Friday, 19 September 2025
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मुख्यमन्त्री की कार्यशैली पर उठने लगे सवाल

शिमला/शैल। लोकसभा के आगामी चुनावों के लिये सत्तारूढ़ भाजपा अभी से रणनीति बनाने में जुट गयी है इसके लिये पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में बैठकों का दौर शुरू हो चुका है। उच्चस्थ सूत्रों के मुताबिक भाजपा हाईकमान मानकर चल रही है कि इस बार भी उसे प्रदेश की चारों सीटें मिल जायेंगी। हाईकमान की यह अपेक्षा कितनी पूरी होती है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन जिन मानकों के आधार पर ऐसे आकलन किये जाते हैं वह सार्वजनिक रूप से सबके सामने है। उस दिवार पर लिखे हुए को कोई कितना खुली आॅंख से पढ़ता और कितना बंद आॅंख से यह हर आदमी पर व्यक्तिगत रूप से निर्भर करेगा। क्योंकि जो लोग भीष्म पितामह से बंधकर गांधारी की तरह आंख पर पट्टी बांध कर चलेंगे उनका आंकलन अलग होगा और बाकियों का अलग। यह चुनाव केन्द्र और राज्य सरकार दोनों के कामकाज़ पर स्पष्ट फतवा होगा यह तय है। जो लोग इस फतवे में भाग लेंगे उन्हे भी आसानी से तीन वर्गों में चिन्हित किया जा सकता है। इसमें राजनीतिक वर्ग को छोड़कर सबसे पहले शीर्ष प्रशासनिक वर्ग आता है। यह वह वर्ग होता है जिसे स्थायी सरकार कहा जाता है जिनके वेतन- भत्ते देश के राष्ट्रपति द्वारा सुरक्षित होते है। प्रशासन का यही शीर्ष वर्ग राजनीतिक नेतृत्व का जहां सिद्धान्त रूप से पथ प्रदर्शक होता है वहीं पर यही वर्ग सत्ता डूबने और तैरने का भी कारण रहता है। इस वर्ग के बाद दूसरे स्थान पर राजनीति कार्यकर्ताओं का वर्ग आता है। यह वर्ग जहां सिद्धान्त रूप से पार्टी की नीतियों और कार्यक्रमों से जुड़ा हुआ होने का दावा करता है। वहीं पर जब इस वर्ग की भी अपनी अपेक्षाएं और व्यक्तिगत स्वार्थ पूरे नही हो पाते है तब यही वर्ग नेतृत्व का आलोचक हो जाता है। इसके बाद तीसरा वर्ग वह आता है जो मतदाता होता है, यह वर्ग अब हर रोज जागरूक होता जा रहा है। उसी की सीधी नज़र दूसरे वर्ग पर बनी रहती है। यह वर्ग सबसे पहले यह जान पाता है कि दूसरे वर्ग को व्यक्तिगत रूप से कितने और क्या लाभ मिले हैं।
इन मानकों पर यदि प्रदेश का आकलन किया जाये तो सबसे पहलेे मुख्यमंत्राी इस आकलन का विषय बनते हैं। मुख्यमन्त्री का बतौर विधायक यह पांचवा कार्यकाल है। वह एक बार मन्त्री भी रह चुके हैं और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी। विद्यार्थी काल में आरएसएस और विद्यार्थी परिषद् के सक्रिय नेता/ कार्यकर्ता रह चुके हैं। 1998 से वह विधायक चले आ रहे हैं। उन्ही की तरह केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा 1990 में विधायक बन गये थे और विद्यार्थी परिषद् के अखिल भारतीय अध्यक्ष भी रह चुके हैं। प्रदेश में भी मन्त्री रह चुके हैं। इस बार मुख्यमन्त्री की दौड़ में वह सबसे पहले स्थान पर थे। एक समय तो वह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की रेस में भी माने जा रहे थे। नड्डा के साथ ही दूसरा नाम सुरेश भारद्वाज का आता है। भारद्वाज भी 1990 में विधायक बन गये थे। विद्यार्थी परिषद् के अखिल भारतीय महामन्त्री पर प्रदेश के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नड्डा और भारद्वाज भी वरियता मे जय राम से कम नही है और यदि किसी समय जयराम के विकल्प की चर्चा उठती है तो स्वभाविक रूप से इन दो नामों की चर्चा सबसे पहले आयेगी जबकि महेन्द्र सिंह सबसे वरिष्ठ है लेकिन वह आरएसएस से जुड़े नही रहे हैं इसलिये इस गणना से बाहर हो जाते हैं।
इस परिदृश्य में जब अगले लोकसभा चुनावों को लेकर रणनीति तैयार की जायेगी तो उसमें केन्द्र की मोदी सरकार की उपलब्धियां और प्रदेश की जयराम सरकार की कारगुजारीयां दोनो की बराबर की भूमिका रहेगी। केन्द्र की मोदी सरकार को लेकर अब यह धारणा पूरी तरह पुख्ता हो चुकी है कि मोदी के भाषणों के अतिरिक्त व्यवहारिक तौर पर इस सरकार की ऐसी कोई उपलब्धि नहीं रही है जिसको लेकर इस सरकार का फिर से समर्थन किया जाये। मंहगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसे हर मोर्चे पर यह सरकार बुरी तरह असफल रही है। पाकिस्तान, बंग्लादेश, नेपाल और चीन के साथ संबंधो में कोई गुणात्मक सुधार सामने नहीं आ पाया है। प्रधानमन्त्री चीन यात्रा के दौरान जब बड़े सकारात्मक दावे कर रहे थे तब उसी समय भारत- तिब्बत मैत्री संघ की बैठक में चीन को सबसे बड़ा घातक करार दिया जा रहा था। आज प्रधानमन्त्री के भाषणों की भी वह गरिमा नही रही है जो अबतक मानी जा रही थी। प्रधानमन्त्री के स्तर पर यह सार्वजनिक रूप से माना जाने लगा है कि प्रधानमन्त्री के भाषणों से ही चुनावी सफलता मिलना आसान नही होगा। नोटबंदी के बाद देश की अर्थव्यवस्था को जो आघात पहुंचा था वह अब एटीएम में कैश की कमी तक पहुंचा चुका है।
इसी कड़ी में जब चार माह की जयराम सरकार का आंकलन किया जा रहा है तो उस पर कसौली कांड को लेकर जो फतवा सर्वोच्च न्यायालय के बाद शान्ता कुमार और वीरभद्र सिंह दे चुके हैं उसी से स्थिति बहुत स्पष्ट हो जाती है। यही नहीं इन अवैध निर्माणों के लिये एनजीटी जिन लोगों को सीधे नाम से चिन्हित करके कारवाई करने के निर्देश दे चुका है उन लोगों के खिलाफ आज तक कारवाई न हो पाना सरकार की नीयत और नाति पर अपने में ही एक बड़ा फतवा हो जाता है। आज यह चर्चा आम हो चुकी है कि सरकार में पूरी तरह अराजकता का माहौल बन चुका है। सरकार जो काम कर भी रही है उसका कोई सकारात्मक सन्देश नही जा पा रहा है। मुख्यमन्त्री जितना समय सचिवालय से बाहर गुजा़र रहे हैं वह अब उपलब्धि की जगह असफलता माना जा रहा है। आज संघ के भी कई गंभीर लोग यह मान रहे हैं कि लोकसभा चुनावों में इच्छित सफलता मिलना कठिन है।

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