स्वस्थ लोकतन्त्र के लिये सत्तापक्ष के साथ स्वस्थ्य विपक्ष का होना बहुत आवश्यक है। इसी तर्क पर राजनीतिक दलों के भीतर भी असहमति के बीच का पूरा सम्मान होना चाहिये। पार्टी के अनुशासन और असहमति के बीच बहुत ही बारीक सीमा रेखा होती है। प्रायः महत्वाकांक्षा पर असहमति का आवरण डाल दिया जाता है। राजस्थान प्रकरण में भी शायद महत्वाकांक्षा को असहमति प्रचारित किया जा रहा है। क्योंकि इस प्रकरण के मुखर होते ही जिस तरह से केन्द्र की ऐजैन्सीयां आयकर से लेकर ईडी तक सक्रिय हुई हैं और पायलट कैंप को जिस तरह कानूनी सहायता मिली है उससे यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि इसमें भाजपा एक सक्रिय भूमिका निभा रही है। लोकतन्त्र और दलबदल कानून के लिये इससे ज्यादा घातक कुछ नही हो सकता। देश के कितने राज्यों में कब-कब इस तरह के दलबदल प्रायोजित हुए हैं इसकी सूची लंबी है और उसके विस्तार में जाने का अभी कोई औचित्य नही है क्योंकि उस काम को भाजपा अंजाम दे रही है। क्योंकि उसका हर तर्क नेहरू गांधी कांग्रेस तक पहुंच जाता है। कांग्रेस की हर गलती उसके लिये लाईसैन्स बन जाती है। लेकिन यहां महत्वपूर्ण सवाल यह हो जाता है कि यदि यह सब ऐसे ही चलता रहा तो इसका अन्तिम परिणाम क्या होगा और इसे कैसे रोका जा सकता है। निश्चित रूप से यह सब चुनाव व्यवस्था की कमजोरियों का परिणाम है। लम्बे अरसे से मतदाताओं को सरकारी रिश्वत बांटकर प्रलोभित किया जाता है और चुनाव आयोग इस प्रलोभन पर आंख बन्द कर लेता है। हर बार चुनाव खर्च की सीमा इतनी बढ़ा दी जाती है कि कोई भी आदमी सफेद धन के सहारे चुनाव नही लड़ सकता। चुनाव लड़ रहे व्यक्ति पर चुनाव खर्च की सीमा है परन्तु राजनीतिक दल पर ऐसी कोई सीमा नही है। आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायत का निवारण चुनाव याचिका दायर करना ही रह गया है। इसी कारण से आज संसद से लेकर विधान सभाओं तक आपराधिक छवि के लोग हमारे माननीय हो कर बैठे हैं। प्रधानमन्त्री मोदी ने चुनाव में वायदा किया था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करेंगे। लेकिन आज रिकार्ड पर सबसे अधिक अपराधिक छवि के लोग भाजपा में ही है।
आज जब सर्वोच्च न्यायालय असहमति के सवाल पर विचार करने जा रहा है तब यह आग्रह करना प्रसंागिक हो जाता है कि इस समय ईवीएम को लेकर जो याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय और कुछ उच्च न्यायालयों में लंबित पड़ी हैं यदि उन्ही पर समय रहते फैसला आ जाये तो शायद उसी से लोकतन्त्र का बड़ा भला हो जायेगा। क्योंकि एक याचिका में लोकसभा की 347 सीटों पर ईवीएम और वीवीपैट में आये भयानक अन्तर पर एडीआर ने बड़ी मेहनत करके साक्ष्यों के आधार पर यह मुद्दा उठाया है।