Friday, 19 September 2025
Blue Red Green
Home सम्पादकीय कोरोना से बड़ा हो गया है रोज़गार का संकट

ShareThis for Joomla!

कोरोना से बड़ा हो गया है रोज़गार का संकट

क्या कोरोना से पहले विश्व में कभी इस तरह की महामारी नही आयी हैं जिनमें इस तरह का जानी नुकसान न हुआ हो। इस पर विचार करते हुए जब 1897 का महामारी अधिनियम सामने आता है तो पता चल जाता है कि ऐसी महामारीयां प्रायः आती ही रही हैं। पिछली एक शताब्दी में आठ-दस बार किसी न किसी महामारी का प्रकोप रहा है। ऐसी महामारी विश्व के किसी भी देश से शुरू हुई लेकिन उससे प्रायः हर देश प्रभावित रहा है। अभी निकट भूतकाल में 2009-10 से एच1 एन1 स्वाईफ्लू का प्रकोप विश्वभर में रहा है। इस पर आंकड़ों सहित शैल के पिछले अंक में मैने चर्चा की है। भारत में 2010 से फरवरी 2020 तक इसका कैसा प्रकोप रहा है इसके उपलब्ध आंकड़े पाठकों के सामने रखे हैं। इन आंकड़ो से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वाईनफ्लू की गंभीरता और कोरोना की गंभीरता एक जैसी ही है। लेकिन आज तक किसी भी महामारी में किसी भी सरकार ने तालाबन्दी और कर्फ्यू जैसा कदम नहीं उठाया है। भारत में ही 2014 से भाजपा नीत मोदी सरकार सत्ता में है और इस सरकार ने भी स्वाईनफ्लू को लेकर ऐसा कदम नही उठाया जबकि इस फ्लू से 8000 से अधिक मौतें हो चुकी है।
आज जब कोरोना को रोकने के लिये तालाबन्दी का कदम उठाया गया था तब इसके मामलों का आंकड़ा 500 का था जो अब बढ़कर 50,000 से पार हो गया है। अभी और बढ़ने की आशंका है। तालाबन्दी से करीब  चालीस करोड़ लोग वह प्रभावित हुए है जो प्रवासी मज़दूरों  की संज्ञा में आते हैं। अब जब इन प्रवासी मज़दूरों को अपने घर वापिस जाने की सुविधा दी गयी तब यह जिस संख्या और तरह से बाहर निकले हैं उससे सबसे पहला प्रश्न तालाबन्दी की सार्थकता पर लगा। इसके बाद जब बाज़ार खोले गये तब जिस तरह की लाईने शराब की दुकानों के बाहर देखने को मिली हैं उससे भी तालाबन्दी के फैसले पर ही सवाल खड़े हुए हैं। अब पूरे प्रदेश में व्यवहारिक स्थिति यह हो गयी है कि तालाबन्दी चाहे और कड़ी कर दी जाये तो भी स्वाईनफ्लू ही की तरह कोरोना एक लम्बे समय तक रहेगा ही। क्योंकि यदि यह मान भी लिया जाये कि तालाबन्दी से इसके फैलाव की चेन को रोकने में सफलता मिली थी तो आज उस सफलता को सरकार ने स्वयं ही असफलता में बदल दिया है। क्योंकि कोरोना को लेकर जो भी जानकारी अब तक उपलब्ध है उसमें दो तथ्य महत्वपूर्ण हैं पहला यह है कि 40% मामले ऐसे हैं जिनका कोई सोर्स नही रहा है कोई ट्रैबल हिस्ट्री नही रही है। दूसरा यह है कि जो मौतें हुई है उनमें भी अधिकांश आंकड़ा यह है कि इन लोगों को कोरोना के अतिरिक्त और भी गंभीर बिमारीयां थी। ऐसे में डाक्टर अभी तक इसका कोई निश्चित पैटर्न तय नही कर पाये हैं। क्योंकि यह भी सामने रहा है कि परिवार में एक आदमी को तो हो गया परन्तु दूसरे बचे रहे। इस परिप्रेक्ष में और अहम सवाल हो जाता है कि इस महामारी के साथ ही देश को गंभीर आर्थिक संकट में डालने का औचित्य क्या है। जब से तालाबन्दी हुई है तब से सारा कारोबार बन्द पड़ा है। अब जब सरकार ने मज़दूरों को अपने घर गांव वापिस जाने की सुविधा दी तब जाने वाले मज़दूरों की संख्या रहने वालों से कई गुणा ज्यादा है जबकि कई उद्योगों को काम काज की अनुमति मिल चुकी है। लेकिन अधिकांश लोग काम पर लौटने की बजाये घर वापिस जाने को ही प्राथमिकता दे रहे हैं। ऐसा इसलिये हो रहा है कि इस बिमारी में भी जिस तरह से कुछ लोगों ने हिन्दु, मुस्लिम का सवाल खड़ा कर दिया है उससे उनका विश्वास ही टूट गया है। इस