Friday, 19 September 2025
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चिदम्बर की गिरफ्तारी से उठते सवाल

पूर्व वित्तमंत्री पर चिदम्बरम को सीबीआई ने भ्रष्टाचार के एक मामले में गिरफ्तार कर लिया है। लेकिन इस गिरफ्तारी को लेकर कुछ गंभीर सवाल भी उठ खड़े हुए हैं। पहला सवाल है कि जिस मामले में यह गिरफ्तारी हुई है उसकी एफआईआर में चिदम्बर का नाम नही है। यह नाम इसी मामले में अभियुक्त बनी इन्द्राणी मुखर्जी के ब्यान के बाद सामने आया है। इन्द्राणी अपनी ही बेटी के कत्ल के आरोप में जेल में है। नाम सामने आने के बाद जब भी सीबीआई/ईडी ने चिदम्बर को जांच के लिये  बुलाया वह इसमें शामिल हुए हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय में उनकी अग्रिम जमानत पर सात महीने फैसला रिर्जव रहा और मान्य न्यायधीश ने अपनी सेवानिवृति के दिन इस याचिका को खारिज कर दिया। इस पर चिदम्बर सर्वोच्च न्यायालय जाते हैं लेकिन उन्हे शीघ्र Urgent सुनवाई का अवसर नही दिया जाता है। फिर इसी मामले में वित्त मन्त्रालय के उन अधिकारियों के खिलाफ कोई कारवाई नही की जाती है जिन्हे इसमें सीबीआई ने दोशी नामजद किया हुआ है क्योंकि इन्ही की संस्तुति का अनुमोदन मंत्री के स्तर पर हुआ है। इन तथ्यों की पृष्ठभूमि में जिस तरह से चिदम्बरम को गिरफ्तार किया गया है उससे सीबीआई के राजनीतिक दवाब में होने के आरोपों से इन्कार करना आसान नही रह जाता है। यह आवश्यक है कि भ्रष्टाचार से सख्ती से निपटा जाये चाहे भ्रष्टाचारी किसी भी स्तर का बड़ा आदमी क्यों न हो। लेकिन इसी के साथ यह भी आवश्यक है कि इसमें स्थापित नियमों कानूनों की उल्लंघना न की जाये क्योंकि ऐसा करने से राजनीतिक दुर्भावना के आरोप लगते हैं और फिर सब कुछ उसी में दबकर रह जाता है।
आज चिदम्बरम प्रकरण में जांच ऐजैन्सीयों की भूमिका पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं और यह सवाल तब और ज्यादा प्रमाणित हो जाते हैं जब इन्हे सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी ‘‘ पिंजरे का तोता’’ और अब सी जे आई को कथन कि ‘‘जब राजनीतिक संद्धर्भ न हो तो सीबीआई बहुत अच्छा काम करती है’’ के आईने में देखा जाये तो यह आरोप सही नजर आते हैं। लेकिन जांच ऐजैन्सीयों पर लगने वाले आरोप अपरोक्ष में राजनीतिक नेतृत्व पर ही आ जाते हैं। इस धारणा की पुष्टि एच एस बेदी कमेटी की रिपोर्ट से हो जाती है। यह सार्वजनिक सत्य है कि 2002 से 2006 के बीच जो कुछ गुजरात में घटा था उसमें यह आरोप लगे थे कि कहीं-कहीं यह हिंसा शासन-प्रशासन से प्रायोजित थी। पुलिस पर फर्जी एन काऊंटर दिखाने के आरोप लगे थे। इन कथित फर्जी मुठभेड़ों पर 2007 में बी जी वर्गीज, जावेद अख्तर और शबनम हाशमी ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका डाली थी। जिसमें फर्जी मुठभेड़ों के सत्रह मामले उठाये गये थे। इस याचिका के आते ही गुजरात सरकार ने इसकी जांच के लिये एसटीएफ का गठन कर दिया। एसटीएफ के प्रमुख की जिम्मेदारी पुलिस अधिकारी ए.के.