जयराम सरकार को अभी सत्ता संभाले दो माह का समय नहीं हुआ है लकिन इसी अल्प अवधि में सरकार को 1500 करोड़ का कर्ज लेना पड़ गया है। प्रदेश की वित्तिय स्थिति का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि आज प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह में ऐसा फंस चुका है कि कर्ज लेना मजबूरी बन चुकी है। कल तक भाजपा इस कर्ज के लिये वीरभद्र को कोसती थी लेकिन आज स्वयं सत्ता संभालने के बाद कर्ज लेकर काम को चलाना पड़ रहा है। आज प्रदेश का कर्जभार जीडीपी के 35% से भी बढ़ गया है। जबकि एफआरवीएम के तहत यह 3% से अधिक नही होना चाहिये। इस बढ़ते कर्ज पर भाजपा सरकार वित्त विभाग मार्च 2016 में प्रदेश सरकार को चेतावनी भी जारी कर चुका है। इसी चेतावनी का परिणाम है कि केन्द्र प्रदेश को वेल आऊट नही कर पा रहा है। क्योंकि तय वित्तिय नियमों से केन्द्र भी बंधा हुआ है। फिर यदि एक प्रदेश को केन्द्र कोई बेल पैकेज देता है तो कल उसी तर्ज पर दूसरे प्रदेश भी मांगेगे क्योंकि कर्ज के जाल में हर प्रदेश फसा हुआ है। अभी केन्द्र का जो बजट आया है और उसमे जो जो घोषणाएं की गयी हैं उन्हे पूरा करने के लिय धन कहां से आयेगा इसके लिये बजट में कुछ भी स्पष्टता से नही कहा गया है। यही केन्द्र के बजट का सबसे नकारात्मक पक्ष है और इसी को लेकर मोदी सरकार पर सबसे बड़ा आरोप भी लग रहा है।
इसी परिदृश्य में यदि प्रदेश सरकार अपने स्तर पर अपने वित्तिय हालात को नहीं सुधारती है तो आने वाला समय और भी कठिन होगा। इसलिये यह समझना बहुत आवश्यक है कि प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह में फंसा कैसे और इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है। 1998 में जब प्रेम कुमार धूमल ने प्रदेश की बागडोर संभाली थी तब उन्होने सदन में प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर एक श्वेत पत्र रखा था। इस श्वेत पत्र में यह तथ्य आया था कि जब अप्रैल 83 में स्व. ठाकुर रामलाल ने सत्ता छोड़ी थी और वीरभद्र ने संभाली थी उस समय प्रदेश पर कोई कर्ज नही था बल्कि सरकार के 80 करोड़ का बैलेन्स था। सदन में आये इस श्वेत पत्र के तथ्यों को वीरभद्र और कांग्रेस झुटला नहीं पाये थे। लेकिन 1990 में जब शान्ता कुमार ने प्रदेश की बागडोर दूसरी बार संभाली तब उन्होनें विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में जेपी उद्योग समूह का पदार्पण बिजली बोर्ड से बसपा परियोजना लेकर जेपी को देकर करवाया। इस परियोजना पर बिजली बोर्ड जो निवेश कर चुका था उसे ब्याज सहित बोर्ड को वापिस किया जाना था। जोकि आज तक नही हुआ बल्कि ब्याज सहित यह रकम 92 करोड़ बन गयी थी जिसे बट्टे खाते में कैग के एतराज के बावजूद डाल दिया गया। शान्ता के इसी काल में संविधान की धारा 204 का उल्लघंन करके राज्य की समेकित निधि से खर्च करने का चलन शुरू हुआ जो आज तक लगातार चल रहा है और कैग रिपोर्ट में हर बार इसका जिक्र रहता है। लेकिन शान्ता ने जलविद्युत परियोजनाओं से 12% रायल्टी वसूलने का जो फैसला लिया उसके साये तले में यह मुद्दा ही दब गया कि विद्युत उत्पादन में निजिक्षेत्र की भागीदारी कितनी होनी चाहिये। बल्कि यह प्रचारित और प्रसारित होता रहा कि हिमाचल बिजली राज्य है। इसी बिजली राज्य के नारे के परिणामस्वरूप यहां पर औद्यौगिक क्षेत्रों का विकास हुआ है उद्योगपत्ति आये। विद्युत उत्पादन पर तो इस प्राईवेट सैक्टर ने पूरी तरह का कब्जा कर लिया है। 