विश्वास को बनने में वर्षों लगेंगे क्योंकि सरकार की ओर से इस दिशा में कोई कारगर और व्यवहारिक कदम नही उठाये जा रहे हैं। एक तरह से आम आदमी का विश्वास शासन और प्रशासन से लगातार उठता जा रहा है। बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि अविश्वास का जो वातावरण नागरिकता संशोधन अधिनियम के परिदृश्य में पैदा हुआ था उसे इस बिमारी ने और बढ़ा दिया है। यह तय है कि आने वाले लम्बे समय तक देश की अर्थव्यस्था को सामान्य होने में कठिनाई आयेगी। क्योंकि मज़दूर अपने घरों को वापिस चले गये हैं उनका लौटना आसानी से संभव नही होगा।
इस समय यदि आर्थिक संकट के आकार का आकलन किया जाये तो यह इस महामारी से कई गुणा बड़ा हो गया है। करोड़ो लोग बेरोज़गार हो गये हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा सही है कि नोटबन्दी से जो कारोबार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा अभी तक सारा बाज़ार उससे ही बाहर नही निकल पाया था कि इस तालाबन्दी ने न केवल पुरानी यादों को ताजा कर दिया हैं बल्कि और गहरा दिया है। जब सरकार को महामारी के नाम पर जनता से सहयोग मांगना पड़ जाये, कर्मचारियों के वेत्तन में कटौती करनी पड़ जाये तो आर्थिक स्थिति का अनुमान लगाना आसान हो जाता है। लेकिन जब इन सबके साथ यह सामने आये  कि सरकार बीस हज़ार करोड़ खर्च करके नया संसद भवन और अन्य कार्यालय बनाने जा रही है तो उससे सरकार की नीयत और नीति दोनो पर सवाल खड़े हो जाते हैं। जब सरकार पंतजलि उद्योग जैसों का हजारों करोड़ो का कर्जा बट्टे खाते मे डाल सकती है तो सरकार की समझ से ज्यादा उसकी नीयत पर सवाल खड़े होते है। क्योंकि यह बुनियादी बात है कि जब कर्ज की वसूली नही की जायेगी तो एक दिन आपका सारा भण्डार खत्म हो जायेगा यह तय है। आज शायद हालात इस मोड़ पर पहुंच गये हैं । सरकार की प्राथमिकताओं पर सवाल खड़े हो गये हैं। यह लग रहा है कि गरीब और मध्यम वर्ग उसके ऐजैण्डे से बाहर है। कुछ अमीर लोगों की हित पोषक होकर रह गयी है सरकार इसीलिये वह बुलेट ट्रेन और सैन्ट्रल बिस्टा जैसे कार्यक्रम को रोकने के स्थान पर कर्मचारीयों तथा पैन्शनरों के मंहगाई भत्त्ते रोकने को प्राथमिकता दे रही है। विश्वभर में कच्चे तेल की कीमतों में कमी आयी है लेकिन भारत में इसके दाम घटने की बजाये बढ़ते जा रहे हैं। तेल पर 69% टैक्स लिया जा रहा है इसके दाम बढने का अर्थ है कि है कि चीज मंहगी हो जायेगी। यह शायद इसलिये किया जा रहा है क्योंकि चुनाव जीतने के लिये जिस तरह से विभिन्न वर्गों को आर्थिक सहायता दी जाती है उसे पूरा करने के लिये इस तरह के कदम उठाये जाते हैं। आम आदमी सरकार की इस अमीरी प्रस्ती के बारे में सोच ही न सके इसलिये उसे हिन्दु मुस्लिम और मन्दिर मस्जिद के झगड़ों में उलझा दिया जाता है। यही कारण है कि 2014 के चुनाव से पहले जो भ्रष्टाचार के मामले उठाये गये थे उन्हे बाद में गो रक्षा, भीड़, हिंसा और लव जिहाद के नाम पर दबा दिया गया। फिर जब चुनावों मे ई वी एम पर विवाद उठा और सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया तब उससे बड़ा नागरिकता संशोधन मुद्दा खड़ा हो गया। लेकिन सबके दौरान बैंको में आम आदमी के जमा पर लगातार ब्याज में कटौती होती गयी और बड़ों का 6.60 लाख करोड़ का कर्ज बट्टे खाते में डाल दिया गया। लेकिन इसे मुद्दा नही बनने दिया गया। इस वस्तुस्थिति में यह तय है कि जब तक आम आदमी ऐसी महामारी में भी हिन्दु-मुस्लिम में बंटा रहेगा तो कालान्तर मे वह पकौड़े तलने के अतिरिक्त और कुछ करने लायक नही रहेगा।
 

Add comment


Security code
Refresh

Facebook



  Search