शिमला/शैल। कर्नाटक विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस और जनता दल (एस) ने भाजपा को उसी रणनीतिक शैली में जवाब दिया है जो उसने गोवा, मणिपुर, मेघालय और बिहार में अपनायी थी। कांग्रेस जद(एस) के मुख्यमन्त्री और उप-मुख्यमन्त्री के शपथ समारोह में देश के कई राजनीतिक दलों के बड़े नेता एक साथ आये हैं। इन नेताओं ने भाजपा को हराने के लिये इकट्ठे होने का संकल्प लिया है। माना भी जा रहा है कि यदि यह गठबन्धन का प्रस्ताव सफल हो जाता है तो भाजपा निश्चित रूप से सत्ता से बाहर हो जायेगी। लेकिन इस गठबनधन की आहट मात्र से ही भाजपा-संघ और उसके पैरोकार परेशान हो उठे हैं। भाजपा-संघ समर्थित मीडिया भी बहुत आहत हो रहा है। सब इस संभावित गठबन्धन को शक्ल लेने से पहले ही इसकी भ्रूण हत्या के प्रयास में जुट गये हैं। जो लोग सक्रिय राजनीति में हैं उनका पहला ध्येय येन-केन-प्रकारेण सत्ता हथियाना होता है और इसके लिये वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। भाजपा के पक्षधर दल इस दिशा में जो भी कर रहे हैं उसे राजनीति की भाषा में गलत नही कहूंगा। लेकिन आज मीडिया का एक वर्ग और उससे जुड़े लोग जब राजनीतिक दलों की ही भाषा बोलने और लिखने लग जाते हैं तो दुःख होता है।
मैं महागठबन्धन की वकालत नही करूंगा लेकिन इसका विरोध करने वालों से कुछ सवाल जरूर करना चाहूंगा। इसके लिये मैं आपका ध्यान आपातकाल की ओर आकर्षित करना चाहूंगा। क्योंकि कर्नाटक के घटना में जब भाजपा पर यह आरोप आया कि उसने देश में लोकतन्त्र की हत्या कर दी है तब इस आरोप का जवाब कांग्रेस को आपातकाल का स्मरण करके दिया गया। यह सही है कि उस समय लोकतन्त्र को चोट पहुंचाई गयी थी। इस चोट का प्रतिकार करने के लिये उस समय का विपक्ष इकट्ठा हुआ था और जनता पार्टी गठित हुई थी। 1980 में यह जनता पार्टी जनसंघ घटक की दोहरी सदस्यता के कारण क्यों टूटी और शिमला के रिज मैदान पर तत्कालीन केन्द्रिय मन्त्री राजनारायण की गिरफ्तारी क्यों हुई तथा उसका जनता पार्टी के भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ा था मैं इसकी व्याख्या में नही जाना चाहता। लेकिन यह सवाल जरूर उठाना चाहता हूं कि क्या आज भी आपातकाल जैसे हालात नही बनते जा रहे हैं? क्या आडवाणी जी ने भी इसका संकेत नही दिया है? आज क्या एनडीए में भाजपा के साथ अन्य दल नही है? क्या पीडीपी और नीतिश के जद (यू) के साथ चुनाव परिणामों के बाद गठबन्धन नही बने हैं।
इसलिये आज यदि इस संभावित आपातकाल का सामना करने के लिये एक महागठबन्धन आकार ले रहा है तो इसमें बुराई क्या है। क्या आज यह स्मरण नही किया जाना चाहिये कि 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान देश की जनता के साथ जो अच्छे दिनों के वायदे किये गये थे उनमें से कितने पूरे हुए हैं। उस समय मोदी जी ने यह कहा था कि वह प्रधानमंत्री नही वरन् प्रधान चैकीदार बनकर देश की सेवा करेंगे। लेकिन क्या इस चैकीदार के सामने से ललित मोदी, विजय माल्या, मेहुल चैकसी और नीरव मोदी जैसे लोग देश का हजारों करोड़ लेकर फरार नही हुए हैं। जिस कालेधन और भ्रष्टाचार को ढ़ोल पीटकर सत्ता में आये थे क्या उस दिशा मेें एक भी ठोस कदम उठाया गया है। आज सरकारी बैंको का एनपीए सात लाख करोड़ से भी ऊपर जा पहुंचा हैं। क्या यह जनता के पैसे की दिन दिहाड़े डकैती नही हैं। क्या इस एनपीए को वसूलने के लिये कोई कदम उठाया गया है। बल्कि जिन नौजवान बैंक मैनजरों ने एनपीए को लेकर सख्ती दिखायी उन्हे नीतिश के बिहार में गोली मार दी गयी। क्या एनपीए के नाम पर शीर्ष बैंक प्रबन्धन अपनी बईमानी को छिपा सकता है। क्या यह सही नही है कि इसी एनपीए के कारण बैंको में पैसे की कमी का प्रभाव सरकार के राजस्व पर भी पड़ा है। क्योंकि इसी एनपीए वालों को अपरोक्ष में लाभ देने के लिये ही तो नोटबंदी लायी गयी थी। यदि कालेधन को लेकर सरकार का आकलन और सूचना सही होती तो स्थिति ही कुछ और होती। पुराने नोट बन्द करने के बाद जब वही नोट पूरी करंसी का करीब 90% वापिस आ गया और उसे बदलना पड़ा तो सारा गणित गड़बड़ा गया। इसी कारण से आज सरकार तेल की कीमतें बढाकर अपना राजस्व इकट्ठा कर रही है। तेल को इसी कारण से जीएसटी के तहत नहीं लाया जा रहा है। इस तरह के आज अनेकों कारण ऐसे खड़े हो गये हैं जो आपातकाल से भी बदत्तर स्थिति बन गयी है। विरोध की हर आवाज़ को देशद्रोह कहने का चलन शुरू हो गया है।
इस परिदृश्य में आज देश को मन्दिर-मस्जिद, हिन्दु-मुस्लिम और दलित बनाम अन्य के नाम पर ज्यादा देर तक नही चलाया जा सकता। किसान आत्महत्या के कगार पर पहुंचा हुआ है। लाखों टन अनाज खुले में बर्बाद हो रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही है। क्या यह सारे कारण एक नये राजनीतिक गठबन्धन की आवश्यकता नही बन जाते? इस संभावित गठबन्धन को नेता के प्रश्न पर जिस तरह तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है और उसमें मीडिया का भी एक वर्ग सक्रिय भूमिका निभाने में लग गया है वह चिन्ता और निंदा का विषय है।