Friday, 19 September 2025
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घातक होगा राजनीति का व्यवसाय बनना

चुनाव परिणाम आने के बाद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने कामकाज संभाल लिया है। जनादेश 2019 में देश की जनता ने एक बार पुनः मोदी के नेतृत्व में विश्वास करते हुए पहले भी ज्यादा समर्थन उन्हे दिया है। शायद इतने ज्यादा समर्थन की उम्मीद अधिकांश भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं को भी नही होगी। प्रधानमन्त्री ने इस जीत को चुनावी कैमिस्ट्री और कार्य तथा कार्यकर्ताओं की जीत करार दिया है। विपक्ष में कांग्रेस ने हार के कारणों का कोई खुलासा अभी तक जनता के सामने नही रखा है बल्कि अपने नेताओं को एक माह तक मीडिया में कोई भी प्रतिक्रिया देने से मना किया है। लेकिन बसपा प्रमुख मायावती ने एक बार फिर ईवीएम मशीनां पर सन्देह जताया है। हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने भी इन मशीनों पर शक जताया है। ईवीएम मशीनां पर शक जताते हुए कई विडियोज़ सोशल मीडिया पर आ चुके हैं। एक विडियो में एक शशांक आनन्द ने चुनाव आयोग द्वारा रखे गये उन दस तर्कों का बुरी तरह से एक एक करके खण्डन किया है जिनके आधार पर मशीनों में किसी भी तरह की गड़बड़ करना संभव नही होने का दावा किया गया है। शंशाक आनन्द ने इसे सुनियोजित हार्डवेयर टैपरिंग करार दिया है और इसे कई आईटी विशेषज्ञों ने भी संभव ठहराया है।
विपक्ष हार के कारणों की समीक्षा में लगा है और देर सवेर उसे इस बारे में कुछ कहना भी पड़ेगा। जब कोई राजनीतिक दल इस तरह की हार को अपने संगठन कार्यकर्ताओं और नेतृत्व की हार मान लेगा तो निश्चित रूप से इसका असर उसके कार्यकर्ताओं पर पड़ेगा। जब कार्यकर्ता संगठन और नेतृत्व को कमजोर आंक लेता है तब ऐसे दलों को पुनः जीवन मिलना असंभव हो जाता है और कोई भी दल ऐसा नही चाहेगा कि उसके कार्यकर्ता उससे ना उम्मीद हो जायें। इसलिये इस हार के लिये संगठन और नेतृत्व से हटकर कारण खोजने होंगे और उन कारणों पर कार्यकर्ता को पूरे तार्किक ढंग से आश्वस्त भी करना होगा। ऐसे में अन्ततः सारा तर्क ईवीएम मशीनों पर फिर आकर थम जाता है। क्योंकि इन ईवीएम मशीनों को लेकर लम्बे अरसे से सन्देह जताया जा रहा है। जिस तरह से इसमें हार्डवेयर की टैपरिंग को लेकर अब सवाल उठे हैं उन्हें किसी भी विशेषज्ञ द्वारा झुठला पाना संभव नही होगा। क्योंकि जब 2014 के चुनावों में किये गये वायदों के मानकों पर सरकार का आकलन किया जाये तो ऐसा कुछ ठोस नजर नही आता है जिसके आधार पर इतने प्रचण्ड बहुमत को संभव माना जा सके।
प्रधानमन्त्री ने भी इस जीत को उनकी नीतियों की बजाये चुनावी कैमिस्ट्री की जीत बताया है। इस कैमिस्ट्री की अगर समीक्षा की जाये तो इसमें सबसे पहले भाजपा का आईटी सैल आता है। पार्टी के भीतर की जानकारी रखने वालों के मुताबिक देश भर में इस सैल में करीब एक लाख कर्मचारी काम कर रहा था। यह करीब एक लाख लोग कार्यकर्ता नही वरन पार्टी के कर्मचारी थे। क्योंकि आईटी सैल में वही लोग काम कर सकते हैं जिन्होंने कम्यूटर ऑप्रेशन में प्रशिक्षण लिया हो। पार्टी सूत्रों के मुताबिक इन कर्मचारियों को उनकी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर वेतन दिया जा रहा था। इस वेतन के लिये पैसा उद्योग घरानों से चन्दे के रूप में लिया गया। यह चन्दा इलैक्शन वांडस के माध्यम से आया। इसमें चन्दा देने