Saturday, 20 December 2025
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न्यायिक सेवाओं से जुड़े लोगों को ट्रिब्यूनल में नियुक्त किया जाये

शिमला/शैल। प्रदेश के प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में प्रशासनिक सदस्यों के दो पद लम्बे समय से खाली चले आ रहे हैं। इन पदों को भरने के लिये कई बार आवेदन आमन्त्रित किये गये हैं। अब इन पदों को भरने की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। इसके लिये चयन समिति की बैठक हो चुकी है। लेकिन इस बैठक में किन सदस्यों की नियुक्ति की अनुशंसा की गयी है इसका कोई अधिकारिक फैसला सामने नहीं आया है। लेकिन माना जा रहा है कि शीघ्र ही यह फैसला सामने आ जायेगा। लेकिन यह फैसला अधिकारिक तौर पर सामने आने और यह नियुक्तियां होने से पहले ही यह चर्चा चल पड़ी है कि इस ट्रिब्यूनल को बन्द किया जा रहा है। इस संद्धर्भ में कर्मचारी नेता विनोद कुमार ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की है।
प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के अस्तित्व पर उठे सवालों पर हि.प्र. अराजपत्रित कर्मचारी महांसघ ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि प्रदेश के अग्रिण कर्मचारी संगठन प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में चहेते नौकरशाहों की नियुक्तियों का हमेशा विरोध करते रहे हैं परन्तु सरकार कर्मचारीयों की भावनाओं को दरकिनार कर ऐसे नौकरशाहों को ट्रिब्यूनल का बतौर सदस्य नामांकित करती रही है जिनकी सरकारी उच्च पदों पर नकारात्मक कार्यशैली के कारण अधीनस्थ कर्मचारियों को अपने इन्साफ के लिए वर्षो कोर्ट-कचहरियों में भटकना पड़ता है। महासंघ के संयोजक एवं परिसंघ के पूर्व अध्यक्ष विनोद कुमार ने कहा है कि सरकारें ऐसे चहेते नौकरशाहों को प्रशासनिक ट्रिब्यूनल का सदस्य नामांकित करती रही है, जिनकी सोच अपनी सेवाकाल के दौरान प्रजातांत्रिक न होकर सामंतवादी रही है और जो सेवा मामलों पर नियम/कानून सम्मत न्याय देने के मामले पर एक पृष्ठ का विवरण लिखने में भी सक्षम नहीं होते हैं। महासंघ ने कहा है कि प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में किसी भी सदस्य की नियुक्ति उसके सर्विस रिकाॅर्ड की समीक्षा किए बिना और कोई मैरिट निर्धारित न करना पूरी तरह से कर्मचारी वर्ग से अन्याय है, जो संवैधानिक संस्था की विश्वसनीयता को ही चोट करते हैं।
महासंघ नेता विनोद कुमार ने कहा है कि 1986 में स्थापित प्रशासनिक ट्रिब्यूनल को वर्ष 2008 में धूमल सरकार ने कर्मचारी संगठनों की मांग पर इसे बन्द करके कर्मचारियों के मसलों की पैरवी के लिए उच्च न्यायालय में व्यवस्था दी, चूंकि उस समय तक 24 वर्षों के इतिहास में सरकार द्वारा प्रताड़ित कर्मचारियों/कर्मचारी नेताओं के अनुभव जिस उद्देश्य से ट्रिब्यूनल की स्थापना की गई थी, उसके विपरीत थे। इसलिए धूमल सरकार का यह फैसला पूरी तरह से कर्मचारियों के हक में गया था। परन्तु सत्ता परिवर्तन के बाद 2013 में राजनीतिक दृष्टिकोण से वीरभद्र सरकार ने अगस्त 2013 की कैबिनट की बैठक में ट्रिब्यूनल को दुबारा से चालू करने का फैसला लिया, सम्भवतः उसके पीछे बेरहम राजनीतिक तबादलों पर उच्च न्यायालय की सरकार को फटकार थी। लेकिन सरकार के इस फैसलें के विरूद्ध उस समय कर्मचारी परिसंघ ने सितम्बर 2013 के सरकार के इस फैसले का विरोध करते हुए प्रदेश सरकार उच्च न्यायालय और भारत सरकार को लिखित तौर पर ज्ञापन के माध्यम से कर्मचारियों की भावनाओं से अवगत करवाया गया। जिसके चलते फरवरी 2015 तक मामला लटका रहा, परन्तु राजनीतिक कारणों से वीरभद्र सरकार ने आखिर इसे दोबारा खोलते हुए पूर्व की तर्ज पर अपने चहेते नौकरशाहों को वहां बतौर सदस्य लगाया। विनोद कुमार ने कहा है कि वर्तमान में भी सरकार से यह कई बार मांग की जा चुकी है कि प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में किसी भी चहेते नौकरशाहों को एड़जस्ट करने की परीपाटी को विराम लगाते हुए ट्रिब्यूनल में न्यायिक सेवाओं से जूड़े जजों/सदस्यों की ही नियुक्तियां की जायें जिसमें सीधे सरकार का हस्तक्षेप न हो ताकि नकारात्मक कार्यशैली वाली नौकरशाही और भ्रष्ट राजनेताओं की प्रताड़ना के शिकार कर्मचारी/अधिकारी वर्ग को समय रहते उचित न्याय मिल सके, चूंकि प्रशासनिक ट्रिब्यूनल एक्ट 1985 में भी देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे कई फैसलों के सन्दर्भ अंकित है जिसमें ट्रिब्यूनल की ऐसी कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह खड़े किए हैं।

