प्रधानमंत्री का आह्वान है इसलिये यह पूरा किया ही जायेगा क्योंकि इस समय सारी उम्मीदें उन्ही पर ही टिकी हुई हैं। इसलिये आज सवाल भी प्रधानमंत्री से ही किया जायेगा। अभी तालाबन्दी के दस दिन शेष हैं। पहले दस दिनों में ही राज्य सरकारों ने अपने कर्मचारियों को पूरा वेतन दे पाने में अपनी असर्मथता जताई है। वेतन में 75%,60%,50% और दस प्रतिशत की कटौती अगले आदेशों तक की गयी है। पैन्शन में भी दस प्रतिशत की कटौती की गयी है। हिमाचल जैसे राज्य ने नये वर्ष के पहले ही सप्ताहमें कर्ज लेकर शुरूआत की है। आरबीआई ने हर तरह के जमा पर ब्याज दरें कम की हैं। इसमें छोटी बचतें और चालू एफडी भी शामिल है। इसका तर्क यह दिया गया है कि तालाबन्दी के कारण राजस्व के संग्रहण में कमी आयी है। लेकिन तालाबन्दी तो पिछले वित्तिय वर्ष के अन्तिम सप्ताह मे लागू की गयी थी। 24 मार्च तक तो कोई तालाबन्दी नही थी सारा काम यथास्थिति चल रहा था। फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि एक ही सप्ताह में सरकारों की हालत यह हो गयी कि वह पूरा वेतन दे पाने में असमर्थ हो गयी। तालाबन्दी के कारण देश के चालीस करोड़ से अधिक के लोग प्रभावित हुए हैं जिन्हे यह पता नही है कि उन्हे फिर से रोज़गार कब मिल पायेगा। देश की आज़ादी के समय तो करीब डेढ़ करोड लोगों ने ही पलायन किया गया था। सोलह अगस्त 1947 को 72 लाख लोग भारत से पाकिस्तान गये थे और 72 लाख ही पाकिस्तान से भारत आये थे। लेकिन उस पलायन का दर्द यह लोग आज भी महसूस करते हैं। परन्तु आज तो अपने देश में एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाने पर प्रतिबन्ध है। बलिक राज्यों के अपने भीतर ही एक जिले से दूसरे जिले में जाने पर पाबंदी है। सीमाएं सील कर दी गयी हैं और सड़कों के किनारे लाखों की संख्या में लोग बेघर होकर बैठे हैं। आज जब प्रधानमंत्री ने देश से दीपक जलाकर रोशनी करने का आह्वान किया है तब यदि इन लोगों के लिये भी कोई स्थिति स्पष्ट कर दी जाती है तो शायद इन्हे कुछ साहस मिलता। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया है।
यही नही जिस महामारी के कारण आज ये हालात पैदा हुए हैं उससे बचने के लिये कोई दवाई तो अभी तक नही बन पायी है परन्तु जो सुरक्षात्मक उपाय आवश्यक हैं उनकी भी आपूर्ति नही हो पा रही है। जो डाक्टर मरीजों के उपचार में लगे हुए हैं उन्हे ही यह सुरक्षा उपकरण पूरी मात्रा में उपलब्ध नही हैं। उपचार में लगे डाक्टर और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की हर राज्य से कमी की शिकायतें आ रही है। ऐसे में कई जगहों पर डाक्टरों नर्सो ने त्यागपत्र तक देने का प्रयास किया है। इस आवश्यक सामान की आपूर्ति के लिये समय रहते उचित कदम नही उठाये गये हैं यह पूरी तरह सामने आ चुका है। बल्कि तालाबन्दी के बाद भी जिस तरह से सर्विया आदि देशों को इस आवश्यक सामान का निर्यात किया गया है उससे सरकारी प्रबन्धों और संवदेना पर गंभीर सवाल उठ खडे़ हुए हैं । इस वस्तुस्थिति में भी निज़ामुद्दीन प्रकरण को जिस तरह से कुछ हल्कों में हिन्दु-मुस्लिम का रंग दिया जा रहा है। वह सामाजिक सौहार्द की दिशा में बहुत घातक सिद्ध होगा यह तय है। क्योंकि यह प्रकरण भी शीर्ष अदालत तक पहुंच चुका है। इसमें दर्ज हुए मामले अदालत तक पहुंचेगे ही। तब यह सवाल उठेगा ही कि देश की गुप्तचर ऐजैन्सीयां क्या कर रही थी। उनकी सूचनाएं क्या थी और उन पर केन्द्र और दिल्ली सरकार ने क्या किया। मरकज़ के साथ लगते पुलिस थाने ने क्या भूमिका अदा की। यह सवाल एक बार चर्चा में आयेंगे ही। ऐसे में आज यदि प्रधानमंत्री इन सारे आसन्न सवालों पर देश को संबोधित कर जाते तो शायद कोरोना का हिन्दु-मुस्लिम होना रूक जाता। अब देखना दिलचस्प होगा की दीपक के प्रकाश में यह महामारी हिन्दु-मुस्लिम होने से बच पाती है या नही।