Friday, 19 September 2025
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क्या आरक्षण फिर सरकार की बलि लेगा

क्या आरक्षण एक बार फिर सरकार की बलि लेने जा रहा है? यह सवाल एक बार फिर प्रंसागिक हो उठा है। क्योंकि जैसे-जैसे लोकसभा के चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं ठीक उसी अनुपात में आरक्षण एक गंभीर राजनीतिक मुद्दे की शक्ल लेता जा रहा हैं। इस मुद्दे से जुड़ी राजनीति की चर्चा करने से पहले इसकी व्यवहारिकता को समझना आवश्यक होगा। देश जब आज़ाद हुआ था तब पहली संसद में ही काका कालेकर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन हुआ था। यह पड़ताल करने के लिये की अनुसचित जाति और जन-जातियों के लोगों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति क्या है? इनको समाज की मुख्य धारा में कैसे लाया जा सकता है? क्योंकि उस समय के समाज में अस्पृश्यता जैसे अभिशाप मौजूद थे जबकि संविधान की धारा 15 में यह वायदा किया गया है कि जाति-धर्म और लिंग के आधार किसी के साथ अन्याय नही होने दिया जायेगा। काका कालेकर कमेटी की रिपोर्ट जब संसद में आयी थी तो वह रौंगटे खड़े कर देने वाली थी। इसी कमेटी की सिफारिशां पर अनुसूचित जाति और जन-जाति के लोगों के लिये उनकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया गया था। यह प्रावधान दस वर्षो के लिये किया गया था। क्योंकि संविधान की धारा 15 में यह प्रावधान किया गया है कि हर दस वर्ष के बाद इन जातियों की स्थिति का रिव्यू होगा और तब आरक्षण को आगे जारी रखने का फैसला लिया जायेगा। संविधान के इसी प्रावधान के तहत आरक्षण आजतक जारी चला आ रहा है।
इसके बाद 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तब इस सरकार ने देश के अन्य पिछड़े वर्गों की पहचान के लिये जनवरी 1979 में सांसद वी पी मण्डल की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया। इस आयोग ने भी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक क्षेत्रों के ग्यारह मानकों के आधार पर यह अध्ययन किया। इस आयोग के सामने 3743 जातियां/उपजातियां सामने आयी। आयोग ने ग्यारह मानकों पर इनका आकलन किया। इस आकलन में यह सामने आया कि अन्य पिछड़े वर्गों की जनसंख्या अनुसूचित जाति और जन जाति को छोड़कर देश की शेष जनसंख्या का 52% है। आयोग ने इनके लिये 27% आरक्षण दिये जाने की सिफारिश की और अन्य पिछड़े वर्गों के लिये एक अलग आयोग गठित किये जाने की सिफारिश की। मण्डल आयोग की सिफारिश पर ही अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुआ है जो सीधे राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट सौंपता है। अब मोदी सरकार ने इस आयोग को एकस्थायी वैधानिक आयोग का दर्जा प्रदान कर दिया है। मण्डल आयोग ने 1980 में ही अपनी रिपोर्ट जनता पार्टी सरकार को सौंप दी थी। लेकिन 1980 में सरकार टूट गयी और इन सिफारिशों को अमली जामा नही पहनाया जा सका। जबकि संसद इस रिपोर्ट को स्वीकार कर चुकी थी। फिर 1983 में कांग्रेस सरकार ने इस पर कुछ कदम उठाये लेकिन अन्तिम फैसला नही लिया। फिर जब 1989 में वी पी सिंह के नेतृत्व में भाजपा के साथ नैशलनफ्रंट की सरकार बनी तब इस सरकार ने मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू करने का फैसला लिया। अगस्त 1990 में वी पी सिंह सरकार ने इसकी घोषणा की। लेकिन घोषणा के साथ इसका विरोध शुरू हो गया और सर्वोच्च न्यायालय में इन्दिरा साहनी बनाम भारत सरकार एक याचिका आ गयी। अदालत ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार का फैसला स्टे कर दिया। इसके बाद 16 नवम्बर 