सोचना होगा। क्या इन आर्थिक फैसलों को तीन तलाक, राम मन्दिर और धारा 370 हटाने के नाम पर नज़रअन्दाज किया जा सकता है? यह चुनाव इन्ही सवालों का फैसला करेंगे यह तय है।