Friday, 19 September 2025
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क्या भाजपा की याचिका प्रशासन के षड्यन्त्र का परिणाम है याचिका में आये मुद्दों से उठी चर्चा

ग्यारह दिसम्बर को शपथ लेने के बाद 12 दिसम्बर को ही फैसला क्यों
मन्त्रीमण्डल के फैसलों की समीक्षा विधायकों की कमेटी में कैसे संभव है
नागरिक उपमण्डल कार्यालय खोलने के लिये जब उच्च न्यायालय की अनुमति चाहिये तो बन्द करने के लिए भी क्यों नहीं चाहिये
बिजली बोर्ड का कोई भी कार्यालय सर्विस कमेटी की अनुमति के बिना नहीं खुल सकता
इस सर्विस कमेटी का मुखिया प्रदेश का मुख्य सचिव या अतिरिक्त मुख्य सचिव वित्त होता है
क्या डिनोटिफिकेशन के फैसले याचिका के आर्ड में शीर्ष प्रशासन पर सवाल नहीं उठते?

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने पिछली जयराम सरकार द्वारा 1 अप्रैल 2022 से 13-10-2022 तक खोले गये सारे संस्थानों को 12-12-2022 को एक फैसला लेकर बन्द करने के आदेश जारी किये हैं। अब इन आदेशों को भाजपा ने अपने प्रदेश अध्यक्ष एवं सांसद सुरेश कश्यप के माध्यम से उच्च न्यायालय में एक याचिका डालकर चुनौती दे दी है। सरकार पर आरोप लगाया गया है कि उसने बिना किसी समुचित विचार विमर्श के केवल राजनीतिक द्वेष से ग्रसित होकर यह आदेश जारी किये हैं। इस पर सरकार के महाधिवक्ता ने उच्च न्यायालय में यह दलील रखी है कि भाजपा अध्यक्ष को यह याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है। इस परिपेक्ष में उच्च न्यायालय का क्या मत रहता है यह देखना आवश्यक हो जाता है और तब तक इस पर कोई राय रखना संगत नहीं होगा।
लेकिन सरकार के इस फैसले से प्रदेश की राजनीति में एक उबाल आ गया है। प्रदेश के हर भाग में भाजपा इस फैसले के खिलाफ धरने प्रदर्शनों पर आ गयी है। नेता प्रतिपक्ष पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने पहले दिन ही अपनी प्रतिक्रिया में स्पष्ट कर दिया था कि इन फैसलों को अदालत में चुनौती दी जायेगी और अब इस आश्य की याचिका भी दायर हो गयी है। यह विषय गंभीर है इसलिये इसके गुण दोषो पर टिप्पणी किये बिना याचिका में रखे गये तथ्यों को ही कुछ प्रश्नों के साथ जनता के सामने रखना होगा। क्योंकि यह याचिका प्रदेश के शासन और प्रशासन पर कई गंभीर सवाल खड़े करता है। जिनके परिणाम शायद इस सरकार के पूरे कार्यकाल में प्रसांगिक रहेंगे।
विधानसभा के चुनाव परिणाम 8 दिसंबर को आये कांग्रेस को बहुमत मिला और उसकी सरकार बनाने की कवायद शुरू हो गई। परिणामतः सुखविंदर सिंह सुक्खू कांग्रेस विधायक दल के नेता चुन लिये गये और 11 दिसंबर को उन्हें मुख्यमंत्री और मुकेश अग्निहोत्री को उप मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई गयी। इस दो सदस्यों की सरकार ने 12 दिसंबर को ही पिछली सरकार के फैसलों पर यह फैसला ले लिया जिसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है। अप्रैल 22 अक्तूबर 2022 तक जयराम सरकार ने सैकड़ों संस्थान खोले थे जो इस फैसले से बन्द कर दिये गये हैं। क्या इतना बड़ा फैसला लेने के लिये एक दिन का ही समय लेना समुचित विचार विमर्श के लिये पर्याप्त समय हो सकता है यह सवाल उठाया गया है। इसी के साथ यह भी आरोप है कि पिछली सरकार के पूरे मन्त्रीमण्डल द्वारा लिये गये फैसलों की समीक्षा विधायकों की एक कमेटी ने की है। संबद्ध विधायकों ने एक पत्रकार वार्ता में यह स्वयं स्वीकारा भी हैं। विधायकों ने यह सब शपथ लेने से और कमेटी के औपचारिक गठन के बिना ही ऐसा किया है। क्या विधायक मन्त्रीमण्डल के फैसलों पर सदन के बाहर कोई अधिकारिक चर्चा कर सकते हैं यह सवाल भी उठाया गया है।