सबसे अधिक बीमार है प्रदेश का सबसे बड़ा अस्पताल आईजीएमसी

शिमला/शैल। मोदी सरकार ने देश के करोड़ों गरीब लोगों के स्वास्थ्य की चिन्ता करते हुए उनके लिये आयुष्मान भारत योजना शुरू कर रखी है। बल्कि इन्ही योजनाओं के दम पर यह सरकार सत्ता में वापसी की उम्मीद लगाकर बैठी हुई है। क्योंकि इस योजना के तहत गरीब आदमी पांच लाख तक का अपना ईलाज मुफ्त में करवा सकता है। इसी योजना की तर्ज पर जयराम सरकार ने भी अपनी ओर से हिमकेयर योजना इसमें और सहयोग करने के लिये शुरू कर रखी है। लेकिन आज इन योजनाओं की व्यवहारिक स्थिति यह है कि पैसों के अभाव में यह योजनाएं बन्द होने के कगार पर पंहुच चुकी है। क्योंकि इन योजनाओं के तहत खरीदी जा रही दवाईयां एवम अन्य उपकरणों के सप्लायरों को उनके बिलों का भुगतान नही हो पा रहा है। आईजीएमसी में ही सप्लायरों का करीब दस करोड़ का भुगतान रूका पड़ा है। एक सप्लायर के 6.88 करोड़ के बिल भुगतान के लिये पड़े हुए हैं। जब राजधानी में ही यह हालत होगी तो प्रदेश के अन्य भागों की हालत का अन्दाजा लगाया जा सकता है। भुगतान न हो पाने के कारण कुछ सप्लायरों ने तो सप्लाई ही बन्द कर दी है। भुगतान न हो पाने का कारण है कि केन्द्र से इसके लिये पैसा नही आ पा रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि चुनावों के बाद इन योजनाओं को पुनर्विचार के नाम पर बन्द कर दिया जायेगा।
आईजीएमसी में ही ईलाज की स्थिति यह है कि पिछले दिनों मुख्यमन्त्री के प्रधान अतिरिक्त मुख्य सचिव डा. श्रीकान्त बाल्दी ने एक मरीज को अस्पताल भेजा लेकिन इस मरीज को तीन घन्टे तक डाक्टारों ने देखा तक नहीं परिणामस्वरूप इस मरीज ने ईलाज से पहले ही दम तोड़ दिया। इस पर डा. बाल्दी नाराज हुए और उन्होने आईजीएमसी प्रबन्धन से इस बारे में रिपोर्ट तलब की। यह रिपोर्ट मांगे जाने पर ऐसी लापरवाही के लिये एक जांच कमेटी गठित की गयी। इस कमेटी ने अपनी जांच में डाक्टारों और अन्य स्टाॅफ को इस लापरवाही के लिये कुछ लोगों को नाम से चिन्हित करते हुए अपनी रिपोर्ट जांच कमेटी के प्रमुख को सौंप दी। नामों का खुलासा हो जाने पर संबंधित डाक्टर हरकत में आये और अन्ततः फाईनल रिपोर्ट में यह कह दिया कि मरीज की मौत के लिये कोई भी जिम्मेदार नही है। यही नही आईजीएमसी के डाक्टरों का आचरण डाॅ. आर जी सूद और डाॅ. गोयल के मामलों में भी इसी तरह का रहा है चर्चा है कि डा. गोयल भी तीन घन्टे तक बाहर बैंच पर पड़े रहे थे और किसी ने भी उन्हे देखा तक नही था।
अब आयुष्मान योजना के तहत ईलाज के लिये आये एक मरीज को डाक्टरों ने 42000 रूपये के खर्चे के प्रबन्ध के लिये बोल दिया। गरीब आदमी यह प्रबन्ध करने में असमर्थ था। उसने आईजीएमसी प्रबन्धन से इस बारे में शिकायत की और सरकार तक भी यह सूचना पंहुच गयी। इस पर भी एक गंभीर जांच हुई है और इसकी रिपोर्ट सरकार को सौंप भी दी गयी है। लेकिन अभी तक इस रिपोर्ट पर कोई कारवाई नही हुई है। यही नही पिछले दिनों आईजीएमसी में ही एक नर्स की ट्रांसफर हुई यह ट्रांसफर कुछ रिपोर्टों के आधार पर हुई थी। लेकिन इस ट्रांसफर को रोकने के लिये तीन विधायक सिफारिश लेकर आ गये और मुख्यमन्त्री इस दबाव के आगे झुक गये।
जहां प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल की स्थिति इस तरह की है वहीं पर सरकार स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्राईवेट सैक्टर को बढ़ावा दे रही है। लेकिन प्राईवेट सैक्टर की हालत यह है कि यहां पर टैस्ट आदि के लिये जो मशीने लगायी जा रही हैं वह 15 से 20 वर्ष पुरानी तकनीकी की है। जबकि स्वास्थ्य के क्षेत्र में आये दिन नई रिसर्च सामने आ रही है। फिर प्राईवेट सैक्टर में टैस्टों की फीस सरकार से कई गुणा अधिक है और जब मरीज इन टैस्ट रिपोर्टोें के आधार पर ईलाज के लिये आता है। तो उसे नये सिरे से टैस्ट करवाने पड़ते हैं और दोनों रिपोर्टो के परिणामों मे भारी भिन्नता सामने आती है। यह सब इस लिये हो रहा है क्योंकि प्राईवेट सैक्टर को रैगुलेट करने के लिये कोई प्रावधान नही रखा गया है।

