2014 से पहले कोरोना होता तो प्रधानमन्त्री नेरन्द्र मोदी ने 74वें स्वतन्त्रता दिवस पर लाल किले से देश को संबोधित करते हुए जनता के सामने यह सवाल रखा है कि यदि 2014 से पहले कोरोना आ जाता तो क्या होता। इस सवाल से बहुत सारे सवालों को जन्म दे दिया है। इन सवालों की गिनती करने और उनके जवाब तलाशने से पहले नरेन्द्र मोदी का 15 अगस्त 2013 का एक दृश्य याद आ जाता है। मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमन्त्री थे। दिल्ली में जब 15 अगस्त 2013 को लाल किले पर प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह का भाषण समाप्त हुआ था उसके आधे घन्टे के बाद नरेन्द्र मोदी का भुज के लालन काॅलिज के प्रांगण से भाषण शुरू हुआ था। काॅलिज के प्रांगण में मंच की पृष्ठभूमि में लाल किले की दिवार का वृहतचित्र लगाया गया था। उस पृष्ठभूमि में भाषण करते हुए नरेन्द्र मोदी ने डा. मनमोहन सिंह से भारत-चीन से सीमा से लेकर डालर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमतों तक हर ज्वलंत समस्या पर सवाल पूछे थे। उन्ही सवालों के मसौदे पर अन्ना का आन्दोलन खड़ा हुआ। कांग्रेस सरकार को भ्रष्टाचार का पर्याय करार दिया गया। जनता को अच्छे दिन आने का भरोसा दिया गया और सत्ता परिवर्तन हो गया। इस परिदृश्य में आज जब नरेन्द्र मोदी ने यह सवाल किया है कि यदि 2014 से पहले देश में कोरोना आ जाता तो क्या होता। इस समय देश कोरोना के संकट से गुजर रहा है। इसके कारण अर्थव्यवस्था पर क्या और कितना असर पड़ा है इसको लेकर कुछ विशेषज्ञों की राय में स्थिति 1947 से भी नीचे चली जायेगी। चालीस करोड़ से भी अधिक के रोज़गार पर असर पड़ा है। इसी वर्ष के अन्त तक एनपीए बीस लाख करोड़ हो जाने का अनुमान है। 2022 तक बैंकों के संकट में आने की आशंका खड़ी हो गयी है। वित्त मन्त्री के निर्देशों के बावजूद बैंक ऋण देने में असमर्थता व्यक्त करने लग गये हैं। अन्र्तराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतों में कमी आने के बावजूद पैट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाये जा रहे हैं। डालर के मुकाबले में रूपये की कीमत सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी है। अर्थव्यवस्था की यह स्थिति और भी बदतर होने की संभावना है क्योंकि कोरोना का आतंक लगातार बढ़ता जा रहा है। इस आतंक के कारण अनलाॅक थ्री में भी बाजा़र 30% तक ही रिस्टोर हो पाया है। इसे 100% तक होने में लंबा समय लगेगा और अब कोरोना के साथ ही जीने की आदत डालने की एडवायजरी जारी की जाने लगी है। क्या अर्थ व्यवस्था के इन पक्षों पर मोदी सरकार की कोई चिन्ता और चिन्तन देश के सामने आ रहा है। शायद नही क्योंकि भाजपा का सरोकार अपने लिये संगठन हर जिले में हाईटैक कार्यालय बनाना, वर्चुअल रैलियां करने और चुनी हुई सरकारे गिराना है। आज कोरोना से निपटने में सरकार कितनी सफल रही है इसकी जांच के लिये सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका के माध्यम से आयोग गठित किये जाने की कुछ पूर्व वरिष्ठ नौकरशाहों द्वारा की गयी है। जब कोरोना के मामले का आंकड़ा केवल पांच सौ था तब पूरे देश में लाॅकडाऊन करके सबको घरों के अन्दर बन्द कर दिया गया और जब आंकड़ा पांच लाख पहुंच गया तब इसमें ढील दे दी गयी। सरकार के अन्तः विरोधी फैंसलों के कारण यह लगने लगा है कि कोरोना से ज्यादा इसका प्रचार आतंक का कारण बन गया। कोरोना में ही यह सामने आया है कि छः वर्षों में मोदी सरकार देश में कोई नया बड़ा स्वास्थ्य संस्थान खड़ा नही कर पायी है। जो स्वास्थ्य संस्थान पहले से चल रहे हैं उनमें कितनी क्या सुविधायें हैं इसका खुलासा इसी से हो जाता है कि क्या कोई भी मन्त्री या अन्य बड़ा नेता जो कोरोना की चपेट में आया यह किसी भी सरकारी संस्थान मंे ईलाज के लिये नही गया। क्योंकि यह सरकार सारे संस्थानों को कमजोर करके उन्हें निजि क्षेत्र के हवाले करने की नीति पर चल रही है। इसी नीति का परिणाम है कि 23 सरकारी उपक्रमों को विनिवेश की सूची में डालकर उन्हे प्राईवेट सैक्टर के हवाले किया जा रहा है। शायद यह पहली सरकार है जिसके कार्यकाल में कोई भी सार्वजनिक उपक्रम खड़ा नही किया गया है। सरकार की आर्थिक नीतियों पर कोई सवाल न पूछे जायें इसके लिये बड़े ही सुनियोजित तरीके से प्रयास किये जा रहे हैं इन प्रयासों में मीडिया और उच्च न्यायपालिका भी सरकार का पूरा साथ दे रहा है। सर्वोच्च न्यायालय में प्रशान्त भूषण के मामले में जिस तरह की भूमिका रही है उससे 1976 के एडीएम जब्बलपुर मामले की याद ताजा हो जाती है जब यह कहा गया था कि आपातकाल में मौलिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है। मीडिया में सार्वजनिक मुद्दों पर जिस तरह से बहसे आयोजित की जा रही हैं उसका कड़वा सच कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी की मौत के रूप में सामने आ चुका है। आज शायद यह पहली बार हो रहा है कि राजनीतिक सत्ता से लेकर शीर्ष न्यायपालिका और मीडिया सभी पर से एक साथ भरोसा उठ रहा है। मोदी सरकार के आने से पहले भी स्वाईन फ्लू जैसी भयानक महामारीयां देश में आ चुकी हैं जिनमें हजारों लोग मरे भी हैं लेकिन तब लाॅकडाऊन करके लोगों को घरों में कैद करके नहीं रखा गया था। यदि 2014 से पहले कोरोना आ जाता तो शायद हालात इतने बदत्तर न होते। महामारी आती और निकल जाती। लोग रोज़गार और भुखमरी के कगार पर न धकेले जाते।