शिमला/शैल। सरकार बनने के बाद आने वाले हर चुनाव सरकार के कामकाज की परीक्षा बन जाता है। यह एक स्थापित सच है। सरकार बनने के बाद संगठन की भूमिका सीमित रह जाती है। अभी सरकार को सत्ता में तीन माह हुये हैं और विपक्षी भाजपा सरकार पर अभी से आक्रामक हो गयी है। बल्कि यहां तक कहा जाने लग पड़ा है कि यह सरकार चल नहीं पायेगी। नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर के तेवर आये दिन कड़े होते जा रहे हैं। विपक्ष लोकसभा की चारों सीटें फिर जीतने का दावा कर रहा है। विपक्ष की आक्रामकता सरकार के फैसलों का प्रतिफल है। बल्कि यह कहा जा रहा है कि इन सरकार के फैसलों ने विपक्ष को पूरे पांच वर्षों के लिए पहले ही दिन मुद्दे थमा दिये हैं। भाजपा की आक्रामकता उस समय गंभीर हो जाती हैं जब कांग्रेस के अपने ही विधायक सरकार के फैसलों और नीतियों पर सवाल उठाने लग जायें। सरकार ने पहले ही दिन जो संस्थान डिनोटिफाई किये थे उन पर अब कुछ अपने भी रोष प्रकट करने लग गये हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर सभी संस्थानों को डिनोटिफाई करने के पक्ष में नहीं हैं। बल्कि कांग्रेस के वह सभी विधायक जिनके क्षेत्रों में कुछ खुला था और अब अपनी ही सरकार आने पर बन्द हो जाये तो वह अपने ही लोगों को जवाब देने की स्थिति में नहीं रह जाते हैं। क्योंकि जब सरकार गारंटीयां पूरी करने के लिये धन का प्रबन्ध कर सकती है तो संस्थान चलाने के लिये क्यों नहीं। संस्थान तो सार्वजनिक हित की परिभाषा में आते हैं। लेकिन गारंटीयां सार्वजनिक हित में नहीं होती हैं। सरकार ने व्यवस्था परिवर्तन करने का दावा कर रखा है इस दावे के तहत ही अधिकारियों/कर्मचारियों के तबादले नहीं किये जा रहे हैं। लेकिन जहां पर रिक्त स्थान हैं या जो कर्मचारी कठिन एरिया में अपना कार्यकाल पूरा करा चुका है वह तो तबादला चाहेगा ही और उसके स्थान पर किसी दूसरे को तबादला करके ही भेजा जायेगा। लाहौल स्पीति के विधायक अपना रोष सार्वजनिक तौर पर प्रकट कर चुके हैं। उनका रोष इस बात का प्रमाण है कि सब अच्छा नहीं चल रहा है। हमीरपुर में कर्मचारी चयन आयोग बन्द कर दिये जाने के बाद जो युवा परेशान हुए हैं वह दिल्ली तक पैदल मार्च करके कांग्रेस हाईकमान के सामने अपना पक्ष रखने जा रहे हैं। सरकार ने ओल्ड पैन्शन स्कीम बहाल करने का फैसला ले लिया है लेकिन विभिन्न निगमों/बोर्डों के कर्मचारी इस फैसले से बाहर रह गये हैं और अन्ततः उन्हें भी आन्दोलन के रास्ते पर यदि आना पड़ा तो ओल्ड पैन्शन से होने वाला राजनीतिक लाभ शून्य होकर रह जायेगा। संस्थान बन्द करने के फैसले के खिलाफ भाजपा पहले ही उच्च न्यायालय जा चुकी है। मुख्य संसदीय सचिव के फैसले को भी चुनौती मिलने जा रही है। यदि सरकार समय रहते अपने फैसलों पर निष्पक्षता से समीक्षा नहीं करती है तो इन फैसलों का प्रभाव आने वाले नगर निगम शिमला के चुनाव पर पड़ना तय है। इस समय संस्थानों को डिनोटिफाई करने और मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियों वाले दो ऐसे फैसले हैं जिन पर कानूनी तौर पर सरकार का पक्ष कमजोर है और यह दोनों मामले उच्च न्यायालय में हैं। इन पर इस वर्ष के अन्त तक फैसले आने की संभावना मानी जा रही है। अभी बजट सत्र में मंत्रियों के रिक्त पद नहीं भरे गये हैं। यह पद लोकसभा चुनाव से पहले भरने आवश्यक हो जायेंगे। क्योंकि इस समय पन्द्रह विधायकों वाले जिले से केवल एक ही मंत्री है। बिलासपुर को कोई प्रतिनिधित्व मिला नहीं है। जातीय समीकरणों के दृष्टिकोण से भी मंत्रिमण्डल संतुलित नहीं है। आने वाले समय में जातीय और क्षेत्रीय संतुलन बनाना राजनीतिक अनिवार्यता हो जायेगी। यदि यह संतुलन न बन पाया तो लोकसभा चुनाव में स्थितियां सुखद नहीं रहेंगी यह तय है।