1992 को सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ गया और मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू हो गयी। इसके बाद संविधान के 93वें संशोधन में इन सिफारिशों को उच्च शैक्षणिक संस्थानों में भी लागू कर दिया गया। इस संद्धर्भे में 5 अप्रैल 2006 को अर्जुन सिंह की अध्यक्षता में एक आल पार्टी बैठक हुई तब उस बैठक में भाजपा, वाम दलों और अन्य सभी बैठक में शामिल हुए दलों ने सरकार के इस फैसले का समर्थन किया तथा सुझाव दिया की आरक्षण का आधार आर्थिक कर दिया जाना चाहिये। इस बैठक में केवल शिव सेना ने इसका विरोध किया था। आज भी सभी राजनीति दल आरक्षण में आर्थिक आधार की वकालत करते हैं। विरोध केवल जातिय आधार का है। सर्वोच्च न्यायालय भी क्रिमी लेयर को आरक्षण से बाहर रखने के निर्देश दे चुका है। लेकिन आज तक किसी भी सरकार ने क्रिमी लेयर के निर्देशों की ईमानदारी से अनुपालना करने की बजाये क्रिमी लेयर का दायरा ही बढ़ाया है। क्रिमी लेयर का दायरा बढ़ा दिये जाने से यह संदेश जाता है कि सही में आरक्षण का लाभ गरीब आदमी को नही मिल रहा है और यहीं से सारी समस्या खड़ी हो जाती है।
आज केन्द्र में भाजपा की सरकार है जिसके मुखिया मोदी स्वयं ओबीसी से ताल्लुक रखते हैं। जिसकी अपनी जनसंख्या 52% है। वोट की राजनीति में यह आंकड़ा बहुत बड़ा होता है। अगस्त 1990 में जब वी पी सिंह ने मण्डल सिफारिशें लागू करने की घोषणा की थी तब 19 सितम्बर को दिल्ली के देशबन्धु कॉलिज के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह का प्रयास किया और 24 सितम्बर को सुरेन्द्र सिंह चौहान की आत्मदाह में पहली मौत हो गयी। इस दौरान मण्डल के विरोध में 200 आत्मदाह की घटनाएं घटी हैं। इन आत्मदाहों से वी पी सिंह सरकार हिल गयी। भाजपा ने समर्थन वापिस ले लिया। सरकार गिर गयी और सरकार गिरने के साथ ही आन्दोलन भी समाप्त हो गया। लेकिन आरक्षण अपनी जगह कायम रहा। अब जब मोदी सरकार बनी तब से हर भाजपा शासित राज्य से किसी न किसी समुदाय ने आरक्षण की मांग की है। इस मांग के साथ यह मुद्दा जुड़ा रहा है कि या तो हमें भी आरक्षण दो या सारा आरक्षण बन्द करो। अभी जब सर्वोच्च न्यायालय ने एस सी एस टी एक्ट में कुछ संशोधन किये तब न्यायालय के फैसले को पलटने के लिये संसद का सहारा लिया और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया। सरकार के इस फैसले से स्वभाविक रूप से सवर्ण जातियों में रोष है और यह रोष भारत बन्द के रूप में सामने भी आ गया है। सवर्णो ने यह नारा दिया है कि वह भाजपा को वोट न देकर ’’नोटा‘‘ का प्रयोग करेंगे। उत्तरी भारत में सवर्णो का विरोध आन्दोलन तेज है लेकिन उत्तरी भारत में सवर्णो की जनसंख्या ही 12% है। फिर जब ओबीसी की कुल जनसंख्या का 52% है और उसके साथ 22.5% एससीएसटी छोड़ लिये जाये तो यह आंकड़ा करीब 75% हो जाता है। आज भाजपा ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटकर और सवर्णो से आरक्षण के विरोध में आन्दोलन चलवाकर अपरोक्ष में 75% जनसंख्या को यह संदेश दे दिया है कि केवल भाजपा ही उनके हितों की रक्षा कर सकती है। लेकिन इसी के साथ भाजपा को यह भी खतरा है कि आरक्षण विरोध में जिन लोगों ने आत्मदाहों में अपनी जान गंवाई है यदि आज उनके साथ खड़ी नही हो पायी तो वह मण्डल विरोध के ऐसे रणनीतिक रहस्यों को बाहर ला सकते हैं जो भाजपा के साथ-साथ संघ के लिये भी परेशानी खड़ी कर सकते हैं। ऐसे में यह तय है आरक्षण विरोध में उठा यह आन्दोलन फिर सरकार की बलि ले लेगा जैसा कि वी पी सिंह सरकार के साथ हुआ था।

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