शर्मा प्रधानमंत्री मोदी के निकटस्थ माने जाते हैं। इस कारण से हाशमी ने उनकी नियुक्ति पर ऐतराज उठाया। जब यह सब कुछ सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में लाया गया तब शीर्ष अदालत ने एसटीएफ की मानिटरिंग के लिये सर्वोच्च न्यायालय के ही पूर्व जज जस्टिस ए.वी.शाह की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन कर दिया। जस्टिस शाह ने यह जिम्मेदारी उठाने से इन्कार कर दिया। शाह के इन्कार के बाद गुजरात सरकार ने अपने ही स्तर पर शाह की जगह मुंबई उच्च न्यायालय के सेवानिवृत मुख्य न्यायधीश के.आर.व्यास को कमेटी का अध्यक्ष बना दिया। लेकिन जस्टिस शाह की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय ने की थी इसलिये सर्वोच्च न्यायालय ने जस्टिस व्यास के स्थान पर शीर्ष अदालत के ही पूर्व जज एच.एस.बेदी को कमेटी का अध्यक्ष बनाया।
जस्टिस बेदी को 12 मार्च 2012 को अध्यक्ष बनाया गया और यह कहा गया कि यह कमेटी तीन माह के भीतर अपनी पूर्ण या अन्तरिम रिपोर्ट सौंपेगी। लेकिन गुजरात सरकार ने इस रिपोर्ट के सौंपने, इसको सार्वजनिक करने और उन याचिकाकर्ताओं को भी देने का विरोध किया जिनके कारण यह कमेटी गठित हुई थी। इस विरोध पर यह मामला पुनः सर्वोच्च न्यायालय में आया और शीर्ष अदालत ने 18 दिसम्बर 2018 को यह रिपोर्ट याचिकाकर्ताओं को देने के आदेश दिये। इन आदेशों की अनुपालना में 20 दिसम्बर को जस्टिस बेदी ने 220 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में तीन मामलों को पुलिस हिरासत में हुई मौत करार देते हुए इसकी जांच और दोषीयों को कड़ी सज़ा देने के निर्देश शीर्ष अदालत ने दिये हैं। लेकिन आज तक इन निर्देशों की अनुपालना नही हुई है। जब जस्टिस बेदी कमेटी इन मामलों को देख रही थी उसी दौरान इन दंगों को लेकर एक पत्रकार राणा आयूब ने एक स्टिंग आप्रेशन किया। इसका जिक्र बेदी कमेटी की रिपोर्ट में भी आया है। यह स्टिंग आप्रेशन अब गुजरात फाईलज़ पुस्तक रूप में भी सामने आ चुका है। लेकिन आज तक इस पर कोई कारवाई नही हुई है। यदि इस स्टिंग में दर्ज तथ्य गलत हैं तो राणा आयूब के खिलाफ मानहानि का मामला चलाया जाना चाहिये था लेकिन ऐसा नही हुआ है। आज जिस एनआईए को अचूक शक्तियां दे दी गयी है उस पर समझौता ब्लास्ट मामले में एनआईए की ही पंचकूला स्थित अदालत में गंभीर आक्षेप लगाये हैं। इस ब्लास्ट में पचास से अधिक लोग मारे गये थे लेकिन सारे अभियुक्तों को बरी कर दिया गया है। यह बरी करने की कहानी भी वैसी ही है जैसी कि पहलू खान के हत्यारों को बरी करने की रही है।
इस तरह के एकदम नंगे मामले जब आम आदमी के सामने होंगे तो वह इस पूरी व्यवस्था को लेकर क्या धारणा बनायेगा? क्या वह किसी पर भी विश्वास कर पायेगा जब वह यह समझ जायेगा कि उसकी बचत पर ब्याज दर घटाकर उस बड़े ण धारक को लाभ पहुंचाया जा रहा है जिसका ऋण एनपीए होकर राईट आफ किया जा रहा है। जब आम आदमी इस सुनियोजित षडयंत्र को समझकर सड़क पर निकल आयेगा तब इस व्यवस्था का समूल नाश होना निश्चित है। ऐसी वस्तुस्थिति मे चिदम्बरम जैसी गिरफ्तारियों पर सवाल उठने स्वभाविक है।

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