Thursday, 18 September 2025
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जल विद्युत परियोजनाओं पर राज्य और केन्द्र में टकराव से किसे लाभ होगा?

  • जो विद्युत उत्पादन दो दशकों से भी ज्यादा लटक जायेगा वह किसके लिये हितकर होगा?

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने जयराम सरकार के समय जिन-चार जल विद्युत परियोजनाओं को केंद्रीय उपक्रमों एनएचपीसी और एसजेवीएनएल को आबंटित कर दिया था उनको वापस लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। यह वापसी इस कारण से की जा रही है क्योंकि जयराम सरकार के समय इस आबंटन के लिये पूर्व की मुफ्त बिजली नीति में बदलाव कर दिया गया था। पहले यह नीति थी कि विद्युत उत्पादक से पहले 12 सालों तक 12% 13 से 30 वर्षों तक 18%और 31 से 40 वर्षों तक 30% और उसके बाद 40% मुफ्त बिजली प्रदेश को मिलती थी। पूर्व सरकार के समय इस नीति को बदलकर 4%, 8%, 12% और 25% कर दिया गया था। केंद्रीय उपक्रमों को दी गयी परियोजनाएं थी चंबा का डुग्गर 500 मेगावाट, लूहरी चरण एक 210 मेगावाट, धोला सिद्ध 166 मेगावाट और 382 मेगावाट की सुन्नी डैम परियोजना। जयराम सरकार के समय जब यह आबंटन हो गया तब इस पर इन उपक्रमों ने काम शुरू कर दिया क्योंकि दोनों ओर भाजपा की सरकारें ही थी। लेकिन शायद उस समय राज्य सरकार और इन केन्द्रीय उपक्रमों में एमओ.यू हस्ताक्षरित नहीं हो पाये थे। सुक्खू सरकार ने पूर्व सरकार के समय हुए इन समझौता को राज्य के हितों के खिलाफ करार देते हुये इन केन्द्रीय उपक्रमों को यह पत्र लिख दिया कि यदि उन्हें पूर्व की बिजली नीति 12%, 18%, 30% और 40% स्वीकार है तब इस आबंटन पर अमल किया जाये अन्यथा राज्य सरकार इन परियोजनाओं को वापस ले लेगी। इस पर केन्द्र सरकार के बिजली सचिव पंकज अग्रवाल ने 12 मार्च को प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर सूचित किया कि या तो इन परियोजनाओं के काम को देशहित में चलने दिया जाये या फिर अब तक जो भी खर्च हुआ है उसका ब्याज सहित भुगतान करने के बाद परियोजनाओं को वापस ले लिया जाये। केन्द्रीय बिजली सचिव के मुताबिक अब तक 3400 करोड़ रुपए खर्च हो गये हैं। प्रदेश सरकार ने इस संबंध में खर्च का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए प्रदेश उच्च न्यायालय में दस अप्रैल को दस्तक दे दी है। पूर्व सरकार के समय जब यह आबंटन हुआ था तब वर्तमान मुख्य सचिव बिजली सचिव थे और आज मुख्य सचिव हैं। इसलिए यह मामला रोचक होगा क्योंकि अब उन्हें केन्द्रीय सचिव को जवाब देना होगा।
जब सुक्खू सरकार ने जल विद्युत परियोजनाओं पर उपकर लगाने का फैसला लिया था तब इन्हीं उपक्रमों ने उसका विरोध किया था और मामला सर्वाेच्च न्यायालय तक गया था। उसी पृष्ठभूमि में यह माना जा रहा है कि पुनर्मूल्यांकन का मामला भी लम्बी अदालती लड़ाई में फंस जायेगा। धौलासिद्ध और लूहरी परियोजनाएं अक्तूबर 2008 में आबंटित हुई थी और अगस्त 2017 में इन्हें एसजेवीएनएल को दिया गया था। अब इन्हें फिर वापस लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी गयी है। इस तरह और एक दशक तक इनमें उत्पादन शुरू हो पाने की संभावना नहीं है। इसी तरह डूग्गर परियोजना 2009 में धूमल सरकार के समय टाटा पावर और सिंगापुर की स्टेट क्राफ्ट कंपनी को आबंटित हुए थे। परन्तु यह कंपनियां इस पर काम नहीं कर पायी और 2019 में यह आबंटन रद्द कर दिया गया। टाटा पावर ने इस परियोजना से अपना अपफ्रंट प्रीमियम वापस लेने के लिये आवेदन किया और उसे मिल भी गया। पिछले दो वर्षों में ही आरबीट्रेशन में सरकार को पावर प्रोजेक्टस में हजारों करोड़ देने पड़े हैं। लेकिन किसी भी मामले में यह सामने नहीं आ पाया है कि दोष किन अधिकारियों का था। बल्कि यह धारणा बनती जा रही है कि यह आरबीट्रेशन भी एक बड़ा कारोबार बन गया है।
इस समय सरकार वित्तीय संकट से गुजर रही है क्योंकि सरकार को वर्ष की शुरुआत ही कर्ज से करनी पड़ी है। मुख्यमंत्री सुक्खू प्रदेश को आत्मनिर्भर और देश का अग्रणी राज्य बनाने का दावा कर रहे हैं। एक समय प्रदेश की जल विद्युत परियोजनाओं को संकट मोचक के रूप में देखा गया था। परन्तु इस समय जितना कर्ज प्रदेश की पावर कंपनियों और बोर्ड पर है उसके चलते यह संभव नहीं है कि निकट भविष्य में पावर परियोजनाओं पर कोई निर्भरता बन पायेगी। चंडीगढ़ और भाखड़ा में हिमाचल के हिस्से को लेकर एक लम्बे समय से विवाद चल आ रहा है। हर सरकार इस हिस्से को लेने के बड़े-बड़े वायदे करती आयी है। अदालत से अवार्ड होने के बावजूद यह मसला अब तक हल नहीं हो पाया है। जबकि केन्द्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकारें रह चुकी हैं। ऐसी स्थिति में जब इन परियोजनाओं को वापस लेने की प्रक्रिया अदालत में पहुंच चुकी है उसके मद्देनजर इसमें लम्बी कानूनी लड़ाई से गुजरना पड़ेगा। पहले ही यह परियोजनाएं पिछले पन्द्रह वर्षों से अधिक समय से लटकी पड़ी है। अभी और एक दशक लगने की परिस्थितियों निर्मित हो गयी हैं। इस बार भाखड़ा और पोंगडैम जलाश्यों में पानी का भराव बहुत कम रहा है। लूहरी को लेकर प्रभावित जनता विरोध में आ गयी है। ग्लेशियर लगातार कम होते जा रहे हैं यह अध्ययनों ने सिद्ध कर दिया है। ऐसे में वित्तीय संकट में चल रहे प्रदेश के लिये ऐसे फैसले बहुत सावधानी से लेने पड़ेंगे।

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