दलित उत्पीड़न पर पुलिस की बेरूखी फिर आयी सामने

शिमला/शैल। दलित उत्पीड़न के मामलों मे पुलिस के व्यवहार को लेकर प्रायः बेरूखी और पक्षपात करने के आरोप लगते रहते हैं। पिछले दिनों नाहन का जिन्दान मामला इसका बड़ा तल्ख उदाहरण प्रदेश के सामने रहा है। अब राजधानी शिमला के उपनगर ढ़ली में एक दलित अमीचन्द के परिवार पर गुण्डों ने राॅड और डंडो से 23 अप्रैल रात दस बजे हमला कर दिया। इस हमले में अमीचन्द उसकी पत्नी और बेटी रितु तथा लड़के को गंभीर चोंटे आयी है। रितु का सिर फोड़ दिया गया हैं इस घटना की सूचना पीड़ित परिवार ने उसी रात को पुलिस को दे दी। पुलिस मौक पर आयी और हमला करने वाले रामदेव और मनीराम को गाड़ी में बैठाकर अपने साथ ले गयी। लेकिन पीड़ित परिवार की कोई सुध नही ली।
घायल लड़की रितु को उसके परिवार वाले ही अस्पताल लेकर गये। लेकिन अस्पताल में भी इनका ईलाज सही ढंग से नही किया गया। इनका आयुष्मान के तहत स्वास्थ्य कार्ड तक बना हुआ है लेकिन इस कार्ड का उपयोग तक नही करने दिया गया। इस घटना की एफआईआर लिखवाने 24 तारीख को रितु को बहन पुष्पा ढली थाना में गयी लेकिन उसकी एफआईआर नही लिखी गयी। जबकि पुलिस को 23 तारीख रात में ही सूचना मिलने और फिर घटनास्थल पर जाने के कारण स्वत ही प्राथमिकी दर्ज कर लेेनी चाहिये थी। लेकिन परिवार को एफआईआर लिखवाने के लिये आनलाईन शिकायत का माध्यम लेना पड़ा। इस मामले में 18 घन्टे बाद एफआईआर दर्ज की गयी। डीएसपी सिटी को भी इसकी शिकायत की गयी। फिर धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के सामने ब्यान दर्ज करके अनुसूचित जाजि उत्पीड़न अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया। लेकिन इस पर अभी तक न तो कोई कारवाई हुई है और न ही इन्हें एफआईआर की कापी उपलब्ध करवायी गयी है।
पुलिस की बेरूखी के कारण परिवार को इस मामले में पूर्व महापौर संजय चौहान की सहायता लेनी पड़ी है। संजय चौहान ने इस मामले में ढली पुलिस के कर्मीयों और आईजीएमसी के डाक्टरों जिन्होंने ईलाज में कोताही बरती है उन सभी के खिलाफ कारवाई की मांग की है। स्मरणीय है कि दलित उत्पीड़न के मामलों पर सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिकता विभाग के तहत एक कमेटी गठित है। इस तरह के मामले इस कमेटी के संज्ञान में लाये जाते हैं इन मामलों को वापिस लेने के लिये इस कमेटी से अनुमति लेनी पड़ती है। पिछले दिनों इस संबंध में सचिवालय में एक बैठक हुई थी। इस बैठक में डीजीपी भी शामिल थे। लेकिन इस बैठक में डीजीपी का जो स्टैण्ड था उसको लेकर कमेटी में विवाद हो गया था अधिकारी डीजीपी के स्टैण्ड से सहमत नही थे।

