शिमला/शैल। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह केेे समर्थकों ने मंगलवार को उनके नाम से ब्रिगेड गठित करके प्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में सनसनी पैदा कर दी थी। लेकिन बुधवार को ही इस ब्रिगेड को भंग करके इस सनसनी में कई और सवाल जोड़ दिये है। यह ब्रिगेड गठित क्यों किया गया और फिर इसे दूसरे ही दिन भंग क्यों कर दिया?
इन सवालों की पड़ताल करने से पहले वीरभद्र की राजनीतिक कार्यशैली को समझना आवश्यक है वीरभद्र ने 1983 में प्रदेश की सत्ता संभाली थी और यह सत्ता पाने के लिये उस समय कथित वन माफिया को मिल रहे सरकारी संरक्षण के खिलाफ एक ख्ुालासा पत्र लिखकर हाईकमान को यह दो टूक संदेश दिया कि यदि नेतृत्व परिवर्तन न किया गया तो वह पार्टी तक छोड़ सकते हंै। उसके बाद 1993 में जब प. सुखराम के साथ टकराव की स्थिति आयी तब विधानसभा का घेराव करके फिर हाईकमान को चुनौती दी और पार्टी के आधे विधायकों की गैर मौजूदगी मंे हेी मुख्यमंत्राी पद की शपथ ग्रहण की। इसी तरह 2012 में कौल ंिसंह के साथ टकराव आया और तब भी अलग संगठन खड़ा करने के संकेत उछाल दिये। 2012 मंे वीरभद्र के पक्ष में केवल आधा ही विधायक दल था। प्रदेश के राजनीतिक पंडित इस घटनाक्रम से पूरी तरह परिचित हैं और इससे यही स्पष्ट होता है कि वीरभद्र हर वक्त अपनी राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल करके सत्ता में आते रहे हंै। वीरभद्र की इस राजनीतिक ताकत का सबसे बड़ा हथियार यह रहा है कि वह अपने हर विरोधी को भ्रष्ट प्रचारित और प्रमाणित करने में सफल रहे हंै। उनके खिलाफ जब भी आवाज उठी तो उसे अदालत में मानहानि के मामलें डालकर चुप करवाया जाता रहा और अन्त में उन मामलों में समझौते करके मामले समाप्त हुए। लेकिन जंहा समझौता नहीं हो पाया वहां वीरभद्र कभी सफल भी नहीं हो पाये हंै यह भी एक कड़वा सच है।
अपनी इसी कार्यशैली का अनुसरण करते हुए वीरभद्र ने इस मानहानि मामलें डालने की रणनीति का सहारा लिया और अरूण जेटली, धूमल, अनुराग पर यह मामले डाले।
लेकिन अरूण जेटली के खिलाफ मामला वापिस लेकर अपनी रणनीतिक असफलता को जग जाहिर होने से बचा नहीं पाये। इसी तरह पूर्व डी जी पी मिन्हास के खिलाफ हर कुछ दावे करते रहे वीरभद्र मिन्हास का कुछ नही बिगाड़ सके। अवैध फोन टेंपिग का खुद शिकार रह चुके वीरभद्र के इस मामले में भी सारे दावे हवाई सिद्ध हुए हंै। ध्ूामल के संपति मामले की जांच में भी वीरभद्र बुरी तरह असफल हुए हैं। कुल मिलाकर इस कार्यकाल में वीरभद्र हर कदम पर बुरी तरह असफल रहे हंै। इतनी सारी असफलताओं का मूल कारण रहा है कि इस बार 2012 में सत्ता संभालने से पहले ही वह आयकर और सीबीआई जांचों का चक्रव्यूह अपने साथ लेकर आये थे। सत्ता संभालने के बाद संयोग से उनके गिर्द एक ऐसा घेरा बन गया जिसने यह सुनिश्चित रखा की वीरभद्र केन्द्र की जांच ऐजैन्सीयों के घेरे से कभी बाहर आ ही न पायंे। आज वीरभद्र पूरी तरह केन्द्र की ऐजैन्सीयों के ऐसे पक्के फंदे में फंसे हुए हंै जहां से बाहर निकल पाना संभव नहीं लगता।
ऐसी वस्तुस्थितियों में घिरे हुए वीरभद्र के सलाहकारों ने वीरभद्र ब्रिगेड के नाम से एक समानान्तर संगठन खड़ा करवा कर अपने ही हाथांे अपने खिलाफ फतवा लिख दिया कि उनकी सरकार और संगठन पूरी तरह असफल और निश्क्रिय हो चुके हंै जो उनकी नीतियों को जन-जन तक ले जाने में फेल हो चुके हंै। अपने ही हाथों अपने खिलाफ यह फतवा लिखकर यह उम्मीद करना कि पार्टी उनके ब्रिगेड गठित करने के फैसले का खुले मन से समर्थन करेगी अपने को ही धोखा देने से अधिक कुछ नहीं हो सकता है यह प्रमाणित हो गया। ब्रिगेड को इस तरह की वस्तुस्थितियों में भी समर्थन मिलने का जिसने भी आकलन किया होगा उसकी राजनीतिक समझ को लेकर कुछ नही कहा जा सकता। बल्कि इस ब्रिगेड के भंग कर दिये जाने से यह संदेश जाता है कि आज वीरभद्र के साथ चुने हुए विधायकों का समर्थन नही के बराबर है। बल्कि वही लोग उनके साथ हैं जो जिन्हे सत्ता में आने पर कुछ हासिल हुआ है लेकिन इन लोगों के सहारे सरकार नहीं चलाई जा सकती है। सरकार के लिये चुने हुए विधायकों का ही समर्थन चाहिये। आज ब्रिगेड के गठन और उसको भंग करने के दोनों ही फैसलोें से वीरभद्र और रणनीतिकारों की करारी हार हुई है बल्कि जिन लोगों को ब्रिगेड के नाम पर सामने ला दिया गया है कल को उनसे सवाल पूछे जायेंगे कि वह वीरभद्र की किन नीतियों के समर्थक हंै। क्योंकि भ्रष्टाचार के आरोपों से इस तरह के समर्थन से बाहर नहीं निकला जा सकता है।