वाले का नाम कितना चन्दा किस राजनीतिक दल को दिया गया इस सबको गोपनीय रखा गया। इसके लिये वाकायदा नियम बनाए गये। इस ंसंबंध में जब सर्वोच्च न्यायालय में याचिका आयी तब चुनाव आयोग और सरकार में थोड़ा मतभेद भी आया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसमें ज्यादा दखल न देते हुए यह निर्देश दिये है कि चन्दे को लेकर 31 मई तक राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग को जानकारी देनी होगी। इस जानकारी में क्या सामने आता है यह तो उससे आगे ही पता चलेगा। लेकिन जितना बड़ा तन्त्र इस चुनाव के लिये भाजपा ने खड़ा किया है उससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि भाजपा को एक लोकतान्त्रिक राजनीतिक दल की बजाये एक राजनीतिक व्यवसायिक प्रतिष्ठा के तरह विकसित किया जा रहा है। भाजपा की तर्ज पर ही अन्य राजनीतिक दल भी इसी लाईन पर आ गये हैं। इस सबका अर्थ यह हो जाता है कि अब राजनीतिक लोक सेवा की बजाये एक सुनियोजित व्यवसाय बनता जा रहा है और यह व्यवसाय बनना ही कालान्तर में लोकतन्त्र और पूरे समाज के लिये घातक होगा। इसी का प्रभाव है कि इस बार संसद में दागी छवि और करोड़पति माननीयों की संख्या और बढ़ गयी है।
जब राजनीति व्यवसाय बनती जाती है तब सारे संवैधानिक संस्थान एक एक करके ध्वस्त होते चले जाते हैं। इस बार के चुनावों में चुनाव आयोग की विश्वनीयता पर जो सवाल उठे हैं उनका कोई तार्किक जवाब समाने नही आ पाया है शायद है भी नही। लेकिन चुनाव आयोग के साथ ही उच्च/शीर्ष न्यायपालिका भी लगातार सवालों में घिरती जा रही है। बीस लाख ईवीएम मशीनों के गायब होने को लेकर एक मनोरंजन राय ने मार्च 2018 में मुबंई उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी। याचिका आरटीआई के तहत मिली जानकारियों के आधार पर दायर हुई थी। लेकिन सुनवाई के लिये सितम्बर 2018 में आयी। इस पर 8 मार्च 2019 को चुनाव आयोग ने जवाब दायर करके कहा कि हर मशीन और वीवी पैट का अपना एक विष्शिट नम्बर होता है और यह खरीद विधि मन्त्रालय की अनुमति और नियमों के अनुसार की गयी है। जबकि जवाब का मुद्दा था कि कंपनीयों ने कितनी मशीनें सप्लाई की और आयोग में कितनी प्राप्त हुई। लेकिन इसका कोई जवाब नही दिया गया। इसके बाद 23 अप्रैल को यह मामला उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश प्रदीप नदराजोग और न्यायमूर्ति एन एम जामदार की पीठ में लगा। इस बार फिर चार सप्ताह में आयोग को जवाब देने के लिये कहा गया और अगली पेशी 17 जुलाई की लगा। इस पर मनोरंजन राय ने सर्वोच्च न्यायालय में एस एल पी दायर करके इस चुनाव में ईवीएम के इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध की मांग की लेकिन वहां भी यह मामला सुनवाई के लिये नही आ पाया। ईवीएम को लेकर पूरा विपक्ष चुनाव आयोंग से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक सर पीटता रहा है लेकिन किसी ने भी इसे गम्भीरता से नही लिया। अब राजनितिक दल इन्ही ईवीएम मशीनों को एक बड़ा मुद्दा बनाकर जनता की अदालत में जाने की बाध्यता पर आ गये हैं। इसके परिणाम क्या होंगे कोई नही जानता लेकिन यह तय है कि जब भी जनता के विश्वास को आघात पंहुचता है तो उसके परिणाम घातक होते हैं देश जे.पी. आन्दोलन, मण्डल आन्दोलन और फिर अन्ना आन्दोलनों के परिणाम भोग चुका है और एक बार फिर हालात वही होने जा रहे हैं।

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