Friday, 19 September 2025
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मुद्दों से भागते मोदी

क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जानबूझकर आम आदमी के मुद्दों से भागने का प्रयास कर रहे है? यह सवाल चुनाव के अन्तिम चरणों तक पंहुचते-पहुंचते एक बड़ा सवाल बन कर खड़ा हो गया है। क्योंकि रोटी, कपड़ा और मकान के बाद मंहगाई और बेरोजगारी उसके बड़े मुद्दे बन जाते हैं। मंहगाई और बेरोजगारी के कारण उसे अपने और परिवार के लिये शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था करना कठिन ही नही असंभव तक हो जाता है। देश में मंहगाई जिस स्तर पर मई 2014 में थी आज उससे कम होने ही बजाये और ज्यादा ही बढ़ी है। बेरोजगारी का आलम यह है कि मोदी और उनकी भाजपा ने 2014 में प्रति वर्ष दो करोड़ नौकरियां देने का जो वायदा देश को बेचा था वह एकदम कोरा और झूठा आश्वासन ही साबित हुआ है। उल्टे नोटबंदी के बाद करोड़ो लोगों का रोजगार छिन गया है। यहां तक की केन्द्र सरकार और उसके विभिन्न निकायों में लाखों पद रिक्त पड़े है जिन्हे मोदी सरकार भर नही पायी है। भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को 2014 में उछालकर यह धारणा बना दी गयी थी कि कांग्रेस और यूपीए सरकार भ्रष्टाचार का पर्याय बन गयी है उनमें से एक भी मुद्दे पर किसी अदालत से किसी को कोई सज़ा मिल पाने की बात आज तक सामने नही आयी है। उल्टे यह सामने आया है कि जिस 1,76000 करोड़ के स्कैम में कई बड़े लोगों की गिरफ्तारियां हुई थी वह स्कैम हुआ ही नही था।
आज पांच वर्ष सरकार चलाने के बाद इन सभी मुद्दों पर सफल उपलब्धियों के साथ मोदी और उनकी सरकार को गर्व के साथ वोट मांगने आना चाहिये था। लेकिन ऐसा हो नही पाया है। चुनाव में मोदी इन मुद्दों पर बात ही नही आने दे रहे हैं। बल्कि पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र तक में भी उनका जिक्र नही है। बल्कि उज्जवला और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं का भी इस चुनाव प्रचार अभियान में कोई उल्लेख सामने नही आया है जबकि एक समय इन योजनाओं के लाभार्थीयों के आंकड़ों के आधार पर बड़े-बड़े दावे किये जा रहे थे। ऐसे बहुत सारे वायदे और दावे हैं जो 2014 की सरकार बनने से पहले और बाद में किये गये थे। कायदे से आज के चुनाव में तो इन्ही वायदों/दावों से जुड़े आंकड़े जनता की अदालत में रखे जाने चाहिये थे लेकिन इस चुनाव में मोदी और उनकी सरकार इस सबका कोई जिक्र ही नही छेड़ रही है। जिस नोटबंदी से यह दावा किया गया था कि उसके बाद देश में टैक्स अदा करने वालों का आंकड़ा बढ़ा है आज उसका भी कोई जिक्र नही किया जा रहा है क्योंकि इस आंकड़े में भी कमी आयी है। आज टैक्स अदा करने वालों की संख्या कम हुई है। इस तरह इस चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार के पास 2014 से लेकर अब तक कुछ भी बड़ा नही है जिसके दम पर सरकार पूरे आत्मविश्वास के साथ यह दावा कर सके उसके अमुक काम से आम आदमी को सीधे लाभ हुआ हो।
इस चुनाव के शुरू में प्रधानमन्त्री ने पुलवामा और फिर बालाकोट का जिक्र उठाया लेकिन यह चर्चा भी ज्यादा देर तक नही चल पायी। इसके बाद हिन्दुत्व को मुद्दा बनाया गया प्रज्ञा ठाकुर को उम्मीदवार बनाकर। इसी के साथ जब कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर के लिये बनाये गये विशेष सेना अधिकारी अधिनियम में संशोधन करने की बात की तब राष्ट्रवाद का मुद्दा उभारा गया। लेकिन अब गालियों को मुद्दा बनाकर यह आरोप लगाया कि विपक्ष उन पर जुलम कर रहा है। नितिन गडकरी ने इन छप्पन गालियों की वाकायदा सूची बनाकर जनता से आग्रह किया कि वोट देकर इस जुल्म का बदला लें। अब सैम पित्रोदा की 1984 के दंगो को लेकर आयी टिप्पणी को मुद्दा बनाकर पंजाब और दिल्ली में प्रदर्शन करवाये गये हैं। हिंसा कहीं भी हो उसकी निन्दा की जानी चाहिये और हिसां करने वालों के साथ सख्ती से पेश आना चाहिये। लेकिन जब हम 1984 के दिल्ली के दंगो की याद करते हैं तो उसी के साथ पंजाब में एक दशक से भी अधिक समय तक चले आतंकवाद की भी याद आ जाती है। उस आतंकवाद में जिन लोगां ने अपने परिजनों को खोया है उनके जख्म भी हरे हो जाते हैं पंजाब में 1967 से जनसघं से लेकर आज तक भाजपा का अकालीयों के साथ सत्ता का गठबन्धन रहा है। लेकिन इस गठबन्धन ने आतंकवाद के दौरान हुई हत्याओं की कितनी निंदा की है इसे भी सभी जानते हैं उस दौरान पंजाब में रात के समय अन्य राज्यों की बसें तक नही चलती थी। बसों से उतार कर गैर सिखों को मारा गया है यही इतिहास का एक कड़वा सच है। बल्कि अकाली-भाजपा सरकार में जब राजोआना को फांसी देने की बात आयी थी और मुख्यमन्त्री बादल ने उस पर केन्द्र को साफ कहा था कि ऐसा करने से पंजाब के हालात बिगड़ जायेंगे। बदाल के इस वक्तव्य पर भाजपा सरकार में होकर मूक दर्शक बनकर बैठी रही थी। हमने पंजाब के आतंकवाद के जख्म सहे हैं जो आज मोदी के ब्यान के बाद ताजा हो गये हैं।
आज जब 1984 के दंगो के गुनहागारों को सज़ा की बात हो रही है तो क्या आतंकवाद के दोषीयों को भी चिन्हित करके उन्हे भी सजा नही मिलनी चाहिये? क्या 2002 के गुजरात के दंगो के लिये भी दिल्ली की तर्ज पर ही सजा नही होनी चाहिये? गुजरात दंगो को लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त जस्टिस हरंजीत सिंह वेदी कमेटी की रिपोर्ट पर आज तक कारवाई क्यों नही हो रही है। यह रिपोर्ट 28 दिसम्बर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय में आ चुकी है। इसी तरह क्या समझौता ब्लास्ट में मारे 68 लोगों की हत्या के जिम्मेदारों को सजा नही मिलनी चाहिये?
ऐसे दर्जनो मामलें हैं जिन पर मोदी सरकार को ही देश को जवाब देना है और जवाब के लिये चुनाव से ज्यादा उपयुक्त समय और कुछ नही हो सकता। इसलिये यह सब पाठकां के सामने रखा जा रहा है।

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