Friday, 19 September 2025
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मनोनीत पार्षद को लेकर आयी शिकायत से नगर निगम से लेकर निदेशालय तक की कार्य प्रणाली सवालों में

शिमला/शैल। नगर निगम शिमला के लिये कुछ पार्षद सरकार द्वारा मनोनीत किये जाते हैं इस प्रावधान के तहत नगर निगम शिमला के लिये भराड़ी क्षेत्र के संजीव सूद को इस वर्ष मार्च माह में मनोनीत किया गया था। संजीव सूद इस मनोनयन के लिये पूरी तरह पात्र थे और इनके खिलाफ कहीं भी कोई मामला लंबित नहीं था। इस आशय का एक शपथपत्र भी उन्होने निदेशक शहरी विकास विभाग के पास 26-3-2020 को दायर किया था। इस समय पत्र को भराड़ी के ही एक राकेश कुमार ने चुनौती दे रखी है। निदेशक शहरी विकास को 26-5-2020 को लिखे पत्रा में राकेश कुमार ने कहा है कि उन्होंने 28-2-2020 और 30-3-2020 को दी शिकायतों में यह तथ्य सामने रखा है कि संजीव सूद ने भराड़ी में ही सरकारी जमीन के खसरा न. 227 पर अवैध कब्जा कर रखा है। इस अवैध कब्जे की रिपोर्ट संबंधित जेई ने स्थल का निरिक्षण करके दी है और इसी रिपोर्ट के आधार पर अवैध कब्जे की कारवाई उपमण्डलाधिकारी नागरिक शिमला की अदालत में लबिंत है। लेकिन संजीव सूद ने अपने 26 -3-2020 के शपथ पत्र में इसका कोई जिक्र नहीं किया है और इसी कारण से उसका शपथ पत्र झूठा हो जाता है तथा पार्षद होने के लिये आयोग्य हो जाता है। संजीव के खिलाफ यह सारी शिकायतें उसके शपथ पत्र देने से पहले ही निदेशक के पास दायर हो जाती हैं। ऐसे में यह निदेशक शहरी विकास विभाग की जिम्मेदारी हो जाती है कि वह इस संद्धर्भ में सीआरपीसी की धारा 200 के तहत सक्ष्य अधिकारी के पास इस आशय का मामला दायर करे। क्योंकि निदेशक शहरी विकास ही पाषर्दों को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाता है। निदेशक ने सीआरपीसी की धारा 200 के तहत कोई कारवाई नहीं की है यह उसके पार्ट पर एक गंभीर कमी रही है।
संजीव सूद के खिलाफ राकेश कुमार ने सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत ज्यूडिशियल मैजिस्ट्रेट की अदालत में भी मामला किया था और अब इसमें भी पुलिस को मामला दर्ज करके जांच करने के निर्देश जारी हो चुके हैं। राकेश कुमार की शिकायतों की जांच का अन्तिम परिणाम क्या निकलता है यह तो जांच रिपोर्ट आने के बाद ही पता चलेगा। संजीव सूद के खिलाफ अभी तक अवैध कब्जा प्रमाणित नहीं हुआ है। जब तक अदालत संजीव को देाषी करार नहीं दे देती है तब तक उसे कानूनन दोषी नहीं कहा जा सकता। लेकिन इसमें महत्वपूर्ण यह हो जाता है कि निदेशक ने शिकायतें आने के बाद भी इसमें वांच्छित कारवाई किसके दबाव में नहीं की। इसी के साथ दूसरा सवाल यह आता है कि जब नगर निगम के जेई की मौके की रिपोर्ट के आधार पर निगम ने सूद के खिलाफ अवैध कब्जे की कारवाई निगम के आयुक्त की ही अदालत में शुरू की तो उनका निपटारा शीघ्र क्यों नहीं किया गया। शिकायकर्ता को 156(3) सीआरपीसी के तहत अदालत का दरवाजा क्यों खटखटाना पड़ा। इस समय निगम के दर्जनों मामले अदालतों में वर्षों से ऐसे पड़े हैं जिनमें पेशी पर अगली तारीख लगने से ज्यादा कोई कारवाई नहीं हुई है। अम्बो देवी बनाम नगर निगम एक ऐसा ही मामला है जो शायद एक दशक से भी ज्यादा समय से लंबित चला आ रहा है। निगम की ही अदालत से जीते हुए मामलों पर निगम जब वर्षो तक अमल न करे और अमल के लिये आग्रह करने पर फर्जी मामला खड़ा है तो यह ही मानना पड़ेगा कि अब यहां कानून के शासन के लिये कोई स्थान नहीं रह जाता है
संजीव सूद के मामले में रिकार्ड से स्पष्ट हो जाता है कि जब इसकोे बतौर पार्षद मनोनयन का प्रस्ताव रखा गया था तब सभी संवद्ध लोगों के संज्ञान में अवैध कब्जे की जानकारी थी। यदि इस सम्बन्ध में उन चर्चाओं को अधिमान दिया जाये तो यह अवैध कब्जा ही मनोनयन का बड़ा आधार बचा है।























 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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