जब संवैधानिक संस्थाओं पर से विश्वास उठने लग जाता है तब आम के पास सत्ता की निरंकुशता को रोकने के लिये आन्दोलन के अतिरिक्त कोई विकल्प नही रह जाता है। चुनाव आयोग पर हर बार गंभीर सवाल उठ रहे हैं लेकिन कोई जवाब नही आया है। इन सवालों को सर्वोच्च न्यायालय की चैखट पर ला दिया गया लेकिन वहां भी कोई जवाब नही मिल रहा है। इस समय उच्च न्यायालयों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक करीब एक दर्जन याचिकाएं ईवीएम को लेकर लंबित हैं । ईवीएम पर से आम आदमी का विश्वास पूरी तरह से उठ चुका है क्योंकि सत्ता पक्ष से जुडे़ ही कई नेता और कार्यकर्ता यह कह चुके हैं कि ईवीएम का साथ तो उन्हें ही हासिल है। हरियाणा विधानसभा चुनावों के दौरान एक जिम्मेदार नेता का ऐसा ब्यान बहुत चर्चा में रहा है जिसका कोई खण्डन नही आया है। जनता और सारा विपक्ष ईवीएम की जगह वैलेट पेपर की पुरानी व्यवस्था की मांग कर रहा है। अधिकांश देश ईवीएम का त्याग कर चुके हैं लेकिन हमारे यहां चुनाव आयोग, सरकार और सर्वोच्च न्यायालय तक इसे सुनने को तैयार नही है। लेकिन अब बिहार चुनाव ने संभवतः इसके लिये ज़मीन तैयार कर दी है।
इस ज़मीन को सर्वोच्च न्यायालय के अनर्ब गोस्वामी को राहत दिये जाने को लेकर आये फैसले से और हवा मिल जाती है। गोस्वामी को अन्तरिम जमानत देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिये अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है वह अतिप्रशंसनीय है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस संद्धर्भ में उच्च न्यायालयों की भूमिका पर भी सवाल उठाये हैं। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से यह बहस भी छिड़ गयी है कि क्या इस तरह की त्वरित राहत केवल प्रभावशाली व्यक्तियों को ही मिलेगी औरों को नही। गोस्वामी के पक्ष में सारी भाजपा और केन्द्र से लेकर राज्यों तक की सरकारों के मन्त्री सामने आ गये थे। लेकिन भाजपा की सरकारों में ही जो पत्रकारों के खिलाफ मामले बनाये जा रहे हंै उन पर भाजपा की चुप्पी एक अलग ही तस्वीर पैदा करती है। हिमाचल में ही उन्नीस पत्रकारों के खिलाफ मामले बना दिये गये हैं। उत्तर प्रदेश में पत्रकारों के खिलाफ दर्जनों मामले दर्ज हैं। हाथरस जाते हुए केरल के पत्रकार कटपन्न के खिलाफ बनाये गये मामले को तो वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल सर्वोच्च न्यायालय ले गये थे लेकिन उसे राहत देने की बजाये निचली अदालत में भेज दिया गया था। कई वांमपंथी, बुद्धिजीवी जेलों में बन्द हैं लेकिन उनके मामलों में सुनवाई नही हो रही है। अभी कुणाल कामरा के खिलाफ बनाया गया अदालत की अवमानना का मामला इसका ताजा उदाहरण है। इस समय सरकार की नीतियों पर सवाल उठाना अपराध बन गया है। न्यायपालिका में भी जब केवल सत्ता के पक्षधर लोगों को ही त्वरित मिल पायेगा और आम आदमी को नही तब कानून की नजर में सबके बराबर होने की बात केवल कागज़ी होकर ही रह जाती है। सर्वोच्च न्यायालय के अर्नब गोस्वामी पर आये फैसले के बाद बार एसोसियेशन के प्रधान दुशयन्त दबे ने जो पत्र सर्वोच्च न्यायालय को इस संद्धर्भ में लिखा है उस पर शीर्ष अदालत की चुप्पी आम आदमी के विश्वास को जो ठेस पहुंचायेगी उसका अंदाजा लगाना कठिन है। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि आज आम आदमी का विश्वास व्यवस्था पर से पूरी तरह उठ चुका है और विश्वास का यह उठना ही आन्दोलन की ईवारत लिखेगा।