क्या प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड को पर्यावरण नियमों/कानूनो की ही जानकारी नही है एनजीटी के आदेश से उठी चर्चा

शिमला/शैल। प्रदूषण नियन्त्रण और पर्यावरण सुरक्षा की जिम्मेदारी के लिये ही केन्द्र से लेकर राज्यों तक प्रदूषण नियन्त्रण बोर्डों का गठन किया गया है। क्योंकि आज अन्र्तराष्ट्रीय समुदाय की सबसे बड़ी चिन्ता पर्यावरण है। अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर कई सम्मेलनों और मंचो पर यह चिन्ता वयक्त की जा चुकी है। यूएन इस संद्धर्भ में कड़े नियम बना चुका है और सदस्य देश इन नियमों की पालना को बाध्य हैं। प्रदूषण और पर्यावरण की इसी गंभीरता का संज्ञान लेते हुए वीरभद्र शासनकाल के दौरान एनजीटी ने प्रदेश के प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के सदस्य सचिव और इसके अध्यक्ष की शैक्षणिक योग्यताओं को लेकर सवाल उठाया था और यह आदेश जारी किये थे कि इन पदों पर उन्हीं लोगों को तैनात किया जाये जिनके पास इस विषय की अनुकूल योग्यताएं हो।
प्रदेश में जब होटलों एवम् अन्य अवैध निर्माणों को लेकर उच्च न्यायालय में याचिकाएं आयी थी तब अदालत ने पर्यटन टीसीपी, लोक निर्माण के साथ- साथ प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड से भी जवाब तलबी की थी। इसी जवाब तलबी की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप कसौली कांड घटा था। एनजीटी प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड और टीसीपी के कुछ लोगों के खिलाफ नाम लेते हुए कारवाई करने के आदेश दिये थे। अदालत की इस सारी गंभीरता से स्पष्ट हो जाता है कि प्रदूषण और पर्यावरण की गंभीरता क्या है। लेकिन क्या अदालत की इस गंभीरता का सरकार और प्रदूषण बोर्ड की कार्यप्रणाली पर कोई असर पड़ा है। इसका जवाब अभी 26-3-2019 को एनजीटी से आये एक आदेश के माध्यम से सामने आ जाता है।
एनजीटी के साप कांगड़ा के मण्डक्षेत्र में हो रहे अवैध खनन का एक मामला मंड पर्यावरण संरक्षण परिषद के माध्यम से आया था। यह मामला आने के बाद कलैक्टर कांगड़ा और प्रदेश के प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड से 21-12-2018 को जवाब मांगा गया था। इस पर बोर्ड ने 6-3-2019 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। शपथपत्र के साथ दायर हुई इस रिपोर्ट में बोर्ड ने सीधे कहा कि यह अवैध खनिज खनन का मामला उनके अधिकार क्षेत्र में ही नही आता है। यह उद्योग विभाग के जियोलोजिकल प्रभाग का मामला है जो कि 1957 के खनिज अधिनियम के तहत संचालित और नियन्त्रित होता है।
प्र्रदूषण बोर्ड के इस जवाब का कड़ा संज्ञान लेते हुए एनजीटी ने यह कहा है कि शायद बोर्ड सदस्य सचिव को पर्यावरण के नियमों का पूरा ज्ञान ही नही है। पर्यावरण को लेकर प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की ही सबसे बड़ी जिम्मेदारी है एनजीटी ने अपने आदेश में प्रदेश के मुख्य सचिव को भी निर्देश दिये हैं कि वह बोर्ड के सदस्य सचिव को पर्यावरण नियमों का पूरा ज्ञान अर्जित करने की व्यवस्था करें। एनजीटी का यह आदेश राज्य सरकार की कार्यप्रणाली पर एक गंभीर सवाल खड़ा कर देता है क्योंकि इस आदेश से यह स्पष्ट हो जाता है कि या तो सदस्य सचिव को सही में ही पर्यावरण नियमों का ज्ञान नही है और उनकी नियुक्ति एनजीटी के पूर्व निर्देशों के एकदम विपरीत की गयी है। यदि यह नियुक्ति एनजीटी के मानकों के अनुसार सही है तो फिर निश्चित रूप से बोर्ड अवैध के दोषीयों को किसी के दबाव में बचाने का प्रयास कर रहा है सबसे रोचक तो यह है कि एनजीटी का यह आर्डर 26 मार्च को आ गया था। लेकिन अभी तक इस पर कोई अमल नही किया गया है। क्योंकि या तो सदस्य सचिव को पर्यावरण नियमों की जानकारी/योग्यता हासिल करने के निर्देश दिये जाते या फिर उनकी जगह किसी दूसरे अधिकारी को तैनात किया जाता जो एनजीटी के पूर्व के निर्देशों अनुसार शैक्षणिक योग्यता रखता हो। लेकिन अभी तक ऐसा हुआ नही है और इसी से सरकार की नीयत और नीति पर सवाल उठता है।




































