Friday, 19 September 2025
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क्या डॉक्टरों की नियुक्तियों पर फिर उठेगा एन.पी. ए. का मुद्दा? डॉक्टरों और मुख्यमंत्री की वार्ता के बाद उभरी आशंका

  • स्वास्थ्य मंत्री और विभाग के अन्य लोगों को फैसले की जानकारी ही न होने का अर्थ क्या है?
  • क्या यह फैसला विभाग से बाहर लिया गया था?
  • नौकरी चाहिये या एन.पी.ए. यह मोल तोल की भाषा क्यों ?
  • क्या कोई अदृश्य हाथ चला रहा है सरकार

शिमला/शैल। हिमाचल सरकार द्वारा डॉक्टरों का एन.पी.ए- बन्द कर देने की अधिसूचना जैसे ही चर्चा में आयी तो प्रदेश की मेडिकल ऑफिसरज एसोसिएशन ने इसका संज्ञान लेते हुये हड़ताल पर जाने का फैसला कर लिया। क्योंकि प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री से लेकर स्वास्थ्य सचिव तक हर संबद्ध अधिकारी ने इस फैसले पर अनभिज्ञता प्रकट की। स्वभाविक है कि जब फैसले को लेकर हर संबद्ध व्यक्ति जानकारी न होने की बात करेगा तो प्रभावित डॉक्टरों के पास सरकार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिये हड़ताल पर जाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता था। इसी वस्तुस्थिति में डॉक्टर हड़ताल पर चले गये और मामले को सुलझाने के लिये मुख्यमंत्री को स्वयं वार्ता में शामिल होना पड़ा। डेढ़ घंटा तक चली इस वार्ता के बाद डॉक्टरों ने मुख्यमंत्री के आश्वासन पर हड़ताल समाप्त कर दी और प्रभावित स्वास्थ्य सेवाएं फिर से नॉर्मल हो गयी। मुख्यमंत्री के साथ हुई इस वार्ता में प्रदेश में बन रही मेडिकल कॉरपोरेशन से लेकर अन्य सभी मुद्दों पर विस्तार से चर्चा हुई है और हर मुद्दे पर संतोषजनक आश्वासन भी मिले हैं।
लेकिन इस वार्ता के बाद जो प्रैस नोट जारी हुये हैं उसमें कहा गया है कि एन.पी.ए. बंद नहीं किया गया है बल्कि इसे रोका गया है। यह भी कहा गया है कि भविष्य में डॉक्टरों की होने वाली नियुक्तियों के समय में इस पर विचार किया जायेगा। मुख्यमंत्री के इस आश्वासन से स्वतः ही यह संदेश और संकेत चला जाता है कि इस हड़ताल को अभी सिर्फ टाला गया है। यह मसला स्थाई तौर पर हल नहीं हुआ है। क्योंकि यह पहले ही चर्चा में आ गया है कि नौकरी चाहिये या एन.पी.ए.। यह भी सामने आ चुका है कि कुछ लोगों ने यह कहा है कि नौकरी और एन.पी.ए. दोनों ही चाहिये। इस तरह के दोहरे वक्तव्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बेरोजगारी को आने वाले समय में किस तरह से भुनाया जायेगा और उसका कालान्तर में प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं पर किस तरह का असर पड़ेगा। क्योंकि सामान्यतः सरकार से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह बेरोजगारी को ऐसा हथियार बनायेगी।
इस समय प्रदेश के स्वास्थ्य संस्थानों में डॉक्टरों और अन्य सहायक कर्मचारियों के सैकड़ों पद खाली चल रहे हैं। कई जगहों के मामले तो अदालत तक पहुंच चुके हैं और अदालत को निर्देश देने पड़े हैं कि सरकार खाली पदों को शीघ्र भरें। प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों का तो व्यवहारिक रूप से संचालन ही प्रशिक्षु डॉक्टरों के हाथों में रहता है। ऐसे में जब यह प्रशिक्षु और रेजिडेंट डॉक्टर आने वाले समय में नयी नियुक्तियों के वक्त पर एन.पी.ए. या नौकरी चुनने की बाध्यता पर आयेंगे तो उस समय किस तरह की वस्तुस्थिति खड़ी हो जायेगी उसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। इसी के साथ एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि जब सरकार की ओर से एन.पी.ए. को लेकर अधिसूचना जारी हो गयी थी तो इस पर स्वास्थ्य मंत्री से लेकर विभाग के अन्य संबद्ध लोगों ने अनभिज्ञता क्यों जताई? क्या सही में यह फैसला स्वास्थ्य विभाग से बाहर लिया गया था ? क्योंकि जब डॉक्टर हड़ताल पर चले गये और स्वास्थ्य मंत्री ने फैसले को लेकर अनभिज्ञता जताई तब नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर की एक प्रतिक्रिया आयी थी। जयराम ठाकुर ने कहा था कि कुछ बड़े आई.ए.एस. अधिकारी नहीं चाहते कि कुछ लोगों का वेतन इनसे ज्यादा हो जाये।
पूर्व मुख्यमंत्री की यह प्रतिक्रिया अपने में बहुत महत्वपूर्ण है और इसके राजनीतिक मायने भी गंभीर हैं। क्योंकि स्वास्थ्य विभाग को लेकर एक महत्वपूर्ण नीतिगत फैसला हो जाता है। डॉक्टर हड़ताल पर चले जाते हैं। स्वास्थ्य मंत्री को फैसले की जानकारी नहीं होती है। मुख्यमंत्री को स्वयं वार्ता में बैठना पड़ता है। नौकरी या एन.पी.ए. में चुनाव करने के संकेत दिये जाते हैं। स्वभाविक है कि जब कोई विश्लेषक इन सारी कड़ियों को एक साथ रखकर परखने का प्रयास करेगा तो उसके सामने सारी तस्वीर ही बदल जायेगी। क्योंकि कोई भी सरकार एक ही वक्त में डॉक्टरों और प्रदेश की जनता दोनों को एक साथ अंगूठा दिखाने का साहस नहीं कर सकती। निश्चित है कि यह सब किसी बड़ी योजना को अंजाम देने के लिये जमीन तैयार की जा रही है।

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