1990 में जब बिजली बोर्ड से कैलाश महाजन को हटाया गया था उस समय बोर्ड करीब 480 मैगावाट का उत्पादन कर रहा था जो आज 2018 में केवल 512 मैगावाट तक ही पहुंच पाया है। लेकिन आज इसी विद्युत से प्रदेश को आये होनेे की बजाये हानि हो रही है। वीरभद्र के इस बीते कार्यकाल में एक भी विद्युत परियोजना में निवेश करने वाला कोई नही आया है। आलम यह है कि निजिक्षेत्र को लाभ देने के लिये बोर्ड की अपनी परियोजनाओं में हर वर्ष हजारो घण्टों का शटडाऊन किया जा रहा है। हर वर्ष बोर्ड की बिजली बिकने से रह रही है। जबकि प्राईवेट सैक्टर के उत्पादकों से पीपीए के तहत बोर्ड को खरीदनी पड़ रही है। इस तरह नुकसान केवल सरकार का हो रहा है और यह दोहरा नुकसान है एक अपने प्रौजैक्ट शटडाऊन के बाहनेे बन्द रह रहे हैं तथा दूसरा बिजली बिक नही रही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में सरकार को अपनी नीति बदलनी होगी।
विद्युत जैसी ही स्थिति है हमारे उद्योगों की उनमें भी जितनी सब्सिडी उद्योगों को दी जा चुकी है जिसका जिक्र कैग कर चुका है। उस अनुपात में न तो उद्योगों से रोजगार मिल पाया है और न ही टैक्स के रूप में सरकार को पर्याप्त मिल पा रहा है। यहां भी पूरी नीति पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है। ऐसे और भी कई क्षेत्र है जहां इस नीति पर नये सिरे से सोचने की आवश्यकता है। शिक्षा के क्षेत्र में आज सैंकड़ो स्कूल ऐसे हैं जहां बच्चो की संख्या दस और बीस के बीच है वहां भी कम से कम तीन अध्यापक हैं जिनका वेतन एक लाख से अधिक होता है। यदि ऐसे स्कूलों को बन्द करके इन बच्चों को फ्री बस सेवा उपलब्ध करवा कर नजदीक के दूसरेे स्कूल में डाल दिया जाये तो यह खर्च केवल पांच छः हजार महीने का आयेगा। इससे हर स्कूल में अध्यापक भी पूरे होंगे और हर बच्चे को सुविधा भी पूरी मिलेगी। केवल एक बार योजना बनाकर फैसला लेने की आवश्यकता है। जब सरकार ऐसे फैसले लेकर अपनी वित्तिय सेहत को सुधारनेे का प्रयास करेगी तो जनता भी इसमें सहयोग करेगी। लेकिन ऐसे फैसले लेने के लिये एक मजबूत राजनैतिक ईच्छा शक्ति चाहिये। ऐसी ईच्छा शक्ति के लिये यह आवश्यक है कि सरकार इस सच्चाई को स्वीकार करके चले कि अगले चुनाव मेें तो सत्ता बदलनी ही है। राजनेता सत्ता के लोभ में ऐसे व्यवहारिक फैसले लेने से डरते हैं। जबकि यह सच्चाई है कि 1985 से लेकर आज तक प्रदेश में कोई भी पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में नही आ पायी है। चाहे उसे सैंकड़ो के हिसाब से मीडिया से श्रेष्ठता के अवार्ड ही क्यों न मिले हों। यदि आज जयराम इस सच्चाई को स्वीकार करने का साहस दिखा पाये तो शायद प्रदेश के इतिहास में अपना स्थान बना पायेंगे अन्यथा जो कुछ वित्तिय कुशासन के नाम पर अब तक प्रदेश में घट चुका है उसके बोझ तले दबकर असमय ही असफल होने का तमगा लगने की संभवना ज्यादा है।