पूर्व उपमहाधिवक्ता पर भारी पड़ सकती है अभद्रता

शिमला/शैल। भाजपा अध्यक्ष सत्तपाल सत्ती द्वारा राहुल गांधी के खिलाफ प्रयोग की गयी अभद्र भाषा का जवाब देते हुए कांग्रेस शासन में रहे उप महाधिवक्ता विनय शर्मा सत्ती से भी दो कदम आगे निकल गये है। उन्होंने सत्ती को जवाब देते हुए यहां तक कह दिया कि जो कोई सत्ती की जीभ काटकर लायेगा उसे वह दस लाख का ईनाम देंगे। विनय के इस ब्यान पर पूरी भाजपा में रोष फैल गया और भाजपा कार्यकर्ताओं ने प्रदेश के कई हिस्सों में उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने के ज्ञापन दिये हैं। पुलिस ने इन ज्ञापनों का संज्ञान लेकर कारवाई भी की है। इस बवाल के बाद एक न्यूज चैनल ने विनय शर्मा को एक चर्चा के लिये बुलाया। इस चर्चा में भाजपा की ओर से प्रदेश मीडिया प्रभारी एडवोकेट प्रवीण शर्मा ने भाग लिया। इस चर्चा में सत्ती का प्रसंग उभरा और विनय शर्मा से पूछा गया कि क्या वह अपने वक्तव्य पर अब भी कायम है। इस पर कोई खेद व्यक्त करने की बजाये विनय शर्मा ने न केवल यह कहा कि वह अपने ब्यान पर कायम है बल्कि यह साथ जोड़ दिया कि वह अब दस लाख का ईनाम देंगे। न्यूज चैनल में यह ब्यान रिकार्ड हो गया है।
स्वभाविक है कि इस ब्यान पर हंगामा होना ही था क्योंकि यह एक कांग्रेस नेता ही नही बल्कि पूर्व महाधिवक्ता का ब्यान था। जोकि अधिवक्ता अधिनियम की संहिता से भी बंधे हुए हैं और जानकारों के मुताबिक यह अधिनियम इस तरह के ब्यान की ईजाज़त नही देता है। विनय के इस ब्यान पर प्रवीण शर्मा ने चुनाव आयोग को विधिवत शिकायत भेज दी है। इसी के साथ बार काऊंसिल को भी इसकी शिकायत कर दी गयी है। विनय के ब्यान की पूर्व मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह ने निंदा की है जिनके कार्यकाल में वह उप महाधिवक्ता थे। लेकिन कांग्रेस के किसी और नेता या पदाधिकारी की इस पर कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। 
चुनाव आयोग ने कांग्रेस से पूछा है कि क्या विनय उनके सदस्य हैं या नहीं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस क्या स्टैण्ड लेती है। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण होगा कि बार काॅऊंसिल इस पर क्या गंभीरता दिखाती है और प्रवीण शर्मा तथा भाजपा इस मामले को कितना और आगे बढ़ाते हैं। लेकिन इस विवादित ब्यान के बाद विनय का सोशल मीडिया में एक फोटो भी चर्चा में आया है जिससे उसकी परेशानी और बढ़ सकती है।




















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