तहसील देहरा के रक्कड़ और कोटाला बेहड़ में दो एसडीएम कार्यालय खोले गये थे यह कार्यालय खोलने की प्रक्रिया में प्रदेश उच्च न्यायालय से भी अनुमति लिया जाना अनिवार्य होता है। याचिका में कहा गया है कि यह वंच्छित अनंुमतियां लेकर ही यह उपमण्डल नागरिक के कार्यालय खोले गये थे। स्वभाविक है कि इन्हें बन्द करने के लिए भी उच्च न्यायालय की अनुमति वांछित होगी। सरकार के इस फैसले पर उच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया क्या रहेगी यह आने वाले दिनों में पता चलेगा। इसी तरह राज्य बिजली बोर्ड के कार्यालय खोलने के लिये भी विभिन्न स्तरों की लंबी प्रक्रिया रहती है। अंत में इस आशय के सारे प्रस्ताव विद्युत बोर्ड की सर्विस कमेटी के पास जाते हैं। बिजली बोर्ड की सर्वाेपरि कमेटी है इसकी अनुमति के बिना बोर्ड में कुछ नहीं घट सकता। स्वभाविक है कि बोर्ड के कार्यालय बन्द करने के लिये भी यही प्रक्रिया रहेगी। इस सर्विस कमेटी का मुखिया सरकार का मुख्य सचिव या अतिरिक्त मुख्य सचिव रहता है। याचिका में यह तथ्य दर्ज है इसका अर्थ है कि सुक्खू सरकार के मुख्य सचिव और मुख्य सूचना आयुक्त इस प्रक्रिया के अंग रहे हैं। इनकी सहमति के बिना विद्युत बोर्ड में न कोई कार्यालय खुल सकता है और न ही बन्द हो सकता है।
इस याचिका से यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्व सरकार के इन संद्धर्भित फैसलों में प्रदेश के मुख्य सचिव और वित्त सचिव की भूमिका प्रमुख रही है और आज भी है। ग्यारह दिसम्बर को शपथ लेने के बाद बारह दिसम्बर को ही सरकार ने यह फैसला ले लिया। यह फैसला लेने के लिये विधायकों की जिस कमेटी की सिफारिशों को आधार बनाया गया उसकी शायद बैठक ही इस फैसले के बाद हुई है। कांग्रेस ने चुनावों में ही स्पष्ट कर दिया था कि वह जयराम सरकार के फैसलों की समीक्षा करेगी। शीर्ष प्रशासन को इसकी जानकारी थी। प्रशासन को यह भी पता था कि जिस तरह से फैसला लेने के लिये एक तय प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है उसी तरह फैसला पलटने के लिए भी प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। याचिका में आरोप लगाया गया है कि संस्थान बन्द करने का फैसला लेने के बाद प्रशासनिक विभागों से इस आशय के प्रस्ताव लिये जा रहे हैं। ऐसे में यह स्वभाविक सवाल उठ रहा है कि यदि संस्थानों को बन्द करने का फैसला लेने से पहले इनकी उपोदयता और प्रसंगिता को लेकर एक विधिवत व्यवहारिक रिपोर्ट ले ली जाती तो न ही भाजपा को पहले ही दिन सड़कों पर उतरने का मौका मिलता और न ही इस तरह की कोई याचिका उच्च न्यायालय में आने की नौबत आती। यह एक तकनीकी और वैधानिक मुद्दा था और इस पर शीर्ष प्रशासन को राजनीतिक नेतृत्व के सामने सारी स्थिति विस्तार से रखनी चाहिये थी। लेकिन शायद ऐसा हो नहीं पाया। बल्कि संयोग ऐसा घटा कि जब प्रशासन के शीर्ष पर 31 दिसम्बर रात को मुख्य सचिव और मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्तियों के फैसलों पर पहली जनवरी को अनुपालना सुनिश्चित होने के बाद दो जनवरी को भाजपा की है याचिका उच्च न्यायालय में दायर हो जाती है। इस याचिका में जिस तरह से कुछ तकनीकी पक्षों को उभारा गया है उससे यह गंघ आती है कि प्रशासन ने जानबूझकर सरकार को उलझाने का प्रयास किया है।

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