यदि इस सरकार के छः वर्षों के कार्यकाल में लिये गये फैसलों पर एक आम नजर भी डाली जाये तो यह प्रमाणित हो जाता है कि हर फैसले का अन्तिम लाभार्थी कोई बड़ा उद्योग घराना ही रहा है। किसानों को ही जब छः हजार किसान सम्मान दिया गया था तब किसको आभास हुआ था कि इससे बालमार्ट, अंबानी और अदानी जैसे घरानों के लिये जमीन तैयार कि जा रही है। जब सेवाओं को आऊट सोर्स करके प्रदाता कंपनी को बैठे बिठाये भारी भरकम कमीशन दिया जाने लगा था, तब किसने सोचाा था कि इससे नियमित सरकारी नौकरी के अवसर कम होते जायेंगे। जब बैंकों में जमा राशीयों पर ब्याज कम किया जा रहा था और जीरों बैलेन्स के नाम पर खोले गये खातों में न्यूनतम बैलेन्स न होने पर जुर्माना लगाने का प्रावधान किया जा रहा था तब किसे पता था कि इससे एनपीए हो चुके बड़े कर्जदारों को और निवेश उपलब्ध करवाने का रास्ता निकाला जा रहा है। इससे बैंक डूबने के कगार पर आ जायेंगे और आरबीआई इन्हें प्राईवेट सैक्टर के हवाले करने के फैसले पर अपनी सहमति जता देगा। ऐसे दर्जनों छोटे बडे फैसलें हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि इस सरकार की प्राथमिकता केवल प्राईवेट सैक्टर के हितों की रक्षा करना है। आज एक वर्ग अंबानी अदानी की वकालत करने पर लग गया है लेकिन इन बड़े घरानों के रिटेल में आने से 80% से भी ज्यादा छोटा बड़ा दुकानदार बेरोजगार हो जायेगा यह समझने को कौन तैयार है।
यह एक ऐसी वस्तुस्थिति बना दी गयी है जिसमें उसके निमार्ताओं को ही अहसास नहीं है कि जिसकी वह वकालत कर रहे हैं वह भी एक दिन स्वयं उसके शिकार होंगे। आज जब प्रधानमन्त्री ने किसान आन्दोलन के खिलाफ स्वयं कमान संभाल ली है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार अपने कदम पीछे हटाने को तैयार नहीं है। जिस नेतृत्व को भी पीछे हटना संभव नहीं रह जाता है ऐसे में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि आम आदमी इसमें अपनी भूमिका तय करे। सरकार का तर्क है कि उसे जनता का समर्थन हासिल है क्योंकि हर चुनाव में उसे जीत हासिल हुई है। इसमें वह ताजा उदाहरण बिहार का दे रही है। बंगाल में टीएमसी छोड़कर लोग भाजपा में आने शुरू हो गये हैं। ऐसे में 2014 से लेकर बिहार के चुनाव तक जो सवाल ईवीएम को लेकर उठते आये हैं और सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच चुके हैं उन सवालों पर भी अब फैसले की घड़ी आ गयी है। क्योंकि हर बड़े फैसले पर सार्वजनिक बहस को टालने और विपक्ष की राय को नज़रअन्दाज करने का सबसे बड़ा हथियार चुनाव परिणाम को बना लिया गया है। कल तक भाजपा एफडीआई की सबसे बड़ी विरोधी थी और आज डिफैन्स से स्पेस तक सबमें इसके दरवाजे खोल दिये गये हैं। आज किसान जो सवाल उठा रहे हैं वही सवाल अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह और स्वयं मोदी उठा चुके हैं। भाजपा में ‘‘बांटो और शासन करो ’’ की नीति पर चल रही है। यह समझने में अकाली को ही पचास वर्ष से अधिक का समय लग गया है जबकि 1967 से अकाली-भाजपा सत्ता में भागीदारी करने आ रहे है।
इस परिदृश्य में जब किसान और सरकार में टकराव के आसार लगातार बनते जा रहे हैं तब आन्दोलन का दायरा बढ़ने की भी पूरी-पूरी संभावना बनती जा रही है। क्योंकि सरकार पर अविश्वास बढ़ने के साथ ही शीर्ष न्यायपालिका को लेकर भी स्थिति बेहतर नहीं है। वहां भी एक ही विषय पर अलग-अलग बैंच अलग-अलग फैसला दे रहे हैं। मीडिया पर गोदी मीडिया होने का आरोप लग रहा है। इस सबमें हिन्दु ऐजैण्डा के लिये काम करने का जो आरोप सरकार पर लग रहा है वह ऐजैण्डा है क्या? क्या आज के समाज में उसकी कल्पना की जा सकती है? यह ऐसे सवाल हैं जिन पर लम्बे समय तक बहस टालना संभव नहीं होगा। ऐसे में बहुत आवश्यक है कि विपक्ष में बैठे सारे राजनीतिक दलों का नेतृत्व अपने अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपनी अपनी भूमिका तय करते हुए इस आन्दोलन का फलक बड़ा करते हुए सक्रिय भागीदारी निभाये। इसमें कांग्रेस की भूमिका सबसे अहम हो जाती है क्योंकि देश के हर गांव में उसका नाम लेने वाला कोई न कोई मिल जाता है।